सूरीनाम देश और हिन्दी -सूर्यप्रसाद बीरे  

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लेखक- श्री सूर्यप्रसाद बीरे

          सूरीनाम दक्षिण अमरीका के उत्तर में स्थित एक देश है, जिसकी राजधानी पारामारिबो है। पारामारिबो का मतलब है फूलों का शहर। कहा जाता है कि यह नाम भिलनियों (रेड-इंडियन) द्वारा दिया गया है। इन लोगों की परंपरा भारतीय मानी जाती है, जिसके कारण उनकी भाषा के कुछ शब्द संस्कृत भाषा के शब्दों से मिलते-जुलते हैं। उदाहरण के रूप में ‘‘मातापिका’’। यह एक प्राकृतिक सुन्दर स्थान है जहाँ बहुत से लोग अपनी छुट्टियाँ व्यतीत करते हैं। यदि इस शब्द के वर्ण को बदल दिया जाए तो शब्द मूल भारतीय देवनागरी शब्द बन जाता है ‘‘मातापिता’’। इस तरह से पारामारिबो के संबंध में कहा जाता है कि यह ‘‘परम ब्रह्म’’ का अपभ्रंश है।
          सूरीनाम शब्द के संबंध में यह कहा जाता है कि ‘‘सूरीनाम’’ नाम की भिलनियो (रेड-इंडियन) का यहाँ समूह था जिसके कारण सूरीनाम नाम पड़ा। इस शब्द की संस्कृत शब्द ‘‘सूरीनाम’’ से तुलना की जाए तो दो अक्षरों के हेर-फेर से वह ‘‘विद्वानों का देश’’ हो जाता है। इस तरह से देखा जाए तो सूरीनाम के स्थानों आदि नामों के संबंध में इतिहासकारों एवं शोधकर्ताओं आदि के लिए खोज तथा शोध को एक सुन्दर अवसर है। कुछ लोगों का कहना है कि भिलनी लोग सूरीनाम के प्राचीन देशवासी या रेड-इंडियन या भिलनी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासी हैं। यह बात कहाँ तक सही है, केवल जाँच-पड़ताल से इसे अच्छी तरह से जाना जा सकता है। सूरीनाम देश की सीमा चारों ओर से प्रकृति से घिरी हुई है। उत्तर में अटलांटिक महासागर है। दक्षिण में आकाराई और तुमुहुमुक पहाड़ है जो सूरीनाम को ब्राजील देश से अलग करते हैं। पूरब में मारोबइने नदी बहती है जिससे सूरीनाम और फ्रेंच गयाना विभाजित होते हैं। पश्चिम में कोरांताइन नदी है जो हमें (ब्रिटिश) गयाना से अलग कर देती है। सूरीनाम देश का क्षेत्रफल हालैंड देश से पांच गुना बड़ा है। कुछ वर्षों तक यह देश ब्रिटिश राज का उपनिवेश था। किंतु ‘‘नई गाइनेई’’ को सूरीनाम में हालैंड ने बदल लिया। उस समय नई गाइनेई हालैंड का उपनिवेश था। हालांकि ब्रिटिश राज यहाँ बहुत दिन तक शासन न कर पाया, फिर भी उनका प्रभाव काफ़ी बना रहा। इसीलिए नीग्रो की भाषा स्रानांग तोंगो में 80 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी भाषा के है। यहाँ की यातायात व्यवस्था इंगलैंड की तरह है।
          सूरीनाम देश की जलवायु उष्णवलयिक है। मुख्य रूप से वर्षा होती है। सूरीनाम देश की दो तिहाई मिट्टी पहाड़ी मिट्टी है। एक तिहाई उपजाऊ मिट्टी है। इस देश को कृषि-प्रधान देश कहा जाता है। निकेरी इलाका में अधिकांशत: चावल (धान) की खेती होती है। इस देश का प्रमुख व्यवसाय खेती है।

