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[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]<br /> Krishna And Arjuna]]
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{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो [[हिन्दू धर्म]] के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें [[वेद]] नहीं आते वर्ग में आता है। कभी कभी सिर्फ़ भारत कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ [[भारत]] का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। हिन्दू धर्म का यह मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कॄतियों में से एक माना जाता है किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कॄति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे महाभारत में एक लाख [[श्लोक]] हैं। विद्वानों ने महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत है फिर भी अधिकतर विद्वान महाभारत काल को लौहयुग से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित कुरु वंश बारह सौ से आठ सौ ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते (पुत्र के पुत्र) [[परीक्षित]] और [[महापद्मनंद]] का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता हैं ।
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|चित्र=krishna-arjun1.jpg
माना जाता है कि अर्जुन के प्रपौत्र जन्मेजय ने [[बरन]] नगर को बसाया था।
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|चित्र का नाम=कृष्ण और अर्जुन
==महाभारत के पर्व==
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|विवरण='महाभारत' [[भारत]] का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक [[ग्रंथ]] है। यह [[हिन्दू धर्म]] के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लम्बा साहित्यिक ग्रंथ है।
महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। [[कौरव]] और [[पाण्डव]] पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह है।<ref>[[धृतराष्ट्र]], [[दुर्योधन]], [[दु:शासन]], [[कर्ण]], [[शकुनि]], [[भीष्म]], [[द्रोण]], [[कृप]], [[अश्वत्थामा]], [[कृतवर्मा]], [[श्रीकृष्ण]], [[युधिष्ठर]], [[भीम]], अर्जुन, [[नकुल]], [[सहदेव]], [[द्रौपदी]] और [[विदुर]]।</ref> महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं।<br />
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|शीर्षक 1=रचयिता
सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है ‘पर्व’ का मूलार्थ है- गाँठ या जोड़।<ref>वी.एस. आप्टे: संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ. 595</ref> पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं। (सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 है) इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत  है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं:<br />
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|पाठ 1=[[वेदव्यास]]
{{दाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
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|शीर्षक 2=लेखक
'''कृष्ण:-'''<br />
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|पाठ 2=[[गणेश|भगवान गणेश]]<ref>वेदव्यासजी श्लोकों का उच्चारण करते जाते थे, जिन्हें भगवान श्रीगणेश ने लिखा।</ref>
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
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|शीर्षक 3=भाषा
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
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|पाठ 3=संस्कृत
'''आगे पढ़ें''':-[[कृष्ण नारद संवाद]]}}
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|शीर्षक 4=मुख्य पात्र
*[[आदि पर्व महाभारत|आदि पर्व]]  
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|पाठ 4=[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[भीष्म]], [[अर्जुन]], [[द्रोण]], [[कर्ण]], [[दुर्योधन]], [[अभिमन्यु]], [[धृतराष्ट्र]], [[युधिष्ठिर]], [[द्रौपदी]], [[शकुनि]], [[कुंती]], [[गांधारी]], [[विदुर]] आदि।
