मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी -डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी  

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लेखक- डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी

          किसी भी राष्ट्र अथवा देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता रहती है जो विभिन्न व्यवहार क्षेत्रों में संप्रेषण साधन की महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सके। इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि वह भाषा क्षेत्रीय तथा सामाजिक विविधिताओं से ऊपर उठकर सर्वग्राह्य और सर्वमान्य हो। वैसे तो किसी भी समाज की संप्रेषण व्यवस्था सर्वमान्य और सर्वग्राह्य भाषा को अपनी सामाजिक प्रक्रिया के भीतर ढूंढ लेती है किंतु उसके सम्यक विकास और प्रसार के लिये उसके नियोजन की भी आवश्यकता पड़ती है-भाषा नियोजन का यह कार्य दो दिशाओं में प्रवृत्त होता है-एक, मानकीकरण और दूसरा, आधुनिकीकरण। इन दानों के लक्ष्य और साध्य तो एक होते है किंतु इनके उपकरण व साधन अलग अलग होते हैं मानकीकरण रूपात्मक एकीकरण की प्रक्रिया है जिसमें व्याकरणिक रूपों को अनेकता में एकता के आधार पर मानक बनाया जाता है और आधुनिकीकरण प्रकार्यात्मक विविधता की प्रक्रिया है जिसमें भाषिक रूपों को विभिन्न संदर्भों में लाने का प्रयास रहता है। इससे भाषा को आदर्श रूप प्राप्त होता है और वह संपर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त होत है। भाषा के इसी आदर्श रूप को मानक भाषा कहा जाता है।
          मानक भाषा पर विचार करने से पहले मानक भाषा और मानकीकृत भाषा के अंतर विचार करना समीचीन होगा, क्योंकि आजकल विद्वान् इनमें भेद करते पाए जाते हैं। वास्तव मेें मानक भाषा अपने प्रयोक्ताओं की उस प्रतीकात्मक भावना को व्यक्त करती है, जिसका संबंध एकीकरण, विशिष्टीकरण और प्रतिष्ठा के साथ होता है। यह भाषा अपने भाषा समुदाय को एकीकृत करती है, उसके प्रयोक्ताओं को अभिव्यक्ति प्रदान करती है और उन्हें पद प्रतिष्ठा से युक्त करती है। हिन्दी और ब्रज का उदाहरण लें तो हमें हिन्दी में उपर्युक्त तीनों बाते मिल जाएंगी। जहां तक मानकीकृत भाषा का संबंध है, वह भाषा रूपों के विकल्पों के भीतर से किसी एक के चयन तथा उसको मानक रूप में प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया है। इसमें भाषा का एक प्रकार से नियमन (कोडीकरण) होता है। और इसके व्याकरणिक रूप परिष्कृत एवं परिनिष्ठित होते हैं। चूंकि भाषा में प्रयोग के कई विकल्प होते हैं जिसमे से मानकीकृत भाषा किन्हीं एक दो मानक रूप में स्वीकार कर लेती है और शेष रूपों को अमानक या मानकच्युत मानकर पीछे छोड़ देती है, इसीलिए यह भाषा रूप अपने प्रयोग क्षेत्र में (विशेषकर शिक्षा के संदर्भ में) शुद्ध माना जाता है और शेष रूप प्रायः अशुद्ध घोषित किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इसका मापदंड मानकीकरण के अनुपात और लेखन में उसके उपयोग के आधार पर किया जाता हैै इसलिए मानकीकृत भाषा मानक भाषा का एक रूप हीे है जिसमें संरचनात्मक एकरूपता के साथ साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिलती है। वास्तव में भाषा की मानकता मुख्य रूप से सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी है न कि संरचनात्क एकरूपता से, क्योंकि इस मानक प्रयोग का आधार शिक्षित व्यक्तियों का शिष्ट भाषा प्रयोग होता है।

