राजेन्द्र प्रसाद  

राजेन्द्र प्रसाद
पूरा नाम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
अन्य नाम राजेन बाबू
जन्म 3 दिसम्बर, 1884
जन्म भूमि जीरादेयू, बिहार
मृत्यु 28 फ़रवरी, 1963
मृत्यु स्थान सदाकत आश्रम, पटना
अभिभावक महादेव सहाय
पति/पत्नी राजवंशी देवी
नागरिकता भारतीय
पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
पद भारत के प्रथम राष्ट्रपति
कार्य काल 26 जनवरी, 1950 से 13 मई, 1962
शिक्षा स्नातक, बी. एल., क़ानून में मास्टर डिग्री और डॉक्टरेट
विद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज (कलकत्ता)
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न
अन्य जानकारी राजेन्द्र प्रसाद, भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (अंग्रेज़ी: Dr. Rajendra Prasad, जन्म- 3 दिसम्बर, 1884, जीरादेयू, बिहार; मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1963, सदाकत आश्रम, पटना) भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। राजेन्द्र प्रसाद बेहद प्रतिभाशाली और विद्वान् व्यक्ति थे। राजेन्द्र प्रसाद, भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।

जन्म

बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव जीरादेयू में 3 दिसम्बर, 1884 में राजेन्द्र प्रसाद का जन्म हुआ था। एक बड़े संयुक्त परिवार के राजेन्द्र प्रसाद सबसे छोटे सदस्य थे, इसलिए वह सबके दुलारे थे। राजेन्द्र प्रसाद के परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध गहरे और मृदु थे। राजेन्द्र प्रसाद को अपनी माता और बड़े भाई महेन्द्र प्रसाद से बहुत स्नेह था। जीरादेयू गाँव की आबादी मिश्रित थी। मगर सब लोग इकट्ठे रहते थे। राजेन्द्र प्रसाद की सबसे पहली याद अपने हिन्दू और मुसलमान दोस्तों के साथ 'चिक्का और कबड्डी' खेलने की है। किशोरावस्था में उन्हें होली के त्योहार का इंतज़ार रहता था और उसमें उनके मुसलमान दोस्त भी शामिल रहते थे और मुहर्रम पर हिन्दू ताज़िये निकालते थे। 'राजेन बाबू' (राजेन्द्र प्रसाद) को गाँव के मठ में रामायण सुनना और स्थानीय रामलीला देखना बड़ा अच्छा लगता था। घर का वातावरण भी ईश्वर पर पूर्ण विश्वास का था। राजेन्द्र प्रसाद की माता बहुत बार उन्हें रामायण से कहानियाँ सुनातीं और भजन भी गाती थी। उनके चरित्र की दृढ़ता और उदार दृष्टिकोण की आधारशिला बचपन में ही रखी गई थी।

राजेन्द्र प्रसाद के सम्मान में डाक टिकट

विवाह

गाँव का जीवन पुरानी परम्पराओं से भरपूर था। इनमें से एक रिवाज था- बाल विवाह और परम्परा के अनुसार राजेन्द्र प्रसाद का विवाह भी केवल बारह वर्ष की आयु में हो गया था। यह एक विस्तृत अनुष्ठान था जिसमें वधू के घर पहुँचने में घोड़ों, बैलगाड़ियों और हाथी के जुलूस को दो दिन लगे थे। वर एक चांदी की पालकी में, जिसे चार आदमी उठाते थे, सजे-धजे बैठे थे। रास्ते में उन्हें एक नदी भी पार करनी थी। बरातियों को नदी पार कराने के लिए नाव का इस्तेमाल किया गया। घोड़े और बैलों ने तैरकर नदी पार की, मगर इकलौते हाथी ने पानी में उतरने से इंकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि हाथी को पीछे ही छोड़ना पड़ा और राजेन्द्र प्रसाद के पिता जी 'महादेव सहाय' को इसका बड़ा दु:ख हुआ। अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने से दो मील पहले उन्होंने किसी अन्य विवाह से लौटते दो हाथी देखे। उनसे लेनदेन तय हुआ और परम्परा के अनुसार हाथी फिर विवाह के जुलूस में शामिल हो गए। किसी तरह से यह जुलूस मध्य रात्रि को वधू के घर पहुँचा। लम्बी यात्रा और गर्मी से सब बेहाल हो रहे थे और वर तो पालकी में ही सो गये थे। बड़ी कठिनाई से उन्हें विवाह की रस्म के लिए उठाया गया। वधू, राजवंशी देवी, उन दिनों के रिवाज के अनुसार पर्दे में ही रहती थी। छुट्टियों में घर जाने पर अपनी पत्नी को देखने या उससे बोलने का राजेन्द्र प्रसाद को बहुत ही कम अवसर मिलता था।

राजेन्द्र प्रसाद बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। तब वह पत्नी से और भी कम मिल पाते थे। वास्तव में विवाह के प्रथम पचास वर्षों में शायद पति-पत्नी पचास महीने ही साथ-साथ रहे होंगे। राजेन्द्र प्रसाद अपना सारा समय काम में बिताते और पत्नी बच्चों के साथ जीरादेयू गाँव में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थीं।

राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया, "मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था। चम्पारन में गांधी जी ने उन्हें अपने पुराने विचारों को छोड़ देने के लिये कहा। आख़िरकार उन्होंने समझाया कि जब वे साथ-साथ एक ध्येय को लेकर कार्य करते हैं तो उन सबकी केवल एक जाति होती है अर्थात वे सब साथी कार्यकर्ता हैं।"

- राजेन्द्र प्रसाद

मातृभूमि के लिए समर्पित

राजेन्द्र प्रसाद प्रतिभाशाली और विद्वान् थे और कलकत्ता के एक योग्य वकील के यहाँ काम सीख रहे थे। राजेन्द्र प्रसाद का भविष्य एक सुंदर सपने की तरह था। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार उनसे कई आशायें लगाये बैठा था। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के परिवार को उन पर गर्व था। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद का मन इन सब में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद केवल धन और सुविधायें पाने के लिए आगे पढ़ना नहीं चाहते थे। एकाएक राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि में इन चीज़ों का कोई मूल्य नहीं रह गया था। राष्ट्रीय नेता गोखले के शब्द राजेन्द्र प्रसाद के कानों में बार-बार गूँज उठते थे।

आज़ादी तो हमें तभी प्राप्त होगी, जबकि हम समाजवादी लड़ाई का मार्ग पकड़ें। नरेन्द्र देव