सूरीनाम में हिन्दी का प्रयोग

          सूरीनाम में रहने वाले भारतीय प्राय: उत्तर भारत से आए हुए हैं और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार प्रदेश के निवासी हैं। यहाँ की प्रमुख भाषाएँ हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बंगाली, गुजराती और मराठी हैं। ये सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा वर्ग की हैं। हिन्दी को पाँच प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है। पहाड़ी राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी और बिहारी। इन भाषा क्षेत्रों में कई बोलियाँ हैं। सूरीनाम में हिन्दुस्तानी प्रवासी लोग मुख्य रूप से भोजपुरी और अवधी बोली बोलते थे। इन बोलियों के अतिरिक्त अधिकांश भारतीय मूल के लोग जो सूरीनाम में बस गए थे उत्तर भारत की सार्वजनिक संपर्क भाषा खड़ी बोली भी जानते थे। खड़ी बोली के अलावा उर्दू का भी प्रयोग होता था।
          वास्तव में भारतीय प्रवासियों के आपसी संपर्क के कारण उनकी सभी भाषाएँ मिश्रित होकर विशिष्ट प्रचलित हिन्दी बोली जाती है। साहित्य और अध्यापन के प्रभाव से हिन्दुस्तानी या उर्दू (मुस्लिम) और सामान्य उच्च-हिन्दी (हिन्दू) ज्यादातर मानक भाषा का रूप धारण करने लगी। वर्तमान समय में इस भाषा का प्रयोग भाषण, पत्र, सूचना आदि में शुद्ध हिन्दुस्तानी या सरल उच्च हिन्दी के रूप में होता है। बोलचाल की भाषा में स्थानीय भाषाओं का भी प्रभाव आ गया है। गयाना पड़ोसी देश से पश्चिमी प्रांत निकेरी में अंग्रेजी का प्रभाव भी पड़ा है। इसी में एक बोली स्रानांग तोंगो है जिसे नीग्रो इंगलिश भी कहा जाता है। वास्तव में अधिकांश भारतवंशी होने होने के कारण उनकी बोलचाल की भाषा सूरीनाम की धरती पर विकसित हुई है जिसे ‘‘सरनामी हिन्दी’’ कहा जाता है और अब वह केवल सरनामी से जानी जाती है। हिन्दी के अलावा बहुत से भारतवंशी स्रानांग तोंगो भी बोलते हैं। विशेष रूप से पुरुष वर्ग और युवा वर्ग हिन्दी के अतिरिक्त यह भाषा अच्छी तरह से बोलते हैं। परिवार में युवा वर्ग प्राय: सरनामी का ही प्रयोग करता है।
          पारामारिबो राजधानी में भारतवंशियों द्वारा हिन्दी के अतिरिक्त डच भाषा का अधिक प्रयोग किया जाता है। कुछ ऐसे परिवार हैं जहाँ हिन्दी समझी नहीं जाती। ये परिवार बहुत समय पहले से ही पारामारिबो में बसे हुए हैं। अब कई भारतवंशी हिन्दी सीखने की कोशिश कर रहे हैं।

देश और निवासी

          यहाँ दुनियाँ की क़रीब सभी जातियाँ रह रही हैं – अमरेंद्यन (रेड-इंडियन या भिलनी), नीग्रो, हिन्दुस्तानी, जाबी (इंडोनेशियन), बुश-नीग्रो, चीनी, लिबानिश (यहूदी) परिवार, यूरोपियन आदि। 1980 की जनगणना के अनुसार 39 प्रतिशत हिन्दुस्तानी, 35 प्रतिशत नीग्रो, 18 प्रतिशत इंडोनेशियन, शेष 8 प्रतिशत अन्य जातियाँ हैं। इस प्रकार सूरीनाम देश केरीबियन क्षेत्र में सब से विषमरूपी समाज है। कई जातियों के साथ-साथ यहाँ कई संस्कृतियाँ और कई भाषाएँ भी हैं। इसकी कुल आबादी लगभग चार लाख है। इस चार लाख में जो भाषाएँ बोली जाती हैं वे हैं – डच, स्रानांग, तोंगों, हिन्दी (सरनामी हिन्दी), उर्दू, जावी, चीनी, अंग्रेजी, बुशनीग्रों की कई भाषाएँ, रेड-इंडियन की कई भाषाएँ आदि। संसार में शायद कोई ऐसा देश हो जहाँ इतनी आबादी में इतनी सारी भाषाएँ बोली जाती हों।