मानक भाषा का स्वरूप और प्रकृति

          मानक भाषा संरचनात्म दृष्टि से अपनी भाषा के विभिन्न रूपों में से किसी एक रूप या एक बोली पर आधारित होती है। इसके मानक बनते ही इसकी बोलीगत विशेषताएं लुप्त होने लगती हैं और वह क्षेत्रीय से अक्षेत्रीय हो जाती है। इसका कोई निर्धारित सीमा क्षेत्र नहीं होता और न ही वह किसी भाषाभाषी समुदाय की मातृभाषा कहलाती है। हमारे सामने हिन्दी का मानक रूप है। यह मानक रूप हिन्दी की खड़ी बोली से विकसित हुआ है। इस रूप में खड़ी बोली की बोलीगत विशेषताए लुप्त हो गई हैं और यह रूप खड़ी बोली से उतना ही अलग जान पड़ता है जितना वह भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि अन्य बोलियों से। इसके अतिरिक्त खड़ी बोली, भोजपुरी ब्रज, अवधी आदि के अपने भाषाभाषी समुदाय हैं और इनका अपना सीमा क्षेत्र है और इनके बोलने वाले इन्हें अपनी मातृ भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं किंतु हिन्दी के मानक रूप के संबंध में इस प्रकार की संकल्पनाएं कुछ अलग सी हैं। हिन्दी क्षेत्र में विभिन्न बोलियों के बोलने वाले उसे उसी प्रकार की मातृभाषात् अवश्य मानते हैं अर्थात वे उसे ‘सहमातृभाषा या प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार करते है।
          संरचना की दृष्टि से मानक भाषा में आंतरिक संशक्ति होती है और वह प्रयोग की दृष्टि से काफ़ी व्यापक होती है। इन दोनों अभिलक्षणाों से मानक भाषा का स्वरूप स्पष्ट होने लगता है। वास्तव में मानक भाषा का प्रयोग क्षेत्र जितना विस्तृत होता जाएगा उसकी संरचना में अधिकतम समरूपता बनी रहेगी। इसीलिए व्यापक क्षेत्र में प्रयुक्त होने के कारण इसकी आंतरिक संशक्ति की अपेक्षा रहती है। शब्दोच्चारण, शब्दरूपों और वाक्य विन्यास को स्थिरता देने का प्रयास रहता है। इसमें एक शब्द का एक ही उच्चारण और एक ही वर्तनी की अपेक्षा रहती है। इसका एक ही व्याकरणिक ढांचा होता है। इस आंतरिक संशक्ति या भाषिक एकरूपता से संप्रेषणीयता में व्याघात उत्पन्न नहीं होता और इसीलिए वह सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करती है। किंतु यह एकरूपता तभी संभव होती है जब भाषा के रूप में स्थिरिता पाई जाए और उसमें भाषायी परिवर्तन कम से कम हों। यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो जीवंत भाषा का अपरिवर्तनशील रहना संभव नहीं है। वास्तव में संरचनात्मक एकरूपता और प्रयोगात्मक बहुरूपता एक दूसरे की विपरीत स्थितियां हैं और वे दोनों एक दूसरे के लिए बाधा उत्पन्न करतीं हैं। संरचनात्मक एकरूपता या स्थिरता भाषा के व्यवहार क्षेत्र को सीमित करने का प्रयास करती है और विस्तृत व्यवहार क्षेत्र संरचना की एकरूपता को खंडित करने में अग्रसर रहता है हमारे सामने उदाहरण है संस्कृत का। संस्कृत की संरचनात्मक एकरूपता को लाने से उसकी जीवंतता समाप्त हो गई और उसका व्यवहार क्षेत्र सीमित हो गया। इधर हिन्दी का व्यवहार क्षेत्र व्यापक हो जाने से इसके कई रूप उभरने लगे हैं। कहीं बंबईया हिन्दी के दर्शन होते हैं, तो कही