मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया  

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया
पूरा नाम डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया
जन्म 15 सितम्बर, 1861
जन्म भूमि कर्नाटक
मृत्यु 14 अप्रैल, 1962
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता
पद मैसूर के दीवान
शिक्षा इंजीनियरिंग
विद्यालय पूना इंजीनियरिंग कॉलेज
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न
अन्य जानकारी डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जन्मदिन (15 सितम्बर) को भारत में 'अभियन्ता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
अद्यतन‎ 13:16, 13 मार्च 2011 (IST)

डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (अंग्रेज़ी: Dr. Mokshagundam Vishveshwariah, जन्म- 15 सितम्बर, 1861, कर्नाटक; मृत्यु- 14 अप्रैल 1962) को आज भी "आधुनिक भारत के विश्वकर्मा" के रूप में बड़े सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। अपने समय के बहुत बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को भारत ही नहीं वरन् विश्व की महान् प्रतिभाओं में गिना जाता है।

जीवन परिचय

सर एम. विश्वेश्वरैया के जन्मदिन को 'अभियन्ता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया बहुत ही सौम्य विधारधारा वाले इंसान थे। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (जो कि अब कर्नाटक में है) के 'मुद्देनाहल्ली' नामक स्थान पर 15 सितम्बर, 1861 को हुआ था। बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्मे विश्वेश्वरैया का बाल्यकाल बहुत ही आर्थिक संकट में व्यतीत हुआ। उनके पिता वैद्य थे। वर्षों पहले उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के 'मोक्षगुंडम' से यहाँ पर आये और मैसूर में बस गये थे। दो वर्ष की आयु में ही उनका परिचय रामायण, महाभारत और पंचतंत्र की कहानियों से हो गया था। ये कहानियाँ हर रात घर की वृद्ध महिलाएँ उन्हें सुनाती थीं। कहानियाँ शिक्षाप्रद व मनोरंजक थी। इन कहानियों से विश्वेश्वरैया ने ईमानदारी, दया और अनुशासन जैसे मूल्यों को आत्मसात किया।

सूझबूझ

विश्वेश्वरैया जब केवल 14 वर्ष के थे, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। क्या वह अपनी पढ़ाई जारी रखें ? इस प्रश्न पर तब विचार-विमर्श हुआ जब उन्होंने अपनी माँ से कहा, 'अम्मा, क्या मैं बंगलौर जा सकता हूँ? मैं वहाँ पर मामा रमैया के यहाँ रह सकता हूँ। वहाँ मैं कॉलेज में प्रवेश ले लूंगा।' 'पर बेटा....तुम्हारे मामा अमीर नहीं हैं। तुम उन पर बोझ बनना क्यों चाहते हो?' उनकी माँ ने तर्क दिया। 'अम्मा, मैं अपनी ज़रुरतों के लिए स्वयं ही कमाऊँगा। मैं बच्चों का ट्युशन पढ़ा दूँगा। अपनी फ़ीस देने और पुस्तकें ख़रीदने के लिए मैं काफ़ी धन कमा लूँगा। मेरे ख्याल से मेरे पास कुछ पैसे भी बच जायेंगे। जिन्हें मैं मामा को दे दूँगा।' विश्वेश्वरैया ने समझाया। उनके पास हर प्रश्न का उत्तर था। समाधान ढंढने की क्षमता उनके पूरे जीवन में लगातार विकसित होती रही और इस कारण वह एक व्यावहारिक व्यक्ति बन गये। यह उनके जीवन का सार था और उनका संदेश था- 'पहले जानो, फिर करो।' 'जाओ मेरे पुत्र, भगवान तुम्हारे साथ है।' उनकी माँ ने कहा। उनके मामा ने बहुत गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। विश्वेश्वरैया ने उन्हें अपनी योजना बताई। मामा ने प्यार से उन्हें थपथपाते हुए कहा, 'तुम बहुत होशियार हो। तुम्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए।'