राजेन्द्र प्रसाद की मातृभूमि विदेशी शासन में जकड़ी हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद उसकी पुकार को कैसे अनसुनी कर सकते थे। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद यह भी जानते थे कि एक तरफ देश और दूसरी ओर परिवार की निष्ठा उन्हें भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींच रही थी। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार यह नहीं चाहता था कि वह अपना कार्य छोड़कर 'राष्ट्रीय आंदोलन' में भाग लें क्योंकि उसके लिए पूरे समर्पण की आवश्यकता होती है। राजेन्द्र प्रसाद को अपना रास्ता स्वयं चुनना पड़ेगा। यह उलझन मानों उनकी आत्मा को झकझोर रही थी।

पंडित जवाहर लाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद

राजेन्द्र प्रसाद ने रात ख़त्म होते-होते मन ही मन कुछ तय कर लिया था। राजेन्द्र प्रसाद स्वार्थी बनकर अपने परिवार को सम्भालने का पूरा भार अपने बड़े भाई पर नहीं डाल सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद के पिता का देहान्त हो चुका था। राजेन्द्र प्रसाद के बड़े भाई ने पिता का स्थान लेकर उनका मार्गदर्शन किया था और उच्च आदर्शों की प्रेरणा दी थी। राजेन्द्र प्रसाद उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते थे? अगले दिन ही उन्होंने अपने भाई को पत्र लिखा, "मैंने सदा आपका कहना माना है और यदि ईश्वर ने चाहा तो सदा ऐसा ही होगा।" दिल में यह शपथ लेते हुए कि अपने परिवार को और दु:ख नहीं देंगे उन्होंने लिखा, "मैं जितना कर सकता हूँ, करूँगा और सब को प्रसन्न देख कर प्रसन्नता का अनुभव करूँगा।" लेकिन उनके दिल में उथल-पुथल मची रही। एक दिन वह अपनी आत्मा की पुकार सुनेंगे और स्वयं को पूर्णतया अपनी मातृभूमि के लिए समर्पित कर देंगे। यह युवक राजेन्द्र थे जो चार दशक पश्चात् 'स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति' बने।

इंग्लैण्ड जाने का सपना

बहुत बड़े परिवार में रहने के कारण शुरू से ही राजेन्द्र प्रसाद में अन्य सदस्यों का ध्यान रखने और निस्स्वार्थता का गुण आ गया था। छात्रकाल के दौरान उनके मन में आई.सी.एस. की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड जाने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन उन्हें भय था कि परिवार के लोग इतनी दूर जाने की अनुमति कभी नहीं देंगे। इसलिए उन्होंने बहुत ही गुप्त रूप से जहाज़ में इंग्लैंण्ड जाने के लिए सीट का आरक्षण करवाया और अन्य सब प्रबन्ध किए। यहाँ तक की इंग्लैंण्ड में पहनने के लिए दो सूट भी सिलवा लिए। लेकिन जिसका उन्हें भय था वही हुआ। उनके पिताजी ने इस प्रस्ताव का बहुत ज़ोर से विरोध किया। राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत अनिच्छा से इंग्लैंण्ड जाने का विचार छोड़ दिया। अन्य लोगों के विचारों के प्रति सम्मान का गुण पूरा जीवन राजेन्द्र प्रसाद के साथ रहा। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के बचपन में विकसित सारे गुण जीवनभर उनके साथ रहे और उन्हें कठिनाइयों का सामना करने का साहस देते रहे।

बचपन से ही परिश्रमी

स्कूल के दिन परिश्रम और मौज-मस्ती का मिश्रण थे। उन दिनों में यह परम्परा थी कि शिक्षा का आरंभ फ़ारसी की शिक्षा से किया जाए। राजेन्द्र प्रसाद पाँच या छह वर्ष के रहे होंगे जब उन्हें और उनके दो चचेरे भाइयों को एक मौलवी साहब पढ़ाने के लिए आने लगे। शिक्षा आरंभ करने वाले दिन पैसे और मिठाई बांटी जाती है। लड़कों ने अपने अच्छे स्वभाव वाले मौलवी साहब के साथ शैतानियाँ भी की मगर मेहनत भी कस कर की। वे सुबह बड़ी जल्दी उठ कर कक्षा के कमरे में पढ़ने के लिए बैठ जाते। यह सिलसिला काफ़ी देर तक चलता और बीच में उन्हें खाने और आराम करने की छुट्टी मिलती। वास्तव में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतने छोटे बच्चे बहुत देर तक ध्यान लगा कर पढ़ाई कर सकें। ये विशेष गुण जीवनपर्यन्त राजेन्द्र प्रसाद में रहे और इन्हीं ने उन्हें विशिष्टता भी दिलाई।

विश्वविद्यालय की शिक्षा

राजेन्द्र प्रसाद अपने नाज़ुक स्वास्थ्य के बावज़ूद भी एक गंभीर एवं प्रतिभाशाली छात्र थे और स्कूल व कॉलेज दोनों में ही उनका परिणाम बहुत ही अच्छा रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में राजेन्द्र प्रसाद प्रथम रहे और उन्हें तीस रुपये महीने की छात्रवृत्ति भी मिली। उन दिनों में तीस रुपये बहुत होते थे। लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि पहली बार बिहार का एक छात्र परीक्षा में प्रथम आया था। उनके परिवार और उनके लिए यह एक गर्व का क्षण था। सन 1902 ई. में राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। यह सरल स्वभाव और निष्कपट युवक बिहार की सीमा से पहली बार बाहर निकल कर कलकत्ता जैसे बड़े शहर में आया था। अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकता रह गया। सबके सिर नंगे थे और वह सब पश्चिमी वेषभूषा की पतलून और कमीज़ पहने थे। उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं लेकिन जब हाज़िरी बोली गई तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सबके नाम हिन्दुस्तानी थे।

राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाज़िरी के समय नहीं पुकारा गया तो वह बहुत हिम्मत करके खड़े हुए और प्राध्यापक को बताया। प्राध्यापक उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा। वह सदा की तरह कुर्ता-पाजामा और टोपी पहने थे।
'ठहरो। मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाज़िरी नहीं ली,' प्राध्यापक ने तीखे स्वर में कहा।
वह शायद उन्हें एक स्कूल का लड़का समझ रहा था।
राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र हैं और अपना नाम भी बताया।
अब कक्षा के सब छात्र उन्हें घूरने लगे क्योंकि यह नाम तो उन दिनों सबकी ज़ुबान पर था। उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद नाम का लड़का विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। ग़लती को तुरन्त सुधारा गया और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद का कॉलेज जीवन आरम्भ हुआ।

