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भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा -डॉ. रघुवंश  

यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
लेखक- डॉ. रघुवंश

          भाषा के प्रश्न को भावुकता और भावावेश के स्तर पर उठान से उसको सही परिप्रेक्ष्य में देख पाना संभव नहीं है जब कि देश के स्वाधीन होने के बाद के पिछले दशकों में इसी स्तर पर समस्या को उलझाया गया है। रोचक बात है कि उन्नीसवी शती के भारतीय पुनर्जागरण के नेताओं से लेकर स्वाधीनता संघर्ष के विभिन्न चरणों के नेताओं तक ने भाषा के प्रश्न पर वस्तुपुरक और निरपेक्ष रूप में सोचा समझा। उनके विचारों से स्पष्ट है कि उनकी भाषा की समझ और पकड़ व्यापक एवं गहरी है। उसका कारण है कि उनके सामने पूरा देश, समाज और उसकी लंबी और व्यापक परंपरा रही है। उनके सामने देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रगति वास्तविक अर्थ में तभी संभव है, जब किसी न किसी रूप में भारतीय समाज एक स्तर पर संश्लिष्ट हो सके और वह अपने ऐसे व्यक्तित्व को खोज सके। इस व्यक्तित्व और उसके संश्लेष की बात को बौद्धिक के (पश्चिमी प्रभाव के) एक वर्ग के लोग एक मात्र परिकल्पना कह कर हवाई और प्रतिगामी कहते रहे हैं। उसके स्थान पर भारत की सम्मिश्रित संस्कृति की चर्चा करके अंग्रेज़ी के माध्यम की पक्षधरता करते आए हैं। सच तो है, यह वर्ग भाषा के प्रश्न को मात्र अपने निहित स्वार्थ से जोड़ता है, और इस कारण इसको व्यापक और गहरे संदर्भों में जोड़ने में असमर्थ रहा।
          आज देश की पूरी परिस्थिति के संदर्भ में ही भाषा के बारे में सही दृष्टि पाई जा सकती है। जिन सामाजिक, राजनीतिक तत्वों को स्वाधीन होने के बाद अधिक संगठित और शक्तिशाली हाने का मौका मिला है, उन्होंने देश की सारी अर्थ व्यवस्था को वर्ग विशेष के हित में नियोजित करने मे सफलता पा ली है। शक्तिशाली नेतावर्ग, किसी भी दल का हो, सर्वाधिक पूंजी को नियंत्रित करने वाला पूंजीपति वर्ग और उच्चतम स्तर पर शासनतंत्र को चलाने वाला अधिकारी वर्ग, इन तीनों में अनजान ऐसा समझौता है कि सारी समाजवादी परिकल्पनाओं और घोषणाओं तथा लोक कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद हमारे देश, समाज, के ऊपरी सतह पर ये वर्ग और इनके साथ जुड़ा हुआ समाज वास्तविक लाभ उठा रहा है। ऊपरी सतह का यह समाज अपने लिए सारे सुख भाग के साधन जुटा रहा है और देश बृहत्तर समाज रोजी रोटी के संघर्ष मे भी धीरे धीरे पीछे हटता जा रहा है।
          अंग्रेजी कूटनीतिक मेधा ने राजनीतिक शासन और अधिक शोषण के लिए भारत में अंग्रेजी भाषा को महत्वपूर्ण माध्यम स्वीकार किया था। शासक वर्ग की शक्ति और सत्ता को स्थापित रखने के लिए अंग्रेजी भाषा उन्हें जन समाज से अलग करती थी। साथ में आने वाले भारतीय को मानस और पहचान में अपने ही समाज से अलग करती थी। शासन और सत्ता के प्रति भय और आतंक पैदा करने में भी सहायक रही। संसार में उभरते हुए नए शक्ति संतुलन के कारण अंग्रजों को भारत छोड़ना पड़ा, पर देश के विभाजन के अभिशाप के साथ पूरे समाज में अलग मानसिकता रखने वाले अंग्रेजी जानने वाले वर्ग को अपने शासन तंत्र के साथ छोड़ा। शुरु में यह वर्ग चकित एवं विभ्रमित ज़रूर था, पर क्रमशः सत्ता की राजनीति और पूंजीवादी शक्ति के संगठन के साथ जुड़कर प्रभावी बनता गया।
