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− | एक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु देवाधिदेव महादेव का पूजन करने के लिए [[काशी]] आए। वहाँ मणिकर्णिका घाट पर स्नान करके उन्होंने एक हज़ार स्वर्ण कमल पुष्पों से भगवान विश्वनाथ के पूजन का संकल्प किया। अभिषेक के बाद जब वे पूजन करने लगे तो शिवजी ने उनकी [[भक्ति]] की परीक्षा के उद्देश्य से एक कमल पुष्प कम कर दिया। भगवान श्रीहरि को पूजन की पूर्ति के लिए एक हज़ार [[कमल]] पुष्प चढ़ाने थे। एक [[पुष्प]] की कमी देखकर उन्होंने सोचा मेरी [[आंख| | + | *एक अन्य कथानक के अनुसार भगवान विष्णु ने [[नारद]] को वचन दिया था कि जो नर-नारी इस दिन व्रत करेंगे, उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जायेंगे और वे यह लीला समाप्त कर बैकुंठ में निवास करेंगे। [[कार्तिक पूर्णिमा]] के ठीक एक दिन पहले पड़ने वाले इस व्रत का एक महत्व यह भी है कि यह व्रत '[[देवोत्थान एकादशी]]' के ठीक तीन दिन बाद ही होता है। बैकुंठ के दिन श्री विष्णु जी की पूजा रात में करने का विधान है। |
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०५:२५, ४ फ़रवरी २०२१ के समय का अवतरण
बैकुंठ चतुर्दशी
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विवरण | 'बैकुंठ चतुर्दशी' का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। यह तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। |
अनुयायी | हिन्दू, भारतीय, प्रवासी भारतीय। |
तिथि | कार्तिक माह, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी तिथि। |
मान्यता | इस दिन बैकुंठाधिपति भगवान विष्णु की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और बैकुंठ धाम में निवास प्राप्त होता है। |
संबंधित लेख | विष्णु की आरती, विष्णु-वन्दना, विष्णु के अवतार, सत्यनारायण जी की आरती |
अन्य जानकारी | बैकुंठ चतुर्दशी के व्रत आदि का उल्लेख श्रीमद्भागवद के सातवें स्कन्द के पाँचवें अध्याय के श्लोक 23 तथा 24 में हुआ है। |
बैकुंठ चतुर्दशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को कहते हैं। इसका उल्लेख 'निर्णयसिन्धु'[१] में हुआ है। इसके अतिरिक्त 'स्मृतिकौस्तुभ'[२] तथा 'पुरुषार्थचिंतामणि'[३] में भी इस चतुर्दशी का वर्णन हुआ है। दुर्घटना रहित जीवन की कामना रखने वाले को इस दिन श्रीविष्णु का नाम स्मरण करना चाहिए। बेहतर नौकरी और कैरियर के लिए बैकुंठ चतुर्दशी के दिन नतमस्तक होकर भगवान विष्णु को प्रणाम करना चाहिए और सप्त ऋषियों का आवाहन उनके नामों से करना चाहिए।
कथा
कथा है कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष कि चतुर्दशी को हेमलंब वर्ष में अरुणोदय काल में, ब्रह्म मुहूर्त में स्वयं भगवान विष्णु ने वाराणसी में मणिकर्णिका घाट पर स्नान किया था। पाशुपत व्रत करके विश्वेश्वर ने यहाँ पूजा कि थी। तभी से इस दिन को 'काशी विश्वनाथ स्थापना दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि बैकुंठाधिपति भगवान विष्णु की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और बैकुंठ धाम में निवास प्राप्त होता है।
- एक अन्य कथानक के अनुसार भगवान विष्णु ने नारद को वचन दिया था कि जो नर-नारी इस दिन व्रत करेंगे, उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जायेंगे और वे यह लीला समाप्त कर बैकुंठ में निवास करेंगे। कार्तिक पूर्णिमा के ठीक एक दिन पहले पड़ने वाले इस व्रत का एक महत्व यह भी है कि यह व्रत 'देवोत्थान एकादशी' के ठीक तीन दिन बाद ही होता है। बैकुंठ के दिन श्री विष्णु जी की पूजा रात में करने का विधान है।
- एक और कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु देवाधिदेव महादेव का पूजन करने के लिए काशी आए। वहाँ मणिकर्णिका घाट पर स्नान करके उन्होंने एक हज़ार स्वर्ण कमल पुष्पों से भगवान विश्वनाथ के पूजन का संकल्प किया। अभिषेक के बाद जब वे पूजन करने लगे तो शिवजी ने उनकी भक्ति की परीक्षा के उद्देश्य से एक कमल पुष्प कम कर दिया। भगवान श्रीहरि को पूजन की पूर्ति के लिए एक हज़ार कमल पुष्प चढ़ाने थे। एक पुष्प की कमी देखकर उन्होंने सोचा मेरी आँखेंं भी तो कमल के ही समान हैं। मुझे 'कमल नयन' और 'पुंडरीकाक्ष' कहा जाता है। यह विचार कर भगवान विष्णु अपनी कमल समान आंख चढ़ाने को प्रस्तुत हुए। विष्णु जी की इस अगाध भक्ति से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव प्रकट होकर बोले- "हे विष्णु! तुम्हारे समान संसार में दूसरा कोई मेरा भक्त नहीं है। आज की यह कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी अब 'बैकुंठ चतुर्दशी' कहलायेगी और इस दिन व्रत पूर्वक जो पहले आपका पूजन करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी।
व्रत विधि
बैकुंठ चतुर्दशी के व्रत आदि का उल्लेख श्रीमद्भागवद के सातवें स्कन्द के पाँचवें अध्याय के श्लोक 23 तथा 24 में हुआ है-
श्रवण कीर्तन विष्णो: स्मरण याद्सेवनम ;
अर्चन वन्दन दास्य सख्यामातम निवेदनम।
अर्थात् कथाएँ सुनकर, कीर्तन करके, नाम स्मरण करके, विष्णु जी की मूर्ति के रूप में, सखाभाव से आप अपने को श्री विष्णु जी को समर्पित करें।
इस दिन प्रात: काल में स्नानादि से निवृत्त होकर दिन भर व्रत रखकर विष्णु भगवान की कमल पुष्प से पूजा की जानी चाहिए। तत्पश्चात् भगवान शंकर की भी विधिवत पूजा करनी चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निर्णयसिन्धु पृष्ठ 206
- ↑ स्मृतिकौस्तुभ, पृष्ठ 388-389
- ↑ पुरुषार्थचिंतामणि, पृष्ठ 246-247
संबंधित लेख
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