शिक्षा

पढ़ने लिखने में बाल्यकाल से ही तीव्र बुद्धि के स्वामी विश्वेश्वरैया ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से प्राप्त की। विश्वेश्वरैया 'चिक्बल्लापुर' के मिडिल व हाईस्कूल में पढ़े। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें बैंगलोर जाना पड़ा। आर्थिक संकटों से जुझते हुए उन्होंने अपने रिश्तेदारों और परिचितों के पास रहकर और अपने से छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह बड़े प्रयास से अपना अध्ययन ज़ारी रक्खा। 19 वर्ष की आयु में बैंगलोर के कॉलेज से उन्होंने बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस कॉलेज के प्रिंसिपल, जो एक अंग्रेज़ थे, विश्वेश्वरैया की योग्यता और गुणों से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं प्रिंसिपल साहेब के प्रयास से उन्हें पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया। अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। सन् 1875 में विश्वेश्वरैया ने 'सेन्ट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया। उनके मामा उन्हें मैसूर राज्य सरकार के एक उच्च अधिकारी 'मुडइया' के पास ले गये। मुडइया के दो छोटे बच्चे थे। बच्चों को पढ़ाने के लिए विश्वेश्वरैया को रख लिया गया। उन्होंने अपने संरक्षक का धन्यवाद दिया। उन्होंने तुरन्त ही कार्य आरम्भ कर दिया। प्रतिदिन वह अपने मामा के घर से अपने कॉलेज और मुडइया के घर आने-जाने के लिए पन्द्रह किलोमीटर से ज़्यादा चलते। बाद में जब उनसे अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा, 'मैंने चलकर अच्छा स्वास्थ्य पाया है।' अपने काम में उन्होंने अपनी समस्त मुश्किलों का मरहम पाया। ईमानदारी और निष्ठा से उन्होंने अपने कार्य को आभा प्रदान की। इससे 'सेन्ट्रल कॉलेज' के प्रिंसिपल चार्ल्स का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ। जब विश्वेश्वरैया ने जटिल गणितीय समस्याओं का सरल समाधान कर दिया तो प्रिंसिपल ने उनसे कक्षा के अन्य छात्रों को यह समाधान सिखाने को कहा। इससे विश्वेश्वरैया का आत्मविश्वास बढ़ा।

वाटर्स का उपहार

अपने प्रिय छात्र पर कॉलेज के दौरान और कॉलेज छोड़ने पर भी वाटर्स कड़ी नज़र रखते रहे। वह इंग्लैंड लौट गये पर अपने भूतपूर्व छात्र में गहरी दिलचस्पी लेते रहे। अपनी वसीयत में वे उपहार के रूप में विश्वेश्वरैया के लिए अपना 'कफलिंक' छोड़ गये। श्रीमती वाटर्स इग्लैंड से उन्हें यह उपहार देने के लिए स्वयं आईं। उस समय विश्वेश्वरैया बम्बई के 'लोक निर्माण विभाग' में 'इंजीनियर' के पद पर कार्यरत थे। डिग्री परीक्षा में सन् 1880 में विशिष्टता के साथ सफल होने के पश्चात् विश्वेश्वरैया ने पुणे के 'साइन्स कॉलेज' में प्रवेश लिया। मैसूर राज्य सरकार से छात्रवृत्ति पाने के कारण ही वह ऐसा कर पाये थे। सन् 1883 में 'सिविल इंजीनियरिंग' के समस्त छात्रों में वह 'प्रथम' आये। तुरन्त ही उन्हें बम्बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक इंजीनियर की नौकरी मिल गई।

कार्यक्षेत्र

अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। इसी सफलता के आधार पर उन्हें मुम्बई में असिस्टैंट इंजीनियर के पद पर नियुक्ति मिली। उस समय ब्रिटिश शासन था। अधिकांश उच्च पदों पर अंग्रेज़ों की ही नियुक्ति होती थी। ऐसे में उच्च पद पर नियुक्त विश्वेश्वरैया ने अपनी योग्यता और सूझबूझ द्वारा बड़े बड़े अंग्रेज़ इंजीनियरों को अपनी योग्यता और प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। अपने इस पद पर रहते हुए उन्होंने सबसे पहली सफलता प्राकृतिक जल स्रोत्रों से घर घर में पानी पहुँचाने की व्यवस्था करना और गंदे पानी की निकासी के लिए नाली - नालों की समुचित व्यवस्था करके प्राप्त की। प्रथम चरण में ही उन्होंने बैंगलोर, पूना, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़ सहित अनेक नगरों को प्रत्येक प्रकार के जल संकट से मुक्त करा दिया। सन् 1884 में विश्वेश्वरैया ने अपना सरकारी जीवन शुरू किया। यह वह समय था, जब राष्ट्रीयता की भावना बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। महादेव गोविंद पाण्डे रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीयता की भावना को फैलाने में अग्रणी थे। वे सरकारी पदों पर भारतीयों को ज़्यादा स्थान दिलाने के लिए दवाब डाल रहे थे। वे जोश से भारतीय स्वतंत्रता की बात करते। विश्वेश्वरैया अपना कार्य करते रहे। लेकिन उनकी सहानुभूति स्वतंत्रता के कार्य के साथ थी। उन्हें लगा कि अनेक कार्य जो उन्हें सौंपे गये हैं, वे लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए आवश्यक हैं। उनके रास्ते में अनेक मुश्किलें और चुनौतियाँ आईं।