          विभिन्न वर्गों से बने हुए समाज की यह ऊपरी सतह अपने निहित स्वार्थ की दृष्टि से पूरे जन समाज के साथ न तादात्म्य स्थापित करना चाहती है और न बातचीत करना। इसके लिए सुविधा की भाषा अंग्रेजी है। ज्ञान, विज्ञान, प्रविधि और बहुमुखी विकास के नाम पर अंग्रेजी की दुहाई दी जाती है और इस जगह सभी प्रदेशों के इस सतह के लोग एक हो गए हैं। एक ओर छियासठ करोड़ जनता के विकास की बात की जाएगी दूसरी ओर ज्ञान, विज्ञान और प्रविधि को ऊपर से नीचे तक छनते जाने का कोई उपाय नहीं है। और न ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर तक किसी प्रकार का आदान प्रदान संभव नहीं हे।
          इस सतह के इन वर्गों में संख्या विस्तार होता चल रहा है। पढ़े लिखे बौद्धिक वर्ग की एक विडंबना है, वह बौद्धिक स्तर पर भले ही परिस्थिति के यथार्थ को समझ सके और कारणों को विश्लेषित भी कर सके, पर उसके मन में सुख सुविधाओं का ऐसा आकर्षण रहता है कि इस वृत्त में शामिल होने के लिए लालायित रहा है। तब इसका इस्तेमाल आसान हो जाता है। ये सारे लोग और इस सतह का समाज अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए भाषा के सवाल उलझाता रहता है। इसी समाज ने हिन्दी बनाम भारतीय भाषाओं का सवाल उठा लिया है। इस सवाल को लेकर धुंध इस प्रकार फैलाई गई है कि जैसे हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अलग पक्ष हैं, उनमें कहीं विरोध है। जब कि सीधा सवाल अंग्रेजी बनाम सभी भारतीय भाषाओं का है। हिन्दी भारतीय भाषाओं के साथ ही है, अलग नहीं, ऊपर नहीं। हिन्दी अंग्रेजी के स्थान पर नहीं है, यह स्पष्ट है। कुछ अतिवादी लोग हर जगह और हर युग में होते हैं, पर उनकी बात व्यर्थ है। यह तो नितांत स्पष्ट है और सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने स्पष्टतः कहा है कि हर प्रदेश के भाषा अपने प्रदेश के संपूर्ण व्यवहार और अभिव्यक्ति की भाषा है।
          परंतु यह निश्चित स्वार्थ का वर्ग समाज बार बार प्रदेशों की भाषाओं के विरोध में हिदी को रखता है। सच तो यह है कि वह प्रदेश की भाषाओं को पनपने नहीं देना चाहता। क्योंकि इन भाषाओं के व्यापक प्रयोग के विकास के साथ इनका अस्तित्व खतरे में है। इस प्रकार सामान्य जन समान सहज ऊपर आ जाएगा। मजे की बात है कि हिन्दी के विरुद्व इस सामान्य जन समाज को भड़काने वाले लोग ही इन भाषाओं के प्रच्छन्न विरोधी है। दूसरी स्तर पर यह नारा भी दिया जाता है कि संसार के ज्ञान विज्ञान के अंग्रेजी की अनुपस्थिति में कट जाने की संभावना है। यहाँ यह तर्क विकृत रूप में रखा जाता है, क्योंकि अंग्रेजी ही क्यों, आवश्यकतानुसार संसार की सभी उन्नत भाषाओं से ज्ञान विज्ञान निरंतर ग्रहण किया जा सकता है। पर इस ज्ञान विज्ञान प्रविधि के व्यापक और नीचे तक लाभ पहँुचाने के लिए उसके छनने की प्रक्रिया अनिवार्य है, जो जन भाषा के माध्यम से भी संभव है।