भारतवंशी समाज

          आज से यदि 110 वर्षों के भारतवंशियों के इतिहास पर प्रकाश डाला जाए तो यही पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने यहाँ की जमीन को आबाद किया, भूमि पर खेती की और सूरीनाम में शांति तथा प्रगति के साथ अपना जीवन आरंभ किया। इसी तरह से अफ्रीका तथा एशिया के अन्य आप्रवासियों ने भी इस देश की उन्नति और विकास में योगदान दिया।
          सन् 1873 ई० में भारतवंशी पूर्वजों ने सूरीनाम देश में अपना प्रथम पग रखा। प्रथम जहाज जो आया था वह था ‘‘लालारुख’’ जिसमें 410 लोग थे। समुद्र के रास्ते से आने के कारण 11 लोगों की मृत्यु हो गई थी। कुल योग जो प्रथम बार थे 399 इस जहाज ‘‘लालारुख’’ ने 4 जून 1873 को सूरीनाम नदी में प्रवेश किया था और 5 जून को हमारे पूर्वजों ने अपना पैर इस देश की धरती पर रखा। अनेक कठिनाइयों और संकटों के बीच अपने पूर्वजों ने आज भी धर्म, संस्कृति, भाषा आदि को सुरक्षित रखा है। इतिहास बताता है कि सन् 1873 ई० तक प्राय: 56 वर्षों तक किसी न किसी रूप में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था सरकारी विद्यालयों तथा स्वैच्छिक संस्थाओं में निरन्तर चलती रही, किन्तु सन् 1929 से अब तक प्राय: 55 वर्षों में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन का कार्य सरकारी विद्यालयों में बंद हो गया और केवल स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा ही कुछ काम होता है।

प्राचीन हिन्दी साहित्य

          यद्यपि कई पूर्वज पढ़ना-लिखना जानते थे किन्तु उनकी लिखी पुस्तकों का प्रकाशन नहीं हो सका। उस समय सूरीनाम देश में हिन्दी मुद्रण की कोई व्यवस्था नहीं थी। हमें कई पांडुलिपियाँ देखने को मिलीं जिनमें न तो आदि के पृष्ठ मिले और न ही अंत के। इस तरह से कई पांडुलिपियाँ नष्ट हो गईं। एक ही पूर्वज की दो पुस्तकें छपी हैं मुंशी रहमान खान: ज्ञान प्रकाश। सन् 1954 इस पुस्तक में मुंशी रहमान खान स्वयं अपने बारे में लिखतें हैं:–
दोहा –
कमिश्नरी इलाहाबाद में ज़िला हमीरपुर नाम।
बिवांर थाना है मेरा मुकाम भरखरी ग्राम।। 1
सिद्धि निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्वी पाय।
मास शत्रु तिथि तेरहवीं – डच गैयाना[१] आय।। 2
गिरमिट काटी पाँच वर्ष की कोठी रुस्तम लोस्त।
सर्दार रहेऊं वहं बीस वर्ष लो लीचे मनयर होर्स्त।। 3
अग्नि व्योम इक खंड भुईं ईस्वी आय।
मास वर्ग तिथि तेरहवीं गिरमिट बीती भाय।। 4
खेत का नम्बर चार है देइक फेल्त मम ग्राम।
सुरिनाम देश में वास है रहमानखान निजनाम।। 5
लेतरकेन्दख[२] स्वर्ण पद दीन्ह क्वीन युलियान।
अजरू अमर दम्पति हरहैं प्रेन्स देंय भगवान।। 6
स्वर्ण पदक दूजो दियो मिल सन्नुतुल जमात।
यह बरकत है दान की की विद्या खैरात।। 7
इति वर्ग ग्रह सूर्य की है ईस्वी वर्ष।
मास भूमि तिथि रूद्र को पूरण कीन्ह सहर्ष।। 8 [३]
इसी में रहमान खान का एक नोट दिया हुआ है और उसमें लिखते हैं इन दोनों उपाधियों का वृतांत मेरी बनाई दोहा शिक्षावली नामक पुस्तक में पढ़िये। जो सन् 1953 ई० में छप चुकी है।
          मुंशी रहमान खान अपनी दूसरी पुस्तक दोहा शिक्षावली पृष्ठ 4 में लिखते हैं –
दोनों उपाधियों के जलसों का बयान

हार्दिक कोटिश: धन्यवाद है उस सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी सर्वप्रिय जगदाधार परम-प्रिय पिता परमात्मा को, कि जिसने अपनी प्रभुता से सारी सृष्टि को उत्पन्न करके अपनी प्रभुताई दिखलाई, दिखला रहा है और दिखलावेगा। कि जिस दीनानाथ की परम कृपालुता से आज मुझे मेरे परम प्यारे आँख के सितारे राज्य के दुलारे, श्रीयुत् महामान्य, महोदय गवर्नर क्लाशश जी साहब बहादुर के कमलस्वरूपी चरणों के दर्शन प्राप्त हुए, कि जिसको पाकर मैं अपने को अहोभाग्य समझता हूँ और मेरी सर्व मनोकामनाएँ पूर्ण हुईं और नेत्र तृप्त हुए।
आमीन। आमीन।। रव्वुल आलमीन।।।