वैज्ञानिक आविष्कार

विश्वेश्वरैया को सन् 1894-95 में सिन्ध (जो कि अब पाकिस्तान में है) के सक्खंर क्षेत्र में पीने के पानी की वितरण परियोजना का कार्य पूरा करने का काम सौंपा गया। उन्होंने इस कार्य को स्वीकार कर लिया। वह नगर में पहुँचे और जब उन्होंने सिन्धु नदी का सर्वेक्षण और परीक्षण किया, तो उन्हें गहरा आघात लगा। पानी गंदला व मिट्टी से भरा हुआ था। जो कि मनुष्यों के इस्तेमाल के लिए पूर्णतया बेकार था। पानी को कैसे स्वच्छ किया जाए, इसके लिए उन्होंने तकनीकी पत्रों, व्यावसायिक पत्रिकाओं और रसायन की किताबों को पढ़ा। इस समस्या पर चिन्तन करते हुए उन्होंने कई रातें जागकर बिताईं। फिर समाधान निकल आया। उन्होंने पहले क्यों नहीं इस विकल्प के बारे में सोचा। वह प्रकृति की असीमित प्रक्रिया को समझ गये थे। वह पानी को छानने के लिए नदी की रेत का इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने परियोजना की रूपरेखा बनाई, डिजाइन को तैयार किया और कितनी कीमत लगेगी, इसका अनुमान लगाया। अपने साथ काम करने वालों को उन्होंने योजना के लाभ बताये। उनसे उनके विचार पूछे और यह पता लगा कि वे पूर्णतया सहमत हैं। नदी के तल में एक गहरा कुंआ बनाया जाए। कुंए तक पहुँचने से पहले पानी रेत की अनगिनत परतों में से गुजरेगा। जैसे ही पानी इस प्रक्रिया से रिसेगा, वह स्वच्छ हो जायेगा। रेत की असंख्य परतों से छन कर निकला हुआ पानी मनुष्य इस्तेमाल के योग्य होगा। अदन (दक्षिणी यमन) जो कि उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था, के लिये पानी वितरण के लिए भी उन्होंने इसी सिद्धान्त को लागू किया। इस प्रकार जो कीमत थी, वह कम हो गई। इस नवीन कार्य के लिए सरकार ने विश्वेश्वरैया 'केसर-ए-हिन्द' की उपाधि से सम्मानित किया।

मौलिकता और प्रवीणता

पानी की व्यवस्था करने में वैज्ञानिक तरीकों का आविष्कार करके विश्वेश्वरैया ने अपनी मौलिकता और प्रवीणता का परिचय दिया। उसमें स्वचालित जलद्वार और सिंचाई की खण्ड पद्धति भी शामिल है। बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए उन्होंने खड़गवासला बांध पर जलद्वारों का प्रयोग किया। उन्होंने उस झील के पानी के स्तर को बढ़ाया, जिसके कारण पुणे शहर को पानी मिलता था। वह अपने 'मेमॉयर्स आफ माई वर्किंग लाइफ' (मेरे कामक़ाज़ी जीवन के संस्मरण 1951) में लिखते हैं कि'अतिरिक्त वीयर की चोटी के ऊपर छ: से लेकर आठ फीट की ऊँचाई तक हर साल जलाशय से पानी निकल जाता था। झील के पानी के स्तर को स्थाई रूप से संचित करने के लिए मैंने स्वचालित जलद्वार की पद्धति की रूपरेखा बनाई, मूल अतिरिक्त वीयर से क़रीब आठ फुट ऊँची। इससे बांध को बिना बढ़ाये जलाशय में 25 प्रतिशत संचय क्षमता बढ़ गई। जलद्वार झील में तब तक पानी को रोके रखता है, जब तक वह पिछली बाढ़ की ऊँचाई तक नहीं बढ़ जाता है। लेकिन जब भी पानी स्तर से ऊँचा उठता है, जलद्वार स्वत: ही खुल जाते हैं और अतिरिक्त पानी को निकलने देते हैं। फिर से झील में पानी का स्तर जब अतिरिक्त वीयर के ऊँपर आठ फुट गिरता है, तो जलद्वार स्वत: ही बंद हो जाते हैं और पानी का नुक़सान होने से रोक देते हैं।'

