मुग़ल काल 5  

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प्रशासन

गुजरात विजय के बाद के दशक में अकबर को साम्राज्य के प्रशानिक मामलों की ओर ध्यान देने का समय मिला। शेरशाह द्वारा स्थापित पद्धति में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद गड़बड़ हो गई थी। इसलिए अकबर को नये सिरे से कार्य करना था। अकबर के सामने सबसे बड़ी समस्या भू-राजस्व के प्रशासन की थी। शेरशाह ने ऐसी पद्धति का प्रचलन किया था जिसमें औसत क़ीमतें कृषि-भूमि की नाप करके तय की जाती थीं और यह फ़सल की उत्पाद-औसत पर निर्धारित होती थीं। अकबर ने शेरशाह की पद्धति को ही अपनाया। लेकिन कुछ समय बाद यह अनुभव किया कि बाज़ार-भावों को निर्धारित करने में काफ़ी समय लग जाता है और फिर क़ीमतों का निर्धारण शाही दरबार के आस-पास की क़ीमतों पर आधारित होता था जो अक्सर ग्रामीण क्षत्रों की क़ीमतों से अधिक होती थीं। इससे किसानों को अधिक अंश कर के रूप में देना पड़ता था।

कृषि और राजस्व

अतः अकबर ने वार्षिक अनुमान की पद्धति को फिर से लागू किया। क़ानूनगो जो वंशगत भूमिधर होते थे, तथा अन्य स्थानीय अफ़सरों को, जो स्थानीय परिस्थितियों से परिचित होते थे, को वास्तविक उत्पादन, खेती की स्थिति, स्थानीय क़ीमतों, आदि की सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दिया जाता था। लेकिन हर क्षेत्र के क़ानूनगो बेईमान थे और वे वास्तविक उत्पादन को अक्सर छिपा जाते थे। इसलिए वार्षिक अनुमान की पद्धति से भी किसानों और राज्य की परेशानियाँ कम नहीं हुईं। गुजरात से लौटने पश्चात् (1573) अकबर ने भू-राजस्व पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया। समस्त उत्तर भारत में करोड़ी पद के अधिकारियों की नियुक्ति हुई। एक करोड़ दाम (रु0 2,50,000) कर के रूप में एकत्र करना उनका उत्तरदायित्व था। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय क़ीमतें, उत्पादकता, आदि पर उनकी सूचना के आधार पर, अकबर ने 1580 में दह-साला नाम की नयी प्रणाली लागू की। इस प्रणाली के अंतर्गत अलग-अलग फ़सलों के पिछले दस (दह) वर्ष के उत्पादन और इसी अवधि में उनकी क़ीमतों का औसत निकाला जाता था। इस औसत उपज का तिहाई राजस्व होता था। लेकिन राज्य की माँग नगद भुगतान की होती थी। उपज से नक़दी में यह परिवर्तन दस वर्षों की क़ीमतों के औसत पर आधारित होता था। इस प्रकार बीघा में कुल उत्पादन मनों में दिया जाता था और क़ीमतों के औसत के आधार पर प्रति बीघा रुपयो में परिवर्तित कर दिया जाता था।

बाद में इस प्रणाली में और सुधार किया गया। इसके लिए न के केवल स्थानीय क़ीमतों को आधार बनाया गया बल्कि एक ही तरह के कृषि-उत्पादन वाले परगनों को विभिन्न कर हलक़ों में विभाजित किया गया। इस प्रकार किसान को भू-राजस्व स्थानीय क़ीमत और स्थानीय उत्पादन के अनुसार देना होता था।
इस प्रणाली के कई लाभ थे। जैसे ही किसान द्वारा बोये गये खेत को लोहे के दल्लों से जुड़े बाँसों द्वारा नाप लिया जाता था, किसान और राज्य दोनों को यह पता चल जाता था कि कर की राशि कितनी होगी। यदि सूखा या बाढ़ आदि के कारण फ़सल ख़राब हो जाती थी, तो किसान को राजस्व में छूट मिलती थी। माप और उस पर आधारित कर निर्धारण की प्रणाली को ज़ाब्ती-प्रणाली कहा जाता था। अकबर ने इस प्रणाली को लाहौर से इलाहाबाद और मालवा तथा गुजरात के क्षेत्रों में लागू किया। दह-साला-प्रणाली ज़ाब्ती-प्रणाली का विकास थी।