आत्मविश्वासी राजेन्द्र

वर्ष के आख़िर में एक बार फिर ग़लती हुई। जब प्रिंसिपल ने एफ.ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया। क्योंकि इस परीक्षा के लिए उन्होंने बहुत ही परिश्रम किया था। आख़िर वह खड़े हुए और सम्भावित ग़लती की ओर संकेत किया।

प्रिंसिपल ने तुरन्त उत्तर दिया कि वह फ़ेल हो गए होंगे। उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए।
'लेकिन, लेकिन सर', राजेन्द्र प्रसाद ने हकलाकर, घबराते हुए कहा। इस समय उनका हृदय धक-धक कर रहा था।
'पाँच रुपया ज़ुर्माना' क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा। राजेन्द्र प्रसाद ने साहस कर फिर बोलना चाहा।
'दस रुपया ज़ुर्माना', लाल-पीला होते हुए प्रिंसिपल चिल्लाया।

राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में ज़ुर्माना बढ़कर 25 रुपये तक पहुँच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने उन्हें पीछे से बैठ जाने का संकेत किया। एक ग़लती हो गई थी। पता चला कि वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद कक्षा में प्रथम आए थे। उनके नम्बर उनकी प्रवेश परीक्षा से भी इस बार बहुत अधिक थे। प्रिंसिपल नया था। इसलिए उसने इस प्रतिभाशाली छात्र को नहीं पहचाना था। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रुपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें विशिष्ट स्थान मिला। यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद सदा विनम्र बने रहे मगर उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ लिया था कि अपने संकोच को दूर कर स्वयं में आत्मविश्वास पैदा करना ही होगा। अपने कॉलेज के दिनों में राजेन्द्र प्रसाद को सदा योग्य अध्यापकों का समर्थन मिला, जिन्होंने अपने छात्रों को आगे बढ़ने की प्रेरणा एवं उच्च आचार-विचार की शिक्षा दी।

राष्ट्रपति के पद पर राजेन्द्र प्रसाद ने सदभावना के लिए कई देशों की यात्रायें भी की। उन्होंने इस आण्विक युग में शान्ति की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। राजेन्द्र बाबू का यह विश्वास था कि अतीत और वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।

जागरूकता

उन दिनों बंगाल में सांस्कृतिक और सामाजिक जागृति हो रही थी। भारतीय इतिहास में यह संकट का समय था। सन् 1905 में हुए बंगाल के विभाजन ने जनता में राजनीतिक जागरूकता का विकसित कर दिया था। राजेन्द्र प्रसाद एक बार की बात स्मरण करके कहते हैं, 'उन दिनों का वातावरण...नये जीवन और नई आंकाक्षाओं से भरा हुआ था। मैं उनके प्रभाव से बच नहीं पा रहा था।' वह डॉन सोसाइटी के सदस्य बन गये जो छात्रों को अपनी भारतीय विरासत पर गर्व करना सिखाती थी। इसके बाद जल्दी ही राजेन्द्र प्रसाद सार्वजनिक और सामाजिक कार्यों की ओर आकर्षित हुए। राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता में एक 'बिहारी क्लब' बनाया जिसमें आरंभ में बिहार की स्थिति सुधारने और वहाँ के छात्रों की मदद करने का कार्य किया। बाद के वर्षों में यह क्लब कल्याण कार्यों का मंच बना। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के सार्वजनिक जीवन के लिए यह अच्छा प्रशिक्षण था।
बंगाल का विभाजन लोगों में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को जानबूझकर दिया गया धक्का माना गया। इसने तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचंद्र पाल जैसे नेताओं द्वारा आरंभ किये गए स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन (भारतीय चीज़ों का इस्तेमाल और ब्रिटिश चीज़ों का बहिष्कार) ने आग में घी का काम किया। उन्होंने इस आंदोलन को कुछ पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीयों के हाथों से निकालकर जनता तक पहुँचाया। इस आंदोलन के कारण लोगों ने भारतीय वस्तुओं पर गर्व करना सीखा और लोग भारतीय उद्योग को प्रोत्साहन देने लगे।

स्वदेशी आंदोलन

राजेन्द्र प्रसाद भी नये आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। अब पहली बार राजेन्द्र प्रसाद ने पुस्तकों की तरफ़ कम ध्यान देना शुरू किया। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने राजेन्द्र प्रसाद के छात्रालय के छात्रों को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने सब विदेशी कपड़ों को जलाने की क़सम खाई। एक दिन सबके बक्से खोल कर विदेशी कपड़े निकाले गये और उनकी होली जला दी गई। जब राजेन्द्र प्रसाद का बक्सा खोला गया तो एक भी कपड़ा विदेशी नहीं निकला। यह उनके देहाती पालन-पोषण के कारण नहीं था। बल्कि स्वतः ही उनका झुकाव देशी चीज़ों की ओर था। गोपाल कृष्ण गोखले ने सन् 1905 में 'सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' आरम्भ की थी। उनका ध्येय था ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक तैयार करना जो भारत में संवैधानिक सुधार करें। इस योग्य युवा छात्र से वह बहुत प्रभावित थे और उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को इस सोसाइटी में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। लेकिन परिवार की ओर से अपने कर्तव्य के कारण राजेन्द्र प्रसाद ने गोखले की पुकार को उस समय अनसुना कर दिया। लेकिन वह याद करते हैं,- 'मैं बहुत दुखी था।' और जीवन में पहली बार बी. एल. की परीक्षा में कठिनाई से पास हुए थे।

क़ानून में मास्टर डिग्री

वह अब वक़ालत की दहलीज पर खड़े थे। उन्होंने जल्दी ही मुक़दमों को अच्छी प्रकार और ईमानदारी से करने के लिये ख्याति पा ली। सन् 1915 में क़ानून में मास्टर की डिग्री में विष्टिता पाने के लिए राजेन्द्र प्रसाद को सोने का मेडल मिला। इसके बाद उन्होंने क़ानून में डॉक्टरेट भी कर ली। अब वह डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हो गये। इन वर्षों में राजेन्द्र प्रसाद कई प्रसिद्ध वक़ीलों, विद्वानों और लेखकों से मिले। राजेन्द्र प्रसाद भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी बन गये। राजेन्द्र प्रसाद के मस्तिष्क में राष्ट्रीयता ने जड़े जमा ली थी।