          सत्ता के प्रभाव के माध्यम से इस तरह पर संगठित होने वाले वर्ग अपनी स्थिति बनाए रखने एवं अधिक सुदृढ करते चलने के लिए साधारण जन समाज को अनेक प्रकार से विभ्रमित करते रहते हैं। यह बराबर भ्रम पैदा किया जाता है कि हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले रही है, जब कि ऐसा नहीं है। अंग्रेजी समस्त भारतीय भाषाओं के स्थान पर प्रदेशों मे इस्तेमाल में आती आ रही है। पर हमारी भाषा नीति के अनुसार समस्त प्रदेशों की अपने भाषाएँ उनके समस्त कार्यों और व्यवहार की भाषाएँ हांगी। हिन्दी का उपयोग अंतप्रदेशीय संपर्क और केंद्रीय व्यवहार के लिए माना गया है। इस भ्रम को दूर करने के प्रयास के सामानांतर एक दूसरा भ्रम उत्पन्न किया जाता है। अंतप्रदेशीय संपर्क और केंद्रीय व्यवहार में हिन्दी के प्रयोग से हिन्दी भाषी लोगों को विशेष सुविधा होगी, पर अंग्रेजी के प्रयोग समान सुविधा या असुविधा होगी।
          यह तर्क पद्धति अंग्रेजी का पहले से प्रयोग करते आ रहे ऊपर सतह के वर्गो की है। इस सतह के लोगों के पास पर्याप्त पैसा और सुविधाएँ है और वे अपने बच्चों को अंग्रेजी अपेक्षया अधिक सिखा सकते हैं। वे भली भांति जानते हैं कि सामान्य लोगों के लिए अपने बच्चों को अच्छे स्तर पर शिक्षित करना ही कठिन है, अंग्रेजी सिखा पाना तो असंभव है। बृहत्तर जन समाज को साधारण हैसियत में रखने और और कभी उबर न पाने के एिल अंग्रेजी का इनको बड़ा सहारा है। यह स्थिति वे हर प्रदेश में बनाए रखना चाहते हैं। उसका एक साक्ष्य है कि इन प्रदेशों में उनकी भाषाओं का प्रयोग आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है या बहुत मंथर गति से बढ़ रहा है। प्रदेशों में अपनी भाषाओं के प्रयोग के विस्तार की बात को महत्व नहीं दिया जाता। यह ‘प्रबुद्ध वर्ग’ भलीभाँति जानता है कि इस चक्र प्रवर्तन के बाद न अंग्रेजी रोक पाना संभव होगा और न अपनी स्थिति सुरक्षित रख पाना संभव होगा। यह वे भलीभाँति जानते हैं कि एक बार भारत में जनसमाज के साथ खड़े हो जाने पर इस देश में जिस भाग विलास के जीवन के वे अभ्यासी होते गए हैं, वह किसी प्रकार संभव न होगा।
          अगर यह मान भी लिया जाए कि हिन्दी के व्यवहार में हिन्दी क्षेत्र के लोगों को सुविधा है, तो यह बहुत आसान है कि केंद्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में अथवा चयन में भाषा का व्यावहारिक ज्ञान मात्र आवश्यक माना जाए। योग्यता का प्रकाण अन्य क्षेत्रों के ज्ञान के आधार पर लिया जाए, जिसका माध्यम अपनी अपनी भाषाएँ हो। यह केवल प्रस्ताव मात्र नहीं है, लोक सेवा आयोग ने इसे व्यवहार में लाना शुरु किया है। इसके अतिरिक्त सामान्यतः हर देश के चयन में समानुपातिक ध्यान भी रखा जा सकता है। केंद्रीय सेवाओं के लिए (अन्य सभी जगह) ज्ञान की योग्यता की अपेक्षा कार्यकुशलता अधिक अपेक्षित है, अतः किंचित अंतर से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। फिर अनुसूचित अथवा परिगणित जाति के आधार पर जब भारी छूट देकर चयन करने से काम चलता है, तब यत्किंचित प्रादेशिक अंतर से अब फर्क पड़ेगा। जबकि पिछले आँकड़ों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई बड़ा अंतर नही है।
