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गाँधी युग  

गाँधी जी भारत के उन कुछ चमकते हुए सितारों मे से एक थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय एकता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद गाँधी जी भारत आये। यहाँ से 1893 ई. में अफ़्रीका गये ओर वहाँ पर अपने 20 वर्ष के प्रवास के दौरान ब्रिटिश सरकार की रंग-भेद की निति के विरुद्ध लड़ाई लड़ते रहे। यहीं पर गाँधी जी ने सर्वप्रथम 'सत्याग्रह आंदोलन' चलाया।

गाँधी-गोखले भेंट

जनवरी, 1915 ई. में वे भारत आये और यहाँ पर उनका सम्पर्क गोपाल कृष्ण गोखले से हुआ, जिन्हें उन्होंने अपना राजनितिक गुरु बनाया। गोखले के प्रभाव में आकर ही गाँधी जी ने अपने को भारत की सक्रिय राजनीति से जोड़ लिया। गाँधी जी के भारतीय राजनीति में प्रवेश के समय ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918 ई.) में फंसी थी। गाँधी जी ने सरकार को पूर्ण सहयोग दिया, क्योंकि वह यह मानकर चल रहे थे कि ब्रिटिश सरकार युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों को सहयोग के प्रतिफल के रूप में स्वराज्य दे देगी। गाँधी जी ने लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके फलस्वरूप कुछ लोग उन्हें "भर्ती करने वाला सार्जेन्ट" कहने लगे।

नील की खेती

1916 ई. में गाँधी जी ने अहमदाबाद के पास 'साबरमती आश्रम' की स्थापना की और अप्रैल, 1917 में बिहार में स्थित चम्पारन ज़िले में किसानों पर किये जा रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आन्दोलन चलाया। दक्षिण अफ़्रीका में गाँधी जी के संघर्ष की कहानी सुनकर चम्पारन (बिहार) के अनेक किसानों, जिनमें रामचन्द्र शुक्ल प्रमुख थे, ने गाँधी जी को आमंत्रित किया। यहाँ नील के खेतों में कार्य करने वाले किसानों पर यूरोपीय निलहे बहुत अधिक अत्याचार कर रहे थे। उन्हें जमीन के कम से कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा निलहों द्वारा तय दामों पर उसे बेचना पड़ता था। इसी तरह की परिस्थितियों से 1859-1860 ई. के नील आंदोलन में बंगाल के किसानों ने यूरोपीय बागान मालिकों से मुक्ति पायी थी। गाँधी जी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल-हक, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारिख और महीदेव देसाई के साथ 1917 ई. में चम्पारन पहुँचे और किसानों की स्थिति की जांच करने लगे। विवश होकर सरकार को एक जांच समिति नियुक्त करनी पड़ी, जिसके एक सदस्य स्वंय गाँधी जी थे। गाँधी जी के प्रयत्नों से किसानों की समस्याओं में कमी आयी। 1918 ई. में गुजरात के खेड़ा ज़िला में 'कर नहीं आन्दोलन' चलाया गया। इसी वर्ष गाँधी जी ने अहमदाबाद के मजदूरों और मिल मालिकों के विवाद में हस्तक्षेप कर मजदूरों की मजदूरी में 35% की वृद्धि करायी। अपनी राजनीति के प्रारम्भिक दिनो में गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार के संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया की प्रशंसा की, पर 1919 ई. के जलियांवाला बाग़ हत्या काण्ड के बाद सरकार के संदर्भ में गाँधी जी का पूरा दृष्टिकोण बदल गया।

ख़िलाफ़त आन्दोलन

'ख़िलाफ़त आन्दोलन' (1919-1922 ई.) का सूत्रपात भारतीय मुस्लिमों के एक बहुसंख्यक वर्ग ने राष्ट्रीय स्तर पर किया। गाँधी जी ने इस आन्दोलन को हिन्दू तथा मुस्लिम एकता के लिय उपयुक्त समझा और मुस्लिमों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। महात्मा गाँधी ने 1919 ई. में 'अखिल भारतीय ख़िलाफ़त समिति' का अधिवेशन अपनी अध्यक्षता में किया। उनके कहने पर ही असहयोग एवं स्वदेशी की नीति को अपनाया गया। 1918-1919 ई. के मध्य भारत में 'ख़िलाफ़त आन्दोलन' मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली एवं अबुल कलाम आज़ाद के सहयोग से ज़ोर पकड़ता चला गया।

