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*[[भारत]] में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है।  
 
*[[भारत]] में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है।  
 
*यह व्रत [[आषाढ़]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[द्वादशी]] पर करना चाहिए।  
 
*यह व्रत [[आषाढ़]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[द्वादशी]] पर करना चाहिए।  
*इसमें देवता [[वासुदेव]] की पूजा, और वासुदेव के विभिन्न नामों एवं उनके व्यूहों के साथ पाद से सिर तक के सभी अंगों की पूजा, जलपात्र में रखकर तथा दो वस्त्रों से ढककर वासुदेव की स्वर्णिम प्रतिमा का पूजन तथा उसका दान करना चाहिए। यह व्रत [[नारद]] द्वारा [[वसुदेव]] एवं [[देवकी]] को बताया गया था।
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*इसमें देवता [[वासुदेव]] की पूजा, और वासुदेव के विभिन्न नामों एवं उनके व्यूहों के साथ पाद से सिर तक के सभी अंगों की पूजा, जलपात्र में रखकर तथा दो वस्त्रों से ढककर वासुदेव की स्वर्णिम प्रतिमा का पूजन तथा उसका दान करना चाहिए।  
*इसके करने से कर्ता के पाप कट जाते हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है या नष्ट हुआ राज्य पुन: मिल जाता है। हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1, 1036-1037, बहुत से श्लोक [[वराहपुराण]] के अध्याय 46 के हैं)।
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*यह व्रत [[नारद]] द्वारा [[वसुदेव]] एवं [[देवकी]] को बताया गया था।
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*इसके करने से कर्ता के पाप कट जाते हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है या नष्ट हुआ राज्य पुन: मिल जाता है।<ref>हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1, 1036-1037, बहुत से श्लोक [[वराह पुराण]] के अध्याय 46 के हैं)।</ref>
 
   
 
   
 
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०४:५१, ११ सितम्बर २०१० का अवतरण

  • भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।
  • यह व्रत आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वादशी पर करना चाहिए।
  • इसमें देवता वासुदेव की पूजा, और वासुदेव के विभिन्न नामों एवं उनके व्यूहों के साथ पाद से सिर तक के सभी अंगों की पूजा, जलपात्र में रखकर तथा दो वस्त्रों से ढककर वासुदेव की स्वर्णिम प्रतिमा का पूजन तथा उसका दान करना चाहिए।
  • यह व्रत नारद द्वारा वसुदेव एवं देवकी को बताया गया था।
  • इसके करने से कर्ता के पाप कट जाते हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है या नष्ट हुआ राज्य पुन: मिल जाता है।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1, 1036-1037, बहुत से श्लोक वराह पुराण के अध्याय 46 के हैं)।

संबंधित लिंक

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