तबतें बहुरि न कोऊ आयौ। वहै जु एक बेर ऊधो सों कछुक संदेसों पायौ॥ छिन-छिन सुरति करत जदुपति की परत न मन समुझायौ। गोकुलनाथ हमारे हित लगि द्वै आखर[१] न पठायौ॥ यहै बिचार करहु धौं सजनी इतौ गहरू[२] क्यों लायौ। सूर, स्याम अब बेगि मिलौ किन[३] मेघनि अंबर छायौ॥