असहयोग आन्दोलन

असहयोग आन्दोलन' का संचालन 'स्वराज' की मांग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थिति करना था। सितम्बर, 1920 ई. में 'असहयोग आन्दोलन' के कार्यक्रम पर विचार करने के लिए कलकत्ता में कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन का आयोजन किया गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की। इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध कार्यवाही करने, विधान परिषदों का बहिष्कार करने तथा 'असहयोग सविनय अवज्ञा आन्दोलन' को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। इस अधिवेशन में गाँधी जी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि "अंग्रेज़ सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं है। अंग्रेज़ी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दुःख नहीं है, अतः हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनायी जानी चाहिए।" गाँधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए एनी बेसेन्ट ने कहा कि "यह प्रस्ताव भारतीय स्वतन्त्रता को सबसे बड़ा धक्का है।"

स्वराज्य पार्टी की स्थापना

'स्वराज्य पार्टी' की स्थापना 1 जनवरी, 1923 ई. में परिवर्तनवादियों का नेतृत्व करते हुए चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने विट्ठलभाई पटेल, मदन मोहन मालवीय और जयकर के साथ मिलकर इलाहाबाद में की। इस पार्टी की स्थापना कांग्रेस के ख़िलाफ़ की गई थी। इसके अध्यक्ष चितरंजन दास तथा सचिव मोतीलाल नेहरू बनाये गए थे। स्वराज्य पार्टी के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  1. शीघ्र-अतिशीघ्र डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना।
  2. पूर्ण प्रान्तीय स्वयत्तता प्राप्त करना।
  3. सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न करना।

स्वराज्यवादियों ने विधान मण्डलों के चुनाव लड़ने व विधानमण्डलों में पहुँचकर सरकार की आलोचना करने की रणनीति बनाई। स्वराज्यवादियों को विश्वास था कि वे शांतिपूर्ण उपायों से चुनाव में भाग लेकर अपने अधिक से अधिक सदस्यों को कौंसिल में भेजकर उस पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगें।

वरसाड आन्दोलन

'वरसाड आन्दोलन' (1923-1924 ई.) का संचालन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात में किया गया था। अंग्रेज़ ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गए 'डकैती कर' के विरोध में इस आन्दोलन का संचालन किया गया था।

वायकोम सत्याग्रह

'वायकोम सत्याग्रह' (1924-1925 ई.) एक प्रकार का गाँधीवादी आन्दोलन था। इस आन्दोलन का नेतृत्व टी.के. माधवन, के. केलप्पन तथा के.पी. केशवमेनन ने किया। यह आन्दोलन त्रावणकोर के एक मन्दिर के पास वाली सड़क के उपयोग से सम्बन्धित था।

क्रान्तिकारी आन्दोलन का दूसरा चरण

अक्टूबर, 1924 ई. में सभी क्रांतिकारी दलों द्वारा लखनऊ में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में शचीन्द्र नाथ सान्याल, जगदीश चन्द्र चटर्जी और राम प्रसाद बिस्मिल आदि शामिल हुए। नये नेताओं में भगत सिंह, शिव वर्मा, सुखदेव, भगवती चरण बोहरा और चन्द्रशेखर आज़ाद आदि प्रमुख थे।

काकोरी काण्ड

1924 ई. में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशिन' की स्थापना हुई। इसके मुख्य कार्यकर्ता शचीन्द्र नाथ सान्याल, राम प्रसाद बिस्मिल, योगेश चन्द्र चटर्जी, अशफ़ाकउल्ला ख़ाँ तथा रोशन सिंह आदि थे। उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त, 1925 ई. को काकोरी जाने वाली गाड़ी में लूट-पाट की। इस घटना को कालान्तर में 'काकोरी काण्ड' के नाम से जाना गया। इस काण्ड के मुख्य अभियुक्त राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला ख़ाँ, शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आज़ाद एवं भगत सिंह आदि थे। इन नेताओं पर दो वर्ष तक मुकदमा चलने के बाद बिस्मिल और अशफ़ाकउल्ला ख़ाँ को फाँसी तथा बख्शी को आजीवन कारावास की सज़ा मिली। चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में सितम्बर, 1928 ई. को दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला मैदान में 'हिन्दुस्तान सोशिलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य भारत में एक 'समाजवादी गणतंत्र' की स्थापना करना था।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत

