सहस्रार्जुन जयंती  

सहस्रार्जुन जयंती
विवरण सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के तौर पर क्षत्रिय धर्म की रक्षा और सामाजिक उत्थान के लिए मनाई जाती है।
तिथि कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी
अनुयायी हिन्दू हैहयवंशी
स्थान सम्पूर्ण भारत
प्रारम्भ पौराणिक काल
संबंधित लेख हैहयवंश, कार्तवीर्य अर्जुन, कृतवीर्य, सहस्त्रबाहु और परशुराम
अन्य जानकारी इनकी कुलदेवी माँ दुर्गा जी, देवता शिवजी, वेद यजुर्वेद, शाखा वाजसनेयी, सूत्र परस्कारग्रहसूत्र, गढ़ खडीचा, नदी नर्वदा तथा ध्वज नील, शस्त्र-पूजन कटार और वृक्ष पीपल है, इनका जन्म का नाम एक-वीर था, जो कृतवीर्य के पुत्र होने के नाते कार्तवीर्य व अर्जुन तथा सहस्रभुजाएँ होने का वरदान होने के कारण सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाने जाते हैं तथा उनकी पूजा-अर्चना उनके अनुयायी सहस्त्रर्जुन के नाम से करते हैं। जो कि हैहयवंशियों को दीपोत्सव की ही तरह महाराज कार्तवीर्य अर्जुन की गरिमामयी इतिहास और उमंग की याद में उनके गुणगान और महिमा को धूम धाम से जयन्ती के रूप में मनाना चाहिए।

सहस्रार्जुन जयंती कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंशी क्षत्रियों में सर्वश्रेठ हैहयवंश एक उच्च कुल के क्षत्रिय हैं। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) जी का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।

सहस्रार्जुन जन्म कथा

वैवस्वतश्च तत्रपि यदा तु मनुरूतम:।
भविश्यति च तत्रैव पन्चविशतिमं यदा॥
कृतं नामयुगं तत्र हैहयान्वयवडॅ. न:।
भवता नृपतिविर्र: कृतवीर्य: प्रतापवान॥

मत्स्य पुराण में वर्णित उपरोक्त लोक का अर्थ है कि पचीसवें कृत युग के आरम्भ में हैहय कुल में एक प्रतापी राजा कार्तवीर्य राजा होगा जो सातो द्रवीपों और समस्त भूमंडल का परिपालन करेगा। स्मृति पुराण शास्त्र के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी, जो कि हिन्दी माह के कार्तिक महीने में सातवें दिन पड़ता है, दीपावली के ठीक बाद हर वर्ष मनाया जाता है। महिष्मति महाकाव्य के निम्न लोक के अनुसार यह चन्द्रवंश के महाराजा कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य-अर्जुन - हैहयवंश शाखा के 36 राजकुलों में से एक कुल से संबद्घ मानी जाती है। उक्त सभी राजकुलों में - हैहयवंश-कुल के राजवंश के कुलश्रेष्ठ राजा श्री राज राजेश्वर सहस्त्रवाहु अर्जुन समस्त सम-कालीन वंशों में सर्वश्रेष्ठ, सौर्यवान, परिश्रमी, निर्भीक और प्रजा के पालक के रूप की जाती है। यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पदमिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।

