हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप -विजयेन्द्र स्नातक  

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लेखक- प्रो. विजयेन्द्र स्नातक

संविधान और हिन्दी

भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा जनतांतत्रक, बहुभाषा भाषी देश है। भारत के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली बोलियां (डाइलेक्ट्रस) की संख्या तो शताधिक है किंतु संविधान में स्वीकृत भाषाओं की संख्या चौदह है, इनमें संघ की राजभाषा हिन्दी है और उसकी लिपि देवनागरी है। इस संघीय राजभाषा हिन्दी को अपने विकास और संवर्धन के लिए आवश्यकता होने पर मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द ग्रहण करने की पूरी छूट है। संविधान में हिन्दी के प्रचार प्रसार, संवर्धन की तो व्यवस्था है किंतु सहभाषा के रूप में नियत कालावधि तक स्वीकृत अंग्रेजी के विकास, प्रचार, प्रसार या समृद्धि का कोई संकेत नहीं है। संविधान निर्माताओं ने तात्कालिक कार्य संचालन के लिए अंग्रेजी को सहभाषा का दर्जा देते हुए भी उसके संवर्धन के लिए किसी प्रकार की सुविधा प्रदान करने का प्रावधान संविधान में नहीं किया। प्रत्युत आशा यह की गई थी कि सन् 1965 तक हिन्दी सम्पूर्ण राष्ट्र में राजभाषा का उपयुक्त स्थान ग्रहण कर लेगी और अंग्रेजी के सहयोग की उसे आवश्यकता नहीं रहेगी।
मेरी मान्यता है कि संविधान निर्माताओं की दृष्टि हिन्दी (राजभाषा), अंग्रेजी और प्रादेशिक मातृभाषाओं के संबंध में अत्यंत स्वच्छ और स्पष्ट थी। वे अंग्रेजी को विदेशी भाषा ही मानते थे और यह भी जानते थे कि दो प्रतिशत जनता की यह भाषा इस विशाल राष्ट्र की लोकप्रिय भाषा नहीं बन सकती। लेकिन विगत 32 वर्षों का इतिहास बताता है कि संविधान का पालन जिस पद्धति से हुआ वह अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत को हमारे देश से दूर करने में सफल नहीं हो सका। राष्ट्रभाषा ओर राष्ट्रीय भाषा को हम वो स्थान नहीं दे सके जो स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद उसे मिलना चाहिए था। अंग्रेजी के प्रचार के साथ अंग्रेज़ियत का भी प्रचार हमारे देश में हुआ। अंग्रेज़ियत एक संस्कृति है, एक संस्कार है जो भारतीय जनता को बड़े आकर्षण के साथ आधुनिकता और विज्ञान के नाम पर सिखाया जा रहा है। अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत इन तीनों में सबसे अधिक घातक भारतीय जनता के लिये अंग्रेज़ित ही है, जो हमारे जातीय संस्कार और राष्ट्रीय गौरव को ठेस पहुंचा कर हमें अस्मिता शून्य बनाने में सक्रिय है। महात्मा गांधी इसीलिए अंग्रेज़ियत और अंग्रेजी को भारत से बहिष्कृत करना चाहते थे। वे जानते थे कि अंग्रेजों के भारत से विदा लेने के बाद अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत यहां बनी रही तो हमारे देश में स्वभाषा, स्वसंस्कृति ओर स्वदेशाभिमान कभी उत्पन्न नहीं हो सकेगा।

राष्ट्रभाषा और हिन्दी

स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय वेश तो प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्र की पहचान है, वास्तव में राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र की धमनियों में संचारित होने वाली राष्ट्रीयता की जीवंत धारा, रुधिर धारा है। राष्ट्रभाषा के बिना जन जन का न तो पारस्परिक संपर्क सम्भव है और न देशवासिओं में एकता की भावना ही पनप सकती है। राष्ट्र कर भावात्मक एकता की बात करने वाले उपदेष्टा राजनीतिज्ञों को स्मरण रखना चाहिए कि विदेशी भाषा के माध्यम से स्वेदेशी भावना का प्रचार आकाश कुसुम सूंघने का प्रयास करना है। इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही सन् 1925 में कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन में अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी भाषा के प्रयोग का प्रस्ताव पारित किया था। उस समय सभी प्रदेशों के सदस्यों और भारत के विभिन्न भाषा भाषिओं का वहां जमावड़ा था और सर्वसम्मति से हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद का गौरव देकर कांग्रेस कमेटी ने अखिल भारतीय व्यवहार की भाषा ठहराया था। यह कार्य जिस प्रेम, सद्भाव विश्वास और राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर किया गया वह आज भी हमें प्रेरणा प्रदान करता है। यह राष्ट्रगौरव और राष्ट्रीय अस्मिता की सही पहचान थी।