कलकतिया हिन्दी के। कहीं पंजाबी से प्रभावित हिन्दी दिखाई देती है तो कहीं भोजपुरी से। इसी दृष्टि में ये दोनों स्थितियां भाषा को मानक रूप देने में बाधा उत्पन्न करती हैं अतः मानकीकरण की प्रक्रिया में संरचनात्मक एकरूपता और प्रयोगात्मक बहुरूपता में संतुलन बानए रखना महत्वपूर्ण है। यह तभी संभव है यदि मानक भाषा सतत लचीलेपन और तार्किकता के गुण से युक्त है[१]। इससे वह सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों के अनुरूप ढलती चलती है। इस लचीलेपन का आधार बोलचाल की भाषा है बोलचाल की भाषा पर आधारित मानक भाषा क्षेत्रीय बोली से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाती। इसके अतिरिक्त वह औद्योगिक, बहुधर्मी, बहुभाषिक समाज के भीतर विषय एवं शैली की दृष्टि से आदान प्रदान करती है जिससे उसकी स्थिरता का टिक पाना संभव नहीं है। इसलिए इसकी इसकी स्थापना में लचीलेपन की अपेक्षा रहती है ताकि वह ‘परस्पर अनुवादकता’ की स्थिति मे आ जाए[२]
          उपर्युक्त चर्चा से हम देखते हैं कि भाषा के मानकीकरण की प्रक्रिया में चार बातें मुख्य रूप से रहती हैं -
(1) चयन
(2) संसक्ति
(3) प्रयोग और
(4) स्वीकृति।
विभिन्न भाषारूपों और बोलियों में किसी एक का चयन किया जाता है। इस चयन के कई कारण होते हैं - शासन का बल, धर्म का आश्रय, साहित्य की श्रेष्ठता आदि। इस चयन में किसी बात का आग्रह या आधार नहीं होता कि किस किस भाषारूप का चयन किया जाए। फिनलैंड में मानक भाषा का आधार वहां की बोलचाल की बाली को अपनाया गया तो इज़रायल में क्लासिकल भाषा हिब्रू को। हिन्दी क्षेत्र में मध्यकाल में ब्रज अवधी धर्म और साहित्य की भाषा थी किंतु आधुनिक काल में खड़ी बोली का चयन किया गया। इसी खड़ी बोली में साहित्य रचना होने से उसके रूप स्थिर होने लगे और वह मानक भाषा के रूप में प्रस्फुुटित होकर अपने क्षेत्र से आगे बढ़कर अक्षेत्रीय होने लगी। बाद में इसे शासन का बल मिला और आज की मानक भाषा जनसाधरण की भाषा बन गई इस चयन में अन्य बोलियों को अपना बलिदान करना पड़ता है और वे बेचारी अपने क्षेत्र तक सीमित रह जाती हैं। किंतु मानक भाषा को उनका सहयोग लेकर चलना पड़ता है ताकि उसका शब्द भंडार समृद्ध हो जाए और वह अक्षेत्रीय होकर राष्ट्रभाषा के पद तक पहुंच पाने की स्थिति में आ जाए।
          संरचनात्मक संसक्ति में लेखन का महत्वपूर्ण कार्य होता है। यह न केवल भाषा में स्थायित्व लाता है वरन् व्याकरणिक रूपों में एकरूपता बनाए रखनें में सहायता भी करता है। विभिन्न प्रदेशों एवं क्षेत्रों में बोलियों के प्रभाव से भाषा का उच्चरित रूप समान नहीं हो पाता, अतः लिखित रूप उस विविधिता को मिटाने का प्रयास करता है। इसके अतिरिक्त लिखित रूप व्याकरण से अनुशासित होने के कारण भाषा की संरचना में एकरूपता बनाए रखता है। इंग्लैंड, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, भारत आदि देशों में अंग्रेजी के उच्चरण और व्याकरणिक रूपों में भिन्नता मिल सकती है किंतु उसके लिखित रूप में एकरूपता काफ़ी हद तक दिखाई देती है।
