पुण्डरीक  

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पुण्‍डरीक एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पुण्डरीक (बहुविकल्पी)

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पुण्‍डरीक भगवान विष्णु के परम भक्त, वेद, शास्‍त्रों के ज्ञाता, तपस्‍वी, स्‍वाध्‍यायप्रेमी, इन्द्रियविजयी एवं क्षमाशील थे। वे त्रिकाल सन्‍ध्‍या करते थे। प्रात:- सायं विधिपूर्वक अग्‍निहोत्र करते थे। बहुत दिनों तक उन्‍होंने गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा की थी।

परिचय

"स्‍मृत: सन्‍तोषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तम। पुनाति भगवद् भक्तश्‍चाण्‍डालोअपि यदृच्‍छया।।"[१]

अर्थात् 'स्‍मरण करने पर, सन्‍तुष्‍ट करने पर, पूजा करने पर भगवान का भक्त अनायास ही चाण्‍डाल तक को भी पवित्र कर देता है।'

पुण्‍डरीक जी ऐसे ही महाभागवत हुए थे। उनका जन्‍म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वे वेद-शास्‍त्रों के ज्ञाता, तपस्‍वी, स्‍वाध्‍यायप्रेमी, इन्द्रियविजयी एवं क्षमाशील थे। वे त्रिकाल सन्‍ध्‍या करते थे। प्रात:, सायं विधिपूर्वक अग्‍निहोत्र करते थे। बहुत दिनों तक उन्‍होंने गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा की थी और नियमित प्राणायाम तथा भगवान विष्णु का चिन्‍तन तो वे सर्वदा ही करते थे। वे माता-पिता के भक्त थे। वर्णाश्रम-धर्मानुकूल अपने कर्तव्‍यों का भली-भांति विधिपूर्वक पालन करते थे। धर्म के मूल हैं भगवान। धर्म के पालन का यही परम फल है कि संसार के विषयों में वैराग्‍य होकर भगवान के चरणों में प्रीति हो जाय।

लौकिक-वैदिक कर्मों का पालन

भगवान की प्रसन्नता के लिये ही लौकिक-वैदिक समस्‍त कर्मों का पुण्‍डरीक पालन करते थे। ऐसा करने से उनका हदय शुद्ध हो गया था। संसार के किसी भी पदार्थ में उनकी आसक्ति, ममता, स्‍पृहा या कामना नहीं रह गयी। वे माता-पिता, भाई-बन्‍धु, मित्र-सखा, सुहद-सम्‍बन्‍धी आदि स्‍नेह के मोह के बन्‍धनों से छूट गये थे। उनके हृदय में केवल एक मात्र भगवान को प्राप्‍त करने की इच्‍छा रह गयी थी। वे अपने सम्‍पन्न घर एवं परिवार को तृण के समान छोड़कर भगवत्‍प्राप्ति के लिये निकल पड़े थे।

भगवान का ध्यान

भक्त पुण्‍डरीक साग, मूल, फल-जो कुछ मिल जाता, उसी से शरीर निर्वाह करते हुए तीर्थटन करने लगे। शरीर के सुख-दु:ख की उन्‍हें तनिक भी चिन्‍ता नहीं थी, वे तो अपने प्रियतम प्रभु को पाना चाहते थे। घूमते- घूमते वे 'शालग्राम' नामक स्‍थान पर पहुंचे। यह स्‍थान रमणीक था, पवित्र था। यहां अच्‍छे तत्‍वज्ञानी महात्‍मा रहते थे। अनेक पवित्र जलाशय थे। पुण्‍डरीक ने उन तीर्थकुण्‍डों में स्‍नान किया। उनका मन यहां लग गया। यहीं रहकर अब वे भगवान का निरन्‍तर ध्‍यान करने लगे। उनका हृदय भगवान के ध्‍यान से आनन्‍दमग्‍न हो गया। वे हृदय में भगवान का दर्शन पाने लगे थे।