हिन्दी का विकाशसील स्वरूप

हिन्दी के विकास, प्रचार, प्रसार और संवर्धन के लिए शासकीय सहायता, संबल, प्रयत्न और शासकीय अनुदान कभी प्रेरक नहीं रहे। यदि हिन्दी का अतीत इतिहास छोड़ भी दिया जाए और केवल विगत दो सौ वर्षों को, 18वीं और 19वीं शती का इतिहास देखा जाए तो स्पष्ट लक्षित होगा कि ब्रिटिश शासनकाल में हिन्दी के विकास में सरकारी उद्यम से कोई प्रगति नहीं हुई किंतु हिन्दी अपनी अभ्यंतर ऊर्जा से, अपनी सर्वभोम लोकप्रियता से विकास के पथ पर निरंतर प्रगति करती रही। राज्याश्रय की न तो हिन्दी ने कभी कामना की और न उसे सहज रूप से कभी राज्याश्रय सुलभ ही हुआ। परतंत्र भारत में हिन्दी को जो स्थिति थी, वह सर्वथा दयनीय नहीं थी। विदेशी व्यापारियों के सामने भारत में माध्यम का प्रश्न आरंभ से था और अंग्रेज, फ्रेंच, डच, पुर्तगीज आदि सभी ने अपनी अपनी सूझ-बूझ इसे हल किया था। मैं इस संबंध में कुछ उदाहरण देकर हिन्दी के विकसनशील रूप को पाठकों के लिए स्पष्ट करना चाहता हूं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में एक डच यात्री जॉन केटेलर का उल्लेख किया है, जो सन् 1685 ई० में सूरत में व्यापार के लिए आया था। भाषा-माध्यम उसके सामने समस्या था। वह स्वयं डच भाषी था किंतु सूरत के आसपास व्यापारी वर्ग में जो भाषा बोली जाती थी वह हिन्दी गुजराती का मिश्रित रूप था और उसका व्याकरण हिन्दी परक था। अतः जॉन केटेलर ने डच भाषा में हिन्दी का प्रथम व्याकरण लिखा। सन् 1719 में ईसाई प्रचारक बेनजामिन शुल्गे मद्रास में आया और उसने ‘गे्रमेटिका हिन्दोस्तानिक’ नाम से देवनागरी अक्षरों में हिन्दी व्याकरण की रचना की। उसी समय हेरसिम लेवेडेफ नामक ईसाई पादरी ने ब्राह्मणों को गुरु बनाकर शुद्ध और मिश्रित पूर्वी हिन्दुस्तान की बोलियों का व्याकरण अंग्रेजी में लिखा। देखना यह है कि सूरत (गुजरात), मद्रास (तमिलनाडु) जैसे अहिन्दी प्रदेशों में जिन विदेशी विद्वानों ने भाषा ज्ञान के लिए एवं माध्यम भाषा के लिए व्याकरण ग्रंथों का निर्माण किया वे हिन्दी व्याकरण थे। अर्थात् उस भाषा के व्याकरण थे जो दो सौ वर्ष पहले इस देश की लोकप्रिय, सार्वभौम भाषा थी। उसका विकास किसी दबाव, लालच, शासकीय प्रबंच या प्रेरणा से न होकर विकास की अनिवार्यता से आवश्यकतानुसार स्वयं हो रहा था।

