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'''अमावस्या''' की तिथि का [[हिन्दू धर्म]] में बड़ा ही महत्त्व बताया गया है। जिस तिथि में [[चन्द्रमा ग्रह|चन्द्रमा]] और [[सूर्य ग्रह|सूर्य]] साथ रहते हैं, वही 'अमावास्या' तिथि है। इसे 'अमावसी' भी कहा जाता है। इसके साथ ही 'सिनीवाली' या 'दर्श' नाम भी प्राप्त होते हैं। अमावास्या माह की तीसवीं तिथि होती है। [[कृष्ण पक्ष]] की [[प्रतिपदा]] को कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होता है तथा अमावास्या का समाप्त होता है। अमावास्या पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है।
 
'''अमावस्या''' की तिथि का [[हिन्दू धर्म]] में बड़ा ही महत्त्व बताया गया है। जिस तिथि में [[चन्द्रमा ग्रह|चन्द्रमा]] और [[सूर्य ग्रह|सूर्य]] साथ रहते हैं, वही 'अमावास्या' तिथि है। इसे 'अमावसी' भी कहा जाता है। इसके साथ ही 'सिनीवाली' या 'दर्श' नाम भी प्राप्त होते हैं। अमावास्या माह की तीसवीं तिथि होती है। [[कृष्ण पक्ष]] की [[प्रतिपदा]] को कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होता है तथा अमावास्या का समाप्त होता है। अमावास्या पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है।
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==नामकरण==
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अमावस्या के नामकरण हेतु '[[मत्स्य पुराण]]' के 14वें अध्याय में एक रूपक कथा आती है, जिसके अनुसार- प्राचीन काल में पितरों ने 'आच्छोद' नामक एक सरोवर का निर्माण किया था। इन देव पितरों की एक मानसी कन्या थी, जिसका नाम था 'अच्छोदा'। अच्छोदा ने एक बार एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक कठिन तप किया। अतः उसे वर देने के लिये पितरगण पधारे। उनमें से एक अतिशय सुन्दर 'अमावसु' नामक [[पितर]] को देखकर 'अच्छोदा' उन पर अनुरक्त हो गई और अमावसु से प्रणय याचना करने लगी। किन्तु अमावसु इसके लिये तैयार नहीं हुये। अमावसु के धैर्य के कारण उस दिन की तिथि पितरों को अतिशय प्रिय हुई। उस दिन [[कृष्ण पक्ष]] की पंचदशी तिथि थी, जो कि तभी से 'अमावसु' के नाम पर 'अमावस्या' कहलाने लगी।
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<poem>तिथामवसुर्यस्यामिच्छां चक्रे न तां प्रति।
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धैर्येण तस्य सा लोकैः अमावस्येति विश्रुता।
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पितृणां वल्लभा मस्मात्तस्यामक्षयकारकम्।।</poem>
 
==महत्त्व==
 
==महत्त्व==
 
अमावास्या के स्वामी '[[पितर]]' होते हैं। इस तिथि में चन्द्रमा की सोलहवीं कला [[जल]] में प्रविष्ट हो जाती है। चन्द्रमा का वास अमावास्या के दिन औषधियों में रहता है, अतः [[जल]] और औषधियों में प्रविष्ट उस अमृत का ग्रहण [[गाय]], बैल, [[भैंस]] आदि पशु चारे एवं पानी के द्वारा करते हैं, जिससे वहीं अमृत हमें [[दूध]], [[घी]] आदि के रूप में प्राप्त होता है और उसी घृत की आहुति ऋषिगण [[यज्ञ]] के माध्यम से पुनः [[चंद्र देवता|चन्द्रादि]] [[देवता|देवताओं]] तक पहुँचाते हैं। वही अमृत फिर बढ़कर [[पूर्णिमा]] को चरम सीमा पर पहुँचता है; जैसा कि कथन है-
 