*[[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]]  
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|शीर्षक 5=18 पर्व
*[[वन पर्व महाभारत|वन पर्व]]
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|पाठ 5=[[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], [[सभा पर्व महाभारत|सभापर्व]], [[वन पर्व महाभारत|वनपर्व]], [[विराट पर्व महाभारत|विराटपर्व]], [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योगपर्व]], [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्मपर्व]], [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]], [[आश्वमेधिक पर्व महाभारत|आश्वमेधिकपर्व]], [[महाप्रास्थानिक पर्व महाभारत|महाप्रास्थानिकपर्व]], [[सौप्तिक पर्व महाभारत|सौप्तिकपर्व]], [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्रीपर्व]], [[शान्ति पर्व महाभारत|शान्तिपर्व]], [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासनपर्व]], [[मौसल पर्व महाभारत|मौसलपर्व]], [[कर्ण पर्व महाभारत|कर्णपर्व]], [[शल्य पर्व महाभारत|शल्यपर्व]], [[स्वर्गारोहण पर्व महाभारत|स्वर्गारोहणपर्व]], [[आश्रमवासिक पर्व महाभारत|आश्रमवासिकपर्व]]
*[[विराट पर्व महाभारत|विराट पर्व]]  
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|शीर्षक 6=श्लोक संख्या
*[[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]]  
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|पाठ 6=एक लाख से अधिक
*[[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्म पर्व]]  
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|शीर्षक 7=लोकप्रियता
*[[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोण पर्व]]
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|पाठ 7=[[भारत]], [[नेपाल]], इण्डोनेशिया, [[श्रीलंका]], [[जावा द्वीप]], [[थाइलैंड]], [[तिब्बत]], [[म्यांमार]] आदि देशों में महाभारत बहुत लोकप्रिय है।
*[[कर्ण पर्व महाभारत|कर्ण पर्व]]  
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|शीर्षक 8=
*[[शल्य पर्व महाभारत|शल्य पर्व]]  
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|पाठ 8=
*[[सौप्तिक पर्व महाभारत|सौप्तिक पर्व]]  
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|शीर्षक 9=
*[[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्री पर्व]]  
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|पाठ 9=
*[[शान्ति पर्व महाभारत|शान्ति पर्व]]  
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|शीर्षक 10=
*[[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासन पर्व]]  
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|पाठ 10=
*[[आश्वमेधिक पर्व महाभारत|आश्वमेधिक पर्व]]  
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|संबंधित लेख=[[गीता]], [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[पाण्डव]], [[कौरव]], [[अर्जुन]], [[इन्द्रप्रस्थ]], [[हस्तिनापुर]], [[अज्ञातवास]], [[द्रौपदी चीरहरण]], [[शिशुपाल|शिशुपाल वध]], [[अश्वमेध यज्ञ]], [[अक्षौहिणी]]
*[[आश्रमवासिक पर्व महाभारत|आश्रमवासिक पर्व]]  
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|अन्य जानकारी=अनुमान किया जाता है कि 'महाभारत' में वर्णित '[[कुरु वंश]]' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते<ref>पुत्र के पुत्र</ref> [[परीक्षित]] और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।
*[[मौसल पर्व महाभारत|मौसल पर्व]]  
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|बाहरी कड़ियाँ=
*[[महाप्रास्थानिक पर्व महाभारत|महाप्रास्थानिक पर्व]]  
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|अद्यतन=
*[[स्वर्गारोहण पर्व महाभारत|स्वर्गारोहण पर्व]]।<br />
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}}
लक्षश्लोकात्मक महाभारत की सम्पूर्ति के लिए इन अठारह पर्वों के पश्चात ‘खिलपर्व’ के रूप में ‘[[हरिवंश पुराण]]’ की योजना की गयी है। हरिवंश पुराण में 3 पर्व हैं-<br />
 