अकबर के शासनकाल में कर निर्धारण की अन्य पद्धतियाँ अपनाई गईं। सबसे पुरानी और सामान्यतः प्रचलित प्रणाली बटाई अथवा ग़ल्ला बख्शी कहलाती थी। इस प्रणाली में ग़ल्ले को और किसानों और राज्य में निश्चित अनुपात में बांट लिया जाता था। उत्पादन को साफ़ करने के पश्चात् या उस समय जब काटने के पश्चात् उसके गठ्ठर बाँध दिए जाते थे अथवा कटाई से पूर्व कभी भी विभाजित कर दिया जाता था। यह प्रणाली काफ़ी सीधी और आसान थी, लेकिन उसके लिए काफ़ी बड़ी संख्या में ईमानदार कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती थी, जिन्हें अनाज के पकते समय और कटाई के समय खेतों में उपस्थित रहना पड़ता था।

कुछ परिस्थितियों में किसानों को ज़ब्ती या बटाई प्रणाली चुनने की छूट होती थी। उदाहरण के लिए जब खेती नष्ट हो जाती थी, तो किसानों को इस प्रकार की छूट दी जाती थी। बंटाई प्रणाली के अंतर्गत किसानों को उपज या नग़दी में कर-भुगतान की छूट थी, यद्यपि राज्य नग़दी में कर लेना उचित समझता था। कपास, नील, तेल-बीज, ईख जैसी उपज पर तो नग़द ही कर लिया जाता था। इसीलिए इन्हें नग़दी-खेती कहा जाता था। अकबर के शासनकाल में एक तीसरी प्रणाली नसक भी काफ़ी प्रचलित थी, लेकिन इसके विषय में निश्चित जानकारी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रणाली किसानों द्वारा पिछले वर्षों में किए गए भुगतान के आधार पर कच्चे अनुमान पर आधारित थी। इस विषय में कतिपय आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि यह कर निर्धारण के स्थान पर कृषि-कर का लेखा जोखा करने की प्रणाली थी। अन्य विद्वानों का मत यह है कि यह प्रणाली खेती के निरीक्षण और पिछले अनुभवों पर आधारित अनुमित कर निर्धारण की प्रणाली थी, जो गांवे को सामूहिक रूप से भुगतान करना होता था। कर निर्धारण की इस कच्ची प्रणाली को कंकूत भी कहा जाता था। कर निर्धारण की कई अन्य प्रणालियाँ भी अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित रहीं।

भू-राजस्व निर्धारित करते समय बोआई की निस्तरता का भी ध्यान रखा जाता था। जिस ज़मीन पर हर साल बोआई होती थी, उसे पोलज कहा जाता था। जब उस पर बोआई नहीं होती थी, तो उसे परती कहा जाता था। परती ज़मीन की बोआई होने पर कर की पूरी दर (पोलज) देनी पड़ती थी। जब ज़मीन दो-तीन सालों तक बिन बोई रहती थी, तो उसे चचार कहा जाता था, और उससे अधिक समय तक बिन बोई रहने पर बंजर कहलाती थी। इस ज़मीन पर कर रियासती दरों पर लगाया जाता था, या उस पर पाँचवें या आँठवें साल पोलज दर लगाई जाती थी। इस प्रकार राज्य ख़ाली पड़ी ज़मीन पर खेती करने को प्रोत्साहित करता था। ज़मीन को उपज के आधार पर वर्गीकृत भी किया जाता था, लेकिन यह कर निर्धारण की पद्धति आदि पर भी निर्भर करता था।