चम्पारन और ब्रिटिश दमन

ब्रिटिश शासक के अन्याय के प्रति हमारा दब्बूपन अब विरोध में बदल रहा था। सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ होने पर लोगों के लिये नई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई। जैसे- भारी कर, खाद्य पदार्थों की कमी कीमतों का बढ़ना और बेरोज़गारी। सुधार का कोई संकेत नहीं मिल रहा था। जब कलकत्ता में सन् 1917 के दिसम्बर माह में 'ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी' का अधिवेशन हुआ तो भारत में उथल-पुथल मची हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद भी इस अधिवेशन में शामिल हुए। उनके साथ ही एक सांवले रंग का दुबला-पतला आदमी बैठा था मगर उसकी आँखें बड़ी तेज़ और चमकीली थी। राजेन्द्र प्रसाद ने सुना था कि वह अफ़्रीका से आया है लेकिन अपने स्वाभाविक संकोच के कारण वह उससे बातचीत न कर सके। यह व्यक्ति और कोई नहीं महात्मा गांधी ही थे। वह अभी-अभी दक्षिण अफ़्रीका में सरकारी दमन के विरुद्ध संघर्ष करके भारत लौटे थे। राजेन्द्र प्रसाद को उस समय पता नहीं था कि वह सांवला पैनी आँखों वाला व्यक्ति ही उनके भविष्य के जीवन को आकार देगा।

चंपारण सत्याग्रह आंदोलन के दौरान डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और अनुग्रह नारायण सिन्हा

गांधी जी ने अपना प्रथम प्रयोग बिहार के चम्पारन ज़िले में किया जहाँ कृषकों की दशा बहुत ही दयनीय थी। ब्रिटिश लोगों ने बहुत सारी धरती पर नील की खेती आरम्भ कर दी थी जो उनके लिये लाभदायक थी। भूखे, नंगे, कृषक किरायेदार को नील उगाने के लिये ज़बरदस्ती की जाती। यदि वे उनकी आज्ञा नहीं मानते तो उन पर जुर्माना किया जाता और क्रूरता से यातनाएँ दी जाती एवं उनके खेत और घरों का नष्ट कर दिया जाता था। जब भी झगड़ा हाई कोर्ट में पेश हुआ, तब-तब वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद ने सदा बिना फ़ीस लिये इन कृषकों का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन फिर भी वह निरन्तर जानवरों जैसी स्थिति में रहते आ रहे थे। गांधीजी को चम्पारन में हो रहे दमन पर विश्वास नहीं हुआ और वास्तविकता का पता लगाने वह कलकत्ता अधिवेशन के बाद स्वयं बिहार गये। महात्मा गांधी के साथ चम्पारन का एक कृषक नेता था। जो पहले उन्हें राजेन्द्र प्रसाद जी के घर पटना में ले आया। घर में केवल नौकर था। गांधीजी को एक किसान मुवक्किल समझकर उसने बड़ी रूखाई से उन्हें बाहर बैठने के लिये कहा। कुछ समय बाद गांधी जी अपनी चम्पारन की यात्रा पर चल दिये। नील कर साहब और यहाँ के सरकारी अधिकारियों को डर था कि गांधीजी के आने से गड़बड़ न हो जाये। इसलिये उन्हें सरकारी आदेश दिया गया कि तत्काल ज़िला छोड़ कर चलें जायें। गांधीजी ने वहाँ से जाने से इंकार कर दिया और उत्तर दिया कि वह आंदोलन करने नहीं आये। केवल पूछताछ से जानना चाहते हैं। बहुत बड़ी संख्या में पीड़ित किसान उनके पास अपने दु:ख की कहानियां लेकर आने लगे। अब उन्हें कचहरी में पेश होने के लिये कहा गया।

गांधी जी से भेंट

बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ख़्याति कि वह बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं, गांधी जी के पास पहुँच चुकी थीं। गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को चम्पारन की स्थिति बताते हुए एक तार भेजा और कहा कि वह तुरन्त कुछ स्वयंसेवकों को साथ लेकर वहाँ आ जायें। बाबू राजेन्द्र प्रसाद का गांधी जी के साथ यह पहला सम्पर्क था। वह उनके अपने जीवन में ही नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीयता के इतिहास में भी, एक नया मोड़ था। राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त चम्पारन पहुँचे और गांधी जी में उनकी दिलचस्पी जागी। पहली बार मिलने पर उन्हें गांधी जी की शक्ल या बातचीत किसी ने भी प्रभावित नहीं किया था। हां, वह अपने नौकर का गांधी जी से किये दुर्व्यवहार से जिसके बारे में उन्होंने सुना था, बहुत दुखी थे।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और महात्मा गांधी

उस रात गांधी जी ने जागकर वाइसरॉय और भारतीय नेताओं को पत्र लिखे और कचहरी में पेश करने के लिये अपना बयान भी लिखा। उन्होंने केवल एक बार रूक कर बाबू राजेन्द्र प्रसाद और उनके साथियों से पूछा कि यदि उन्हें जेल भेज दिया गया तो वे क्या करेंगे। एक स्वयंसेवक ने हंसते हुए कहा कि तब उनका काम भी खत्म हो जायेगा और वे सब अपने घर चले जायेंगे। इस समय इस बात ने राजेन्द्र प्रसाद जी के दिल को छू लिया और उसमें हलचल मच गई। यह एक ऐसा आदमी है जो इस प्रान्त का निवासी नहीं है और किसानों के अधिकारों के लिये जी-जान से संघर्ष कर रहा है। वह न्याय के लिये जेल जाने को भी तैयार है। और यहाँ हमारे जैसे 'बिहारी' जो अपने क्षेत्र के किसानों की मदद करने पर गर्व करते हैं लेकिन फिर भी हम सब घर चले जायेंगे। इस अजीबोग़रीब स्थिति ने उन्हें चौंका दिया। वह इस छोटे से आदमी को आश्चर्यचकित से ताकते रहे। जिन लोगों को वह जानते थे उनमें से किसी ने भी कभी जेल जाने तक का सपना नहीं देखा था। वकीलों के लिए जेल एक गन्दा शब्द था। जेल केवल अपराधियों के लिए था। अपराधी भी जेल की सख़्ती से बचने के लिए अधिकारियों को बड़ी-बड़ी रकमें देते थे, और यह आदमी जाने कहां से आकर जेल जाने की बात कर रहा था। उसका भी तो घर और परिवार होगा। अगली सुबह तक गांधी जी के नि:स्वार्थ उदाहरण ने बाबू राजेन्द्र प्रसाद और उनके साथियों का दिल जीत लिया था। अब वे उनके साथ जेल जाने के लिए तैयार थे। कचहरी में गांधी जी ने कहा कि उन्होंने चम्पारन छोड़ने का अधिकारियों का आदेश अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर ही नहीं माना था। वह जेल जाने को तैयार हैं। बाबू राजेन्द्र प्रसाद और उनके साथी जब तक गिरफ़्तार नहीं कर लिये जाते और उनका स्थान अन्य नेता नहीं ले लेते पूछताछ का काम जारी रखेंगे। उस दिन दूर-दूर के गाँवों से इतने लोग कचहरी में गांधीजी को सुनने आये कि वहाँ का दरवाज़ा ही टूट गया।