अमावास्या के स्वामी '[[पितर]]' होते हैं। इस तिथि में चन्द्रमा की सोलहवीं कला [[जल]] में प्रविष्ट हो जाती है। चन्द्रमा का वास अमावास्या के दिन औषधियों में रहता है, अतः [[जल]] और औषधियों में प्रविष्ट उस अमृत का ग्रहण [[गाय]], बैल, [[भैंस]] आदि पशु चारे एवं पानी के द्वारा करते हैं, जिससे वहीं अमृत हमें [[दूध]], [[घी]] आदि के रूप में प्राप्त होता है और उसी घृत की आहुति ऋषिगण [[यज्ञ]] के माध्यम से पुनः [[चंद्र देवता|चन्द्रादि]] [[देवता|देवताओं]] तक पहुँचाते हैं। वही अमृत फिर बढ़कर [[पूर्णिमा]] को चरम सीमा पर पहुँचता है; जैसा कि कथन है-
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हुतमग्निषु यज्ञेशु पुनराप्यायते शशी।।
 
हुतमग्निषु यज्ञेशु पुनराप्यायते शशी।।
 
दिने दिने कला वृद्धिः पौर्णमास्यां तु पूर्यते।।</poem></blockquote>
 
दिने दिने कला वृद्धिः पौर्णमास्यां तु पूर्यते।।</poem></blockquote>
 
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==महत्त्वपूर्ण तथ्य==
*अमावास्या में वनस्पतियों में सोम का वास होने से उस दिन बैलों को हल में जोतने का पूर्णतः निषेध 'स्मृतियों' में किया गया है। उस दिन बैलों को पूरे दिन चरने के लिये छोड़ देना चाहिये, जिससे चारे के द्वारा अमृत कला का पान कर वे अपने शरीर को पुष्ट कर कृषि कार्य में अधिक सहयोग कर सकें।  
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*अमावास्या तिथि में वनस्पतियों में [[सोम देव|सोम]] का वास होने से उस दिन बैलों को हल में जोतने का पूर्णतः निषेध 'स्मृतियों' में किया गया है। उस दिन बैलों को पूरे दिन चरने के लिये छोड़ देना चाहिये, जिससे चारे के द्वारा अमृत कला का पान कर वे अपने शरीर को पुष्ट कर [[कृषि]] के कार्य में अधिक सहयोग कर सकें।  
*अमावास्या को क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों का निषेध है।
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*इस तिथि को क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों का निषेध है।
 
*अमावास्या की दिशा ईशान है।
 
*अमावास्या की दिशा ईशान है।
*अमावास्या को [[शिव]]वास [[गौरी]] के सान्निधय में होने से उस दिन शिवपूजन किया जा सकता है।
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*इस तिथि पर भगवान [[शिव]] और [[गौरी]] के सान्निधय में होने से उस दिन शिवपूजन किया जा सकता है।
*विशेष – अमावास्या तिथि [[केतु ग्रह]] की जन्म तिथि है।  
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*अमावास्या तिथि [[केतु देव|केतु]] की जन्म तिथि है।
*अमावास्या के नामकरण हेतु [[मत्स्य पुराण]] के 14 वें अध्याय में एक रूपक कथा आती है, जिसके अनुसार प्राचीन काल में पितरों ने 'आच्छोद' नामक एक सरोवर का निर्माण किया था। इन देव पितरों की एक मानसी कन्या थी, जिसका नाम था- अच्छोदा। अच्छोदा ने एक बार एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक कठिन तप किया। अतः उसे वर देने के लिये पितरगण पधारे। उनमें से एक अतिशय सुन्दर 'अमावसु' नामक पितर को देखकर 'अच्छोदा' उन पर अनुरक्त हो गई और अमावसु से प्रणय याचना करने लगी। किन्तु अमावसु इसके लिये तैयार नहीं हुये। अमावसु के धैर्य के कारण उस दिन की तिथि पितरों को अतिशय प्रिय हुई। उस दिन [[कृष्ण पक्ष]] की पंचदशी तिथि थी, जो कि तभी से 'अमावसु' के नाम पर ‘अमावस्या’ कहलाने लगी।
 