          यहाँ प्रसंग के अनुसार एक बात और स्पष्ट करनी है। सरकारी नौकरियों से कहीं अधिक ऊपरी सतह के उल्लिखित वर्गो ने व्यक्तिगत क्षेत्र (व्यापार, उद्योग और उत्पादन) में अपना अंग्रेजी का जाल बिछा रखा है। बड़े बड़े घरानों तथा उद्योगपतियों ने समझ लिया है कि महत्तर समाज के दबाव से बचने का सरल तरीका है अंग्रेजी के माध्यम से उससे अलग रहा जाए और उसे परिस्थित से अपरिचित रखा जाए। यहाँ विश्लेषण विवेचन का मौका नहीं है, पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने मिलकर देश की अर्थ व्यवस्था को इस प्रकार आयोजित और विकसित किया है कि पश्चिमी संपन्नता (यहाँ की दृष्टि से भोग विलास) का जीवन बिताने के लिए बृहत्तर समाज से अपरिचित रहना है कि और उन्हें अपरिचित रखना है। अन्यथा चीनी जापानी तथा तमाम अन्य भाषाओं से जब तमाम देशों का काम ही नहीं, विकास हो रहा है, तब यहाँ भी भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी की परिहार्यता पर बल देते रहने की तर्कहीनता स्पष्ट है। ज्ञान विज्ञान प्रविधि आदि के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना अलग बात है कि और क्यों नहीं संसार के तमाम उन्नत देशों की भाषाओं से सीधे ज्ञान पाने की व्यवस्था की जा सकती है।
          अपनी मूल बात आने के लिए लंबी भूमिका की आवश्यकता थी, क्योंकि अगर धुंध को न काटा जाए तो सीधी सहज बातें भी विकृत की जा सकती है। सत्ता और अधिकार के लिए भाषा का उपयोग ज़रूर किया गया है, पर भाषा किसी भी समाज के जीवन प्रवाह से संपृक्त होती है। वह अपने समाज की जीवन पद्धति है, उसकी इच्छा आकांक्षाओं, भावनाओं कल्पनाओं, स्पष्न आदर्शो और श्रम प्रयत्नों को वहन करती है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जब कभी देशी विदेशी सत्ता ने जन समान का दमन किया है, उस पर आतंक के आधार पर शासन किया है, तब उसने जन समाज की भाषा को ऐसा रूप दिया कि वह अपने समाज से ही कट गई अथवा विदेशी भाषा का उपयोग किया।
          भाषा अपने सहज रूप में अपने समाज को जोड़ती है, धारण करती है। वह अपने समाज के हर प्रकार के जीवन स्तर को धारण करती हे और अभिव्यक्त भी करती हे। इसका अर्थ है कि भाषा अपने समाज के व्यक्तित्व से अभिन्न है, उसमें जो परिवर्तन घटित होते है, भाषा का एक स्तर पर उनका कारण रूप है और उन्हें अभिव्यक्त भी करती है। समाज का अनुभव और चितन भाषा रूप होता है, यह कहना कि कोई समाज अनुभव अथवा चिंतन के स्तर पर समृद्ध को बहन या अभिव्यक्त करने की क्षमता है। विदेशी भाषा के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है कि अपने भावी अनुभव तथा चिंतन से उस ज्ञान को संबद्ध या संपन्न करना। इस प्रक्रिया में ज्ञान के साथ समाज अपनी भाषा को विकसित करता है, उसमें इस प्रकार अनुभव एवं चिंतन के नए आयाम जोड़ता है। परंतु जब यह ज्ञान विदेशी भाषा के माध्यम से व्यक्ति को अपने समाज की संपति नहीं बन पाता और न समाज की भाषा उसे धारण कर पाती है। हमारे देश में अंग्रेजी जानने वाला समाज इसी प्रकार बृहत्तर समाज से विच्छिन्न है और अंग्रेजी सूक्ष्म स्तर पर शोषण का साधन बन गई है।