30 अक्टूबर, 1928 ई. को लाहौर से 'साइमन कमीशन' के विरुद्ध प्रदर्शन करते समय पुलिस लाठी चार्ज में घायल हो जाने से लाला लाजपत राय की बाद में मृत्यु हो गयी। मृत्यु का बदला लेने के लिए भगत सिंह के नेतृत्व में पंजाब के क्रांतिकारियों ने 17 दिसम्बर, 1928 को लाहौर के तत्कालीन सहायक पुलिस कप्तान सॉण्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी।

'पब्लिक सेफ्टी बिल' पास होने के विरोध में 8 अप्रैल, 1929 ई. को बटुकेश्वर दत्त एवं भगत सिंह ने 'सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली' में खाली बेंचों पर बम फेंका। इस बम काण्ड का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था।, वे तो फ़्राँसीसी क्रातिकारियों के उस कथन को दोहरा भर रहे थे कि 'बहरों को कोई बात सुनाने के लिए अधिक कोलाहल की आवश्यकता पड़ती है।' भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को चूंकि इस बम घटना के कारण फाँसी नहीं दी जा सकती थी, इसलिए उन्हें 'सॉण्डर्स हत्या काण्ड' एवं 'लाहौर षड्यंत्र' से जोड़ दिया गया। 23 मार्च, 1931 ई. को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया गया। सुभाषचन्द्र बोस ने भगत सिंह के बारे में कहा कि "भगत सिंह जिन्दाबाद और इंकलाब जिन्दाबाद का एक ही अर्थ है।"

बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन, जिसने अप्रैल, 1930 ई. को चटगांव के शस्त्रागार पर आक्रमण किया था, को 12 जनवरी, 1934 ई. को फांसी दी गई। 1935 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम' के पारित होने के बाद क्रांतिकारी गतिविधियों में कुछ कमी आयी, परन्तु 1940 ई. के बाद ये गतिविधियाँ पुनः ज़ोर पकड़ने लगीं। गाँधी जी ने भगत सिंह के बारे में लिखा कि "हमारे मस्तक भगत सिंह की देशभक्ति, साहस तथा भारतीय जनता के प्रति प्रेम तथा बलिदान के आगे झुक जाते हैं।" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 18 अगस्त, 1929 ई. को सम्पूर्ण भारत में 'राजनैतिक पीड़ितों का दिन' मनाया। इस चरण में क्रांतिकारी नेताओं का झुकाव कुछ-कुछ समाजवाद की ओर हो रहा था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने 1928 ई. में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदल कर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' रख दिया। इसी समय 'क्रांति अमर रहे' का नारा पहली बार लगाया गया।

प्रमुख षड़यंत्रों के चर्चित मामले
मामले वर्ष विषय
'पेशावर षड़यंत्र मामला 1922-1924 ई. सोवियत संघ से भारत आने वाले साम्यवादी क्रांतिकारियों का दल, जिसे सम्राट के विरुद्ध षड़यंत्र रचने के अपराध में बन्दी बनाया गया था, उन पर पेशावर में मुकदमा चलाकर इन क्रांतिकारियों को लम्बी सज़ाएँ दी गईं।
'कानपुर षड़यंत्र मामला' 1924 ई. कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ़्फ़र अहमद, मालिनी गुप्ता एवं शौकत उस्मानी आदि को कानपुर में गिरफ्तार कर 'कानपुर षड़यंत्र' के तहत चले मुकदमें में 4 वर्ष का कारावास दिया गया।
'मेंरठ षड़यंत्र मुकदमा' 1923 ई. 1929 ई. में सरकार ने 32 ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, जिनमें क्रांतिकारी राजनीति व ट्रेड यूनियन से जुड़े लोग एवं तीन अंग्रेज़ कम्युनिस्ट (फ़िलिप स्प्रेट, वेन ब्रैडले एवं लेस्टर हचिन्सन) आदि शामिल थे, पर 'मेरठ षड़यंत्र' के तहत साढ़े तीन वर्ष तक मुकदमा चला। राष्ट्रीय स्तर पर यह मुकदमा खूब चर्चित रहा। अभियुक्तों की ओर से जवाहरलाल नेहरू, कैलाशनाथ काटजू एवं डॉक्टर अंसारी आदि ने पैरवी की।