सत्याग्रह की पहली विजय

यह एक चमत्कार के समान था। गांधी जी का निडरता से होकर सत्य और न्याय पर अड़े रहने से सरकार बहुत प्रभावित हुई। मुक़दमा वापस ले लिया गया और वह अब पूछताछ के लिए स्वतंत्र थे। यहाँ तक की अधिकारियों को भी उनकी मदद करने के लिये कहा गया। यह सत्याग्रह की पहली विजय थी। स्वाधीनता संघर्ष में गांधी जी का यह महत्त्वपूर्ण योगदान था। सत्याग्रह ने हमें सिखाया कि निर्भय होकर दमनकारी के विरुद्ध अपने अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से अड़े रहो।

राष्ट्रपति बनने पर भी उनका राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन चलता रहा। वृद्ध और नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्क क़ायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते।- राजेन्द्र प्रसाद

राजेन्द्र प्रसाद चम्पारन आंदोलन के दौरान गांधीजी के वफ़ादार साथी बन गये। क़्ररीब 25,000 किसानों के बयान लिखे गये और अन्ततः यह काम उन्हें ही सौंप दिया गया। बिहार और उड़ीसा की सरकारों ने अन्ततोगत्वा इन रिपोर्टों के आधार पर एक अधिनियम पास करके चम्पारन के किसानों को लम्बे वर्षों के अन्याय से छुटकारा दिलाया। सत्याग्रह की वास्तविक सफलता लोगों के हृदय पर विजय थी। गांधीजी के आदर्शवाद, साहस और व्यावहारिक सक्रियता से प्रभावित होकर राजेन्द्र प्रसाद अपने पूरे जीवन के लिये उनके समर्पित अनुयायी बन गये। वह याद करते हैं, 'हमारे सारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया था...हम नये विचार, नया साहस और नया कार्यक्रम लेकर घर लौटे।' बाबू राजेन्द्र प्रसाद के हृदय में मानवता के लिये असीम दया थी। 'स्वार्थ से पहले सेवा' शायद यही उनके जीवन का ध्येय था। जब सन् 1914 में बंगाल और बिहार के लोग बाढ़ से पीड़ित हुए तो उनकी दयालु प्रकृति लोगों की वेदना से बहुत प्रभावित हुई। उस समय वह स्वयंसेवक बन नाव में बैठकर दिन-रात पीड़ितों को भोजन और कपड़ा बांटते। रात को वह निकट के रेलवे स्टेशन पर सो जाते। इस मानवीय कार्य के लिये जैसे उनकी आत्मा भूखी थी और यहीं से उनके जीवन में निस्स्वार्थ सेवा का आरम्भ हुआ।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद और 34 वें अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वैट ऐज़नहौवर, सन् 1959

अस्पृश्यता का त्याग

गांधीजी के निकट संबंध के कारण उनके पुराने विचारों में एक क्रान्ति आई और वह सब चीजों को नये दृष्टिकोण से देखने लगे। उन्होंने महात्मा गांधी के मानवीय विकास और समाज सुधार कार्यों में भरसक सहायता की। उन्होंने महसूस किया, "विदेशी ताकतों का हम पर राज करने का मूल कारण हमारी कमज़ोरी और सामाजिक ढांचे में दरारें हैं।" अस्पृश्यता का अभिशाप जो प्राचीन समय से चला आ रहा था भारतीय समाज की एक ऐसी कुरीति थी जिसके द्वारा नीची जातियों को ऐसे दूर रखा जाता था मानों वे कोई छूत की बीमारी हों। उन्हें मंदिर के भीतर जाने नहीं दिया जाता था। यहाँ तक की गांव में कुए से पानी भी नहीं भरने देते थे।

लेकिन समाज के बदलने से पहले अपने को बदलने का साहस होना चाहिये। "यह बात सच थी," राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया, "मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था। चम्पारन में गांधीजी ने उन्हें अपने पुराने विचारों को छोड़ देने के लिये कहा। आख़िरकार उन्होंने समझाया कि जब वे साथ-साथ एक ध्येय के लेये कार्य करते हैं तो उन सबकी केवल एक जाति होती है अर्थात वे सब साथी कार्यकर्ता हैं।"

गाँधी जी का हरिजन आंदोलन

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने सादा जीवन अपनाया और नौकरों की संख्या कम करके एक कर दी। वह स्मरण करते हैं, "सच तो यह है कि हम सब कुछ स्वयं ही करते थे। यहाँ तक कि अपने कमरे में झाड़ू लगाना, रसोईघर साफ़ करना, अपना बर्तन मांजना-धोना, अपना सामान उठाना और अब गाड़ी में भी तीसरे दर्जे में यात्रा करना अपमानजनक नहीं लगता था।" देश ने गांधी जी के हरिजन आंदोलन में बहुत उत्साह दिखाया। बिहार ने प्रतिज्ञा की कि वह इस कुरीति को और हरिजनों के कल्याण के लिये किये कार्य द्वारा हटायेंगे। दक्षिण भारत को उन्होंने "अस्पृश्यता का गढ़" कहा। राजेन्द्र प्रसाद वहां सी. राजगोपालाचारी के साथ गये और बहुत प्रयास किया कि मंदिरों के द्वार हरिजनों के लिये खोल दिये जायें। उन्हें कुछ सफलता भी मिली। उन्होंने गांव के कुंए का उपयोग करने के अधिकार के लिए भी लड़ाई की। इस सुविधा को भी अन्य सुविधाओं के साथ स्वीकार कर लिया गया।

भूकम्प और राहत कार्य

जनवरी सन् 1934 में बिहार को एक भंयकर भूकम्प ने झिंझोड़ दिया। जीवन और सम्पत्ति की बहुत हानि हुई। राजेन्द्र प्रसाद अपनी अस्वस्थता के बाद भी राहत कार्य में जुट गये। वह उन लोगों के लिये जिनके घर नष्ट हो गये थे, भोजन, कपड़ा और दवाइयां इकट्ठी करते। भूकम्प के पश्चात् बिहार में बाढ़ और मलेरिया का प्रकोप हुआ। जिससे जनता की तकलीफें और भी बढ़ गई। इस भूकम्प और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में काम करने में गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद का साथ दिया।