          जहाँ तक हिन्दी का सवाल है, जैसा कहा गया है वह अंग्रेजी के समान विभिन्न प्रदेशों की भारतीय भाषओं की स्थानापन्न नहीं है। हर प्रदेश की भाषा जीवन और व्यवहार के हर स्तर पर प्रयोग में आएगी, तभी उसके जन समाज का पूरा विकास संभव होगा। अंग्रजी का पक्षधर समाज यहाँ तर्क देता है कि अंग्रजी के हट जाने पर अपनी भाषाओं में अपने को अभिव्यक्त करने वाले प्रदेश का एक दूसरे से अपरिचित और दूर हो जाएँगे। यह दुहरी तर्क पद्धति है। एक ओर तो कहा जाता है, हिन्दी का उपयोग अगर अंतप्रादेशिक व्यवहार और कार्य के लिए करने बात हो तो यह हिन्दी का आरोप है और हिन्दी वालों को अतिरिक्त लाभ है। दूसरी ओर अंग्रेजी के माध्यम से हर प्रदेश का सीमित उच्च वर्ग बृहत्तर समाज से अलग कटकर उस पर शासन करता है, उसको हर प्रदेश के लिए बराबर असुविधा सुविधा से प्रतिपादित किया जा रहा है।
          जहाँ तक सरकारी नौकरियों का सवाल है, उसके बारे में ऊपर कहा जा चुका है कि एक तो प्रतियोगिताओं में ज्ञान तथा योग्यता की परीक्षा प्रदेश की भाषओं में हो तथा हिन्दी के व्यवहार के ज्ञान की ज्ञानकारी अलग से, लोक सेवा आयोग ने ऐसा स्वीकार भी किया है। दूसरे चयन सामुपातिक भी हो सकता है। परंतु यहाँ से मौलिक बात उठाई जा रही है। हिन्दी अन्य भाषाओं में एक है। समस्त भारतीय भाषाएँ एक स्तर पर भारतीय संस्कृति के धारावाहिक प्रवाह से संपृक्त रही है। वे उसे धारण करती आई है। उत्तर, दक्षिण भारत की भाषाओं को भारोपीय औ द्रविड़ परिवारों में बाँटा गया है। पर आधुनिक विचार से भाषाओं का पारिवारिक विभाजन महत्वपूर्ण नहीं हे। इतिहास की परंपरा और सांस्कृतिक प्रवाह में जो समाज एक साथ और अभिन्न हो जाते हैं, उनकी भाषाएँ अधिक निकट और समस्तरीय होती है, भले ही उनके परिवार अलग हों।
          भारत में द्रविड़ जाति आई, आर्य आए और यहाँ की आदि जातियाँ भी रही है। कब कौन आया, कौन बाहर का है और कौन अंदर का, इन सवालों को छोड़कर यहाँ इतना मानकर विचार करना पर्याप्त है कि भारत में कई जातियाँ अपनी विभिन्न संस्कृतियों के साथ जुड़ती मिलती गई है। उनकी संस्कृतियों ने धारावाहिक रूप से संश्लिष्ट रूप ग्रहण किया है। धाराएँ मिलती टकराती व्यापक धारा का रूप ग्रहण करती रही हे। यही कारण है, उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक धर्म, दर्शन, साधना, साहित्य और जीवन के मूल्यों की अनेक उत्ताल तरंगें बनती, उठती, फैलती, टकराती और अंतर्लीन होती रही हैं। सारे भारत में इनके केंद्र और पीठ फैल रहे हैं जिनसे उनमें निरंतर आदान प्रदान की प्रक्रिया चलती रही है।
          भारतीय संस्कृति की एक विशेषता को रेखांकित करना आवश्यक है। यहाँ शिष्ट परंपरा में अभिव्यक्त होने वाले हर स्तर के मूल्यों को लोक परंपरा में व्याप्त करने की पद्धति को विकसित किया गया है। जैसा कहा जा चुका है भाषा समाज की संस्कृति से अभिन्न होती है। शिष्ट अथवा संस्कृत भाषा में अभिव्यक्त सांस्कृतिक मूल्यों को लोक भाषाओं में लोक समाज ने ग्रहण किया है। भारतीय व्यापक समाज में छनकर नीचे तक और उतरकर ऊपर आने की प्रक्रिया के माध्यम में हर युग की लोक भाषाएँ रही है। फिर सारे देश में विचार तथा भावधाराओं को फैलाने का कार्य किसी न किसी केंद्रीय लोक भाषा ने किया है। हिन्दी को यही दाय एक हजार वर्ष से मिला है। भक्तों, संतों साधकों और उपदेशकों ने मध्य देश की इस भाषा के माध्यम से से सारे देश को सांस्कृतिक स्तर पर जोड़ा है।