पूजा विधि

सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।

पुराण में कथा-वर्णन

श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है, महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानीशर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें तुवेशुं सबसे पितृ भक्त पुत्र थे। इन्हीं के वंश में कृतवीर्य तथा उनके पुत्र के रूप में कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुए कृतवीर्य के पुत्र होने के नाते ही उन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्रबांहों (भुजाओं) का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है। हरिवंश पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, कालिका पुराण, पदम पुराण में हैहयवंश और महिष्मति संबंधी रोचक विवरण पढ़ने को मिल सकती है जिसके अनुसार यदुवंश (भगवान कृष्ण के अवतार) के समकालीन शाखा ययाति वंश में हैहय वंश का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है। हरिवंश पुराण (अध्याय 38), वायु पुराण (अध्याय 2 व 32) तथा मत्स्य पुराण (अध्याय 42) में वर्णित है। इसी में कुछ ग्रंथों के अनुसार कंकोतक नाम वंशजों के साथ हैहय राजा कार्तवीर्य, सहस्रार्जुन या सहस्रर्बाहु ने युद्ध में जीत कर अपनी अधिपत्य में स्थापित करने का उल्लेख मिलता है। ययाति के वंशज को चन्द्रवंश शाखा का उदय माना जाता है, ययाति की दो रानियाँ थी। प्रथम भार्गव ऋषि शुक उषमा की पुत्री देवयानी और द्वितीय दैत्यराज वृष पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु और तुर्वस राजवंश तथा शर्मिष्ठा से दुह, अनु और पुरू नाम के पाँच पुत्र हुये। ययाति ने अपने राज्य को पाँक पुत्रों में बाँट दिया जिस कारण ययाति से पाँच राजवंशों का उदय हुआ। यदु से यादव राजवंश, तुर्वसु से तुर्वस राजवंश, दुह से दुह, अनु से आनव और पुरू से पौरव राजवंश का विस्तार हुआ। ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को चंबल-वेतवा और केन नदियों का मध्यवर्ती राज्य दिया। महाराज यदु के पाँच पुत्र हुये जिनमें सहसतजित, क्रोंत प्रमुख थे। यदु वंश के समकालीन तुर्वस राजवंश के अंतर्गत राजा तुर्वस के तीन पुत्र हुए जिसमें हैहय, हय और वेनुहय हुए, जिसमें हैहय के नाम से ही हैहयवंश का विस्तार हुआ और हैहयवंश की शाखा जाना जाता है। हैहयवंश के विस्तार में राजा साहज्ज के वंश के विस्तार में, राजा कनक के चार सुविख्यात पुत्र कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि हुये, जो समस्त विश्व में विख्यात थे। राजा कनक के ज्येष्ठ पुत्र कृतवीर्य उनके पश्चात् राज्य के उत्तराधिकारी बने। वे पुण्यवान प्रतापी राजा थे और अपने समकालीन राजाओं में वे सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते थे। इनकी रानी का नाम कौशिका था। महाराज कृतवीर्य से कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुये। इन्हें सहस्रार्जुन के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक ग्रंथों में कार्तवीर्य अर्जुन के अनेक नाम अंकित है जैसे सहस्रार्जुन, कृतवीर्यनन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि आदि। महाराज कार्तवीर्यार्जुन जी के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय जी एवं ब्रह्मा जी पधारें। राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी शस्त्र-अस्त्र धारण नहीं करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे। युद्ध दान धर्म दया एवं वीरता में उनके समान कोई नहीं था।

मान्यता

सहस्रबाहु अपने युग के एकमात्र राष्ट्रपुरुष एवं युगपुरुष ही नहीं बल्कि धर्मनिष्ठ एवं शौर्यवान थे। उन्होंने साक्षात भगवान के अवतार दत्तात्रेय जी को अपना गुरु माना और उन्हीं से अपनी सारी शिक्षा, दीक्षा तथा धनुर्विद्या का गुण सिखा था, बाद में उनका अपने तप और उपासना द्वारा प्रार्थना कर अपराजय होने और सहस्रभुजाओं के बल होने का वरदान प्राप्त किया था जिसके कारण ही वह सहस्रबाहु अर्जुन कहलाते हैं। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। वे परम भक्त और भृगुवंशी ब्राह्मण के यजमान थे। उनके जैसा दानवीर कोई और दूसरा शासक नहीं था। उन्होंने बहुत सारे यज्ञ और हवन का आयोजन कर प्रचुर मात्रा में ब्राहमणों को धन दान किया तथा प्रजा को हमेशा सुखी रखते थे।
महान राजा कार्तवीर्य ( सहस्रबाहु ) की संतान जीवन यापन हेतु अपनी क्षत्रिय विध्यता और युद्ध में अस्त्र-शस्त्र बनाने की कला का उपयोग धातु विज्ञान के जानकार होने के नाते बर्तन का व्यासाय अपनी रक्षा और बचाव के लिए किया था। हैहयवंश के बारे में किसी कवि ने कहा है -