*हरिवंश पर्व,
 
*विष्णु पर्व,
 
*भविष्य पर्व।
 
इन तीनों पर्वों में कुल मिलाकर 318 अध्याय और 12,000 श्लोक हैं। महाभारत का पूरक तो यह है ही, स्वतन्त्र रूप से भी इसका विशिष्ट महत्त्व है। सन्तान-प्राप्ति के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण लाभदायक माना गया है।
 
  
==अग्नि पुराण "महाभारत"==
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'''महाभारत''' [[हिन्दू|हिन्दुओं]] का प्रमुख काव्य [[ग्रंथ]] है, जो [[हिन्दू धर्म]] के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। कभी-कभी सिर्फ़ 'भारत' कहा जाने वाला यह काव्य-ग्रंथ [[भारत]] का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे [[साहित्य]] की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।
'''[[अग्नि पुराण]] में महाभारत की संक्षिप्त कथा'''
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==हिन्दू इतिहास गाथा==
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम (पांडव)|भीम]]-[[जरासंध]] युद्ध|thumb]]
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यह कृति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे 'महाभारत' में एक लाख श्लोक हैं। विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान् महाभारत काल को 'लौहयुग' से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित '[[कुरु वंश]]' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि [[अर्जुन]] के पोते [[परीक्षित]] और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।
'''[[अग्निदेव]] कहते हैं'''- अब मैं [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की महिमा को लक्षित कराने वाला महाभारत का उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें श्रीहरि ने [[पाण्डव|पाण्डवों]] को निमित्त बनाकर इस [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] का भार उतारा था। भगवान् [[विष्णु]] के नाभिकमल से [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी से [[अत्रि]], अत्रि से [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]], चन्द्रमा से [[बुध देवता|बुध]] और बुध से [[इला]]नन्दन [[पुरूरवा]] का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, [[आयु]] से राजा [[नहुष]] और नहुष से [[ययाति]] उत्पन्न हुए। ययाति से [[पुरू]] हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा [[कुरु वंश|कुरु]] हुए। कुरु के वंश में [[शान्तनु]] का जन्म हुआ।
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==महाकाव्य का लेखन==
शान्तनु से गंगानन्दन [[भीष्म]] उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे-चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से [[सत्यवती]] के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। चित्रांगद बाल्यावस्था में ही चित्रांगद नाम वाले [[गन्धर्व]] के द्वारा मारे गये। फिर भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके [[काशिराज]] की दो कन्याओं- अम्बिका और अम्बालिका को हर लाये। वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्याएँ हुईं। कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। [[धृतराष्ट्र]] ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें [[दुर्योधन]] सबसे बड़ा था
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'महाभारत' में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि [[वेदव्यास]] ने [[हिमालय]] की तलहटी की एक पवित्र गुफ़ा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली थी, परन्तु इसके पश्चात् उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस महाकाव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये, क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन कार्य था कि कोई इसे बिना किसी त्रुटि के वैसा ही लिख दे, जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए [[ब्रह्मा]] के कहने पर [[व्यास]] [[गणेश|भगवान गणेश]] के पास पहुँचे। गणेश लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रख दी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में रुकेंगे नहीं। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। {{बाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
राजा [[पाण्डु]] वन में रहते थे। वे एक ऋषि के शाप वश शतश्रृंग मुनि के आश्रम के पास स्त्रीसमागम के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए। (पाण्डु शाप के ही कारण स्त्री-सम्भोग से दूर रहते थे,) इसलिये उनकी आज्ञा के अनुसार कुन्ती के गर्भ से धर्म के अंश से युधिष्ठिर का जन्म हुआ। [[वायु देव|वायु]] से भीम और इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए। पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री के गर्भ से [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] के अंश से नकुल-सहदेव का जन्म हुआ। (शापवश) एक दिन [[माद्री]] के साथ सम्भोग होने से पाण्डु की मृत्यु हो गयी और माद्री भी उनके साथ सती हो गयी। जब [[कुन्ती]] का विवाह नहीं हुआ था, उसी समय ([[सूर्य देवता|सूर्य]] के अंश से) उनके गर्भ से [[कर्ण]] का जन्म हुआ था। वह दुर्योधन के आश्रय में रहता था। दैवयोग से कौरवों और पाण्डवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी। दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। उसने लाक्षा के बने हुए धर में पाण्डवों को रखकर आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु पाँचों पाण्डव अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये। वहाँ से [[एकचक्रा]] नगरी में जाकर वे मुनि के वेष में एक [[ब्राह्मण]] के घर में निवास करने लगे। फिर बक नामक राक्षस का वध करके वे [[पांचाल]]-राज्य में, जहाँ [[द्रौपदी]] का स्वयंवर होनेवाला था, गये। वहाँ अर्जुन के बाहुबल से मत्स्यभेद होने पर पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। तत्पश्चात दुर्योधन आदि को उनके जीवित होने का पता चलने पर उन्होंने कौरवों से अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर लिया। अर्जुन ने [[अग्निदेव]] से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया था। उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होने वाले बाण प्राप्त किये थे। सभी पाण्डव सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण थे
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[[कृष्ण]]:-<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|thumb|left|महाभारत युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए]]
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हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br />
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हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और [[प्रद्युम्न]] रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
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'''आगे पढ़ें''':-[[कृष्ण नारद संवाद]]}}अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते। जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते, उतने समय में ही व्यासजी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।
  