          इस रूप में हिन्दी भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा है। यह व्यक्तित्व सभी भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त होता हैं अनेक विचार चिंताधाराएँ, मल्य इन भाषाओं में प्रवहमान हैं और उनमें निरंतर क्रिया प्रतिक्रिया चलती रही हैं। अतः इन भाषाओं में इनके विविध पंक्षा, स्तरों, आयोमों और छायावर्तो को व्यक्त करने वाले शब्द है, जिनमें उनके प्रत्यय निहित है, क्योंकि भारतीय स्तर पर इन प्रत्ययों में समरूपता है। अतः उनके प्रतीक विभिन्न भाषाओं के संज्ञा, क्रिया, विशेषण् आदि पदों में समान रूप से सुरक्षित हैं। समान परिवार की भाषाएँ हो अथवा भिन्न परिवार की, पर उनमें सांस्कृतिक समरूपता के यह प्रत्यय रूप शब्द समानार्थी हैं। अतः इन भाषाओं में एक दूसरे की समझ और निकटता कहीं अधिक है। भिन्न शब्द या पद से मूल भाव अथवा विचार तक पहुँचने में कठिनाई नहीं है, केवल पर्याय शब्द की जानकारी पर्याप्त है। जबकि एक ही परिवार की दूसरे संस्कृतिक की वहन करने वाली भाषा से सहज संप्रेषण संभव नहीं है। यानी अंग्रेजी, फ्रेंच, बंगला और मराठी एक परिवार भाषाएँ हैं। पर अंग्रेजी अथवा फ्रेंच भाषा से मराठी या बंगला में अनुवाद सरल नहीं है जबकि अंग्रेजी से फ्रेंच मराठी से बंगला में करना कहीं आसान है। उसका कारण सांस्कृतिक संपृक्ति हैं।
          दूसरे स्तर पर केंद्रीय भाषा (यानी हिन्दी) अन्य प्रदेशों तथा उनकी भाषाओं से निकट है। स्वाभाविक है, जो धाराओं के उतार चढ़ाव विस्तार संकोच का भ्रम चलता आया है, उसमें बीच का क्षेत्र हर तरह से प्लावित हुआ है। उसके कारण उसकी भाषा से सबकी समान निकटता रही है। सांस्कृतिक आंदोलन उसके माध्यम से अधिक सम्मन हुआ। इधर उधर ऊपर से नीचे चिंतन विचारों, मूल्यों के विस्तार देने का और जोड़ने का काम इस भाषा से लिया जाता रहा है। यह सैंकड़ों वर्षों की बात है, केवल आधुनिक युग की नहीं। इसीलिए हिन्दी को केंद्रीय भाषा के अर्थ में भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा माना जा सकता है।
          यह स्मरणीय है कि इसी हिन्दी का मूलाधार भारतीय भाषाओं की सांस्कृतिक मूल्य प्रक्रिया रहेगी। बिना इन भाषाओं के विकास के हिन्दी को यह पूरा संश्लिष्ट व्यक्तित्व नहीं मिल सकता। जब सभी पक्षों से भारतीय व्यक्तित्व संघटित होगा, तभी उसके संश्लिष्ट रूप के सामने आने का सवाल है। अतः यह स्पष्ट है कि उसकी विभिन्न भाषाएँ हर क्षेत्र और स्तर पर अभिव्यक्ति का सामर्थ्य ग्रहण करें। तब पूरे भारत को समुन्नत और विकसित करने के लिए अपेक्षित है कि हिन्दी केंन्द्रीय भाषा के रूप में उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को संस्लष्ट रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करें और जब वह इस स्तर पर आ सकेगी तभी अंतर्राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह करने लायक होगी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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