कुछ समय पश्चात् उत्तर-पश्चिम में कोयटा नगर में, मई सन् 1935 में भयंकर भूकम्प आया और उस क्षेत्र में भीषण विनाश लीला हुई। सरकारी प्रतिबन्धों के कारण राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त वहां पहुंच न सके। उन्होंने पंजाब और सिंध में राहत कमेटियां बना दी जो भूकम्प द्वारा बेघर और वहां से आये लोगों को राहत देने का काम करने लगी। राजेन्द्र प्रसाद बड़ी हिम्मत से साम्प्रदायिक तनाव को कम करने, स्त्रियों की स्थिति में सुधार और गांवों में खादी और उद्योगों का विकास एवं राष्ट्र के अन्य निर्माण कार्य में लगे रहे। यह कार्य वह अपने जीवन के अंतिम दिनों तक करते रहे। उनकी मानवता आदमी के भीतर की अच्छाई को छू जाती थी।

"अपने मन में मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारा व्यक्तित्व घायल आत्माओं पर मरहम का काम करेगा और अविश्वास और गड़बड़ के वातावरण को शान्ति और एकता के वातावरण में बदल देगा।"- रवीन्द्रनाथ टैगोर

स्वाधीनता संग्राम में

राजेन्द्र प्रसाद ने अन्य नेताओं के साथ राष्ट्र निर्माण का अति विशाल कार्य ले लिया। उस समय उनके भीतर जल रही राष्ट्रीयता की ज्वाला को कोई नहीं बुझा सकता था। राजेन्द्र प्रसाद गांधी जी के बहुत निष्ठावान अनुयायी थे। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें और पूरे भारत को गांधी के रूप में आंदोलन के लिये नया नेता और सत्याग्रह व असहयोग के रूप में एक नया अस्त्र मिला।

विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा जहां इतने निरस्त्र लोग अहिंसा अपनाकर इतनी बहादुरी से लड़े हों। सत्य और न्याय के आदर्शों को धारण करके उनका ब्रिटिश शासन को हिलाने का निश्चय दृढ़ होता जा रहा था।

सरकार ने अपने दमनकारी अस्त्रों से इस उत्साह को दबाने का प्रयास किया। मार्च सन् 1919 में रॉलेट एक्ट पास किया गया। इसके द्वारा जज राजनीतिक मुक़दमों को जूरी के बिना सुन सकते थे और संदेहास्पद राजनीतिक लोगों को बिना किसी प्रक्रिया के जेल में डाला जा सकता था।

लोगों का असंतोष बढ़ता गया। गांधीजी ने पूरे देश में छ अप्रॅल सन् 1919 को हड़ताल बुलाई। "सारा काम ठप्प हो गया...यहाँ तक की गांवों में भी किसानों ने हल एक ओर रख दिये", राजेन्द्र प्रसाद ने टिप्पणी की।

लेकिन सरकार का अत्याचार बढ़ता ही गया। अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में 13 अप्रैल, 1919 में एक विरोध सभा में ढेर सारे निरस्त्र लोग मारे गये और कई घायल हुए।

असहयोग आंदोलन

राजेन्द्र प्रसाद इस बात से बहुत क्रोधित हो उठे और उन्होंने निर्भीकता से बिहार की जनता से गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन को स्वीकार करने की अपील की। यह ऐसा समय था जब देश के लिये कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी फलती-फूलती वकालत छोड़कर पटना के निकट सनअ 1921 में एक नेशनल कॉलेज खोला। हज़ारों छात्र और प्रोफ़ेसर जिन्होंने सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार किया था यहाँ आ गये। फिर इस कॉलेज को गंगा किनारे सदाकत आश्रम में ले जाया गया। अगले 25 वर्षों के लिये यह राजेन्द्र प्रसाद जी का घर था।

बिहार में असहयोग आंदोलन 1921 में दावानल की तरह फैल गया। राजेन्द्र प्रसाद दूर-दूर की यात्रायें करते, सार्वजनिक सभायें बुलाते, जिससे सबसे सहायता ले सकें और धन इकट्ठा कर सकें। उनके लिये यह एक नया अनुभव था। "मुझे अब रोज़ सभाओं में बोलना पड़ता था इसलिये मेरा स्वाभाविक संकोच दूर हो गया..." साधारणतया क़्ररीब 20,000 लोग इन सभाओं में उपस्थित होते। उनके नेतृत्व में गांवों में सेवा समितियों और पंचायतों का संगठन किया गया। लोगों से अनुरोध किया गया कि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें और खादी पहनें व चर्खा कातना आरम्भ करें।

राजेन्द्र प्रसाद और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

यह अनिवार्य था कि राजनीति का दृश्य बदले। राजेन्द्र प्रसाद ने जागरूकता का वर्णन इस प्रकार किया है, "अब राजनीति शिक्षितों और व्यवसायी लोगों के कमरों से निकलकर देहात की झोपड़ियों में प्रवेश कर गई थी और इसमें हिस्सा लेने वाले थे किसान।"

सरकार का दमन चक्र

सरकार ने इसके उत्तर में अपना दमन चक्र चलाया। हज़ारों लोग जिनमें लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू, देशबन्धु चितरंजन दास और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे प्रसिद्ध नेता गिरफ्तार कर लिये गये। आंदोलन का अनोखापन था उसका अहिंसक होना। लेकिन फ़रवरी सन् 1922 में गांधीजी ने 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' की पुकार दी किन्तु चौरी चौरा, उत्तर प्रदेश में हिंसक घटनायें होने पर गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया। उन्हें लगा कि हिंसा न्यायसंगत नहीं है। और राजनीतिक सफलता को कुछ समय के लिये स्थगित किया जाना ही अच्छा है। जिससे नैतिक असफलता से बचा जा सके। कई नेताओं ने आंदोलन को स्थगित करने के लिये गांधी जी की कड़ी आलोचना की लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने दृढ़ता के साथ उनका साथ दिया। उन्हें गांधीजी की बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था।

नमक सत्याग्रह

नमक सत्याग्रह का आरम्भ गांधी जी ने समुद्र तट की ओर यात्रा करके डांडी में किया। जिससे नमक क़ानून का उल्लंघन वह कर सकें। डांडी, साबरमती आश्रम से 320 किलोमीटर दूर थी। नमक की ज़रूरत हवा और पानी की तरह सब को है और उन्होंने महसूस किया कि नमक पर कर लगाना अमानुषिक कार्य था। यह पूरे राष्ट्र को सक्रिय होने का संकेत था। बिहार में नमक सत्याग्रह का आरम्भ राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में हुआ। पुलिस आक्रामण के बावजूद नमक क़ानून के उल्लघंन के लिये पटना में नख़ास तालाब चुना गया। स्वयंसेवकों के दल उत्साहपूर्वक एक के बाद एक आते और नमक बनाने के लिये गिरफ्तार कर लिये जाते। राजेन्द्र प्रसाद ने अहिंसक रहने के लिये स्वयंसेवकों से अपील की। कई स्वयंसेवक गम्भीर रूप से घायल हुए।