हिन्दी का विकास और विदेशी विद्वान

हिन्दी को ब्रिटिश शासन काल में स्वयमेव विकसित होने के लिए जो साधन सुलभ हुए वह स्वदेशी कम, विदेशी अधिक थे। जिन विदेशी विद्वानों ने उस समय हिन्दी के महत्व को समझ कर हिन्दी व्याकरण अथवा हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें लिखीं, उनकी दूरदर्शता की हमें सराहना करनी चाहिए। इस परंपरा में, यदि गणना की जाए तो दो दर्जन नाम उन व्यक्तियों के हैं जो भारत में व्यापार, धर्मप्रचार, प्रशासन, अध्यापन, चिकित्सा आदि कार्यों के लिए आए थे और उन्होंने हिन्दी के प्रचलन के आधार पर उसे भारत की राष्ट्रभाषा मानकर इसके विकास में योगदान दिया था। एक दर्जन व्याकरण पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। हिन्दी साहित्य के विविध पक्षों पर पुस्तक लेख आदि लिखने वाले पश्चिमी विद्वानों की चर्चा भी इसी संदर्भ में की जाए तो हिन्दी विकास का दूसरा क्षितिज उद्घाटित होता है। एडविन ग्रीब्स, ग्राउस, ग्रियर्सन, ग्रिफिथ, हार्नली, रुडाल्फ, टेसीटरी, ओल्डहाम, पिनकाट आदि विद्वानों ने हिन्दी के पक्ष समर्थन में तथा हिन्दी के भारत में विकसित होने के लिए जो प्रयत्न किये वे कदापि भुलाए नहीं जा सकते। व्याकरण के क्षेत्र में जैसे विलियम, ग्राइस, सैंडफोर्ट आनर्ट, जेम्स आर वेलटाइन आदि का कार्य है वैसे ही साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करने वाले उर्पयुक्त विद्वानों का भी प्रंशनीय कार्य है जो हिन्दी की विकसनशील चेतना का द्योतक है। जो विद्वान भारत की भाषाओं पर क्षेत्र, सीमा, जनसंख्या, संप्रेषणीयता आदि पर विचार कर तटस्थ भाव से अपना निर्णय दे गए हैं वे सभी हिन्दी के पक्ष में लिख गए हैं। अपवाद रूप हिन्दी विरोध में लिखने वाला विद्वान 19 शती तक पैदा नहीं हुआ था।

अहिन्दी भाषी विद्वानों की हिन्दी सेवा

भारत में हिन्दी की जो स्थिति आज है उसकी चर्चा न करते हुए हिन्दी विकास में योग देने वाले उन भारतीय विद्वानों, राजनीतिज्ञों और महापुरुषों का नाम निर्देश ही पर्याप्त होगा जिन की दृष्टि में हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है, होने का पूरा अधिकार रखती है, सामर्थ्ययुक्त संप्रेषणीय भाषा है। बिहार में हिन्दी प्रचार का कार्य करने वाले पुण्यस्लोक भूदेव मुखर्जी, बंगाल में राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र, जस्टिस श्यामचरण मिश्र, रमेशचंद्र दत्त, अरविंद घोष, महाराष्ट्र में लक्ष्मण नरायण गर्दे, बाबूराम विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे, पंजाब में लाला लाजपतराय, लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानंद, राजस्थान में लज्जाराम मेहता, गौ ही ओझा, गुजरात में तो स्वामी दयानंद का तथा गांधी का ही नाम पर्याप्त है। इन नामों के परिगणन का केवल एक ही उद्देश्य है कि राष्ट्र की चेतना से संपृक्त, राष्ट्रीय जागरण में विश्वास करने वाले स्वदेशाभिमानी भारतीयों ने हिन्दी को राष्ट्रीय जीवन की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकार किया था। उनकी अपनी अपनी प्रादेशिक मातृभाषाएं थीं किंतु राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए उन्हें हिन्दी की ही अपेक्षा थी इसीलिए इसके विकास के वे आकांक्षी थे। फलतः इनमें कुछ महापुरुष तो ऐसे भी हुए जिन्होंने व्यापक जनसंपर्क की दृष्टि से अपनी मातृभाषा को छोड़कर हिन्दी में ही ग्रंथ प्रणयन, भाषण, लेखन आदि का कार्य किया। गुजराती, पंजाबी और मराठी भाषी लेखकों का योगदान इस संदर्भ में सदैव अविस्मरणीय रहेगा। उनके ग्रंथों से हिन्दी भाषा समृद्ध हुई है। हिन्दी के विकसनशील स्वभाव के कारण ही यह सम्भव हुआ है।