==पाण्डवों का वनवास==
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[[वेदव्यास]] ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हज़ार श्लोकों की 'भारतसंहिता' बनायी। तत्पश्चात् व्यासजी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख [[श्लोक]] गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास ने सर्वप्रथम अपने पुत्र [[शुकदेव]] को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया।
पाण्डुकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन  में [[इन्द्र]] के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों की (छत्राकार) बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया था। पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पायीं युधिष्ठिर राज्य करने लगे। उन्होंने प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण [[राजसूय यज्ञ]] का अनुष्ठान किया। उनका यह वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो उठा। उसने अपने भाई [[दु:शासन]] और वैभव प्राप्त सुहृद् कर्ण के कहने से [[शकुनि]] को साथ ले, द्यूत-सभा में जूए में प्रवृत्त होकर, [[युधिष्ठिर]] और उनके राज्य को कपट-द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया। जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वन में चले गये। वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बारह वर्ष व्यतीत किये। वे वन में भी पहले ही की भाँति प्रतिदिन बहुसंख्यक ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। (एक दिन उन्होंने) अठासी हज़ार द्विजोंसहित [[दुर्वासा]] को (श्रीकृष्ण-कृपा से) परितृप्त किया। वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी द्रौपदी और पुरोहित धौम्यजी भी थे।
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==महाभारत के पर्व==
 
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महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। [[कौरव]] और [[पाण्डव]] पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह थे।<ref>[[धृतराष्ट्र]], [[दुर्योधन]], [[दु:शासन]], [[कर्ण]], [[शकुनि]], [[भीष्म]], [[द्रोण]], [[कृपाचार्य]], [[अश्वत्थामा]], [[कृतवर्मा]], [[श्रीकृष्ण]], [[युधिष्ठर]], [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]], [[सहदेव]], [[द्रौपदी]] और [[विदुर]]</ref> महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्म पर्व' के अन्तर्गत वर्णित 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी अठारह अध्याय हैं।
बारहवाँ वर्ष बीतने पर वे [[विराट नगर]] में गये। वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर '[[कंक]]' नामक ब्राह्मण के रूप में रहने लगे। भीमसेन रसोइया बने थे। अर्जुन ने अपना नाम '[[बृहन्नला]]' रखा था। पाण्डव पत्नी द्रौपदी रनिवास  में सैरन्ध्री के रूप में रहने लगी। इसी प्रकार [[नकुल]]-[[सहदेव]] ने भी अपने नाम बदल लिये थे। भीमसेन ने रात्रिकाल में द्रौपदी का सतीत्व-हरण करने की इच्छा रखने वाले [[कीचक]] को मार डाला। तत्पश्चात कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया। श्रीकृष्ण की बहिन [[सुभद्रा]] ने अर्जुन से [[अभिमन्यु]] नामक पुत्र को उत्पन्न किया था उसे राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा ब्याह दी
 
 
 
==श्रीकृष्ण दूत बनकर गये।==
 
[[चित्र:Krishna-Arjuna.jpg|thumb|महाभारत के युद्ध में [[अर्जुन]] को समझाते हुये [[श्रीकृष्ण]]]]
 
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान् श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह [[अक्षौहिणी]] सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा-
 
 
 
'राजन्! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो।'
 
 
 
श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- 'मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।'
 
 
 
ऐसा कहकर वह भगवान् श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया। फिर [[विदुर]] ने अपने घर ले जाकर भगवान् का पूजन और सत्कार किया।
 
 
 
तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले-'महाराज! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये'
 
==कौरव और पाण्डवों का युद्ध तथा उसका परिणाम==
 
 
 
'''अग्निदेव कहते हैं'''- युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ [[कुरुक्षेत्र]] के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य [[द्रोणाचार्य|द्रोण]] आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है।
 
 
 
'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।"
 
[[चित्र:Dronacharya.jpg|thumb|left|[[धृष्टद्युम्न]] द्वारा [[द्रोणाचार्य]] वध]]
 
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति [[शिखण्डी]] थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित [[कौरव]] पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। <br />
 
कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले [[देवता|देवताओं]] को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया
 