देवर्षि नारद का दर्शन

अपने अनुरागी भक्तों को दयामय भगवान सदा ही स्‍मरण रखते हैं। प्रभु ने देवर्षि नारदजी को पुण्‍डरीक के पास भेजा कि वे उस भोले भक्त के भाव को और पुष्‍ट करें। श्रीनारदजी परमार्थ के तत्‍वज्ञ तथा भगवान के हृदय-स्‍वरूप। वे सदा भक्तों पर कृपा करने, उन्‍हें सहायता पहुंचाने को उत्‍सुक रहते हैं। भगवान की आज्ञा से हर्षित होकर वे शीघ्र ही पुण्‍डरीक के पास पहुंचे। साक्षात सूर्य के समान तेजस्‍वी, वीणा बजाकर हरिगुण-गान करते देवर्षि को देखकर पुण्‍डरीक उठ खडे़ हुए। उन्‍होंने साष्‍टांग प्रणाम किया। देवर्षि के तेज को देखकर वे चकित रह गये। संसार में ऐसा तेज मनुष्‍यों में सुना भी नहीं जाता। पूछने पर नारद जी ने अपना परिचय दिया। देवर्षि को पहचानकर पुण्‍डरीक के हर्ष का पार नहीं रहा। उन्‍होंने नारद जी की पूजा करके बड़ी नम्रता से प्रार्थना की- "प्रभो। मेरा आज परम सौभाग्‍य है जो मुझे आपके दर्शन हुए। आज मेरे सब पूर्वज तर गये। अब आप अपने इस दास पर कृपा करके ऐसा उपदेश करें, जिससे इस संसार-सागर में डूबते इस अधम का उद्धार हो जाय। आप तो भगवान के मार्ग पर चलने वालों की एकमात्र गति हैं, आप इस दीन पर दया करें।"

पुण्‍डरीक की अभिमान रहित सरल वाणी सुनकर देवर्षि नारद ने कहा- "द्विजोत्तम। इस लोक में अनेक प्रकार के मनुष्‍य हैं और उनके अनेक मत हैं। नाना तर्कों से वे अपने मतों का समर्थन करते हैं। मैं तुमको परमार्थ-तत्‍व बतलाता हूं। यह तत्‍व सहज ही समझ में नहीं आता। तत्‍ववेत्ता लोग प्रमाण द्वारा ही इसका निरूपण करते हैं। मूर्ख लोग ही प्रत्‍यक्ष तथा वर्तमान प्रमाणों को मानते हैं। वे अनागत तथा अतीत प्रमाणों को स्‍वीकार नहीं करते। मुनियों ने कहा है कि जो पूर्वरूप है, परम्‍परा से चला आता है, वही आगम है। जो कर्म, कर्मफल-तत्‍व, विज्ञान, दर्शन और विभु है; जिसमें न वर्ण है, न जाति; जो नित्‍य आत्‍म संवेदन है; जो सनातन, अतीन्द्रिय, चेतन, अमृत, अज्ञेय, शाशवत, अज, अविनाशी, अव्‍यक्त, व्‍यक्त, व्‍यक्त में विभु और निरंजन है- वही द्वितीय आगम है। वही चराचर जगत् में व्‍यापक होने से ‘विष्णु‘ कहलाता है। उसी के अनन्‍त नाम हैं। परमार्थ से विमुख लोग उस योगियों के परमाराध्‍य-तत्‍व को नहीं जान सकते। यह हमारा मत है। यह केवल अभिमान ही है। ज्ञान तो शाशवत और सनातन है। वह परम्‍परा से ही चला आ रहा है। भारतीय महापुरुष सदा इतिहास के रूप में इसी से ज्ञान का वर्णन करते रहे हैं कि उसमें अपने अभिमान की क्षुद्रता न आ जाय।"