अकबर खेती के विस्तार और आधार में बहुत रुचि लेता था। वह आमिलों को किसानों से पितावत व्यवहार करने को कहता था। आवश्यकता पड़ने पर वह किसानों को बीज, औज़ारों, पशुओं आदि के लिए तक़ावी ऋण भी देता था। इन ऋणों को आसान किश्तों में वापस लिया जाता था। यह किसानों को अधिक से अधिक ज़मीन पर जुताई करने और घटिया फ़सलों के स्थान पर बढ़िया फ़सलों को उगाने के लिए प्रोत्साहन देने हेतु किया जाता था। इसके लिए उस क्षेत्र के ज़मींदारों को भी सहायता करने के लिए कहा जाता था। ज़मींदारों को पैदावार का कुछ अंश स्वयं लेने का वंशागत अधिकार प्राप्त था। किसानों को भी जुताई-बुआई का अधिकार वंशगत था, और वे जब तक कर देते रहते थे, उन्हें बेदख़ल नहीं किया जा सकता था। दह-साला प्रणाली में दस सालों के लिए एक ही दर के कर निर्धारित नहीं किये जाते थे। यह स्थायी भी नहीं होती थी। परन्तु, फिर भी अकबर की प्रणाली कुछ परिवर्तनों के साथ सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक मुग़ल साम्राज्य की नीति रही। ज़ाब्ती-प्रणाली का श्रेय राजा टोडरमल को जाता है, और उसे राजा टोडरमल का बन्दोबस्त भी कहा जाता है। टोडरमल एक योग्य राजस्व अधिकारी था, जो पहले शेरशाह के अधीन कार्य करता था। लेकिन वह अकबर के शासनकाल के योग्य राजस्व अधिकारियों में से एक था।

सुदृढ़ सेना

अकबर बिना सुदृढ़ सेना के न तो साम्राज्य का विस्तार कर सकता था, और न ही उस पर अपना अधिकार बनाये रख सकता था। इसके लिए अकबर को अपने सैनिक-अधिकारियों और सिपाहियों को सुगठित करना था। अकबर ने इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति मनसबदारी प्रणाली से की। इस प्रणाली में प्रत्येक सरदार और दूसरे अफ़सरों को एक पद (मनसब) दिया गया। निम्नतम पद 10 सिपाहियों के ऊपर था और सरदारों के लिए उच्चतम पद 5,000 सिपाहियों पर था। अकबर के शासनकाल के अंत में इसको 7,000 सिपाहियों तक बढ़ा दिया गया। रक्त से सम्बद्ध राजकुमारों को बड़े मनसब दिए जाते थे। इन पदों को दो वर्गों ज़ात और सवार में विभाजित किया गया। ज़ात का अर्थ है व्यक्तिगत। इससे व्यक्ति का पद-स्थान तथा वेतन निर्धारित होता था। सवार का अर्थ घुड़सवारों की संख्या, जो मनसबदार अपने अधीन रखता था। जिस व्यक्ति को अपने ज़ात-पद के अनुपात में सवार रखने का अधिकार होता था, वह प्रथम श्रेणी में आता था। यदि सवारों की संख्या आधी या आधी से अधिक होती थी, तो वह दूसरी श्रेणी में आता था, और उससे नीचे तीसरी श्रेणी होती थी। इस प्रकार प्रत्येक पद (मनसब) में तीन श्रेणियाँ होती थीं। जो अपने पास बड़ी संख्या में सवार रखते थे, उन्हें ज़ात वेतन के ऊपर दो रुपये प्रति सवार का अतिरिक्त वेतन मिलता था परन्तु कोई भी अपने जात-पद से अधिक सवार नहीं रख सकता था। हालाँकि इस व्यवस्था में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे, पर जब तक साम्राज्य रहा मूल संरचना यही रही।