वह स्मरण करते हैं, "सच तो यह है कि हम सब कुछ स्वयं ही करते थे। यहाँ तक कि अपने कमरे में झाड़ू लगाना, रसोईघर साफ़ करना, अपना बर्तन मांजना-धोना, अपना सामान उठाना और अब गाड़ी में भी तीसरे दर्जे में यात्रा करना अपमानजनक नहीं लगता था।"- राजेन्द्र प्रसाद

नमक सत्याग्रह और जेल यात्रा

नमक सत्याग्रह के प्रति पुलिस के अत्याचार इतने बढ़ गये कि जनता में रोष उत्पन्न हो गया क्योंकि वह उलट कर पुलिस को मारती नहीं थी और सरकार को अंत में पुलिस को वहां से हटाना पड़ा। अब स्वयंसेवक नमक बना सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद ने उस निर्मित नमक को बेचकर धन इकट्ठा किया। जिस क़ानून को वह न्यायसंगत नहीं समझते थे उसे तोड़ने से कोई भी चीज़ उन्हें रोक नहीं सकती थी। एक बार तो वह पुलिस की लाठियों द्वारा गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। उन्हें छह महीने की जेल हुई। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी।

कवि राजेन्द्र

सन 1934 में भूकम्प पीड़ितों के लिये राहत कार्य करने के दौरान राजेन्द्र प्रसाद के भाई महेन्द्र प्रसाद का निधन हो गया। राजेन्द्र बाबू ने लिखा है, "इस संकट काल में मेरे भाई के देहान्त से मुझे भारी धक्का लगा और अपने मन को सांत्वना देने के लिए मैंने गीतों का सहारा लिया।"

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष

राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक से अधिक बार अध्यक्ष रहे। अक्तूबर सन् 1934 में बम्बई में हुए इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद ने की थी। उन्होंने गांधी जी की सलाह से अपने अध्यक्षीय भाषण को अन्तिम रूप दिया। सही बात का समर्थन करना सभा की कार्रवाई में प्रतिबिम्बित होता है। जब गांधीजी ने उनसे पूछा कि उन्होंने पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे गणमान्य नेता को दूसरी बार बोलने से कैसे मना कर दिया तो उन्होंने उत्तर में कहा कि ऐसा निर्णय उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष होने के नाते लिया था न कि राजेन्द्र प्रसाद के रूप में।

अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने सक्रीय, गतिशील, अंहिसात्मक, सामूहिक कार्य और अंतहीन बलिदान को स्वाधीनता का मूल्य बताते हुए उन पर ज़ोर दिया। अपनी बीमारी के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने बहुत दौरे किए।

कांग्रेस की स्वर्ण जयन्ती (सन 1885-1935) मनाई गई और कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने संदेश में कहा, "यह दिन स्मरण करने और अपने निश्चय को दोहराने का है कि हम पूर्ण स्वराज्य लेंगे, जो स्वर्गीय तिलक के शब्दों में हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।"

सुभाषचंद्र बोस के अप्रैल सन् 1939 में कांग्रेस अध्यक्षता (त्रिपुरी) से त्यागपत्र देने के बाद राजेन्द्र प्रसाद फिर अध्यक्ष चुने गये। वह अपना बहुत सारा समय कांग्रेस के भीतरी झगड़ों को निबटाने में लगाते। कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें लिखा, "अपने मन में मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारा व्यक्तित्व घायल आत्माओं पर मरहम का काम करेगा और अविश्वास और गड़बड़ के वातावरण को शान्ति और एकता के वातावरण में बदल देगा।"

स्वाधीनता की ओर

हमारे स्वतंत्रता के इतिहास में सन् 1939-47 तक के वर्ष बड़े महत्त्वपूर्ण थे। हम धीरे-घीरे स्व-प्रशासन की ओर बढ़ रहे थे। इस समय साम्प्रदायिक दुर्भावनाओं के रूप में एक उपद्रवी तत्त्व उत्पन्न हो गया था। यह देखकर राजेन्द्र प्रसाद को बहुत निराशा हुई कि यह भावना बढ़ती जा रही है। जीरादेई में उन्होंने अपने संघर्ष के अन्तिम दौर के दौरान दोनों सम्प्रदायों को शान्त रहने की प्रार्थना करते हुए कहा, "यह तो अनिवार्य है कि दलों में विचारों की भिन्नता हो लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम एक-दूसरे का सिर फोड़ दें।"

मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान को अपनी पार्टी, मुस्लिम लीग का ध्येय घोषित कर दिया था। लेकिन विभाजन का विचार राजेन्द्र प्रसाद के सिद्धांतों और दृष्टिकोण के बिल्कुल विरुद्ध था। उन्हें इस विचार में कोई ऐसा व्यावहारिक हल नहीं मिला। जब भी बिहार में सम्प्रदायिक दंगे होते, राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त वहां पहुंचते। उन्हें वहां के हृदय विदारक दृश्य देखकर बड़ा धक्का लगा। वह हमेशा विवेकपूर्ण बातें करते।

शान्ति का स्वर

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन ने महसूस किया कि अब भारत के साथ और अधिक समय चिपके रहना कठिन है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि वह भारतीय नेताओं के साथ देश के विधान और सत्ता की तबदीली के बारे में विचार-विमर्श करेंगे। स्वाधीनता निकट ही दिखाई दे रही थी।

  • सन 1946 में भारत आने वाले ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के प्रयास असफल रहे थे। यद्यपि केन्द्रीय और प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव और एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था।
  • सन 1946 में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बारह मंत्रियों के साथ एक अंतरिम सरकार बनी। राजेन्द्र प्रसाद कृषि और खाद्य मंत्री नियुक्त हुए। यह काम उन्हें पसन्द था और वह तुरन्त काम में जुट गये। देश में इस समय खाद्य पदार्थों की बहुत कमी थी और उन्होंने खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक योजना बनाई।
  • लेकिन सांम्प्रदायिकता की समस्या को सुलझाया नहीं जा सका। सन् 1946 में, कलकत्ता में साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हुये और फिर पूरे बंगाल और बिहार में फैल गये। राजेन्द्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू के साथ दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करते हुए, लोगों से अपना मानसिक संतुलन एवं विवेक बनाए रखने की अपील की, "मानवता की मांग है कि पागलपन, लूटमार व आगजनी और हत्याकांड को तुरन्त बन्द किया जाये..."