          जब भाषा का मानक रूप विकास की स्थिति में आ जाता है तो उसके प्रयोग का व्यवहार क्षेत्र में विस्तार होने लगता है। वह विज्ञान, साहित्य, शिक्षा, शासन आदि विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने लगता है। वह लोक साहित्य के ऊपर उठकर वैज्ञानिक एवं तकनीकि साहित्य का भी उसमें सृजन होने लगता है और यहां तक कि मौलिक साहित्य का भी उसमें सृजन होने लगता है। अन्य भाषाओं के साहित्य का अनुवाद होना भी शुरू हो जाता है। हिन्दी का मानक रूप इस समय इसी स्थिति में आ गया है।
          मानक भाषा के विभिन्न प्रयोजनों एवं व्यवहार क्षेत्रों में प्रयुक्त होने से समाज उस रूप को स्वीकार कर लेता है। इस भाषा की विभिन्न बोलियां बोलने वाले अन्य भाषाभाषियों के साथ इसी रूप का प्रयोग करते हैं और आपस में इस रूप का प्रयोग करते हुए प्रतिष्ठा का अनुभव करते हैं। साहित्य, कार्यालय, विधि, विज्ञान, चिकित्सा, पत्रकारिता, वाणिज्य आदि विभिन्न प्रयोजनों में समाज उसका प्रयोग करने लगता हैै इससे उसकी अभिव्यंजना शक्ति में भी वृद्धि होती है। इसके स्वीकार हो जाने से इसे शिक्षा के माध्यम रूप में अपना लिया जाता है।
          मानक भाषा में मानकीकरण की प्रक्रिया केवल कार्य नहीं करती वरन् उसमें ऐतिहासिकता, जीवंतता और स्वायत्ता के लक्षण भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐतिहासिकता से अभिप्राय है कि यह भाषा सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा से अर्जित संस्कार के रूप में आती है। इसके निर्माण और विकास में कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता वरन् पीढ़ी दर पीढ़ी यह सहज और स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होती आती है। इसमें इसकी अपनी लिखित परंपरा, अपनाजातीय इतिहास और अर्जित संस्कर होता है। भाषा तभी जीवंत होती है जब उसके प्रयोग करने वाले हों और अपनी भाषा के रूप में ग्रहण करते हों। जिस भाषा का अपना समाज नहीं होता और समाज उसे अपनी भाषा स्वीकार नहीं करता तो वह भाषा जीवित नहीं रह पाती। उसका समाज ही उसे जीवित रख सकता है और उसके जीवित रहने में उसका विकास सहज रूप से होता है। इसलिए मानक भाषा में जीवंतता का होना आवश्यक है। यदि भाषा में मानकता, ऐतिहासिकता और जीवंतता होती है तो वह अपने आप विशिष्ट और स्वतंत्र हो जाती है। वह किसी अन्य भाषा व्यवस्था पर आधारित नहीं रहती वरन् अपनी स्वायत्त सत्ता बनाये रखती है। हम देखते हैं कि यदि हिन्दी का मानक रूप मूलतः खड़ी बोली पर आधारित है किंतु वह अपनी भाषिक व्यवस्था और प्रकार्य के संदर्भ में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए हैं। वास्तव में बोली में ऐतिहासिकता और जीवंतता तो होती है किंतु मानकता और स्वायत्ता नहीं होती और क्लासिकल भाषा में मानकता, ऐतिहासिकता और स्वायत्ता होती है किंतु जीवंतता नहीं होती है। बोलचाल की भाषा में ऐतिहासिकता, जीवंतता और स्वायत्ता होती है और जब उसका मानकीकरण हो जाता है तो वह मानक भाषा के पद पर अभिषिक्त हो जाती है।