मनसबदार

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अपने व्यक्तिगत वेतन में से ही मनसबदार को हाथी, ऊँट, खच्चर और गाड़ियाँ रखनी पड़ती थी। ये सेना के यातायात के लिए आवश्यक थे। मुग़ल मनसबदारों को बहुत अच्छा वेतन मिलता था। सम्भवतः उनके वेतन उस समय संसार में सबसे अधिक थे। जिस मनसबदार के पास 100 ज़ात का मनसब होता था, उसे 500 रुपये वेतन मिलता था। 1,000 ज़ात का मनसब होने पर वेतन की राशि 4,400 रुपये होती थी। जबकि 5,000 ज़ात का मनसब होने पर यह राशि बढ़कर 30,000 रुपये हो जाती थी। उस काल में कोई आयकर नहीं होता था। उस समय रुपये की क्रय-शक्ति 1966 के अनुपात में 60 गुणा थी। यद्यपि मनसबदारों को अपने वेतन का आधा अंश पशु इत्यादि रखने में और अपनी जागीर की व्यवस्था पर व्यय करना पड़ता था, फिर भी वे शानोशौक़त का जीवन व्यतीत करते थे।

10:20 का नियम

इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि कि भर्ती किए जाने वाले सवार अनुभवी और कुशल हों। इस कार्य के लिए प्रत्येक सवार का खाता (चेहरा) रखा जाता था और घोड़ों पर शाही निशान लगाया जाता था। इसे दाग़ना कहा जाता था। प्रत्येक मनसबदार को समय-समय पर अपने सैनिकों को शहनशाह द्वारा नियुक्त समिति के सामने निरीक्षण के लिए लाना पड़ता था। घोड़ों का निरीक्षण बहुत ध्यान से किया जाता था और केवल अरबी और इराक़ी नस्ल के घोड़े ही रखे जाते थे। प्रत्येक 10 घुड़सवारों के पीछे मनसबदार को 20 घोड़े रखने पड़ते थे। इसका कारण यह था कि कूच के समय घोड़ों को आराम दिया जाता था और युद्ध के समय नयी कुमुक की आवश्यकता होती थी। जब तक 10:20 नियम का पालन किया जाता रहा, मुग़ल घुड़सेना सशक्त रही।

इस बात की भी व्यवस्था थी कि मनसबदारों के दलों में सवार मिश्रित अर्थात मुग़ल, पठान, हिन्दुस्तानी और राजपूत सभी जातियों के हों। इस प्रकार से अकबर ने जाति और विशिष्टतागत भावना को कमज़ोर करने का प्रयत्न किया। मुग़ल और राजपूत सरदारों को ही इस बात की अनुमति थी कि वे अपनी टुकड़ियों में केवल मुग़ल और राजपूत सवार रखें, किन्तु धीरे-धीरे मिश्रित सवारों की पद्धति सामान्य रूप से अपना ली गई। घुड़ सवारों के अतिरिक्त सेना में तीरअन्दाज़, बन्दूक़ची खन्दक़ खोदने वाले भी भर्ती किए जाते थे। इनके वेतन अलग-अलग थे। एक सवार का औसत वेतन बीस रुपये प्रति मास था। ईरानी और तुर्की सवारों को कुछ अधिक वेतन मिलता था। पैदल सैनिकों को तीन रुपये प्रति मास मिलते थे। सिपाहियों के वेतन को मनसबदार के व्यक्तिगत वेतन में जोड़ दिया जाता था। मनसबदार को जागीर के रूप में वेतन दिया जाता था। कभी-कभी मनसबदारों को वेतन नक़द भी दिया जाता था। अकबर जागीर प्रथा को पसन्द नहीं करता था, किन्तु वह इसे समाप्त नहीं कर सका, क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरी थीं। क्योंकि जागीर वंशगत अधिकार नहीं होती थी और उससे उस क्षेत्र में विद्यमान अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं होता था। इसलिए जागीर देने का केवल यही अर्थ था कि राज्य को देय भू-राजस्व जागीरदार को दिया जाता था।