नहरें और बांधों का निर्माण

विश्वेश्वरैया ने सिंचाई में सहायता करने के लिए नहरें और बांध बनाये। उनकी पद्धति के द्वारा सिंचाई के सीमित पानी के साधनों का पूर्ण उपयोग हो सका। वे परियोजनाएँ, जिनकी उन्होंने कल्पना की और निर्माण कराया, उनसे ग़रीब किसानों को राहत मिली। उनसे देहात के क्षेत्रों में काफ़ी बड़ी मात्रा में सुधार का कार्य सम्पन्न हुआ। आर्थिक उत्थान के द्वारा विश्वेश्वरैया ने महसूस किया कि इससे राष्ट्र को शक्ति मिलेगी। और शक्ति प्राप्त करके अपने देश को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए लोग बेहतर स्थिति में होंगे।

इंजीनियर का पद

बम्बई प्रेसीडेन्सी की नौकरी विश्वेश्वरैया ने छोड़ी ही थी कि उन्हें अपने राज्यों में विकास गतिविधियों को देखने के लिए हैदराबाद के निज़ाम और मैसूर महाराजा के प्रस्ताव मिले। नवम्बर सन् 1909 में उन्होंने अपने जन्मस्थान मैसूर में चीफ़ इंजीनियर बनना पसन्द किया। तब भी हैदराबाद को बार-बार आने वाली बाढ़ से बचाने के लिए उन्होंने योजनाएँ बनाई। मैसूर राज्य में चीफ़ इंजीनियर की नौकरी उन्हें बहुत पसन्द थी। क्योंकि यहाँ उन्हें उन परियोजनाओं पर काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी, जिससे जनता के ग़रीब वर्ग को लाभ मिलता था। उन्होंने जल वितरण, सड़कों, संचार व सिंचाई के लिए परियोजनाएँ बनाईं। प्रत्येक योजना की प्रगति पर कड़ी निगरानी रखी गई। समय की पाबन्दी को पूर्णतया बनाये रखे गया। कीमत पर भी नियमित जांच चलती रही। विश्वेश्वरैया कार्य स्थल पर जाते, लोगों से मिलते, उनकी प्रतिक्रिया सुनते, और जब लोग उनका धन्यवाद करते तो उन्हें बहुत खुशी होती। लोगों के चेहरों पर छाई खुशी ही उनका पुरस्कार था, जिसे उन्होंने सबसे ज़्यादा संजोकर रखा।

इंजीनियर और पदत्याग

अभिनव क्षमता और कठिन परिश्रम ने मिलकर उन्हें जल्दी ही तरक्कियों की ओर बढ़ा दिया। अन्तत: वह चीफ़ इंजीनियर के पद के निकट तक पहुँच गये। चीफ़ इंजीनियर का पद ब्रिटिशवासियों के लिए आरक्षित था। यह पक्षपात था। जाति व रंग का भेदभाव किये बिना पद सबके लिए खुला होना चाहिए। योग्य व्यक्ति को स्थान मिलना चाहिए। यद्यपि, विश्वेश्वरैया को आभास हो गया था कि शासन इस आरक्षण को ख़त्म नहीं करेगा। इसलिए उन्होंने सन्। 1908 में त्यागपत्र देने का फ़ैसला किया। सरकार ने उन्हें रोकने की कोशिश की। पर वह अपने निश्चय पर अटल रहे। वर्षों तक वह विभिन्न पदों पर काम करते रहे थे। हालाँकि उन्हें नौकरी करते हुए अभी पूरे 25 वर्ष नहीं हुए थे। जिसके बाद में पेंशन मिलती है। तब भी सरकार ने उन्हें पेंशन देने का फ़ैसला किया। विश्वेश्वरैया द्वारा किये गये कार्यों की प्रशंसा में सरकार द्वारा किया गया यह एक प्रतीक था।