दोहा –

                बिस्मिमल्लह कहिकर प्रथम सुमिर पाक रब नाम।
लधु कविता सेवक कहैं छोड़ मोह मद काम।। 1
निज प्यारे श्री लार्ड को करूँ प्रणाम कर जोर।
ईश क्वीन का यश कहूँ सुनहिं आप सिरमौर।। 2
क्षमियों लेख भूल हो आप ग़रीब निवाज।
कृपा दृष्टि नित राखियों तुम रक्षक महाराज।। 3
प्रथम जहाज के संबंध में मुंशी रहमान खान अपनी दोहा शिक्षावली में पद्य के रूप में इस प्रकार वर्ण करते हैं। (पृष्ठ 16 में)
(सुरीनाम – डच गैयाना में भारतवासियों की अवाई)

दोहा –

गुण यासर सिधि अवनि की वर्ष ईस्वी जान।
मास शास्त्र तिथि तत्व को यहाँ आयो जलयान।। 1

चौपाई

यही वर्ष तारीख महीना। पहंच्चे आय शहर परमारी।। 2
प्रथम जहाज यही यहं आयो। भारतवासी लाय बसायो।। 3
दुइ जाति भारत से आये। हिन्दू मुसलमान कहलाये।। 4
रही प्रीति दोनहुं में भारी। जस दुइ बन्धु एक महतारी।। 5
सब बिधि भूपति कीन्ह भलाई।
दुख अरू विपति में भयो सहाई।। 6
हिलमिल कर निशिवासर रहते।
नहिं अनभल कोई किसी का करते।। 7
बाढ़ी अस दोनहुं में प्रीति। मिल गये दाल भात की रीति।। 8
खान पियन सब सायहंवै। नहीं बिध्न कोई कारज होवै।। 9
सब विधि करें सत्य व्यवहारा। जस पद होय करें सत्कारा।। 10
          इस तरह से केवल मुंशी रहमान खान की रचनाएँ हमें प्राचीन साहित्य के रूप में प्राप्त होती हैं। और जो साहित्य पूर्वजों के संबंध में उपलब्ध हैं वह ईसाई मिशनरी श्री डॉ. सी. जे. एम. देक्लरक द्वारा डच भाषा में विवेचन किया है।
1. द इमिखासी दर हिन्दोस्तानन एन सूरीनाम
(अर्थ: सूरीनाम में हिन्दुस्तानी का आप्रवास)
          इसी ईसाई मिशनरी ने एक दूसरी पुस्तक भारतीयवंशियों के धर्म और उनकी रीति-रिवाज अपने शोध प्रबंध के रूप में लिखी है।
          (1951) डच का नाम इस प्रकार है:
‘‘कल्सस एन रितुवैल फान हत ओर्तोदॉसक्स हिन्देस्म’’
          अंग्रेजी भाषा में जहाँ तक मेरी जानकारी है केवल दो प्रमुख ग्रंथ हैं जिनमें पूर्वजों के धरोहर के बारे में वर्णन मिलता है। प्रथम है डॉ. जे. डी. स्पेकमान्न जिन्होंने सूरीनाम में भारतीयों के विवाह और रिश्ते-नाते के संबंध में अंग्रेजी में लिखा है: marriage and kinship among the indians in suriname.
          दूसरे हैं डॉ. उर्षबुध आर्य जिन्होंने भारतीयों के लोकगीत पर अंग्रेजी में अपना शोध प्रबंध लिखा है : ritual songs and folks songs of the indians in suriname (1968).
          भारतीय मूल के शिरोमणी डॉ. ज्ञान हंसदेव अधीन ने 1953 में हिन्दी-डच शब्दकोश का संग्रह किया जिसके प्रकाशक है ‘‘विद्या पुस्तक सदन, पारामारीबो।’’ स्वर्गीय श्री एम.ए. गुलजार ने भी 1966 में डच के माध्यम से हिन्दुस्तानियों की भाषा को सीखने की एक पाठ्यपुस्तक का निर्माण किया। आप डच भाषा अध्यापक, भारतवंशियों की भाषाओं के प्रसिद्ध अनुवादक रहे हैं। सूरीनाम की धरती पर विकसित भारतवंशियों की बोलचाल की भाषा ‘सरनामी’ (हिन्दी) पर डॉ. ज्ञान हंसदेव अधीन जी की रोमन लिपि में सरनामी हिन्दुस्तानी की वर्तनी का प्रस्ताव किया था जिसका प्रकाशन 1964 में पारामारीबो में हुआ था। इस प्रकार सूरीनाम में हिन्दी अपना स्थान बनाए हुए हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्तमान सूरीनाम देश
  2. डच शब्द (साहित्यकार)
  3. ‘‘इति ज्ञान प्रकाशसमद्रि’’ पृष्ठ 25-26

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स्वतंत्र लेखन वृक्ष
तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
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