हिन्दी की बोलियाँ

हिन्दी के विकसनशील स्वभाव की चर्चा करते समय हिन्दी की बोलियों और उपभाषाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। दसवीं शताब्दी से आज बीसवीं शताब्दी तक हिन्दी ने अनेक रूप और अनेक विधाओं को स्वीकार किया है। अपभ्रंश और प्राचीन के रासो ग्रंथों की सुदीर्घ परंपरा में होकर हिन्दी राजस्थानी, अवधी, ब्रज मैथिली, भोजपुरी आदि भाषा बोलियों में अपना स्वरूप विकसित करती रही। राजस्थानी में अनेक वीर काव्य लिखे गए किंतु यह राजस्थानी हिन्दी का ही रूप विकास था। इसी प्रकार मैथिल कोकिल विद्यापति ने भोजपुरी मिश्रित भाषा में ललित पदावली का निर्माण किया, वह भी हिन्दी के अंचल में ही पनपती रही। ब्रजबुलि नाम से बंगाल में जिस काव्य भाषा का विकास हुआ वह भी हिन्दी का ही एक मिश्रित रूप था। इसी प्रकार नाथपंथियों और सिद्धों की अपभ्रंश मूलक भाषा भी हिन्दी का ही प्राचीन एवं प्रारंभिक बीज रूप था। कबीर, नानक, रैदास, मलूकदास आदि संत कवियों ने जिस भाषा को अभिव्यक्त् का माध्यम बनाया वह प्रादेशिक शब्दावली से ओतप्रोत होने पर भी हिन्दी ही थी। जायसी, कुतबन, मंझन आदि मुस्लिम सूफी कवियों ने फारसी के स्थान पर अवधी भाषा में काव्यसृजन किया। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अवधी में ही की थी। ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाले तो सहसाधिक कवि मध्यकाल में उत्पन्न हुए। भक्ति, नीति, श्रंगार, वीर, हास्य आदि विविध विषयों की रचनांए पिछले पांच सौ वर्षों से निरंतर ब्रजभाषा में होती चली आ रही है। हिन्दी के विकास की यह परंपरा सर्वविदित है इसकी आवृत्ति करना अनावश्यक है।

लोक साहित्य और हिन्दी

हिन्दी के विकास के जो नये आयाम बीसवीं शताब्दी में उद्घटित हुए हैं उन पर दृष्टिकोण करना मैं आवश्यक समझता हूं। हिन्दी का लोक साहित्य (फोक लिटरेचर) इस शताब्दी से पहले प्रायः उपेक्षित रहा है। ग्रामगीतों और लोक कथाओं में मौखिक रूप से जीवित रहने पर भी अभिजात साहित्य से उसे संयुक्त नहीं किया गया था। लोक साहित्य में अध्येताओं को जब साहित्य के लगभग सभी तत्व लक्षित हुए तब लोकगीतों, लोक कथाओं और लोकनाट्यों द्वारा इसका अध्ययन प्रारंभ हुआ। इस साहित्य को एकत्र किया जाने लगा और इसके सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पक्षों का गवेषणात्मक दृष्टि से अध्ययन शुरू हुआ। आज लोक साहित्य हिन्दी का एक सबल पक्ष बन गया है और उसकी प्रचुर सामग्री प्रकाश में आ गई है। आश्चर्य है कि भारत की भावात्मक एवं सांस्कृतिक एकता की स्थापना के लिए जितनी प्रभूत सामग्री इस ग्राम अंचल में बिखरे हुए लोक साहित्य में उपलब्ध है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं। लोक साहित्य में भाषा भेद बोली (डाइलेक्ट) का ही है। अतः हिन्दी की व्यापक परिधि में इसे समाविष्ट करना आवश्यक हो जाता है। विदेशी विद्वानों नें भी हिन्दी भाषा और साहित्य के इस समृद्धि पक्ष को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है और अनेक विदेशी शोधकर्ता भी इस दिशा में प्रयत्नशील हैं।
हिन्दी के विकास की यह दिशा वास्तव में सर्वथा नई न होने पर भी इस शताब्दी की ही देन है। अब इन उपभाषाओं और बोलियों का क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा है। राजस्थानी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी, बुंदेली, बघेली, मैथिली, कुमाऊंनी, गढ़वाली, मारवाड़ी, बांगडू, हरियाणवी आदि प्रादेशिक प्रभावों से हिन्दी के रूप का विस्तार हो रहा है। इसका मौखिक साहित्य शनैः शनैः प्रकाश में आ रहा है और अपने जनपदीय रूप के साथ हिन्दी को समृद्ध बना रहा है। इन जनपदीय बोलियों के प्रादेशिक व्यवहार से हिन्दी के स्तरीय रूप को कोई खतरा नहीं है। हां खतरा पृथकवादी आन्दोलन से हो सकता है जो अपनी बोली को संवैधानिक दर्जा दिलाने और हिन्दी से पृथक् स्वतंत्र भाषा मानने का आग्रह करते हैं। खड़ी बोली की विकसनशील प्रकृति इन बोलियों से तादात्म्य करने लगी है।