साइमन कमीशन

'साइमन कमीशन' की नियुक्ति ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में की थी। इस कमीशन में सात सदस्य थे, जो सभी ब्रिटेन की संसद के मनोनीत सदस्य थे। यही कारण था कि इसे 'श्वेत कमीशन' कहा गया। साइमन कमीशन की घोषणा 8 नवम्बर, 1927 ई. को की गई। कमीशन को इस बात की जाँच करनी थी कि क्या भारत इस लायक हो गया है कि यहाँ लोगों को संवैधानिक अधिकार दिये जाएँ। इस कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया, जिस कारण इसका बहुत ही तीव्र विरोध हुआ।

नेहरू समिति

'नेहरू समिति' का गठन 28 फ़रवरी, 1928 ई. को को किया गया था। 'साइमन कमीशन' के बहिष्कार के बाद भारत सचिव लॉर्ड बर्कन हेड ने भारतीयों के समक्ष एक चुनौती रखी कि वे ऐसे संविधान का निर्माण कर ब्रिटिश संसद के समक्ष रखें, जिसे सभी दलों का समर्थन प्राप्त हो। कांग्रेस ने बर्कन हेड की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। पंडित मोतीलाल नेहरू को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। समिति के अन्य सदस्यों में, सर अली इमाम, एम.एस. अणे, तेजबहादुर सप्रू, मंगल सिंह, जी.आर. प्रधान, शोएब कुरेशी, सुभाषचन्द्र बोस, एन.एम. जोशी और जी.पी. प्रधान आदि थे।

जिन्ना के चौदह सूत्र

'जिन्ना के चौदह सूत्र' वाले मांग पत्र को 1929 ई. में प्रस्तुत किया गया था। मुहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे और वे 'नेहरू समिति' द्वारा प्रस्तुत की गई 'नेहरू रिपोर्ट' से असंतुष्ट थे। यही कारण था कि उन्होंने रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। 'नेहरू रिपोर्ट' से सिक्ख समुदाय भी असंतुष्ट था। मुस्लिम लीग ने नेहरू रिपोर्ट के विकल्प के रूप में मार्च, 1929 ई. में जिन्ना के चौदह सूत्र वाले मांग-पत्र को प्रस्तुत किया, इसे ही 'जिन्ना के चौदह सूत्र' कहा जाता है।

वल्ल्भ भाई पटेल

बारदोली सत्याग्रह

'बारदोली सत्याग्रह' 'भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन' का सबसे संगठित, व्यापक एवं सफल आन्दोलन रहा है। यह आन्दोलन सरकार द्वारा बढ़ाये गए 30 प्रतिशत कर के विरोध में चलाया गया था। बारदोली के 'मेड़ता बन्धुओं' (कल्याण जी और कुंवर जी) तथा दयाल जी ने किसानों के समर्थन में 1922 ई. से आन्दोलन चलाया। बाद में इसका नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुके में 1920 ई. में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि 'कालिपराज' (काले लोग) जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया। सरकार द्वारा नियुक्त न्यायिक अधिकरी ब्रूमफ़ील्ड और राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने मामले की जाँच की और बढ़ोत्तरी को ग़लत ठहरीते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। आन्दोलन के सफल होने पर वहाँ की महिलाओं ने पटेल को 'सरदार' की उपाधि प्रदान की।