  
==भीष्म द्रोण वध==
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सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। ‘पर्व’ का मूलार्थ है- "गाँठ या जोड़"<ref>वी.एस. आप्टे: संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ. 595</ref> पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं।<ref>सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 हैं।</ref> इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं-
दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर [[द्रुपद]] की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। उन्होंने युद्ध का मार्ग दिखाकर वसु-देवता के कहने पर वसुलोक में जाने की तैयारी की और बाणशय्या पर सो रहे। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। भीष्म के बाण-शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवों की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए। उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ाने वाला था। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त दुर्योधन की विशाल वाहिनी धृष्टद्युम्न के हाथ से मारी जाने लगी। उस समय द्रोण काल के समान जान पड़ते थे। इतने ही में उनके कानों में यह आवाज आयी कि 'अश्वत्थामा मारा गया'इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने [[अस्त्र शस्त्र]] त्याग दिये। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न के बाणों से आहत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े
 
==कर्ण और अर्जुन==
 
[[चित्र:Bhim-Dushasan.jpg|thumb|[[भीम (पांडव)|भीम]] द्वारा दु:शासन वध]]
 
द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे। वे सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करके पाँच वें दिन मारे गये। दुर्योधन पुन: शोक से आतुर हो उठा। उस समय कर्ण उसकी सेना का कर्णधार हुआ। पाण्डव-सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काट से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला; किंतु दूसरे दिन अर्जुन ने उसे मार गिराया
 
==द्रौपदी के पाँचों पुत्रों का वध==
 
तदनन्तर राजा [[शल्य]] कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार गिराया। दुर्योधन की प्राय: सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी। अन्ततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध  हुआ। उसने पाण्डव-पक्ष के पैदल आदि बहुत-से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया। उस समय [[गदा]] से प्रहार करते हुए दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये थे। महाभारत-संग्राम के उस अठारहवें दिन रात्रिकाल में महाबली [[अश्वत्थामा]] ने पाण्डवों की सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेना को सदा के लिये सुला दिया। उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को भी जीवित नहीं छोड़ा। द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने-बिलखने लगी। तब अर्जुन ने सींक के अस्त्र से अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। (उसे मारा जाता देख द्रौपदी ने ही अनुनय-विनय करके उसके प्राण बचाये)
 
[[चित्र:Sanjaya-Dhritarashtra.jpg|thumb|left|[[धृतराष्ट्र]] को महाभारत की घटनाओं का आँखों देखा हाल बताते हुये [[संजय]]]]
 
==वीरों का दाह-संस्कार==
 
इतने पर भी दुष्ट अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उस पर अस्त्र का प्रयोग किया। वह गर्भ उसके अस्त्र से प्राय: दग्ध हो गया था; किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित् के नाम से विख्यात हुआ। कृतवर्मा, [[कृपाचार्य]] तथा [[अश्वत्थामा]]- ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे। दूसरी ओर पाँच [[पाण्डव]], [[सात्यकि]] तथा भगवान श्री[[कृष्ण]]-ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था। [[भीमसेन]] आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि का दान किया। तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्ष धर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए। इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने [[अश्वमेध यज्ञ]] करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान किया। तदनन्तर [[द्वारका]] से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित् को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये
 
  
*यद्यपि इस अध्याय के अन्त तक महाभारत की पूरी कथा समाप्त हुई-सी जान पड़ती है, तथापि आश्रमवासिक पर्व से लेकर स्वर्गारोहण पर्व तक का वृत्तान्त कुछ विस्तार से कहना शेष रह गया है; इसलिये अगले (पंद्रहवें) अध्याय में उसे पूरा किया गया है।
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{{महाभारत के पर्व}}
  
==यदुकुल का संहार और पाण्डवों का स्वर्गगमन==
 
[[चित्र:Jaydrath-vadh.jpg|thumb|[[जयद्रथ]] वध]]
 