वैज्ञानिक शब्दावली तथा पाठ्य पुस्तकें

हिन्दी के विकास की दिशा में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो कार्य हुआ है वह है वैज्ञानिक एवं तकनीकि विषयों की पुस्तकों की रचना। सबसे पहले यहा काम कोश रचना द्वारा प्रारंभ हुआ। विज्ञान के विविध विषयों की शब्दावली को एकत्र कर उसके लिए हिन्दी शब्दों का निर्माण किया गया। इसका मुख्य आधार तो अंग्रेजी शब्द समूह ही रहा और उन शब्दों के लिये हिन्दी शब्दों के साथ पारिभाषिक शब्दावली भी तैयार की गई। अभी तक सभी वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयों के अतिरिक्त मानविकी, समाजविज्ञान, कृषि, गणित, विज्ञान, प्रशासन, राजनय आदि विषयों से संबद्ध एक लाख से अधिक शब्दों का हिन्दी में चयन हो चुका है। हिन्दी के विकास की यह दिशा स्वातंत्र्योत्तर परिधि में ही आती है। इसी के साथ स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए विज्ञान, मेडिसन, कृषि, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास भूगोल आदि की पाठ्य पुस्तकों का निर्माण हो चुका है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में सरकारी अनुदान से स्थापित अकादमियों तथा हिन्दी समितियों द्वारा भी लगभग बीस हजार उच्चस्तरीय पुस्तकें तैयार कराई गईं है। अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध उच्चस्तरीय ग्रंथों का अनुवाद भी इनमें शामिल है। यदि इन पुस्तकों का समुचित रूप से उपयोग किया जाये तो हिन्दी के प्रचार प्रसार को तो बल मिलेगा ही, राष्ट्रभाषा हिन्दी के विषय में असामथ्र्य की बात का भ्रम भी दूर होगा। हिन्दी की क्षमता की परीक्षा प्रयोग ही हो सकती है।

अनुवाद कार्य और हिन्दी

हिन्दी के विकास में पारस्परिक आदान प्रदान का भी महत्वपूर्ण स्थान है। आदान प्रदान का तात्पर्य है भारतीय भाषाओं के मानक ग्रंथों का हिन्दी रूपांतरण और विदेशी भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रंथों का अनुवाद। हिन्दी में बंगला, मराठी, गुजराती, उर्दू और पंजाबी के श्रेष्ठ कथाकारों के उपन्यास नाटक अनूदित हो चुके हैं। कुछ कवियों की उत्तम रचनाएं भी हिन्दी में प्रकाशित हुई हैं किंतु अभी यह काम एक तरफ से अर्थात् हिन्दी की ओर से ही हो रहा है। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर आदि साहित्यकारों की रचनाएं अभी अन्य भारतीय भाषाओं में उस अनुपात से अनूदित नहीं हुई हैं जिस अनुपात से हिन्दी में अन्य भाषाओं की हुई है। फिर भी हिन्दी के विकास की यह दिशा है जो आदान प्रदान की पंरपरा से हिन्दी को विश्व हिन्दी का रूप देती है। विश्व के प्रसिद्ध साहित्यकारों की महत्वपूर्ण कृतियां भी हिन्दी में अनूदित होती हैं, और यह क्रम निरंतर जारी है।

विदेशों में हिन्दी का अध्ययन

भारत से बाहर विदेशों के लगभग सौ विश्वविद्यालयों में किसी न किसी रूप में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था हो चुकी है और कई विश्वविद्यालयों में उच्चस्तरीय शोध कार्य भी हो रहा है। कुछ शोध प्रबंध भारतीय साहित्यकारों तथा श्रेष्ठ कृतियों पर लिखे गए हैं। इनके लेखक विदेशी (रूसी, जर्मनी, अमरीकी आदि) शोध छात्र हैं। यह ठीक है कि हिन्दी के प्रचार प्रसार की दिशा में यह एक प्रगतिशील कदम है किंतु भाषा के विकास के लिए हम इसे सर्वतोभावेन विकास का संकेत नहीं ठहरा सकते। इसका एक सुफल यह अवश्य होगा जब हिन्दी माध्यम से विदेशी छात्र शोध प्रबंध लिखेगें, उनकी अपनी मातृभाषा की छटा भी हिन्दी विकास में योग देगी।

