गंग  

  • गंग अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखाना इन्हें बहुत मानते थे।
  • गंग कवि के जन्मकाल तथा कुल आदि का ठीक वृत्त ज्ञात नहीं।
  • कुछ लोग इन्हें ब्राह्मण कहते हैं, पर अधिकतर ये 'ब्रह्मभट्ट' ही प्रसिद्ध हैं।
  • ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से इन्हें हाथी के पाँव से कुचलवा दिया था और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था -

कबहुँ न भड़घआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब।
सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग

  • इसके अतिरिक्त कई और कवियों ने भी इस बात का उल्लेख तथा संकेत किया है। देव कवि ने कहा है -


एक भए प्रेत, एक मींजि मारे हाथी।'

  • ये पद्य भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य हैं -

सब देवन को दरबार जुरयो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहू ते अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो
मृतलोक में है नर एक गुनी कवि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो
गंग ऐसे गुनी को गयंद सो चिराइए।

  • इन प्रमाणों से यह घटना सही लगती है।
  • गंग कवि बहुत निर्भीक होकर बात कहते थे।
  • वे अपने समय के नरकाव्य करने वाले कवियों में सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे। दासजी ने कहा है -


तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।

  • कहते हैं कि रहीम खानखाना ने इन्हें एक छप्पय पर छत्तीस लाख रुपये दे डाले थे। वह छप्पय इस प्रकार है -

चकित भँवर रहि गयो गमन नहिं करत कमलवन।
अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन घन
हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति।
बहु सुंदरि पद्मिनी पुरुष न चहै, न करै रति
खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो।
खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो

  • गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत-से कवित्त मिलते हैं। सरल हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमें प्रचुर मात्रा में था। वीर और श्रृंगार रस के बहुत ही रमणीक कवित्त इन्होंने कहे हैं। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिक बन पडी हैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तुव्यंग्य पद्धति पर विरह ताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचि को वर्णित करने वाले सब गुण इनमें वर्तमान थे।
  • इनका कविता काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए।
  • इनकी रचना के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -

बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो,
सुख के समूह में बियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिाविधा सुगंधा कै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की।
जलचर जरे और सेवार जरि छार भयो,
तल जरि गयो, पंक सूख्यो भूमि दरकी

झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान,
एकन ते एक मानो सुषमा जरद की।
कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे
फूटी गजघटा घनघटा ज्यों सरद की
एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,
रही न निसानी कहूँ महि में गरद की।
गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी,
गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की

देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान,
कीर चल्यो चाखिबे को प्रेम जिय जाग्यो है।
लाल फल देखि कै जटान मँड़रान लागे,
देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है
गंग कवि फल फूटे भुआ उधिाराने लखि,
सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है
ऐसों फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो, यारो,
सेमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है



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