असाधारण कार्य

  • उनके इंजीनियरिंग के असाधारण कार्यों में मैसूर शहर में कन्नमबाडी या कृष्णराज सागर बांध बनाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। उसकी योजना सन् 1909 में बनाई गई थी और सन् 1932 में यह पूरा हुआ।
  • बम्बई प्रेसीडेन्सी में कई जलाशय बनाने के बाद, सिंचाई व विद्युत शक्ति के लिए उन्होंने कावेरी नदी को काम में लाने के लिए योजना बनाई। विशेषकर कोलार स्वर्ण खदानों के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण थे।
  • बांध 124 फुट ऊँचा था, जिसमें 48,000 मिलियन घन फुट पानी का संचय किया जा सकता था। जिसका उपयोग 150,000 एकड़ भूमि की सिंचाई और 60,000 किलो वाट्स ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए होना था।
  • तब तक कृष्णराज सागर बांध भारत में बना सबसे बड़ा जलाशय था। इस बहुउद्देशीय परियोजना के कारण अनेक उद्योग विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम चीनी मिल, मैसूर चीनी मिल भी शामिल है। अपनी दूरदृष्टि के कारण, विश्वेश्वरैया ने परिस्थिति विज्ञान के पहलू पर भी पूरा ध्यान दिया।
  • मैसूर शहर में आने वाला प्रत्येक यात्री कृष्णराज सागर बांध और उसके पास ही स्थित प्रसिद्ध वृन्दावन गार्डन देखना एक आवश्यक कार्य मानता था। वहाँ फव्वारों का जल प्रपात, मर्मर पक्षी और आकर्षक फूलों की बहुतायत देखते ही बनती थी। विश्वेश्वरैया का एक स्वप्न पूरा हो गया था।
  • विश्वेश्वरैया ने निष्ठा की भावना से कार्य किया। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रीयता के विचार पर अड़े रहने के किसी भी मौके को उन्होंने नहीं गंवाया। उन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व था। वह मानते थे कि अगर अवसर दिया जाये तो भारतीय ब्रिटिशवासियों से कहीं पर भी कम नहीं हैं।

राष्ट्रीयता की भावना

यह भारतीय राष्ट्रीयता का ही प्रभाव था, जिसने उन्हें दरबार में आने का मैसूर के महाराजा का निमंत्रण ठुकराने को प्रेरित किया। सरकारी रूप से यह माना जाता था कि महाराजा के निमंत्रण को आदेश माना जाये। फिर भी विश्वेश्वरैया ने आमंत्रण को ठुकरा दिया। यह विरोध था, दरबार में बैठने की व्यवस्था में भेदभाव के विरुद्ध। अंग्रेज़ों को कुर्सियों पर बैठाया जाता था। भारतीयों से आशा की जाती थी कि वह ज़मीन पर सिमट कर बैठें। विश्वेश्वरैया से दरबार में न आने का कारण पूछा गया। उन्होंने भेदभाव का ज़िक्र करते हुए जवाब लिखा। उनका तर्क महाराजा का सही नज़र आया। उन्होंने आदेश दिया कि प्रत्येक निमन्त्रित वयक्ति को कुर्सी पर बैठाया जाए। विश्वेश्वरैया के लिए ये क्षण गर्वपूर्ण थे। अपनी दृढ़ता के द्वारा उन्होंने राष्ट्रीय गर्व को बढ़ावा दिया था। जब उन्हें 'गाड सेव द किंग' (ईश्वर राजा को सुरक्षित रखे) वाला गीत गाने को कहा गया, तो उन्हें पता चला भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश है। अपने मामलों में भी भारतीयों को कुछ कहने का अधिकार नहीं था। भारत की अधिकांश सम्पत्ति विदेशियों ने हड़प ली थी। क्या उनके घर में काम करने वाली नौकरानी विदेशी शासन के कारण ग़रीब है? यह प्रश्न विश्वेश्वरैया के मस्तिष्क में उमड़ता रहा। राष्ट्रीयता की चिंगारी जल उठी थी और उनके जीवन में यह अन्त तक जलती रही।

