पितृ का अर्थ  

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श्राद्ध विषय सूची
पितृ का अर्थ
अन्य नाम पितृ पक्ष
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके 'पिण्ड' बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

'पितृ' का अर्थ है 'पिता', किन्तु 'पितर' शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-

  1. व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज
  2. मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक पृथक् लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।[१]

दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद[२] में उल्लेख है "वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की – 'वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान[३] को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।" ऋग्वेद[४] में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं।[५] वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।[६] वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व[७]; अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।[८] ऋग्वेद[९] में ऐसा कहा गया है–"जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।" अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे; नवग्व एवं दशग्व।[१०] कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं[११] और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।[१२] अंगिरस् लोग अग्नि[१३] एवं स्वर्ग[१४] के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।[१५] वे सोमप्रेमी होते हैं[१६], वे कुश पर बैठते हैं[१७], वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं[१८] और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं।[१९] जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।[२०] पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण[२१] में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।[२२]

भाद्रपद की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर जाते हैं और सम्मान पाकर अपनी नई पीढ़ी को आशीर्वाद देते हैं।

ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।[२३] मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।[२४] यद्यपि ऋग्वेद[२५] में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त[२६] के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद[२७] का कथन है–"हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।" ऋग्वेद[२८] में आया है–'तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।' 'महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।[२९]' तैत्तिरीय ब्राह्मण[३०] में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद्[३१] में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक् वर्णित हैं। ऋग्वेद[३२] में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया[३३], या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है[३४] या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है।[३५] किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।[३६]

पितरों की अन्य श्रेणियाँ

  • पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।
  • अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद[३७] में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।"[३८]
  • पाश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है।
  • उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[३९]
  • यहाँ तक की मनु[४०] ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु[४१] ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।
  • इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण[४२] में भी उल्लेख है।
  • शातातपस्मृति[४३] में पितरों की 12 कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा–पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख (3) एवं अश्रुमुख (3)। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।
  • वायु पुराण[४४], ब्रह्माण्ड पुराण[४५], पद्म पुराण[४६], विष्णुधर्मोत्तर[४७] एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ हैं इन पर हम विचार नहीं करेंगे।
  • स्कन्द पुराण[४८] ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं।
  • भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवत: यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है।
  • मनु[४९] ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।
  • यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है (अर्थात् यह एक अर्थवाद है)।

देवों से भिन्न

पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद[५०] के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना:' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण[५१] ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है[५२] और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेद[५३] में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता[५४] में आया है–'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।' सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में।[५५] शतपथ ब्राह्मण[५६] ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- 'तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की ते­ज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।' देवों से उसने कहा- 'यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।' तैत्तिरीय ब्राह्मण[५७] ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।

देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य

पूजा अर्चना करते श्रद्धालु

कौशिकसुत्र[५८] ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र[५९] ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।[६०] स्वयं ॠग्वेद[६१] ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण[६२] ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।

देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ

यद्यपि देव एवं पितर पृथक् कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। ऋग्वेद[६३] ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋग्वेद[६४] में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।[६५] यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।[६६] में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने[६७] एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[६८] ऋग्वेद[६९] एवं अथर्ववेद[७०] ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद[७१] ने कहा है–'वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।' वाजसनेयी संहिता[७२] में प्रसिद्ध मंत्र यह है–"हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए", जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।[७३]

मूल एवं प्रकार

वैदिक साहित्य के उपरान्त की रचना में, विशेषत: पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, वायुपुराण[७४] ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण[७५] ने तथा वराह पुराण[७६], पद्म पुराण[७७] एवं ब्रह्मण्ड पुराण[७८] ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति[७९] ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।

भय-तत्त्व

इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था।[८०] उदाहरणार्थ ॠग्वेद[८१] में आया है–'(त्रुटि करने वाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।' ॠग्वेद[८२] में हम पढ़ते हैं–"वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।" ॠग्वेद[८३] में ऐसा आया है कि–'वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी (मंत्र) परिमार्जित की या गढ़ी।" यहाँ पितृ एवं ऋषि दो पृथक् कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गई है।[८४]

