मुमकिन[१] नहीं कि तेरी मुहब्बत की बू न हो
काफ़िर अगर हज़ार बरस दिल में तू न हो।
क्या लुत्फ़े-इन्तज़ार[२] जो तू हीला-जू[३] न हो
किस काम का विसाल[४] अगर आरज़ू[५] न हो।
ख़लवत[६] में तुझको चैन नहीं किसका ख़ौफ़ है
अन्देशा कुछ न हो जो नज़र चार-सू[७] न हो।
वो आदमी कहाँ है वो इन्सान है कहाँ
जो दोस्त का हो दोस्त अदू[८] का अदू न हो।
दिल को मसल-मसल के ज़रा हाथ सूँघिये
मुमकिन नहीं कि ख़ूने-तमन्ना की बू न हो।
ज़ाहिद[९] मज़ा तो जब है अज़ाबो-सवाब[१०] का
दोज़ख़[११] में बादाकश[१२] न हों जन्नत[१३] में तू न हो।
माशूक़े-हिज्र[१४] इससे ज़ियादा नहीं कोई
क्यों दिल्लगी रहे जो तेरी आरज़ू न हो।
है लाग का मज़ा दिले-बेमुद्दआ[१५] के साथ
तुम क्या करो किसी को अगर आरज़ू न हो।
ऐ ‘दाग़’ आ के फिर गए वो इसका क्या करें
पूरी जो नामुराद तेरी आरज़ू न हो।