'''अग्निदेव कहते हैं'''- ब्रह्मन्! जब युधिष्ठिर राजसिंहासन पर विराजमान हो गये, तब धृतराष्ट्र गृहस्थ-आश्रम से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो वन में चले गये। (अथवा ऋषियों के एक आश्रम से दूसरे आश्रमों में होते हुए वे वन को गये।) उनके साथ देवी [[गान्धारी]] और पृथा (कुन्ती) भी थीं। विदुर जी दावानल से दग्ध हो स्वर्ग सिधारे। इस प्रकार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारा और धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिये पाण्डवों को निमित्त बनाकर दानव-दैत्य आदि का संहार किया। तत्पश्चात भूमिका भार बढ़ाने वाले यादवकुल का भी ब्राह्मणों के शाप के बहाने मूसल के द्वारा संहार कर डाला। अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। तदनन्तर देवताओं के अनुरोध से प्रभासक्षेत्र में श्रीहरि स्वयं ही स्थूल शरीर की लीला का संवरण करके अपने धाम को पधारे
 
  
वे इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में स्वर्गवासी देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। [[बलराम|बलभद्र]] जी [[शेषनाग]] के स्वरूप थे, अत: उन्होंने पातालरूपी स्वर्ग का आश्रय लिया। अविनाशी भगवान श्रीहरि ध्यानी पुरुषों के ध्येय हैं।  उनके अन्तर्धान हो जाने पर समुद्र ने उनके निजी निवासस्थान को छोड़ कर शेष द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। अर्जुन ने मरे हुए यादवों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दी और धन आदि का दान किया। भगवान् श्रीकृष्ण की रानियों को, जो पहले अप्सराएँ थीं और अष्टावक्र के शाप से मानवीरूप में प्रकट हुई थीं, लेकर [[हस्तिनापुर]] को चले। मार्ग में डंडे लिये हुए ग्वालों ने अर्जुन का तिरस्कार करके उन सबको छीन लिया। यह भी [[अष्टावक्र]] के शाप से ही सम्भव हुआ था। इससे अर्जुन के मन में बड़ा शोक हुआ। फिर महर्षि [[व्यास]] के सान्त्वना देने पर उन्हें यह निश्चय हुआ कि
 
'भगवान् श्रीकृष्ण के समीप रहने से ही मुझमें बल था।' हस्तिनापुर में आकर उन्होंने भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर से, जो उस समय प्रजावर्ग का पालन करते थे, यह सब समाचार निवेदन किया। वे बोले-
 
  
'भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो गया, जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान।' यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य पर परीक्षित् को स्थापित कर दिया
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<div align="center">'''[[कुरु वंश|आगे जाएँ »]]'''</div>
[[चित्र:karn1.jpg|thumb|left|महाभारत युद्ध में [[कर्ण]] की वीरगति]]
 
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। मार्ग में वे श्रीहरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा करते थे। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे [[इन्द्र]] के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर (उन पर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे हुए) भगवान् वासुदेव का भी दर्शन किया इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुईं यह मैंने तुम्हें महाभारत का प्रसंग सुनाया है। जो इसका पाठ करेगा, वह स्वर्गलोक में सम्मानित होगा।
 
==उत्तरगीता==
 
{{मुख्य|उत्तरगीता}}
 
'उत्तरगीता' महाभारत का ही एक अंश माना जाता है। प्रसिद्ध है कि पाण्डवों की विजय और राज्य प्राप्ति के बाद श्री कृष्ण के सत्संग का सुअवसर पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि भगवन! युद्धारम्भ में आपने जो गीता-उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच मैं भूल गया हूँ। कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए।
 
==धृतराष्ट्र- वनगमन==
 
[[चित्र:Vyasadeva-Sanjaya-Krishna.jpg|thumb|[[संजय]] को दिव्यदृष्टि प्रदान करते हुये [[वेदव्यास]] जी]]
 
{{मुख्य|धृतराष्ट्र का वनगमन}}
 
पांडवों ने विजयी होने के उपरांत धृतराष्ट्र तथा गांधारी की पूर्ण तन्मयता से सेवा की। पांडवों में से भीमसेन ऐसे थे जो सबकी चोरी से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम करते रहते थे, कभी-कभी सेवकों से भी धृष्टतापूर्ण मंत्रणाएँ करवाते थे। धृतराष्ट्र धीरे-धीरे दो दिन या चार दिन में एक बार भोजन करने लगे। पंद्रह वर्ष बाद उन्हें इतना वैराग्य हुआ कि वे वन जाने के लिए छटपटाने लगे। वे और गांधारी युधिष्ठिर तथा व्यास मुनि से आज्ञा लेकर वन में चले गये।
 