आवाहन

वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'[८५] शतपथ ब्राह्मण[८६] ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।[८७] कुछ[८८] ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथ ब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" शतपथब्राह्मण[८९] में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु[९०] तथा विष्णु पुराण[९१] की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आवाहन करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश[९२] ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश[९३] ब्रह्म पुराण ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण[९४], ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।[९५]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह दृष्टिकोण यदि भारोपीय (इण्डो यूरोपीयन) नहीं है तो कम से कम भारत पारस्य (इण्डो ईरानियन) तो है ही। प्राचीन पारसी शास्त्र फ्रवशियों (फ्रवशीस=अंग्रेज़ी बहुवचन} के विषय में चर्चा करते हैं, जो आरम्भिक रूप में प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में प्रयुक्त 'पितृ' या प्राचीन रोमकों (रोमवासियों) का 'मेनस' शब्द है। वे मृत लोगों के अमर एवं अधिष्ठाता देवता थे। क्रमश: 'फ्रवशी' का अर्थ विस्तृत हो गया और उसमें देवता तथा पृथ्वी एवं आकाश जैसी वस्तुएँ भी सम्मिलित हो गयीं, अर्थात् प्रत्येक में फ्रवशी पाया जाने लगा।
  2. ऋग्वेद (10|14|2 एवं 7; 1015|2 एवं 9|97|39
  3. जहाँ गायें छिपाकर रखी हुई थीं
  4. ऋग्वेद (10|15|1
  5. ऋग्वेद 10|15|2
  6. ऋग्वेद 10|15|13
  7. ऋग्वेद (10|14|5-6
  8. ऋग्वेद 10|14|3-5
  9. ऋग्वेद (1|62|2
  10. ऋग्वेद 1|62|4; 5|39|12 एवं 10|62|6
  11. ऋग्वेद 4|42|8 एवं 6|22|2
  12. ऋग्वेद (1|62|4
  13. ऋग्वेद 10|62|5
  14. ऋग्वेद (4|2|15
  15. ऋग्वेद 7|76|4, 10|14|10 एवं 10|15|8-10
  16. ऋग्वेद 10|15|1 एवं 5, 9|97|39
  17. ऋग्वेद 10215|5
  18. ऋग्वेद 10|15|10 एवं 10|16|12
  19. ऋग्वेद 10|15|12
  20. ऋग्वेद 10|16|1-2 एवं 5=अथर्ववेद 18|2|10; ऋग्वेद 10|17|3
  21. मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 45
  22. और देखिए ब्रह्मापुराण (प्रक्रिया, अध्याय 8, उपोद्घात, अध्याय 9|10)–'इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितर: पुन:। अन्योन्यपितरो होते।'
  23. ऋग्वेद 10|14|1 एवं 8, 10|1625)।
  24. ऋग्वेद 10|14|9 एवं 10|16|4
  25. ऋग्वेद (10|64|3
  26. निरुक्त (10|18
  27. अथर्ववेद (18|2|49
  28. ऋग्वेद (1|35|6
  29. ऋग्वेद 10|107|1
  30. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|2|10|5
  31. बृहदारण्यकोपनिषद् (1|5|16
  32. ऋग्वेद (10|138|1-7
  33. ऋग्वेद 10|14|2
  34. ऋग्वेद (10|14|1
  35. ऋग्वेद 10|14|7)।
  36. इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखिए इस खण्ड का अध्याय 6।
  37. ऋग्वेद (10|15|4 एवं 11=तैत्तरीय संहिता 2|6|12|2
  38. देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|6|9|5) एवं काठकसंहिता (9|6|17)।
  39. मिलाइए मनु 3|117)।
  40. मनु(3|193-198
  41. मनु(3|199
  42. मत्स्य पुराण(141|4, 141|15-18
  43. शातातपस्मृति (625-6
  44. वायुपुराण (72|1 एवं 73|6
  45. ब्रह्माण्ड पुराण (उपोदघात् 9|53
  46. पद्म पुराण (5|9|2-3
  47. विष्णुधर्मोत्तर (1|138|2-3
  48. स्कन्द पुराण (6|216|9-10
  49. मनु (3|201
  50. ऋग्वेद (10|53|4