हिन्दी की विकासशीलता का रहस्य

हिन्दी के विकासशील स्वरूप को समझने के लिए मूलतः भाषा की प्रकृति (जीनियस) की यही पहचान आवश्यक है। हिन्दी का सीधा और सहज संबंध प्राकृत और अपभ्रंश से है। विभिन्न प्राकृत और अपभ्रंशों में हिन्दी ने अपना कोई रूप निर्धारित नहीं किया धीरे धीरे प्रयोगानुरूप हिन्दी अपनी प्रादेशिक रूपछवियों के साथ स्वरूप धारण करती हुई खड़ी बोली के स्तरीय पद पर पहुंची है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि शब्द चयन में संस्कृत-मूलक होने पर भी अरबी, फारसी, तुर्की और अब अंग्रेजी से भी शब्द ग्रहण करने में इस संकोच नहीं है। हिन्दी का सार्वभौम रूप ज्यों-ज्यों विकसित होगा, हिन्दी भारतीय भाषाओं से भी शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियां आदि का आदान करेगी। भाषा के प्रवाही और लोकप्रिय रूप के लिए यही हितावह शैली है। इसीलिए भाषा को बहता नीर कहते हैं। जो भाषा अपने व्याकरणिक नियमों तथा सीमित शब्द समूह में सिमटकर कठोर अनुशासन में बंधकर शुद्धता का आग्रह रखती है वह सार्वभौम नहीं बन सकती। ऐसे कठोर अनुशासन की भाषा को कृपजल कहते है। हिन्दी कृपजल न होकर गंगा का बहता नीर है, जिसमें आदान प्रदान की प्रक्रिया का नैरंतर्य बना रहता है। हिन्दी की लिपि सरल होने के साथ वैज्ञानिक है। लिपि और उच्चारण की दृष्टि से तो यह लिपि विश्व की सर्वाधिक सुगम, वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म लिपि है। रोमन लिपि में अक्षरों की संख्या कम अवश्य है किंतु लिपिबद्ध शब्द और उच्चारण में तालमेल न होने से उसके अक्षरों की संख्या न्यूनतम व्यर्थ हो जाती है।
प्रत्येक भाषा अपने विकास के लिए क्षेत्र का संधान कर लेती है। अर्थात् भाषा सामाजिक संस्कार को साथ लेकर यात्रा करती है। भारत से बाहर जिन देशों और द्वीपों में भारतीय गए वो अपना भाषा संस्कार साथ ले गए। परिणाम यह हुआ कि शताब्दी पूर्व जो हिन्दी भाषी भारतीय फीजी, मॉरीशस, सुरीनाम, मलाया, बर्मा आदि देशों में गये वे पूर्वी हिन्दी या भोजपुरी का संस्कार साथ ले गए। वह संस्कार आज भी वहां जीवित है। भाषा के माध्यम से संस्कृति और भारतीयता दोनों ही वहां अपनी सार्थकता का प्रमाण हैं। हिन्दी भाषा के स्वरूप विकास में इन देशों की भाषा भंगिमांए भी समाविष्ट होती जा रही हैं। हिन्दी के विकासशील स्वरूप की चर्चा में यह स्मरण रखना चाहिए कि हिन्दी केवल पांच-छह प्रदेशों तक सीमित नहीं है। बोलचाल और कामकाज की भाषा के रूप में इसका प्रयोग कलकत्ता, और अहमदाबाद जैसे महानगरों में पर्याप्त मात्रा में होता है। और तीनों प्रांतों की प्रादेशिक का पुट हिन्दी में देखा जा सकता है। कलकत्तिया और बंबइया हिन्दी तो सर्वत्र विख्यात है। हिन्दी की यह विकसनशीन क्षमता है जो अहिन्दी प्रदेशों में भी अपनी आभ्यंतर ऊर्जा से सर्वग्राह्य बनकर प्रयोग में आती है। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और पंजाब के संत कवियों ने जिस सहज स्नेह से हिन्दी को स्वीकार कर अपनी धार्मिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया वह विस्मयकारक है। गुरु गोविंद सिंह की हिन्दी रचनाओं को पढ़कर इस भाषा के मार्दव और ओज की समाहार शक्ति अच्छा परिचय मिलता है। हिन्दी के आदि कवि खुसरो से लेकर, कबीर, जायसी, रहीम, रसलीन आदि ने इस भाषा में जो विविध रूप छटाएं दी हैं वे मजहब और पंथ की संकीर्णता से ऊपर हैं। लोकजीवन के साथ संयुक्त रहने वाली यदि भारत में कोई सार्वदेशिक भाषा है तो वह हिन्दी है। उसकी विविध बोलियां हैं, उपभाषाएं हैं और उन सबका स्तरीकरण आज खड़ी बोली हिन्दी में हो गया है क्योंकि यह विकसनशील भाषा की अमित संभावनाओं से परिपूर्ण है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे

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