मानक हिन्दी

          भारत की सांस्कृतिक परंपरा और सभ्यता का केंद्र मध्य देश रहा है। इससे सम्पूर्ण भारतीय जनजीवन और राजनीति प्रभावित हुई है। यही स्थिति भाषा के संबंध में भी लागू होती है। इस प्रदेश की भाषाएं सामाजिक, सांस्कृति, धार्मिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक अभिव्यक्ति की माध्यम बनी रहीं। लोकभाषा के रूप में सर्वप्रथम संस्कृत का आविर्भाव हुआ। इसके बाद ‘पालि’ अन्य भाषाओं के सहयोग से संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई। इसी पालि से शौरसेनी प्राकृत भाषा उद्भूत हुई जिसने समय के प्रवाह में आगे चलकर पश्चिमी अपभ्रंश (शौरसेनी अपभ्रंश) का रूप ले लिया। इसी की उत्तराधिकरिणी ब्रजभाषा साहित्य पूजन की भाषा और सांस्कृतिक प्रचार की भाषा के रूप में पूरे मध्य देश में छा गई। मुस्लिम शासकों के भारत आगमन और तदुपरांत मुग़ल राज्य की स्थापना के बाद दैनिक व्यवहार की भाषा के रूप में एक ऐसी भाषा ने जन्म लिया जो ‘जबाने हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ के नाम से जानी जाने लगी। इस भाषा को यद्यपि सरकारी प्रश्रय नहीं मिला किंतु ब्रज से प्रभावित लोकभाषा के रूप में पूरे देश में अपना स्थान बनाने लगी। इधर 19वीं शती में इसका व्याकरण लिखा गया जिससे इसके प्रयोग में एकरूपता आने लगी। इस प्रकार इसके मानकीकरण का प्रयास सहज रूप में प्रारंभ हुआ। इसके उच्चारण, वर्तनी और व्याकरण संबंधी अनेकरूपता पर विवाद शुरू हो गया, जिसने मानकीकरण में काफ़ी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
          हिन्दी के मानकीकरण की प्रक्रिया को मुख्यतः उच्चारण वर्तनी, शब्द संपदा और व्याकरण के धरातल पर देखा जा सकता है।

उच्चारण और वर्तनी

          मानक भाषा में एक शब्द के लिए एक ही उच्चारण माना जाता है। इसमें किसी भी स्तर पर विकल्प की गुंजाइश नहीं रहती। यदि विकल्प हो भी तो उसमें किसी एक का चयन कर उसे मानक मान लिया जाता है। इस समय हिन्दी में अभी ऐसे कई शब्द हैं, जिनके उच्चारण के दो-दो विकल्प मिलते हैं। यथा,

प्रयुक्त रूप
प्रस्तावित मानक रूप
दुकान, दूकान
दुकान
पड़ोस, पड़ौस
पड़ोस
धोबिन, धोबन
धोबिन
बहिन, बहन
बहन
औरत, अउरत
औरत
पइसा, पैसा
पैसा
केहना, कहना
केहना
वह, वोह
वोह

हिन्दी वर्तनी के मानकीकरण का प्रश्न काफ़ी समय से प्रारंभ हो गया था। इस संबंध में 1998 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी वर्तनी तथा उसकी एकरूपता पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति के निर्णय काफ़ी समय तक मांन्य रहे। परसर्गों को संज्ञा से अलग तथा सर्वनाम से मिलाकर लिखना आज भी प्रचलित है जैसे राम को, उसको। इसी प्रकार हुवा, हुयी, हुये, गयी, गये आदि रूपों के स्थान पर हुआ, हुई, हुए, गई, गए आदि लिखना मानक माना गया। इस संबंध में विचार विमर्श के बाद हिन्दी वर्तनी को काफ़ी हद तक मानक बनाया जा चुका है। कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जिनके कई रूप प्रयोग में हैं और उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनको मानक रूप देने का प्रस्ताव है।