  51. ऐतरेयब्राह्मण (13|7 या 3|31
  52. निरुक्त (3|8
  53. अथर्ववेद (10|6|62
  54. तैत्तिरीय संहिता (6|1|1|1
  55. शांखायन ब्राह्मण 5|6
  56. शतपथ ब्राह्मण(2|4|2|2
  57. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|3|10|4
  58. कौशिकसुत्र (1|9-23
  59. बौधायन श्रौतसूत्र (2|2
  60. प्रागपवर्गाण्युदगपवर्गाणि वा प्राडमुख: प्रदक्षिणं यज्ञोपवीती दैवानि कर्माणि करोति। दक्षिणा मुख: प्रसव्यं प्राचीनावीती पित्र्याणि। बौधायन श्रौतसूत्र (2|2
  61. ऋग्वेद (10|14|3 'स्वाहयान्ये स्वधयान्ये मदन्ति'
  62. शतपथब्राह्मण (2|1|3|4 एवं 2|1|4|9
  63. ऋग्वेद (10|15|8
  64. ऋग्वेद (10|68|11
  65. ऋग्वेद 7|76|3
  66. ऋग्वेद (10|14|6
  67. ऋग्वेद 10|15|4
  68. ऋग्वेद 10|15|7 एवं11
  69. ऋग्वेद (10|15|11
  70. अथर्ववेद (18|3|14
  71. अथर्ववेद (14|2|73
  72. वाजसनेयी संहिता (2|33
  73. आधत्त पितरो गर्भ कुमारं पुष्करस्रजम्। यथेह पुरुषोऽसत्।। वाज. सं. (2|33)। खादिरगृह्य. (3|5|30) ने व्यवस्था दी है–'मध्यमं पिण्डं पुत्रकामा प्राशयेदाधत्तेति'; और देखिए गोभिलगृह्य (4|3|27) एवं कौशिकसूत्र (89|6)। आश्वलायन श्रौतसूत्र (2|7|13) में आया है–'पत्नीं प्राशयेदाधत्त पितरो....स्रजम्।' अश्विनौ को पुष्करस्रजौ कहा गया है, अत: 'पुष्करस्रज' शब्द में भावना यह है की पुत्र लम्बी आयु वाला एवं सुन्दर हो। 'यथेह....असत्' को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है–'येन प्रकारेण इहैव क्षितौ पुरुषो देवपितृमनुष्याणमभीष्टपूरयिता भूपात् तथा गर्भमाधत्त।' देखिए हलायुध का ब्राह्मणसर्वस्व। कात्यायन श्रौतसूत्र (4|1|22) ने भी कहा है–'आधत्तेति मध्यमपिण्डं पत्नी प्राश्नाति पुत्रकामा।
  74. वायुपुराण (56|18
  75. वायुपुराण(अध्याय 73
  76. वराह पुराण (13|16
  77. पद्म पुराण (सृष्टि 9|2-4
  78. ब्रह्मण्ड पुराण (3|10|1
  79. शतातपस्मृति (6|5|6
  80. मिलाइए वुलियामीकृत 'इम्मॉर्टल मैन' (पृष्ठ 24-25), जहाँ आदिम अवस्था एवं सुसंस्कृत काल के लोगों के मृतक सम्बन्धी भय स्नेह के भावों के विषय में प्रकाश डाला गया है।
  81. ऋग्वेद (10|15|6
  82. ऋग्वेद (3|55|2
  83. ऋग्वेद (10|66214
  84. देवा: सौम्याश्च काव्याश्च अयज्वानो ह्ययोनिजा:।
    देवास्ते पितर: सर्वे देवास्तान्वादयन्त्युत।।
    मनुष्यपित रश्चैव तेभ्योऽन्ये लौकिका: स्मृता:।
    पिता पितामहश्चैव तथा य: प्रपितामह:।। ब्रह्माण्ड पुराण (2|28|70-71);
    अंगीराश्च ऋतुश्चैव कश्यपश्च महानृषि:।
    एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायेगेश्वरा: स्मृता।।
    एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधि: पर:।
    प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा। अनुशासनपर्व (92|21-22)।
    इस उद्धरण से प्रकट होता है कि अंगिरा, ऋतु एवं कश्यप पितर हैं, जिन्हें जल दिया जाता है (पिण्ड नहीं), किन्तु समीपवर्ती मृत पूर्वजों को पिण्ड दिये जाते हैं।

  85. तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|6|9|5
  86. शतपथ ब्राह्मण (2|4|2|19
  87. वाज. सं. 2|31, प्रथम पाद
  88. तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1
  89. शतपथब्राह्मण (12|8|1|7
  90. मनु (3|221
  91. विष्णु पुराण (21|3 एवं 75|4
  92. पृष्ठ 12
  93. श्राद्धप्रकाश (पृष्ठ 204
  94. वायु पुराण (56|65-66
  95. देखिए वायु पुराण (70|34), यहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं।

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