मैसूर के दीवान

चीफ़ इंजीनियर बनने के तीन साल बाद नवम्बर, 1912 में मैसूर के महाराजा ने विश्वेश्वरैया को वहाँ का दीवान (प्रधानमंत्री) बना दिया। आख़िरकार, अब उन्हें योजना बनाने, विकास का बढ़ाने व प्रोत्साहित करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। मुख्यतया शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य और लोक निर्माण में और लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कि वे ठीक ढंग से काम करें, खूब कमायें व अच्छे ढंग से रहें। पद सम्भालने से पहले उन्होंने अपने रिश्तेदारों व घनिष्ट मित्रों को रात्रि भोज पर बुलाया। वह भव्य समारोह था। मेज़बान ने अतिथियों का स्वागत किया, उन्हें अच्छे से खिलाया। उनकी बधाइयाँ व शुभकामनाएँ स्वीकार कीं। फिर उन्होंने उन सबको पास बैठकार कहा कि वह तभी इस नौकरी को स्वीकार करेंगे, अगर वे उनकी शर्तों को मान लेंगे। मेहमानों ने एक दूसरे की ओर देखा। वे जानते थे कि उनके मेज़बान की टिप्पणी में कुछ सार है। विश्वेश्वरैया के शब्दों को समझने के लिए तैयार होने लगे। उन्होंने कहा कि उनमें से कोई भी उनसे किसी भी किस्म के पक्षपात की अपेक्षा नहीं करेगा। न ही वे कोई सरकारी संरक्षण मांगेंगे। कुछ मेहमानों के मुँह लटक गये। फिर भी, विश्वेश्वरैया ने अपनी बात स्पष्ट कर दी थी। किसी भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी। दीवान के पद रहते हुए उन्होंने उन्होंने प्रजातंत्र को बढ़ावा दिया। वैधानिक मंच के विचार विमर्श को क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया। ग्राम समितियों को ज़्यादा अधिकार सौंपे गयें इसलिए उन्होंने ऐसे मंच बनाये जो आम जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे।

प्रेस की स्वतंत्रता

प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई। दीवान पत्रकारों का साथ तब तक देते जब तक वे बिना किसी पक्षपात के घटनाओं को लिखते और उनकी आलोचना सकारात्मक होती। इससे परिवर्तन आया। आम निर्णयों की चर्चा करने में सम्पादक अधिक निर्भीक हो गये। पत्रकारों की जोश की भावना व निश्चयपूर्ण कथनी को विश्वेश्वरैया पूर्ण चिलचस्पी से सुनते। उन्हें लगा कि प्रेस उनकी आशाओं को पूरा कर रहा है। प्रेस के प्रति विश्वेश्वरैया का रवैया अटल था। इसलिए वे सम्पादकों की उदारता से सहायता करते थे। उन्होंने उन्हें बचाया भी, इसका प्रमाण कर्नाटक साप्ताहिक के सम्पादक डी. वी. गुन्डप्पा के मामले में मिलता है। उन्होंने सन् 1917 में रूस की क्रान्ति के बारे में एक रिपोर्ट भी सम्पादकीय में लिखी थी कि तानाशाही अराजकता है। इससे ब्रिटिश रेजिडेंट को क्रोध आ गया। उसने कहा कि सम्पादक ने न केवल महाराजा का बल्कि ब्रिटिश शासन का भी अपमान किया है। उन्होंने सुझाव दिया कि विश्वेश्वरैया को सम्पादक के विरुद्ध ठोस कदन उठाना चाहिए। दीवान ने गुन्डप्पा से पूछताछ की और उन्हें यह पता लगा कि सम्पादकीय टिप्पणी राजतंत्र के विरुद्ध नहीं है। बल्कि तानाशाही के विरुद्ध है। विश्वेश्वरैया ने उनकी सफ़ाई मान ली और आगे की कार्रवाई रोक दी। उन्होंने ब्रिटिश रेजिडेंट की इस सिफ़ारिश को भी ठुकरा दिया कि 'बम्बई क्रोनिकल' जैसे अख़बारों पर राज्य में आने पर रोक लगा दी जाये, जिसके सम्पादक थे, 'बी. जी. हौरनीमन', जो ब्रिटिश होने पर भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के निष्ठावान समर्थक थे। इस तरह से ब्रिटिश रेजिडेंट के दवाब का सामना करने में विश्वेश्वरैया ने अदम्य साहस दिखाया।

