रामचरितमानस
रामचरितमानस
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण, भरत, शत्रुघ्न |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
देश | भारत |
भाषा | अवधी |
शैली | चौपाई और दोहा |
विषय | चरित-काव्य |
प्रकार | प्रबन्ध काव्य |
भाग | कुल सात काण्डों में विभाजित |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
रामचरितमानस (अंग्रेज़ी:Ramcharitmanas) तुलसीदास की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना संवत 1631 ई. की रामनवमी को अयोध्या में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश काशी (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके किष्किन्धा काण्ड के प्रारम्भ में आने वाले एक सोरठे से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, रविवार को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना अवधी बोली में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द चौपाई और दोहा हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ कड़वक संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है।
- विशेष नोट- सम्पूर्ण रामचरितमानस पढ़ें
रामचरितमानस चरित-काव्य
'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें राम का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं, इसलिए वह 'चरित' और 'काव्य' होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी है। रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण इस प्रकार है-
संक्षिप्त कथा
'रामचरितमानस' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
दक्षों से लंका को जीतकर राक्षसराज रावण वहाँ राज्य करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से पृथ्वी त्रस्त हो गयी और वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर हरि की स्तुति की, जिसके उत्तर में आकाशवाणी हुई कि हरि दशरथ-कौशल्या के पुत्र राम के रूप में अयोध्या में अवतार ग्रहण करेंगे और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया। दशरथ की दो रानियाँ और थीं- कैकेयी और सुमित्रा। उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों-भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने जन्म ग्रहण किया।
विश्वामित्र के आश्रम में राम
इस समय राक्षसों का अत्याचार उत्तर भारत में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण मुनि विश्वामित्र यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र राम के रूप में हरि अवतरित हुए हैं, वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से राम की याचना की। राम तथा लक्ष्मण की सहायता से उन्होंने अपना यज्ञ पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक सुबाहु था, जो मारा गया और दूसरा मारीच था, जो राम के बाणों से आहत होकर सौ योजन की दूरी पर समुद्र के पार चला गया। जिस समय राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में रह रहे थे, मिथिला में धनुर्यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण प्राप्त हुआ। अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला गये। मिथिला के राजा जनक ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर हेतु आमन्त्रित किया था। रावण और बाणासुर जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस आमन्त्रण पर वहाँ गये थे किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहज ही तोड़ दिया और सीता का वरण किया। विवाह के अवसर पर अयोध्या निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये और विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।
कैकेयी और कोपभवन
दशरथ की अवस्था धीरे-धीरे ढलने लगी थी, इसलिए उन्होंने राम को अपना युवराज पद देना चाहा। संयोग से इस समय कैकेयी-पुत्र भरत सुमित्रा-पुत्र शत्रुघ्न के साथ ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी मन्थरा को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, उसने कैकेयी को सुनाया। पहले तो कैकेयी ने यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, यह उसके राजकुल की परम्परा है किन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की अनुपस्थिति में जो यह आयोजन किया जा रहा है, उसमें कोई दुरभि-सन्धि है, कैकेयी ने उस आयोजन को विफल बनाने का निश्चय किया और कोप भवन में चली गयी। तदनन्तर उसने दशरथ से, उनके मनाने पर, दो वर देने के लिए वचन; एक से राम के लिए 14 वर्षों का वनवास और दूसरे से भरत के लिए युवराज पद माँग लिये। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार राम ने वन के लिए प्रस्थान किया तो उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन के लिए प्रस्थान किया।
