अंखियां हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूप-रस रांची[१] ये बतियां सुनि रूखी॥
अवधि[२] गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी।[३]
अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥[४]
बारक[५] वह मुख फेरि दिखावहु दुहि पय पिवत पतूखी।[६]
सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता है सूखी॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रंगी हुईं अनुरूप।
- ↑ नियत समय।
- ↑ दुःख से पछताई खीजी।
- ↑ दुःखित हुई।
- ↑ एक बार।
- ↑ पत्तेश का छोटा-सा दाना
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