पूर्ण स्वराज दिवस

छ: वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद 1927 ई. मे गाँधी जी ने एक बार फिर से सक्रिय राजनीति में भाग लेना शुरू किया। कांग्रेस पर वाम विचारधाराओं के बढ़ते प्रभाव को देखकर उन्होनें दिसम्बर, 1929 ई. में लाहौर में आयोजित कांग्रेस के एतिहासिक अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवाया। उक्त अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस ने 'पूर्ण स्वराज्य' का अपना लक्ष्य घोषित किया। 31 दिसम्बर, 1929 को रात को 12 बजे जवाहरलाल नेहरू ने रावी नदी के तट पर अपार जनसमूह के मध्य नवगृहीत तिरंगे झंडे को फहराया। इस अवसर पर नेहरू जी ने कहा कि "ब्रिटिश सत्ता के सामने अब अधिक झुकना मनुष्य और ईश्वर दोनों के लिए विरुद्ध अपराध है।" अधिवेशन में 26 जनवरी, 1930 ई. को 'प्रथम स्वाधीनता दिवस' के रूप में मनाने का निश्चय किया गया। इसी के साथ प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को 'स्वतन्त्रता दिवस' के रूप में मनाये जाने की परम्परा शुरू हुई। कांग्रेस समिति को उस अधिवेशन में 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' प्रारम्भ करने का अधिकार मिला।

गाँधी जी की ग्यारह सूत्री मांग

गाँधी जी ने लॉर्ड इरविन एवं रैम्जे मैकडोनाल्ड के सम्मुख 31 जनवरी, 1930 ई. को 11 सूत्री प्रस्ताव रखा, जो इस प्रकार था-

  1. रुपये का पुनर्मूल्यन विनिमय दर में कमी एक शिलिंग 4 पेंस हो।
  2. भू-राजस्व 1/2 किया जाये।
  3. मद्यनिषेध लागू किया जाये।
  4. नमक पर लगा कर समाप्त किया जाये।
  5. सैनिक व्यय में 50 प्रतिशत की कमी हो।
  6. अधिक वेतन पाने वाले सरकारी पदाधिकारियों की संख्या कम की जाये।
  7. विदेशी कपड़े पर विशेष आयात कर लगाया जाये।
  8. तटकर विधेयक लाया जाये।
  9. सभी राजनीतिक बन्दी छोड़ दिये जायें।
  10. गुप्तचर विभाग को समाप्त किया जाय।
  11. भारतीयों को आत्म-रक्षा के लिए हथियार रखने का अधिकार प्रदान किया जाय।

महात्मा गाँधी ने कहा कि यदि 12 मार्च, 1930 ई. तक मांगे नहीं स्वीकार की गयीं तो वे नमक क़ानून का उल्लंघन करेंगे। गाँधी जी के उपर्युक्त मांग-पत्र पर सरकार ने कोई सकारात्मक रुख नहीं अपनाया। इसके फलस्वरूप 14 फ़रवरी, 1930 ई. को साबरमती में कांग्रेस की एक बैठक में गाँधी जी के नेतृत्व में 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' को चलाने का निश्चय किया गया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन

साइमन कमीशन की असफलता, नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार किया जाना, कांग्रेस का 'लाहौर अधिवेशन' एवं अधिवेशन में पारित किये गये पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव से स्वतंत्रता आन्दोलन संबंधी घटनाओं का क्रम काफ़ी तेज हो गया। गाँधी जी द्वारा वायसराय के सम्मुख रखे गये ग्यारह सूत्री मांग-पत्र पर विचार न करने के कारण सविनय अवज्ञा आन्दोलन आवश्यक हो गया था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने से पहले जब गाँधी जी वायसराय इर्विन से बात की तो वायसराय ने कांग्रेस की बातों पर ध्यान नहीं दिया। उस समय गाँधी जी ने कहा था कि- "कांग्रेस ने रोटी की मांग की और उसे मिला पत्थर।" उसके बाद यह आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गाँधी जी ने इस अहिंसात्मक ढंग से सरकार के प्रति असहयोग का रवैया अपनाया। कालान्तर में इसे ही 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' कहा गया।