<poem>तिथामवसुर्यस्यामिच्छां चक्रे न तां प्रति।
 
धैर्येण तस्य सा लोकैः अमावस्येति विश्रुता।
 
पितृणां वल्लभा मस्मात्तस्यामक्षयकारकम्।।</poem>
 
 
*इस तिथि में पितरों के उद्देश्य से किया गया दानादि अक्षय फलदायक होता है।
 
*इस तिथि में पितरों के उद्देश्य से किया गया दानादि अक्षय फलदायक होता है।
*अमावास्या [[पंचांग]] के अनुसार [[माह]] की 30वीं तिथि है।
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*अमावास्या [[पंचांग]] के अनुसार [[माह]] की 30वीं तिथि तथा [[कृष्ण पक्ष]] की अंतिम तिथि है।  
*अमावास्या [[कृष्ण पक्ष]] की अंतिम तिथि है।  
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*इस दिन [[चंद्रमा]] [[आकाश तत्त्व|आकाश]] में दिखाई नहीं देता।  
*इस दिन [[चंद्र देवता|चंद्रमा]] [[आकाश तत्त्व|आकाश]] में दिखाई नहीं देता।  
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*प्रत्येक माह की अमावास्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं।
*इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं।
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*'वर्षक्रियाकौमुदी' (9-10) में [[महाभारत]] एवं [[पुराण|पुराणों]] से उद्धरण हैं।<ref>हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, पृ0 311-315; 643-44), कालविवेक (343-44), तिथितत्त्व (163), गोभिल-गृह्य (1|5|5) का भाष्य, पुरुषार्थ-चिन्तामणि (314-345) </ref>
*हर माह की अमावास्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं।
 
*वर्षक्रियाकौमुदी (9-10) में [[महाभारत]] एवं [[पुराण|पुराणों]] से उद्धरण हैं<ref>हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, पृ0 311-315; 643-44), कालविवेक (343-44), तिथितत्त्व (163), गोभिल-गृह्य (1|5|5) का भाष्य, पुरुषार्थ-चिन्तामणि (314-345) </ref>
 
 
*[[सोमवार]], [[मंगलवार]] या [[बृहस्पतिवार]] के दिन तथा [[अनुराधा नक्षत्र|अनुराधा]], [[विशाखा नक्षत्र|विशाखा]] एवं [[स्वाति नक्षत्र|स्वाति नक्षत्रों]] में पड़ने वाली अमावास्या विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है।<ref>हेमाद्रि व्रतखण्ड (2, 246-257), माधवकृत कालनिर्णय (309) एवं व्रतार्क (334-356</ref>
 
*[[सोमवार]], [[मंगलवार]] या [[बृहस्पतिवार]] के दिन तथा [[अनुराधा नक्षत्र|अनुराधा]], [[विशाखा नक्षत्र|विशाखा]] एवं [[स्वाति नक्षत्र|स्वाति नक्षत्रों]] में पड़ने वाली अमावास्या विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है।<ref>हेमाद्रि व्रतखण्ड (2, 246-257), माधवकृत कालनिर्णय (309) एवं व्रतार्क (334-356</ref>
  

१२:३२, १९ सितम्बर २०१३ का अवतरण

अमावस्या की तिथि का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व बताया गया है। जिस तिथि में चन्द्रमा और सूर्य साथ रहते हैं, वही 'अमावास्या' तिथि है। इसे 'अमावसी' भी कहा जाता है। इसके साथ ही 'सिनीवाली' या 'दर्श' नाम भी प्राप्त होते हैं। अमावास्या माह की तीसवीं तिथि होती है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होता है तथा अमावास्या का समाप्त होता है। अमावास्या पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है।