प्रयुक्त रूप
प्रस्तावित मानक रूप
हुवा, हुआ
हुआ
जावे, जाय, जाए, जाये
जाए
लिये, लिए
लिए
कर्ता, करता
कर्ता
महत्त्व, महत्व
महत्व
दुख, दुःख
दुख
 

इसके अतिरिक्त कुछ लिपि चिन्हों को मानक रूप देने का प्रस्ताव है किंतु इस समय दोनों रूपों का प्रयोग मिलता है।

शब्द-संपदा

विभिन्न बोलियों के प्रभाव से अनेक शब्दों का विकल्प बना रहा है, किंतु एकरूपता लाने के लिए किसी एक को मानक रूप में स्वीकार किया जाता है। हिन्दी के अंतर्गत 17 बोलियां आती हैं और हरेक में एक वस्तु या संकल्पना के लिए प्रायः अलग अलग शब्द मिलते हैं। अतः इनमे किसी एक को मानक रूप में स्वीकार किया गया है।
उदाहरण के लिए,

प्रयुक्त रूप
प्रस्तावित मानक रूप
मोजा, जुराब
मोजा
नाती, धेवता
नाती
मायका, नैहर, पीहर
मायका
घुइयाँ, अरबी
अरबी
तोरी, तरोई, निनुआ, घेवड़ा
तोरी
गूथना, सानना, मांड़ना (आटा)
गूथना

          सामान्य शब्दावली के अतिरिक्त पारिभाषिक शब्दावली के मानकीकरण की ओर भी ध्यान दिया गया। हिन्दी के सीमा क्षेत्र के बहुत बढ़ जाने से इसकी पारिभाषिक शब्दावली में अनेकरूपता आना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त औद्योगिकीकरण; शहरीकरण और पश्चिम के संपर्क में आने के कारण हिन्दी समाज का आधुनिकीकरण प्रारंभ हो गया, जिससे पारिभाषिक शब्दावली की दृष्टि से इसकी भाषा का भी आधुनिकीकरण होने लगता है। इसीमें मानकीकरण की प्रक्रिया भी अपना योगदान कर रही है। यथा,

प्रयुक्त रूप
प्रस्तावित मानक रूप
प्रारूप, मसौदा
मसौदा
चुनाव, निर्वाचन (इलेक्शन)
निर्वाचन
कार्यकाल, पदावधि (टेन्योर)
कार्यकाल
वरिष्ठता, ज्येष्ठता (सिनियरिटी)
वरिष्ठता

व्याकरण

व्याकरण के क्षेत्र में तो हिन्दी मानकता की ओर काफ़ी बढ़ी है। 20 शताब्दी में विभिन्न विद्वानों ने अशुद्ध प्रयोगों की चर्चा करते हुए मानक प्रयोगों की ओर ध्यान दिलाया। हिन्दी की संरचनात्मक एकरूपता काफ़ी हद तक हो चुकी है किंतु इसके व्यापक क्षेत्र के होने के कारण अमानक रूपों का प्रयोग हो रहा है जो भाषा की जीवंतता की ओर संकेत करता है। हिन्दी में प्रयुक्त अनेक विकल्पों में से कुछ सीमा तक ऐसे रूपों का चयन हुआ है जिन्हें मानक रूपों में स्वीकार कर लिया गया है। उदाहरण के लिए

विकल्प रूप
मानक रूप
मुझे, मुझको, मेरे को
मुझे, मुझको
हमें, हमको, हमारे को
हमें, हमको
तुझे, तुझको, तुम्हारे को
तुम्हें तुमको
तुझसे, तेरे से
तुझसे
मुझसे, मेरे से
मुझसे
तुमसे तुम्हारे से
तुमसे
क्रिया, किया, करा
किया
करो, करियो
करो
कीजिए, करिए
कीजिए
है, हैगा, हैं, हैंगा
है, हैं
होऊंगा, हूंगा
होऊंगा

