`कबीर' मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ ।
बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥1॥
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरि फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥2॥
पाणी ही तै पातला, धुवां ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोसत `कबीर' कीन्ह ॥3॥
`कबीर' तुरी पलाणियां, चाबक लीया हाथि ।
दिवस थकां सांई मिलौं, पीछै पड़िहै राति ॥4॥
मैमन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहिं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥5॥
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥6॥
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥7॥