नामकरण

अमावस्या के नामकरण हेतु 'मत्स्य पुराण' के 14वें अध्याय में एक रूपक कथा आती है, जिसके अनुसार- प्राचीन काल में पितरों ने 'आच्छोद' नामक एक सरोवर का निर्माण किया था। इन देव पितरों की एक मानसी कन्या थी, जिसका नाम था 'अच्छोदा'। अच्छोदा ने एक बार एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक कठिन तप किया। अतः उसे वर देने के लिये पितरगण पधारे। उनमें से एक अतिशय सुन्दर 'अमावसु' नामक पितर को देखकर 'अच्छोदा' उन पर अनुरक्त हो गई और अमावसु से प्रणय याचना करने लगी। किन्तु अमावसु इसके लिये तैयार नहीं हुये। अमावसु के धैर्य के कारण उस दिन की तिथि पितरों को अतिशय प्रिय हुई। उस दिन कृष्ण पक्ष की पंचदशी तिथि थी, जो कि तभी से 'अमावसु' के नाम पर 'अमावस्या' कहलाने लगी।

तिथामवसुर्यस्यामिच्छां चक्रे न तां प्रति।
धैर्येण तस्य सा लोकैः अमावस्येति विश्रुता।
पितृणां वल्लभा मस्मात्तस्यामक्षयकारकम्।।

महत्त्व

अमावास्या के स्वामी 'पितर' होते हैं। इस तिथि में चन्द्रमा की सोलहवीं कला जल में प्रविष्ट हो जाती है। चन्द्रमा का वास अमावास्या के दिन औषधियों में रहता है, अतः जल और औषधियों में प्रविष्ट उस अमृत का ग्रहण गाय, बैल, भैंस आदि पशु चारे एवं पानी के द्वारा करते हैं, जिससे वहीं अमृत हमें दूध, घी आदि के रूप में प्राप्त होता है और उसी घृत की आहुति ऋषिगण यज्ञ के माध्यम से पुनः चन्द्रादि देवताओं तक पहुँचाते हैं। वही अमृत फिर बढ़कर पूर्णिमा को चरम सीमा पर पहुँचता है; जैसा कि कथन है-

कला षोडशिका या तु अपः प्रविशते सदा।
अमायां तु सदा सोमः औषधिः प्रतिपद्यते।।
तमोषधिगतं गावः पिबन्त्यम्बुगतं च यत्।
तत्क्षीरममृतं भुत्वा मन्त्रपूतं द्विजातिभिः।
हुतमग्निषु यज्ञेशु पुनराप्यायते शशी।।
दिने दिने कला वृद्धिः पौर्णमास्यां तु पूर्यते।।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • अमावास्या तिथि में वनस्पतियों में सोम का वास होने से उस दिन बैलों को हल में जोतने का पूर्णतः निषेध 'स्मृतियों' में किया गया है। उस दिन बैलों को पूरे दिन चरने के लिये छोड़ देना चाहिये, जिससे चारे के द्वारा अमृत कला का पान कर वे अपने शरीर को पुष्ट कर कृषि के कार्य में अधिक सहयोग कर सकें।
  • इस तिथि को क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों का निषेध है।
  • अमावास्या की दिशा ईशान है।
  • इस तिथि पर भगवान शिव और गौरी के सान्निधय में होने से उस दिन शिवपूजन किया जा सकता है।
  • अमावास्या तिथि केतु की जन्म तिथि है।
  • इस तिथि में पितरों के उद्देश्य से किया गया दानादि अक्षय फलदायक होता है।
  • अमावास्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं तिथि तथा कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है।
  • इस दिन चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता।
  • प्रत्येक माह की अमावास्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं।
  • 'वर्षक्रियाकौमुदी' (9-10) में महाभारत एवं पुराणों से उद्धरण हैं।[१]
  • सोमवार, मंगलवार या बृहस्पतिवार के दिन तथा अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति नक्षत्रों में पड़ने वाली अमावास्या विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, पृ0 311-315; 643-44), कालविवेक (343-44), तिथितत्त्व (163), गोभिल-गृह्य (1|5|5) का भाष्य, पुरुषार्थ-चिन्तामणि (314-345)
  2. हेमाद्रि व्रतखण्ड (2, 246-257), माधवकृत कालनिर्णय (309) एवं व्रतार्क (334-356

अन्य संबंधित लिंक

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