देवर्षि नारद ने कहा कि "मैंने एक बार सृष्टिकर्ता अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा था। उस समय परमार्थ-तत्‍व के विषय में ब्रह्मा जी ने कहा- "भगवान नारायण ही समस्‍त प्राणियों के आत्‍मा हैं। वे ही प्रभु जगदाधार हैं। वे ही सनातन परमात्‍मा पचीस तत्‍वों के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं। जगत् की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय नारायण से ही होता है। विशव, तैजस, प्राज्ञ-ये त्रिविध आत्‍मा नारायण से ही होता है। विशव, तैजस, प्राज्ञ-ये त्रिविध आत्‍मा नारायण ही हैं। वे ही सबके अधीश्‍वर, एकमात्र सनातन देव हैं। योगीगण ज्ञान तथा योग के द्वारा उन्‍हीं जगन्‍नाथ का साक्षात्‍कार करते हैं। जिनका चित्त नारायण में लगा हैं, जिनके प्राण नारायण को अर्पित हैं, जो केवल नारायण के ही परायण हैं, वे नारायण की कृपा और शक्ति से जगत् में दूर और समीप, भूत, वर्तमान और भविष्‍य, स्‍थूल और सूक्ष्‍म- सबको देखते हैं। उनसे कुछ अज्ञात नहीं रहता। ब्रह्मा जी ने देवताओं से एक दिन कहा था, धर्म नारायण के आश्रित है। सब सनातन लोक, यज्ञ, शास्‍त्र, वेद, वेदांग तथा और भी जो कुछ है, सब नारायण के ही आधार पर हैं। वे अव्‍यक्त पुरुष नारायण ही पृथ्‍वी आदि पंचभूत रूप हैं। यह समस्‍त जगत् विष्णुमय है। पापी मनुष्‍य इस तत्‍व को नहीं जानता। जिनका चित्त उन विश्‍वेश्‍वर में लगा है, जिनका जीवन उन श्रीहरि को अर्पित है, ऐसे परमार्थ-ज्ञाता ही उन परम पुरुषों को जानते हैं। नारायण ही सब भूतरूप हैं, वे ही सब में व्‍याप्‍त हैं, वे ही सबका पालन करते हैं। समस्‍त जगत् उन्‍हीं से उत्‍पन्न है, उन्‍हीं में प्रतिष्ठित है। वे ही सबके स्‍वामी हैं। सृष्टि के लिये वे ही ब्रह्मा, पालन के लिये विष्णु और संहार के लिये रुद्र रूप धारण किये हैं। वे ही लोकपाल हैं। वे परात्‍पर पुरुष ही सर्वधार, निष्‍कल, सकल, अणु और महान् हैं। सबको उन्‍हीं के शरण होना चाहिये।"

देवर्षि ने कहा- "ब्रह्मा जी ने ऐसा कहा था, अत: द्विज श्रेष्‍ठ। तुम भी उन्‍हीं श्रीहरि की शरण लो। उन नारायण को छोड़कर भक्तों के अभीष्‍ट को पूरा करने वाला और कोई नहीं है। वे ही पुरुषोत्तम सबके पिता-माता हैं; वे ही लोकेश, देवदेव, जगत्‍पति हैं। अग्‍निहोत्र, तप, अध्‍ययन आदि सभी सत्‍कर्मों से नित्‍य-निरन्‍तर सावधानी के साथ एकमात्र उन्‍हें ही सन्‍तुष्‍ट करना चाहिये। तुम उन पुरुषोत्तम की ही शरण लो। उनकी शरण होने पर न तो बहुत से मन्‍त्रों की आवश्‍यकता है, न व्रतों का ही प्रयोजन है। एक नारायण मन्‍त्र– ऊं नमो नारायणाय ही सब मनोरथों को पूरा करने वाला है। भगवान की आराधना में किसी बाहरी वेष की आवशयकता नहीं। कपड़े पहने हो या दिगम्‍बर हो, जटाधारी हो या मूंड़ मुड़ाये हो, त्‍यागी हो या ग्रहस्‍थ हो- सभी भगवान की भक्ति कर सकते हैं। चिह्न (वेष) धर्म का कारण नहीं है। जो लोग पहले निर्दय, पापी, दुष्‍टात्‍मा और कुकर्मरत रहे हैं, वे भी नारायण-परायण होने पर परम धाम को प्राप्‍त हो जाते हैं। भगवान के परम भक्त पाप के कीचड़ में कभी लिप्‍त नहीं होते। अहिंसा से चित्त को जीतकर वे भगवद भक्त तीनों लोकों को पवित्र करते हैं। प्राचीन काल में अनेक लोग प्रेम से भगवान का भजन करके उन्‍हें प्राप्‍त कर चुके हैं। श्रीहरि की आराधना से सबको परम गति मिलती है और उसके बिना कोई परमपद नहीं पा सकता। ब्रह्मचारी, गृहस्‍थ, वानप्रस्‍थ, संन्‍यासी-कोई भी हो, परमपद तो भगवान के भजन से ही मिलता है। मैं हरिभक्तों का दास हूं, यह सुबुद्धि सहस्‍त्रों जन्‍मों के अनन्‍तर भगवान की कृपा से ही प्राप्‍त होती है। ऐसा पुरुष भगवान को प्राप्‍त कर लेता है। तत्त्वज्ञ पुरुष इसीलिये चित्त को सब ओर से हटाकर नित्‍य-निरन्‍तर अनन्‍यभाव से सनातन परम पुरुष का ही ध्‍यान करते हैं। देवर्षि नारद यह उपदेश देकर चले गये।"