अकबर के पास एक बड़ी सेना थी, जो उसके अंगरक्षक का कार्य करती थी। उसके पास बहुत बड़ा अस्तबल था। उसके पास एक टुकड़ी कुलीन घुड़सवारों की भी थी। यह टुकड़ी उन सैनिकों की थी जो सरदारों से रक्त से संम्बन्धित थे किन्तु जिनके पास इतनी सुविधाएँ नहीं थीं कि अपनी टुकड़ी का निर्माण कर सकें, या इसमें वे लोग थे जिन्होंने अकबर को प्रभावित किया था। उन्हें आठ से दस घोड़े रखने का अधिकार था और उन्हें लगभग 800 रुपये वेतन प्रति मास मिलता था। वे केवल शहनशाह के प्रति उत्तरदायी थे और उनकी हाज़िरी भी अलग होती थी। इन सैनिकों की तुलना मध्य युगीन यूरोप के नाइट्स से की जा सकती है। अकबर को घोड़ों और हाथियों का बहुत शौक़ था। उसके पास एक बृहद तोपख़ाना भी था। तोपों में उसकी विशेष रुचि थी। उसने खोली जा सकने वाली तोपों का निर्माण करवाया, जिन्हें हाथी या ऊँट ढो सकते थे। उसके पास घेरे के समय क़िले की दीवारें तोड़ने वाली भारी तोपें भी थी। इसमें से कुछ तो इतनी भारी थीं कि उन्हें खींचने के लिए 100 या 200 बैल और कई हाथी इस्तेमाल करने पड़ते थे। अकबर जब भी राजधानी से बाहर जाता था, एक मज़बूत तोपखाना उसके साथ चलता था।

इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि अकबर की योजना नौ-सेना का संगठन करने की भी थी। मज़बूत नौ-सेना का अभाव मुग़ल साम्राज्य की हमेशा कमज़ोरी रहा। यदि अकबर को समय मिला होता तो, सम्भवतः वह इस ओर भी ध्यान देता। उसने युद्ध के लिए नावों का एक बेड़ा अवश्य गठित किया था। जिसका प्रयोग उसने पूर्व की ओर किए गए अपने अभियानों में किया। इनमें से कुछ नावें 30 मीटर लम्बी थीं और 350 टन तक बोझ ढो सकती थीं।

प्रशासन का गठन

स्थानीय-प्रशासन में अकबर ने कोई परिवर्तन नहीं किया। परगना और सरकार की स्थिति पहले जैसी रही। सरकार के मुख्य अधिकारी फ़ौजदार और अमालगुज़ार होते थे। फ़ौजदार का काम न्याय और व्यवस्था बनाए रखना होता था और अमालगुज़ार भू-राजस्व के निर्धारण और विभिन्न क्षेत्रों को जागीर, ख़ालिसा और इनाम में विभाजित किया गया था। ख़ालिसा क्षेत्रों की आय सीधी सरकारी ख़जाने में जाती थी। इनाम क्षेत्र पर जो होता था वह विद्वानों और पीरों आदि को दिया जाता था। ज़ागीर सरदारों, शाही परिवार के सदस्यों और बेगमों को दी जाती थी। अमालगुज़ार का यह उत्तरदायित्व होता था कि प्रत्येक प्रकार की ज़मीन की देखभाल करे ताकि कर निर्धारण और वसूलने के नियमों का पालन समान रूप से हो सके। केवल स्वायत्ता-प्राप्त राजाओं को यह छूट थी कि वे अपेन क्षेत्र में पारंपरिक राजस्व-प्रणाली का पालन करते रहें। अकबर उन्हें भी शाही प्रणाली अपनाने के लिए उत्साहित करता था। अकबर ने केन्द्रीय और प्रान्तीय प्रशासन के गठन की ओर बहुत ध्यान दिया। उसके केन्द्रीय शासन का ढाँचा दिल्ली सल्तनत के केन्द्रीय शासन के ढाँचे पर आधारित था, किन्तु विभिन्न विभागों क कार्यों का सावधानी से पुनर्गठन किया गया और कार्य करने के लिए बहुत स्पष्ट नियम बनाये गये। इस प्रकार अकबर ने शासन-प्रणाली को नया रूप प्रदान करके उसमें नयी जान फूँद दी।