कुछ ही दिनों बाद जब दशरथ ने राम के विरह में शरीर त्याग दिया, भरत ननिहाल से बुलाये गये और उन्हें अयोध्या का सिंहासन दिया गया, किन्तु भरत ने उसे स्वीकार नहीं किया और वे राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट जा पहुँचे, जहाँ उस समय राम निवास कर रहे थे किन्तु राम ने लौटना स्वीकार न किया। भरत के अनुरोध पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें अयोध्या लाकर भरत ने सिंहासन पर रखा और वे राज्य का कार्य देखने लगे। चित्रकूट से चलकर राम दक्षिण के जंगलों की ओर बढ़े। जब वे पंचवटी में निवास कर रहे थे रावण की एक भगिनी शूर्पणखा एक मनोहर रूप धारण कर वहाँ आयी और राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। यह देखकर राम के संकेतों से लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिये। इस प्रकार कुरूप की हुई शूर्पणखा अपने भाइयों-खर और दूषण के पास गयी और उन्हें राम से युद्ध करने को प्रेरित किया। खर-दूषण ने अपनी सेना लेकर राम पर आक्रमण कर दिया किन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध में मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के पास गयी और उसने उसे सारी घटना सुनायी। रावण ने मारीच की सहायता से, जिसे विश्वामित्र के आश्रम में राम ने युद्ध में आहत किया था, सीता का हरण किया, जिसके परिणामस्वरूप राम को रावण से युद्ध करना पड़ा।
राम और रावण युद्ध
इस परिस्थिति में राम ने किष्किन्धा के वानरों की सहायता ली और रावण पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ रावण का भाई विभीषण भी आकर राम के साथ हो गया। राम ने अंगद नाम के वानर को रावण के पास दूत के रूप में अन्तिम बार सावधान करने के लिए भेजा कि वह सीता को लौटा दे, किन्तु रावण ने अपने अभिमान के बल से इसे स्वीकार नहीं किया और राम तथा रावण के दलों में युद्ध छिड़ गया। उस महायुद्ध में रावण तथा उसके बन्धु-बान्धव मारे गये। तदनन्तर लंका का राज्य उसके भाई विभीषण को देकर सीता को साथ लेकर राम और लक्ष्मण अयोध्या वापस आये। राम का राज्याभिषेक किया गया और दीर्घकाल तक उन्होंने प्रजारंजन करते हुए शासन किया। इस मूल कथा के पूर्व 'रामचरितमानस' में रावण के कुछ पूर्वभवों की तथा राम के कुछ पूर्ववर्ती अवतारों की कथाएँ हैं, जो संक्षेप में दी गयी है। कथा के अन्त में गरुड़ और काग भुशुण्डि का एक विस्तृत संवाद है, जिसमें अनेक प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हुआ है। कथा के प्रारम्भ होने के पूर्व शिव-चरित्र, शिव-पार्वती संवाद, याज्ञवलक्य-भारद्वाज संवाद तथा काग भुशुण्डि-गरुड़ संवाद के रूप में कथा की भूमिकाएँ हैं। और उनके भी पूर्व कवि की भूमिका और प्रस्तावना है।
'चरित' की दृष्टि से यह रचना पर्याप्त सफल हुई है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ एक पूर्वाकार की कथाओं से लेकर राम के राज्य-वर्णन तक कवि ने कोई भी प्रासंगिक कथा रचना में नहीं आने दी है। इस सम्बन्ध में यदि वाल्मीकीय तथा अन्य अधिकतर राम-कथा ग्रन्थों से 'रामचरितमानस' की तुलना की जाय तो तुलसीदास की विशेषता प्रमाणित होगी। अन्य रामकथा ग्रन्थों में बीच-बीच में कुछ प्रासंगिक कथाएँ देखकर अनेक क्षेपककारों ने 'रामचरितमानस' में प्रक्षिप्त प्रसंग रखे और कथाएँ मिलायीं, किन्तु राम-कथा के पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वे रचना को मूल रूप में ही पढ़ते और उसका पारायण करते हैं। चरित-काव्यों की एक बड़ी विशेषता उनकी सहज और प्रयासहीन शैली मानी गयी है, और इस दृष्टि से 'मानस' एक अत्यन्त सफल चरित है। रचना भर में तुलसीदास ने कहीं भी अपना काव्य कौशल, अपना पाण्डित्य, अपनी बहुज्ञता आदि के प्रदर्शन का कोई प्रयास नहीं किया है। सर्वत्र वे अपने वर्ण्य विषय में इतने तन्मय रहे हैं कि उन्हें अपना ध्यान नहीं रहा। रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि राम के चरित ने ही उन्हें वह वाणी प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सुन्दर कृति का निर्माण कर सके।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीरामचरितमानस में छन्द (हिन्दी) (html) श्री रामचरित (RamCharit.in)। अभिगमन तिथि: 19 मई, 2016।
- ↑ वाल्मीकि रामायण(2-20-25-30
- ↑ अध्यात्म रामायण(2-4-4-6
- ↑ रामचरितमानस(2-53-3-8
- ↑ रामचरितमानस(2-4-17-44
- ↑ रामचरितमानस(2।4।44-46
- ↑ वाल्मीकीय रामायण(2।25।24-27
- ↑ अध्यात्म रामायण (2. 4-57-62
- ↑ रामचरितमानस(2. 141. 3-5
- ↑ रामचरितमानस(2,231,6, से 2, 232, 8 तक
- ↑ रामचरितमानस(2. 249, 1-8
- ↑ 'भरतहि देखि मतु उठि धाई। मुरछित अवनि परी झईं आई॥
सरल सुभाय माय हिय लाये। अति हित मनहुँ राम फिर आये॥
भेटउ बहुरि लषन लघु भाई। सोक सनेह न हृदय समाई॥देखि सुभाउ कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई॥"रामचरितमानस(2,164, 1-2, 165,3
- ↑ वाल्मीकि-रामायण(2, 75, 10-17