औद्योगिकीकरण द्वारा आधुनिकीकरण

  • वैज्ञानिक ढंग से किये गये औद्योगिकीकरण द्वारा आधुनिकीकरण ही दीवान का मुख्य लक्ष्य बन गया। उन्होंने तकनीकी संस्थाएँ खोली, उच्च शिक्षा के केन्द्रों में वृद्धि की।
  • उनका विचार था कि शिक्षा के द्वारा ही बाल विवाह, दहेज प्रथा, अशिक्षा और जाति भेद की धारणाओं जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ा जा सकता है।
  • उनके विचारों में 'हमारी कमज़ोरियों का कारण जातिप्रथा है और यही बुराई स्थाई रूप से अधिकांश जनता के पतन का कारण भी है।'
  • शिक्षा के द्वारा, वे अपने ज्ञान को बढ़ाकर उन्हें नौकरी के योग्य बनाना चाहते थे। वह नौकरी में भर्ती करने के लिए ज़रूरी शिक्षा के न्यूनतम स्तर को कम नहीं करना चाहते थे।

त्यागपत्र

विश्वेश्वरैया आरक्षण के विरुद्ध थे। इस मामले में उनमें और महाराजा में मतभेद हो गया। विश्वेश्वरैया ने ज़ोर दिया कि वह सरकारी पदों की गुणवत्ता को कम नहीं करेंगे। यह आलस्य व अकार्यकुशलता को जन्म देता है। जब उन्होंने यह देखा कि महाराजा निम्न व पिछड़े वर्ग के लोगों की भलाई के लिए नियमों में ढील देने के दृढ़ संकल्प हैं तो उन्होंने सन् 1919 में त्यागपत्र दे दिया। नौकरी छोड़ने के बाद विश्वेश्वरैया सरकारी कार का प्रयोग न करके अपनी कार में घर लौट आये। यह प्रमाणित करता है कि वह सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल करने में कितनी सतर्कता बरतते थे। जब वह व्यक्तिगत काम से जाते थे, जब सरकारी वाहन का इस्तेमाल कभी नहीं करते थे। और जब वह व्यक्तिगत पत्र लिखते, तो अपने काग़ज़ व डाक सामग्री का प्रयोग करते।

उपलब्धियाँ

चीफ़ इंजीनियर और दीवान के पद पर कार्य करते हुए विश्वेश्वरैया ने मैसूर राज्य को जिन संस्थाओं व योजनाओं का उपहार दिया, वे हैं-

  1. मैसूर बैंक (1913),
  2. मलनाद सुधार योजना (1914),
  3. इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916),
  4. मैसूर विश्वविद्यालय और ऊर्जा बनाने के लिए पावर स्टेशन (1918)

लेखक के रूप में

जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तब उनकी आयु 58 वर्ष से अधिक थी। कोई और व्यक्ति होता तो लम्बी व सार्थक नौकरी के बाद अपने अवकाश पर आनन्द उठाता, पर विश्वेश्वरैया ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने 'भारत का पुनर्निर्माण' (1920), 'भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था' (1934) नामक पुस्तकें लिखीं और भारत के आर्थिक विकास का मार्गदर्शन किया।

गोलमेज सम्मेलन का समर्थन

  • विश्वेश्वरैया सन् 1921 में राष्ट्रवादियों में सम्मिलित हो गये और वाइसराय से विचार-विमर्श किया। स्वराज की मांग पर विचार करने के लिए उन्होंने 'गोलमेज सम्मेलन' पर ज़ोर दिया।
  • विकास योजनाओं में उत्साहपूर्वक भाग लेते हुए, वह गतिविधियों के बीच रहे।
  • भद्रावती इस्पात योजना के पीछे इन्हीं का हाथ था।
  • बंगलौर में 'हिन्दुस्तान हवाई जहाज़ संयंत्र' की स्थापना में इन्होंने दिलचस्पी दिखाई।
  • उन्होंने विजाग पोत-कारख़ाना बनाने पर ज़ोर दिया और निर्माण के समय कई अच्छे सुझाव भी दिये।