वज़ीर

मध्य एशियाई और तैमूरी परम्परा में वज़ीर सर्वाधिक शक्तिशाली होता था और उसके अधीन विभिन्न विभागों के सर्वोच्च अधिकारी काम करते थे। वह प्रशासन और शासक के बीच प्रमुख सम्पर्क होता था। धीरे-धीरे सैनिक विभाग एक अलग विभाग बन गया। न्याय-विभाग हमेशा से ही अलग होता था। इस प्रकार व्यवहार में एक सर्वशक्तिशाली वज़ीर रखने की परम्परा समाप्त हो गई थी। परन्तु वकील होने के नाते बैरमख़ाँ ने सर्वशक्तिशाली वज़ीर के अधिकारों का ही उपभोग किया था। अकबर ने केन्द्रीय प्रशासन के ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। उसने विभिन्न विभागों को अलग-अलग अधिकार दिए ताकि एक-दूसरे से उनका संतुलन बना रहे और एक-दूसरे पर नज़र भी रहे। वकील का पद समाप्त नहीं किया गया, लेकिन उसके सब अधिकार समाप्त कर दिए गए और वह केवल सजावट का पद रह गया। यह पद समय-समय पर बड़े सरदारों को दिया जाता था। किन्तु इस पद पर काम करने वाले व्यक्ति का प्रशासन के मामलों में कोई दख़ल नहीं होता था। राजस्व-विभाग का प्रमुख वज़ीर ही होता था और अक्सर वह बड़े सरदारों में से ही कोई होता था। कई सरदारों के पास वज़ीर से भी ऊँचे मनसब होते थे। अतः अकबर के काल में वज़ीर शासक का मुख्य सलाहकार नहीं होता था, किन्तु वह राजस्व के मामलों का विशेषज्ञ होता था। इस बात पर बल देने के लिए ही अकबर "वज़ीर" के स्थान पर दीवान या दीवान-ए-आला नामों का प्रयोग करता था। कभी-कभी एक साथ कई व्यक्तियों को दीवान का कार्य संयुक्त रूप से करने को कहा जाता था। दीवान समस्त आय और इनाम ज़मीनों का केन्द्रीय अधिकारी होता था।

मीर बख़्शी

सैनिक विभाग का मुखिया मीर बख़्शी कहलाता था। सरदारों का प्रमुख मीर बख़्शी होता था, न कि दीवान। इसलिए प्रमुख सरदारों को ही यह पद दिया जाता था। मनसब के पदों की नियुक्ति और पदोन्नति आदि की सिफ़ारिश शहनशाह के पास मीर बख़्शी के माध्यम से ही जाती थी। सिफ़ारिश मंज़ूर हो जाने पर पुष्टि के लिए तथा पद पर नियुक्ति व्यक्ति को जागीर प्रदान करने के लिए दीवान के पास नाम भेजा जाता था। पदोन्नति के लिए भी यही पद्धति अपनायी जाती थी। साम्राज्य की गुप्तचर संस्थाओं का प्रमुख भी मीर बख़्शी होता था। साम्राज्य के प्रत्येक भाग में गुप्तचर अधिकारी (बारिद) और संदेश लेखक (वाक़या-नवीस) नियुक्त किए जाते थे। उनकी सूचनाएँ मीर बख़्शी के माध्यम से दरबार में पहुँचाई जाती थी। इससे यह स्पष्ट है कि दीवान और मीर बख़्शी समान पदों पर थे और एक-दूसरे के पूरक थे और एक-दूसरे काम पर नज़र रखते थे।