स्वतंत्रता की प्राप्ति

लम्बे वर्षों तक ख़ून पसीना एक कर के और दु:ख उठाने के पश्चात् 15 अगस्त, सन् 1947 को आज़ादी मिली, यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद के अखण्ड भारत का सपना विभाजन से खंडित हो गया था।

संविधान सभा के अध्यक्ष

हमने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी परन्तु अभी हमें नये क़ानून बनाने थे जिससे नये राष्ट्र का शासन चलाया जा सके।

  • स्वाधीनता से पहले जुलाई सन् 1946 में हमारा संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का संगठन किया गया।
  • राजेन्द्र प्रसाद को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। यह उनकी निस्स्वार्थ राष्ट्र सेवा के प्रति श्रद्धांजलि थी जिसके वह स्वयं मूर्तरूप थे।
  • भारतीय संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर सन् 1946 को हुआ।
  • संविधान सभा के परिश्रम से 26 नवम्बर सन् 1949 को भारत की जनता ने अपने को संविधान दिया जिसका आदर्श था न्याय, स्वाधीनता, बराबरी और बन्धुत्व और सबसे ऊपर राष्ट्र की एकता जिसमें कुछ मूलभूत अधिकार निहित हैं। भविष्य में भारत के विकास की दिशा, पिछड़े वर्ग, महिलाओं की उन्नति और विशेष क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान हैं। जिससे व्यक्ति की प्रतिष्ठा और अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को बढ़ावा देना भी सम्मिलित है।
  • भारत 26 जनवरी सन् 1950 में गणतंत्र बना और राजेन्द्र प्रसाद उसके प्रथम राष्ट्रपति बने।

जनता के निजी सम्पर्क

राष्ट्रपति बनने पर भी उनका राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन चलता रहा। वृद्ध और नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्क क़ायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते।

शिक्षा का प्रसार और रचनायें

ज्ञान के प्रति लगाव होने के कारण राजेन्द्र प्रसाद "धनी और दरिद्र दोनों के घरों में प्रकाश लाना चाहते थे।" शिक्षा ही ऐसी चाबी थी जो महिलाओं को स्वतंत्रता दिला सकती थी। शिक्षा का अर्थ था व्यक्तित्व का पूर्ण विकास न कि कुछ पुस्तकों का रटना। वह मानते थे कि शिक्षा जनता की मातृभाषा में होनी चाहिए। यदि हमें आधुनिक विश्व के साथ अपनी गति बनाये रखनी है तो अंग्रेज़ी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने स्वयं भी कई विशिष्ट पुस्तकें लिखीं। जिनमें

  • उनकी आत्मकथा (1946),
  • चम्पारन में सत्याग्रह (1922),
  • इंडिया डिवाइडेड (1946),
  • महात्मा गांधी एंड बिहार,
  • सम रेमिनिसन्सेज (1949),
  • बापू के क़दमों में (1954) भी सम्मिलित हैं।

बंगाल का विभाजन लोगों में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को जानबूझकर दिया गया धक्का माना गया। इसने तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचंद्र पाल जैसे नेताओं द्वारा आरंभ किये गए स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन (भारतीय चीज़ों का इस्तेमाल और ब्रिटिश चीज़ों का बहिष्कार) ने आग में घी का काम किया। उन्होंने इस आंदोलन को कुछ पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीयों के हाथों से निकालकर जनता तक पहुँचाया। इस आंदोलन के कारण लोगों ने भारतीय वस्तुओं पर गर्व करना सीखा और लोग भारतीय उद्योग को प्रोत्साहन देने लगे।

राष्ट्रपति राजेन्द्र

  • वे भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्य-कालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।
  • राष्ट्रपति के पद पर राजेन्द्र प्रसाद ने सदभावना के लिए कई देशों की यात्रायें भी की। उन्होंने इस आण्विक युग में शान्ति की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। राजेन्द्र बाबू का यह विश्वास था कि अतीत और वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
  • प्राचीन सभ्यता विरासत में मिलने के कारण वह अतीत को हमारी वर्तमान समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रेरणा का स्रोत समझते थे। हमारी विरासत नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से परिपूर्ण हैं और हमें भविष्य में आधुनिक समय की चुनौतियों का सामना करने में सहायता कर सकती हैं। प्राचीन और नैतिक मूल्यों में सामंजस्य तो करना ही होगा।

राष्ट्रपति भवन उनका घर

बारह वर्षों के लिए राष्ट्रपति भवन उनका घर था। उसकी राजसी भव्यता और शान सुरुचिपूर्ण सादगी में बदल गई थी।
राष्ट्रपति का एक पुराना नौकर था, तुलसी।
एक दिन सुबह कमरे की झाड़पोंछ करते हुए उससे राजेन्द्र प्रसाद जी के डेस्क से एक हाथी दांत का पेन नीचे ज़मीन पर गिर गया।
पेन टूट गया और स्याही कालीन पर फैल गई।
राजेन्द्र प्रसाद बहुत गुस्सा हुए।
यह पेन किसी की भेंट थी और उन्हें बहुत ही पसन्द थी।
तुलसी आगे भी कई बार लापरवाही कर चुका था।
उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुरन्त तुलसी को अपनी निजी सेवा से हटा दिया।

उस दिन वह बहुत व्यस्त रहे। कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और विदेशी पदाधिकारी उनसे मिलने आये। मगर सारा दिन काम करते हुए उनके दिल में एक कांटा सा चुभता रहा था। उन्हें लगता रहा कि उन्होंने तुलसी के साथ अन्याय किया है। जैसे ही उन्हें मिलने वालों से अवकाश मिला राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया।

पुराना सेवक अपनी ग़लती पर डरता हुआ कमरे के भीतर आया।
उसने देखा कि राष्ट्रपति सिर झुकाये और हाथ जोड़े उसके सामने खड़े हैं।
उन्होंने धीमे स्वर में कहा, "तुलसी मुझे माफ कर दो।"
तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया।
राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया, "तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?"
इस बार सेवक और स्वामी दोनों की आंखों में आंसू आ गये।

भारत रत्न

सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

निधन

अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे। इन्हें भी देखें: राजेंद्र प्रसाद के प्रेरक प्रसंग



भारत के प्रधानमंत्री
पूर्वाधिकारी
राजेन्द्र प्रसाद उत्तराधिकारी
सर्वपल्ली राधाकृष्णन


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