इनके पुरखे एक दिन थे, भूपति के शिरमौर।
जिनकी संतान आज है, कहीं न पाती तौर॥

मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में इंदौर से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण में नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर महेश्वर जिसे महिष्मति के नाम से भी जाना जाता है, स्थित है। इस मंदिर के ठीक विपरीत नर्मदा के तट के दूसरे छोर पर नावदा टीला स्थान है जो कि ताम्रयुगीन संस्कृत का सूचक और अवशेष के रूप में माना जाता है। महाभारत में महेश्वरपुर और महिष्मति नगर या स्थान का उल्लेख भी देखने को मिलता है जो संभवत: महेश्वर या महिष्मति का ही बोधक है। एक अन्य पुराण पद्य के अनुसार महिष्मति में ही त्रिपुरसुर का वध हुआ था। लगभग सभी पुरानों और ग्रंथों में यदुवंश के समकालीन ययाति शाखा हैहयवंश का महिष्मति पर राज्य और अधिकार करने का वर्णन है, और महिष्मति ही हैहय वंश के राजाओं की राजधानी भी रही। पुराणों में यह भी वर्णित है कि त्रिपुर या त्रिपुरी का विध्वंस शिवजी ने महेश्वर में किया था, पुराणों में त्रिपुरी के मुख्य शासक तथा तर्कापुर के नाम भी मिलते हैं। मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हजार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हजार वर्ष दत्तात्रेय जी की उपासना करना बतलाया है। श्री राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे, विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भॉति सम्राट सहस्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे। उनकी अपार लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी। आज भी उनकी समाधी स्थल राजराजेश्वर मंदिर में उनकी देवतुल्य पूजा होती है। उन्हीं के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मत्स्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियों द्रष्ट्व्य हैं:-

यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानव:।
न तस्य वित्तनारा: स्यन्ना ट च लभते पुन:।
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमत:॥
यथावत स्वि टपूतात्मा स्वर्गलोके महित्ये॥

उक्त लोक के अनुसार जो प्राणी सुबह-सुबह उठ कर श्री कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का कभी नाश नहीं होता है और यदि कभी नष्ट हो भी जाय तो पुन: प्राप्त हो जाता है। हरिवंश पुराण के अनुसार जो मनुष्य सहस्रार्जुन के जन्म आदि का पाठ नित्यश: कहते और सुनते हैं उनका धन कभी नष्ट नहीं होता है तथा नष्ट हुआ धन पुन: वापस आ जाता है। इसी प्रकार जो लोग श्री सहस्रार्जुन भगवान के जन्म वृतांत की कथा की महिमा का वर्णन कहते और सुनाते हैं उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाती है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है।

वर्तमान सामाजिक परिवेश

परशुराम के भय और ऋषि जमदग्नि का श्राप ही मूलत: हैहयवंशी क्षत्रियों के अपने मूल स्वरूप को छिपाना त्रेता युग से अब तक एक बड़ा कारण रहा जो आज भी इस आधुनिक युग में से अछूता नहीं है। अत: वर्तमान में अब उस भय को भुलाना होगा और श्राप से मुक्ति पाने के लिए एक जन आन्दोलन के रूप में अपने मूल रूप, पहचान और गरिमामयी अस्तित्व को स्थपित करना होगा। परशुराम-सहस्रबाहु के घटना के बाद जब हैहयवंशीय क्षत्रियों को छिपना पड़ा तो हैहयवंशीय क्षत्रियों ने कई समुदायों और वर्गों में अपने को शामिल कर लिया ताकि उनके मूल रूप को पहचान परशुराम द्वारा नहीं की जा सके। बहुत से हैहयवंशीय गर्भवती स्त्रियाँ और विधवा स्त्रियाँ भी अपना वंश बचाने के लिए विभिन्न रूपों और समुदायों के वर्गों में शामिल हो गयी थी, जोकि परशुराम द्वारा सहस्रबाहु का अंत (दत्तात्रेय से मांगे वरदान मृत्यु अपने से श्रेष्ठ हाथों से हो) किये जाने के बाद भी उनका क्रोध शांत होने के पश्चात् भी जारी रहा। जोकि कलि युग के शुरू होने के साथ भी हैहयवंशियों को अपनी पहचान बताने में डर लगता रहा, और वह जिस समुदाय या वर्ग (जो अनेक प्रकार के कार्य करते थे ) में शामिल हो गए और उसी के कर्म अनुसार अपनी पहचान छिपा दी, उन्हीं समुदाय और वर्गों में अन्य समुदायों की तरह कांस्ययुग में कांस्य का काम करने के कारण कसेरा ( आधुनिक रूप कांस्यकार), ताम्रयुग में तांबे का काम करने के कारण तमेरा (आधुनिक रूप ताम्रकार) इसी प्रकार अन्य प्रान्तों, जगहों में परिवेश अनुसार अनेक प्रकार के संबोधनों से बहुत सारे उप-नाम प्रचलित हैं, उत्तर पूर्व और मध्य भारत के कई राज्यों में बर्तन बनाने और उसका व्यावसाय करने का काम हैहयवंशियों द्वारा प्रचुर मात्र में किया जाता रहा है, जोकि वास्तव में हैहयवंश क्षत्रिय वंश / जाति के वंशज हैं।



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