मीर सामाँ

तीसरा महत्त्वपूर्ण अधिकारी मीर सामाँ होता था। वह शाही परिवार के कामों को देखता था। जिसमें हरम के लिए आवश्यक भोजन सामग्री और अन्य वस्तुओं की आपूर्त्ति भी सम्मिलित थी। इनमें से बहुत सी वस्तुओं का उत्पादन शाही कारख़ानों में होता था। सम्राट के अत्यन्त विश्वसनीय सरदारों को ही इस पद पर नियुक्त किया जाता था। दरबार की मर्यादा का पालन कराने और शाही अंगरक्षकों का निरीक्षण भी इसी अधिकारी का उत्तरदायित्व था। चौथा महत्त्वपूर्ण विभाग न्याय-विभाग था, जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधान क़ाज़ी होता था। इस पद को कभी-कभी मुख्य सदर के पद के साथ मिला दिया जाता था। सदर सब कल्याण संस्थाओं और धार्मिक संस्थाओं की देखभाल करता था। इस पद के साथ बहुत से अधिकार जुड़े होते थे, और इसे पूरा संरक्षण मिलता था। यह विभाग अकबर के प्रधान क़ाज़ी अब्दुलनबी के भ्रष्टाचार और रिश्वतख़ोरी के कारण बदनाम हो गया।


विभिन्न व्यक्तियों को प्रदत्त अनुदानों का सावधानी से अध्ययन करने के बाद अकबर ने जागीर और ख़ालिसा ज़मीन से इनाम की ज़मीन को अलग कर दिया तथा इनाम-ज़मीन के वितरण और प्रशासन के लिए उसने साम्राज्य को छह विभिन्न हलक़ों में विभाजित कर दिया। इनाम की दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि अकबर ने जानबूझ कर यह नीति अपनायी की इनाम बिना किसी धार्मिक भेदभाव के दिया जाए। अनेक हिन्दू मठों को दिए गए अनुदानों की सनदें अभी भी सुरक्षित हैं। दूसरी विशेषता यह थी कि अकबर ने यह नीति अपनाई कि इनाम में आधी भूमि ऐसी हो जो ख़ाली पड़ी हो, लेकिन कृषि-योग्य हो। इस प्रकार इनाम पाने वालों को खेती के विस्तार के लिए प्रोत्साहित किया गया।

प्रजा से मिलने तथा दीवानों से भेंट करने के लिए अकबर ने अपनी समय-सारिणी बड़ी सावधानी से बनाई। उसका दिन महल के झरोखे पर उपस्थित होकर दर्शन देने से होता था। शहनशाह के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होते थे, और आवश्यकतानुसार अपनी फ़रियाद कर सकते थे। इन फ़रियादों पर तुरन्त या बाद में दीवान-ए-आम में कार्रवाई होती थी, जो दोपहर तक चलता था। उसके पश्चात् शहनशाह भोजन और आराम के लिए इनाम घर में चले जाते थे। मंन्त्रियों के लिए अलग समय निर्धारित होता था। गोपनीय मंत्रणा के लिए दीवानों को अकबर के ग़ुसलख़ाने के निकट स्थित एक कक्ष में बुलाया जाता था। धीरे-धीरे गोपनीय मंत्रणा-कक्ष ग़ुसलख़ाने के नाम से मशहूर हो गया। 1580 में अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य को बारह सूबों में विभाजित कर दिया। ये थे—बंगाल, बिहार, इलाहाबाद, अवध, आगरा, दिल्ली, लाहौर, मुल्तान, क़ाबुल, अजमेर, मालवा और गुजरात। प्रत्येक सूबे में एक सूबेदार, एक दीवान, एक बख़्शी, एक सदर, एक क़ाज़ी और एक वाक़या नवीस की नियुक्ति की गई। इस प्रकार नियन्त्रण और संतुलन के सिद्धान्त पर आधारित सुगठित प्रशासन सूबों में भी लागू किया गया।


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