दांडी मार्च

गाँधी जी और उनके स्वयं सेवकों द्वारा 12 मार्च, 1930 ई. को दांडी यात्रा प्रारम्भ की गई। इसका मुख्य उद्देश्य था अंग्रेज़ों द्वारा बनाये गए 'नमक क़ानून को तोड़ना'। गाँधी जी ने अपने 78 स्वयं सेवकों, जिनमें वेब मिलर भी एक था, के साथ साबरमती आश्रम से 358 कि.मी. दूर स्थित दांडी के लिए प्रस्थान किया। लगभग 24 दिन बाद 6 अप्रैल, 1930 ई. को दांडी पहुँचकर उन्होंने समुद्रतट पर नमक क़ानून को तोड़ा। गाँधी जी की दांडी यात्रा के बारे में सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है- "महात्मा जी की दांडी मार्च की तुलना 'इल्बा' से लौटने पर नेपालियन के 'पेरिस मार्च' और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए मुसोलिनी के 'रोम मार्च' से की जा सकती है।" चारों तरफ़ फैली इस असहयोग की नीति से अंग्रेज़ ब्रिटिश हुकूमत बुरी तरह से झल्ला गयी। 5 मई, 1930 ई. को गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। आन्दोलन की प्रचण्डता का अहसास कर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने गाँधी जी से समझौता करना चाहा।

गाँधी-इरविन समझौता

'गाँधी-इरविन समझौता' 5 मार्च, 1931 ई. को हुआ था। महात्मा गाँधी और लॉर्ड इरविन के मध्य हुए इस समझौते को 'दिल्ली पैक्ट' के नाम से भी जाना जाता है। गाँधी जी ने इस समझौते को बहुत महत्त्व दिया था, जबकि पंडित जवाहर लाल नेहरू और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने इसकी कड़ी आलोचना की। कांग्रेसी भी इस समझौते से पूरी तरह असंतुष्ट थे, क्योंकि गाँधी जी भारत के युवा क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी के फंदे से बचा नहीं पाए थे।

  • इस समझौते की शर्तें निम्नलिखित थीं-
  1. कांग्रेस व उसके कार्यकर्ताओं की जब्त की गई सम्पत्ति वापस की जाये।
  2. सरकार द्वारा सभी अध्यादेशों एवं अपूर्ण अभियागों के मामले को वापस लिया जाये।
  3. हिंसात्मक कार्यों में लिप्त अभियुक्तों के अतिरिक्त सभी राजनैतिक क़ैदियों को मुक्त किया जाये।
  4. अफीम, शराब एवं विदेशी वस्त्र की दुकानों पर शांतिपूर्ण ढंग से धरने की अनुमति दी जाये।
  5. समुद्र के किनारे बसने वाले लोगों को नमक बनाने व उसे एकत्रित करने की छूट दी जाये।

गोलमेज सम्मेलन

'गोलमेज सम्मेलन' 1930 से 1932 ई. के बीच लंदन में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड इरविन की 31 अगस्त, 1929 ई. की घोषणा के आधार पर हुआ था। इस सम्मेलन में लॉर्ड इरविन ने साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हो जाने के उपरान्त भारत के नये संविधान की रचना के लिए लंदन में 'गोलमेज सम्मेलन' का प्रस्ताव रखा। नवम्बर, 1931 ई. में लंदन में 'गोलमेज सम्मेलन' का आयोजन हुआ, जिसमें भारत और इंग्लैण्ड के सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनल्ड ने की और तीन सम्मेलन आयोजित किये-

  1. प्रथम गोलमेज सम्मेलन - 12 सितम्बर, 1930 ई. से 29 जनवरी, 1931 ई. तक
  2. द्वितीय गोलमेज सम्मेलन - 7 सितम्बर, 1930 ई. से 2 दिसम्बर, 1931 ई. तक
  3. तृतीय गोलमेज सम्मेलन - 17 नवम्बर, 1932 ई. से 24 दिसम्बर, 1932 ई. तक