निष्पक्ष विश्वेश्वरैया

उस समय वह क़रीब 92 वर्ष के थे, जब पंडित नेहरू ने यह सुझाव दिया कि गंगा पर पुल बनाने के लिए वह विभिन्न राज्य सरकारों के प्रस्तावों की जांच करें। उन्हें बिहार में मोकामेह, राजमहल, सकरीगली घाट, और पश्चिम बंगाल में फ़रक्का में से दो स्थलों को चुनना था। नेहरू ने यह कहकर उन्हें चुना कि 'वह ईमानदार, चरित्रवान व उदार राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले इंजीनियर हैं, जो पक्षपातरहित निर्णय ले सकते हैं। स्थानीय दवाबों से ऊपर उठ कर कार्य कर सकते हैं और उनके विचारों का सब लोग सम्मान करते हैं, एवं वे सब उनको स्वीकार करते हैं।' विश्वेश्वरैया उन स्थलों पर गये। उन्होंने सह पायलट की सीट पर, कॉकपिट में बैठकर, नदी और नदी के तटों का बारीकी से जांच करने के लिये हवाई सर्वेक्षण किया। ताकि पुल बनाने के लिए सही स्थल को चुना जा सके। इस दौरे के दौरान वह पटना में रुके। राज्यपाल एम. एस. आणे ने उन्हें राजभवन में रहने का निमंत्रण दिया। विश्वेश्वरैया ने यह कहते हुए अस्वीकार किया कि यह उनके लिए अनुचित होगा कि वह राज्यपाल की मेहमानवाज़ी का आनन्द उठायें। जबकि समिति के अन्य सदस्य होटलों में रहेंगे। राज्यपाल ने तब समिति के सारे सदस्यों को आमंत्रित किया। बाद में एम. एस. आणे ने कहा, 'सुविधा से पहले कर्तव्य विश्वेश्वरैया का आदर्श है।' अन्तत: विश्वेश्वरैया ने पुल बनाने के लिए मोकामेह और फ़रक्का नामक स्थानों का सुझाव दिया।

भारत रत्न

अपनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान् व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, 'अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।' नेहरू ने उनकी बात की प्रशंसा की। उन्होंने विश्वेश्वरैया को आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय घटनाओं व विकास पर टिप्पणी करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। यह सम्मान उन्हें उनके कार्यों के लिये दिया गया है। इसका मतलब उन्हें चुप कराना नहीं है।

अंतिम समय

102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, "जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।" जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन वह अपने कार्यों के द्वारा अमर हो गये। अन्त समय तक भी उनका ज्ञान पाने का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह एकाग्रचित्त होकर ज्ञान की तलाश करते रहे। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उससे उन्हें प्रकृति और प्रकृति में निहित शक्ति व ऊर्जा को जन कल्याण के लिए काम में लगाने में सहायता मिली। विश्वेश्वरैया महान् व्यक्ति के रूप में नहीं जन्मे थे। न ही महानता उन पर जबरदस्ती थोपी गई थी। कठिन परिश्रम, ज्ञान को प्राप्त करने के अथक प्रयास, परियोजनाओं व योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए ज्ञान का उपयोग, जिसके द्वारा जनसमुदाय की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारने के अधिक अवसर मिले, द्वारा महानता प्राप्त की। विश्वेश्वरैया में बहुमूर्तिदर्शी जैसा कुछ था। जितनी बार भी हम उन्हें देखते हैं, उनकी महानता का एक नया उदाहरण सामने आता है। चाहे उन्होंने किसी भी दृष्टिकोण से सोचा हो, उनकी महानता का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। उनकी गहन राष्ट्रीयता की भावना ही है जो हमारा ध्यान आज भी उनकी ओर आकर्षित करती है। दूसरी ओर हम उनके काम के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हैं, और आगे देखें तो ग़रीबों के प्रति उनके स्थाई प्रेम को देखते हैं, और फिर देखें तो हम उनके अच्छे स्वास्थ्य में झांकते हैं। उनकी महानता के पहलू असीमित हैं।


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