  
==सत्य ब्राह्मण की कथा==
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{मुख्य|सत्य}}
 
# सत्य नामक ब्राह्मण अनेक यज्ञों तथा तपों से व्यस्त रहता था।
 
# उसकी पत्नी (पुष्कर धारिणी) उसके हिंसक यज्ञों से सहमत नहीं थी, तथापि उसके शाप के भय से यज्ञ पत्नी का स्थान ग्रहण करती थी।
 
{{प्रचार}}
 
{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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१४:३४, ६ जुलाई २०१७ के समय का अवतरण

महाभारत
विवरण 'महाभारत' भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लम्बा साहित्यिक ग्रंथ है।
रचयिता वेदव्यास
लेखक भगवान गणेश[१]
भाषा संस्कृत
मुख्य पात्र श्रीकृष्ण, भीष्म, अर्जुन, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, द्रौपदी, शकुनि, कुंती, गांधारी, विदुर आदि।
18 पर्व आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, आश्वमेधिकपर्व, महाप्रास्थानिकपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शान्तिपर्व, अनुशासनपर्व, मौसलपर्व, कर्णपर्व, शल्यपर्व, स्वर्गारोहणपर्व, आश्रमवासिकपर्व
श्लोक संख्या एक लाख से अधिक
लोकप्रियता भारत, नेपाल, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, थाइलैंड, तिब्बत, म्यांमार आदि देशों में महाभारत बहुत लोकप्रिय है।
संबंधित लेख गीता, श्रीकृष्ण, पाण्डव, कौरव, अर्जुन, इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, अज्ञातवास, द्रौपदी चीरहरण, शिशुपाल वध, अश्वमेध यज्ञ, अक्षौहिणी
अन्य जानकारी अनुमान किया जाता है कि 'महाभारत' में वर्णित 'कुरु वंश' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि अर्जुन के पोते[२] परीक्षित और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।

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महाभारत हिन्दुओं का प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो हिन्दू धर्म के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। कभी-कभी सिर्फ़ 'भारत' कहा जाने वाला यह काव्य-ग्रंथ भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।

हिन्दू इतिहास गाथा

यह कृति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे 'महाभारत' में एक लाख श्लोक हैं। विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान् महाभारत काल को 'लौहयुग' से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित 'कुरु वंश' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि अर्जुन के पोते परीक्षित और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।

महाकाव्य का लेखन

'महाभारत' में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि वेदव्यास ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफ़ा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली थी, परन्तु इसके पश्चात् उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस महाकाव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये, क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन कार्य था कि कोई इसे बिना किसी त्रुटि के वैसा ही लिख दे, जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा के कहने पर व्यास भगवान गणेश के पास पहुँचे। गणेश लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रख दी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में रुकेंगे नहीं। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं।

महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
कृष्ण:-
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥ आगे पढ़ें:-कृष्ण नारद संवाद

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वेदव्यास ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हज़ार श्लोकों की 'भारतसंहिता' बनायी। तत्पश्चात् व्यासजी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया।

महाभारत के पर्व

महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह थे।[३] महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्म पर्व' के अन्तर्गत वर्णित 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी अठारह अध्याय हैं।

सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। ‘पर्व’ का मूलार्थ है- "गाँठ या जोड़"।[४] पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं।[५] इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं-

महाभारत के पर्व



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदव्यासजी श्लोकों का उच्चारण करते जाते थे, जिन्हें भगवान श्रीगणेश ने लिखा।
  2. पुत्र के पुत्र
  3. धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण, शकुनि, भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, श्रीकृष्ण, युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और विदुर
  4. वी.एस. आप्टे: संस्कृत-हिन्दी-कोश, पृ. 595
  5. सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 हैं।

संबंधित लेख

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श्रुतियाँ
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