सविनय अवज्ञा आन्दोलन की पुनरावृत्ति

गाँधी जी के इंग्लैण्ड प्रवास के समय इस आन्दोलन को सरकार ने बर्बरता से दबाना चाहा। बंगाल एवं उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में आन्दोलन को बुरी तरह दबाया गया। भारत में आते ही गाँधी जी ने पुनः आन्दोलन की बागडोर संभाली। सरकार ने कांग्रेस को अवैध घोषित कर गाँधी जी एवं सरदार पटेल सहित लगभग 1 लाख, 20 हज़ार लोगों को जेलों में भर दिया। दूसरी बार यह आन्दोलन 3 जनवरी, 1932 ई. को प्रारम्भ हुआ। लोगों में आन्दोलन के प्रति उत्साह में कमी देख्कर गाँधी जी 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' को 7 अप्रैल, 1934 ई. को स्थगति कर दिया। सुभाषचन्द्र बोस एवं सरदार पटेल जैसे नेताओं ने गाँधी जी के इस कृत्य की आलोचना की। उन्होंने कहा- "गाँधी जी ने पिछले 13 वर्ष की मेहनत तथा कुर्बानियों पर पानी फेर दिया।" फलस्वरूप गाँधी जी कुछ दिनों के लिए कांग्रेस से अलग हो गये।

साम्प्रदायिक निर्णय

'साम्प्रदायिक निर्णय' 4 अगस्त, 1932 ई. को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड के द्वारा दिया गया। इसी निर्णय के आधार पर नया भारतीय शासन-विधान बनने वाला था, जिस पर उस समय लन्दन में गोलमेज सम्मेलन में विचार-विमर्श चल रहा था और जो बाद में 1935 ई. में पास हुआ। साम्प्रदायिक निर्णय 1909 ई. के भारतीय शासन-विधान में निहित साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर आधारित था। 1906 ई. में जब यह स्पष्ट हो गया कि देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रचलित शासन-विधान में शीघ्र संशोधन किया जाएगा, तब भारत स्थित कुछ अंग्रेज़ अधिकारियों ने वाइसराय लॉर्ड मिण्टो द्वितीय की साठ-गाँठ से मुसलमानों को प्रेरित किया कि वे 'हिज हाईनेस' सर आगा ख़ाँ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल वाइसराय के पास ले जाएँ।

पूना समझौता

'पूना समझौता' 24 सितम्बर, 1932 ई. को हुआ। यह समझौता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की रोगशैया पर हुआ। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड के 'साम्प्रदायिक निर्णय' के द्वारा न केवल मुसलमानों को, बल्कि दलित जाति के हिन्दुओं को सवर्ण हिन्दुओं से अलग करने के लिए भी पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान कर दिया गया था।

गाँधी जी और हरिजन उत्थान

गाँधी जी ने हरिजनों के उत्थान के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया। प्रसिद्ध 'पूना समझौते' के बाद गाँधी जी ने अपने आपको पूरी तरह से हरिजनों की सेवा में समर्पित कर दिया। जेल से छूटने के बाद उन्होंने 1932 ई. में 'अखिल भारतीय छुआछूत विरोधी लीग' की स्थापना की।

कांग्रेस समाजवादी दल

'कांग्रेस समाजवादी दल' की स्थापना 1934 ई. में आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी एवं अशोक मेहता के प्रयत्नों से की गयी थी। इस दल का प्रथम सम्मेलन 1934 ई. में पटना मे हुआ। इस पार्टी की स्थापना का उद्देश्य ये माँगे थीं- देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित हो, राजाओं और ज़मींदारों का उन्मूलन बगैर मुआवजे के किया जाए। जुलाई, 1931 ई. में बिहार में समाजवादी दल की स्थापना जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा एवं कुछ अन्य लोगों ने मिलकर की।

अगस्त प्रस्ताव

'अगस्त प्रस्ताव' की घोषणा 8 अगस्त, 1940 ई. को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने की थी। इन प्रस्तावों के द्वारा भारत में रहने वाले अल्प-संख्यकों को अधिकांशत: वे चीज़े प्राप्त हो गईं, जिनकी उन्हें अपेक्षा भी नहीं थी। मुस्लिम लीग ने अगस्त प्रस्ताव के उस भाग का, जिसमें यह प्रतिज्ञा थी कि "भावी संविधान उनकी अनुमति से ही बनेगा", का स्वागत किया, जबकि कांग्रेस ने 'अगस्त प्रस्ताव' को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया।


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