          इसी प्रकार वाक्य रचना में भी प्रयुक्त विभिन्न विकल्पों में से हिन्दी में एक या दो को मानक रूप में स्वीकार किया गया है। जैसे,
(1) मैंने घर जाना है
(2) मेरे को घर जाना है
(3) मुझे घर जाना है और
 (4) मुझको घर जाना है।
हिन्दी के इन चारों वाक्यों में (3) और (4) मानक रूप में स्वीकृत हैं और व्याकरण की पुष्टि से इन्हें शुद्ध माना जाता है। शेष अमानक माने गये हैं। इसकें अतिरिक्त ऐसे कई वाक्य अब मिलते हैं जिनके दो-दो विकल्प मानक रूप में देखे जा सकते हैं। जैसे,
(1) मुझे किताबें ख़रीदनी हैं
(2) मुझे किताबें ख़रीदना है या
(1) आप जाएं और
(2) आप जाइये
अभी इनमें भी चयन की आवश्यकता है।
          यहां इस बात की ओर ध्यान दिलाना असमीचीन न होगा कि भारत एक बहुभाषी देश है और इसकी प्रत्येक भाषा की कई बोलियां है। इसकें अतिरिक्त भारतीय समाज की प्रकृति बहुस्तरीय है जो भाषा पर अपना प्रभाव डालती है। अतः मानकीकरण की प्रक्रिया में फ्रांसीसी, पुर्तग़ाली, लैटिन आदि भाषाओं की भांति भारतीय भाषाएं एकोन्मुखी न होकर बहुमुखी और बहुआयामी हैं (श्रीवास्तव 1980) वास्तव में बहुभाषी देशों की यह नियति है कि उनकी मानक भाषा अपनी प्राकृति में बहुआयामी और बहुस्तरीय होती है यह स्थिति न केवल भाषा और बोली के संबंधों पर आधारित है वरन् साहित्यिक तथा सामाजिक सांस्कृतिक धाराओं के प्रभाव से विभिन्न शैलियों कें संदर्भ में देखी जा सकती है। यही स्थिति हिन्दी पर भी लागू होती है। हिन्दी की सत्रह बोलियां हैं अतः इनका मानक प्रभाव तो मानक रूप पर पड़ना स्वाभाविक है। किंतु शैली के स्तर पर भी हिन्दी के तीन मानक रूप स्पष्टतः दिखाई देते हैं। एक है संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा दूसरी है अरबी-फारसी मिश्रित हिन्दी और तीसरी है सामान्य हिन्दी, जिसे कुछ लोग हिन्दुस्तानी कहते हैं। ये सभी रूप अपने अपने को मानक रूप में सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में हिन्दी का मानक रूप बहुमुखी और बहुआयामी हो गया है। इस दृष्टि से पुस्तकें और किताब, पत्र और चिठ्ठी, अनशन और भूख हड़ताल, खेती और कृषि, संपत्ति और जायदाद, स्वीकृति और मंजूरी आदि अनेक शब्द मिल जाते हैं, जिनके बारे में यह प्रश्न उठता है किसे मानक माना जाए और किसे अमानक या किसे शिष्ट कहा जाए और किसे शिष्टेतर। इस प्रकार हिन्दी एक ऐसी स्थिति से गुजर रही है जिसके एक ओर से अधिक मानक रूप हैं और उन सभी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। इससे न तो इसकी संप्रेषणीयता और न बोधगम्यता में कोई बाधा पड़ रही है और न ही इसकी सार्वदेशिकता एवं सार्वजनीनता पर आंच आ रही है। यही हिन्दी की अपनी विशेषता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गार्विन: 1959)
  2. (फर्ग्युसन: 1968)
  • गार्विन, पी. एल. 1959, ‘दि स्टेंडर्ड लेंग्वेज प्राब्लम्ज’

देंखें हाइम्स (सं.)

  • गोस्वामी, कृष्ण्कुमार, 1981 शैक्षणिक व्याकरण और व्यावहारिक हिन्दी, आलेख प्रकाशन दिल्ली।
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47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे


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