दृढ़ ईश्वर भक्ति

पुण्‍डरीक की भगवद भक्ति देवर्षि के उपदेश से और भी दृढ़ हो गयी। वे नारायणमन्‍त्र का अखण्‍ड जप करते और सदा भगवान के ध्‍यान में निमग्‍न रहते। उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि उनके हृदय कमल पर भगवान गोविन्‍द सदा प्रत्‍यक्ष विराजमान रहने लगे। सत्‍वगुण का पूरा साम्राज्‍य हो जाने से निद्रा, जो पुरुषार्थ की विरोधिनी और तमोरूपा है, सर्वथा नष्‍ट हो गयी। बहुत-से महापुरुषों में यह देखा और सुना जाता है कि उनके मन और बुद्धि में भगवान का आविर्भाव हुआ और वे दिव्‍यभगवदरूप में परिणत हो गये; किंतु किसी का स्‍थूल शरीर दिव्‍य हो गया हो, यह नहीं सुना जाता। ऐसा तो कदाचित् ही होता है। पुण्‍डरीक में यही लोकोत्तर अवस्‍था प्रकट हुई। उनका निष्‍पाप देह श्‍यामवर्ण का हो गया, चार भुजाएं हो गयीं; उन हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म आ गये। उनका वस्त्र पीताम्‍बर हो गया। एक तेजोमण्‍डल ने उनके शरीर को घेर लिया। पुण्‍डरीक से वे ‘पुण्‍डरीकाक्ष’ हो गये। वन के सिंह, व्‍याघ्र आदि क्रूर पशु भी उनके पास अपना परस्‍पर का सहज वैर-भाव भूलकर एकत्र हो गये और प्रसन्नता प्रकट करने लगे। नदी-सरोवर, वन-पर्वत, वृक्ष-लताएं-सब पुण्‍डरीक के अनुकूल हो गये। सब उनकी सेवा के लिये फल, पुष्‍प, निर्मल जल आदि प्रस्‍तुत रखने लगे। पुण्‍डरीक भक्तवत्‍सल भगवान की कृपा से उनके अत्‍यन्‍त प्रियपात्र हो गये थे।

भगवान का दर्शन

प्रत्‍येक जीव, प्रत्‍येक जड़-चेतन उस परम वन्‍दनीय भक्त की सेवा से अपने को कृतार्थ करना चाहता था। पुण्‍डरीक के मन-बुद्धि ही नहीं, शरीर भी दिव्‍य भगवदरूप हो गया था; तथापि दयामय करुणासागर प्रभु भक्त को परम पावन करने, उसे नेत्रों का चरम लाभ देने उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान का स्‍वरूप, उनकी शोभा, उनकी अंग-कान्ति जिस मन में एक झलक दे जाती है, वह मन, वह जीवन धन्‍य हो जाता है। उसका वर्णन कर सके, इतनी शक्ति कहां किसमें है। पुण्‍डरीक भगवान के अचिन्‍तय सुन्‍दर दिव्‍य रूप को देखकर प्रेम-विहल हो गये। भगवान के श्रीचरणों में प्रणिपात करके भरे कण्‍ठ से उन्‍होंने स्‍तुति की। स्‍तुति करते-करते प्रेम के वेग से पुण्‍डरीक की वाणी रुद्ध हो गयी।

वैकुण्ठ गमन

भगवान ने पुण्‍डरीक को वरदान मांगने के लिये कहा। पुण्‍डरीक ने विनयपूर्वक उत्तर दिया- "भगवन। कहां तो मैं दुर्बुद्धि प्राणी और कहां आप सर्वेशवर, सर्वज्ञ। मेरे परम सुहद स्‍वामी। आपके दर्शन के पशचात और क्‍या शेष रह जाता है, जिसे मांगा जाय-यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरे नाथ। आप मुझे मांगने का आदेश कर रहे हैं तो मैं यही मांगता हूं कि मैं अबोध हूं; अत: जिसमें मेरा कल्‍याण हो, वही आप करें।" भगवान ने अपने चरणों में पड़े पुण्‍डरीक को उठाकर हृदय से लगा लिया। वे बोले- "वत्‍स। तुम मेरे साथ चलो। तुम्‍हें छोड़कर अब मैं नहीं रह सकता। अब तुम मेरे धाम में मेरे समीप, मेरी लीला में सहयोग देते हुए निवास करो।" भगवान ने पुण्‍डरीक को अपने साथ गरुड़ पर बैठा लिया और अपने नित्‍य धाम ले गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पह्मपुराण, उत्तर 30-70

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