अजय कुमार सोनकर  

अजय कुमार सोनकर

अजय कुमार सोनकर (अंग्रेज़ी: Ajay Kumar Sonkar) भारतीय वैज्ञानिक हैं। उन्होंने टिश्यू कल्चर के ज़रिए फ़्लास्क में मोती उगाने का काम कर दिखाया है। सरल शब्दों में कहें तो सीप के अंदर जो टिश्यू होते हैं, उन्हें बाहर निकालकर कृत्रिम वातावरण में रखकर उसमें मोती उगाने का करिश्मा उन्होंने किया है। समुद्री जीव जंतुओं की दुनिया पर केंद्रित साइंटिफ़िक जर्नल 'एक्वाक्लचर यूरोप सोसायटी' के सितंबर, 2021 के अंक में डॉक्टर अजय सोनकर के इस नए रिसर्च को प्रकाशित किया गया था। साल 2022 में भारत सरकार ने अजय कुमार सोनकर को पद्म श्री से सम्मानित किया है।

परिचय

डॉ. अजय कुमार सोनकर ने सीप के अंग से नैनी स्थित अपनी प्रयोगशाला में मोती बनाई। इस उपलब्धि पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने डॉ. अजय सोनकर की सराहना की थी। डॉ. सोनकर ने सबसे पहले अंडमान-निकोबार में काली मोती बनाकर दुनियाभर के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया था। उनकी इस उपलब्धि को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने तारीफ की थी। डॉ. सोनकर तब से ही मोती के नए-नए स्वरूप पर खोज करते रहे। इस खोज के लिए डॉ. सोनकर ने अंडमान निकोबार को अपना शोध केंद्र बनाया। साल 2021 कोरोना की दूसरी लहर के समय अंडमान निकोबार की सारी गतिविधियां ठप हो गई थीं। तब अजय कुमार सोनकर ने नैनी स्थित प्रयोगशाला में विशेष तकनीक के जरिए मेंटल टिश्यू से मोती बनाई। डॉ. अजय कुमार सोनकर मोती बनाने के लिए अंडमान निकोबार से सीप पिन्कटाडा मार्जरीटिफेरा के मेंटल टिश्यू प्रयागराज स्थित अपनी प्रयोगशाला में लेकर आए थे।[१]

प्रयोगशाला में बनाया समुद्री वातावरण

अंडमान निकोबार द्वीप समूह से सीप के टिश्यू कल्चर को प्रयागराज की प्रयोगशाला में लाकर मोती बनाना वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार सोनकर के लिए आसान काम नहीं था। इस प्रयोग में उनके समक्ष दो तरह की चुनौती थी। अंडमान निकोबार द्वीप समूह से दो हजार किलोमीटर दूर प्रयागराज की लैब तक टिश्यू कल्चर को लाना डॉ. सोनकर के लिए पहली चुनौती। इसमें वे सफल हो गए। 72 घंटे की लंबी यात्रा के बाद टिश्यू कल्चर यहां जीवित पहुंचे।

सफलता

डॉ. अजय कुमार सोनकर के लिए नैनी की प्रयोगशाला में समुद्री वातावरण तैयार करना दूसरी बड़ी चुनौती थी। इसके लिए उन्होंने कल्चर माध्यम में तमाम पोषक तत्वों का प्रयोग किया। मेंटल के लिए समुद्री पर्यावरण के मुताबिक बीओडी (बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड) व कार्बन डाइऑक्साइड इनक्यूबेटर की व्यवस्था की, ताकि उसमें टिश्यू कल्चर जीवित रह सकें। डॉक्टर सोनकर का यह प्रयोग भी सफल रहा। इसके बाद उन्होंने टिश्यू कल्चर से मोती बनाने का शोध शुरू किया। इस शोध में ऐसे कल्चर मीडियम व सप्लीमेंट्स को खोज निकाला जिसमें चिपके मेंटल के मोती बनाने की प्रकृति को जागृत कर दिया। अंततः डॉक्टर अजय सोनकर अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम व अति अनुकूल समुद्री वातावरण तैयार कर मेंटल से मोती बनाने में सफल हो गए।

प्रयोगशाला की बर्बादी

विज्ञान और अभियांत्रिकी के क्षेत्र में पद्म श्री पाने वाले प्रयागराज के वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार सोनकर की शोध यात्रा आसान नहीं थी। प्रयागराज में छोटे-छोटे शोध के बाद डॉ. सोनकर अंडमान निकोबार द्वीप समूह गए। वहीं प्रयोगशाला स्थापित की। डॉ. सोनकर स्थाई तौर पर वर्ष 2003 से वहां शोध करने लगे। 2004 में आई सुनामी ने डॉ. सोनकर की प्रयोगशाला को तबाह कर दिया। सुनामी के पहले डॉ. सोनकर काली मोती बनाकर दुनियाभर में मशहूर हो चुके थे। डॉ. सोनकर ने इस तबाही के बाद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। प्रयोगशाला को फिर से खड़ा कर दिया।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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