सामंतवाद  

पश्चिमी यूरोप में रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद एक नये प्रकार के समाज और एक नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ। इस नयी व्यवस्था को सामंतवाद कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति एक लातीनी शब्द 'फ्यूडम' (FEUDUM) से हुई जो अंग्रेज़ी में 'फ़ीफ़' (FIEF) बना। इस समाज में मुख्य स्थान उन सरदारों का था जो अपनी सेनाओं की सहायता से भूमि के बड़े हिस्सों पर अपना अधिकार जमा कर रखते थे और प्रशासन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। राजा भी एक और शक्तिशाली सामंतवादी सरदार ही था। पर समय के साथ-साथ सम्राट की शक्ति अधिक होती गई और छोटे सरदारों की शक्ति को सीमित करने के प्रयत्न किये गए। इसका एक तरीका यह था कि राजा उनके द्वारा अधिकार में ली गई भूमि को मान्यता देता था और उसके बदले उनसे अपने प्रति निष्ठा और सेवा के वचन की माँग करता था फिर ये सरदार इसी प्रकार अपने से छोटे सरदारों को भूमि के एक हिस्से पर अधिकार देते थे और उनसे निष्ठा का वचन लेते थे। सिद्धांत में राजा किसी भी ऐसे सरदार की भूमि के वापस ले सकता था जो उसके प्रति वचनबद्ध नहीं रहा हो। लेकिन वास्तविक तौर पर ऐसा शायद ही कभी किया जाता था। इस प्रकार सामंतवादी शासन व्यवस्था में भू-स्वामियों का मुख्य अधिकार था और वे पूरी चेष्टा करते थे कि कोई भी बाहरी आदमी इस व्यवस्था में शामिल न हो सके।

सामंतवादी व्यवस्था की यह बहुत ही सामान्य रूपरेखा है। इस व्यवस्था में, तुर्कों द्वारा मध्य एशिया तथा राजपूतों द्वारा भारत में स्थापित शासन और समाज व्यवस्था में, बहुत साम्य है। जैसे-जैसे इस व्यवस्था का विकास होता गया, विभिन्न क्षेत्रों में वहाँ की स्थिति और परम्पराओं के अनुरूप इसने अनेक रूप धारण कर लिए। यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था का सम्बन्ध दो और व्यवस्थाओं से था जिनमें से एक 'कृषि दास' व्यवस्था है।

कृषि दास

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कृषि दास एक ऐसा खेतिहर था जो खेतों पर कार्य करता था लेकिन वह अपनी चाकरी बदल नहीं सकता था और अपने स्वामी की अनुमति के बिना न तो विवाह कर सकता था और न ही किसी दूसरी जगह पर बस सकता था। सरदार स्वयं एक क़िले में रहता था और उसके हिस्से की भूमि पर कृषि दास कार्य करते थे। इस प्रकार इन कृषि दासों को अपनी भूमि के अलावा अपने स्वामियों की भूमि पर भी खेती करनी पड़ती थी, क्योंकि सैद्धान्तिक रूप से सारी भूमि पर सरदार का ही अधिकार था। इसलिए कृषि दास को अपने क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था को स्थापित करने और न्याय देने की ज़िम्मेदारी थी। उन दिनों राजनीतिक स्थिति बहुत ही अस्थिर थी इसलिए मुक्त किसान भी कभी-कभी सुरक्षा के बदले सरदारों के अधिकार को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कृषि दासता और भू-व्यवस्था सामंती व्यवस्था के मुख्य आधार हैं और ऐसे समाज के बारे में सामंतवाद की चर्चा करना ग़लत होगा जिनमें ये दो व्यवस्थाएँ नहीं हैं। पर इसके विपरीत, उदाहरणार्थ भारत में भी कृषि दासत्व तथा सामंतीय भूमि व्यवस्था नहीं थी, लेकिन यहाँ ज़मींदार सामंती सरदारों के अधिकतर अधिकारों का प्रयोग करते थे और किसान उनके अधीन थे। दूसरे शब्दों में ध्यान देने योग्य यह बात नहीं है कि किसान सिद्धांत में मुक्त था या नहीं, बल्कि यह है कि वह किन तरीकों से अपनी आज़ादी का प्रयोग कर सकता था। पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों में चौदहवीं शताब्दी के बाद सामंतीय भू-व्यवस्था गायब हो गई।

सैनिक संगठन

यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था का दूसरा आधार सैनिक संगठन था। इस संगठन का प्रतीक बख़्तरबन्द घुड़सवार थे। वास्तव में युद्ध घोड़ों का उपयोग आठवीं शताब्दी तक होने लगा था। रोमन साम्राज्य के युग में सेना के मुख्य अंग लम्बे भालों, छोटी तलवारों से लैस पैदल सिपाही थे। घोड़ों का उपयोग केवल उन रथों को खींचने में होता जिन पर प्रमुख सैनिक अधिकारी सवार रहते थे। सामान्यतः यह माना जाता है कि अरबों के आगमन के साथ ही युद्ध के तरीक़ों में परिवर्तन हुए। अरबों के पास बड़ी संख्या में घोड़े थे और उन पर सवार धनुषधारी सैनिको के सामने पैदल सिपाही बिल्कुल बेकार सिद्ध होते थे। इस नयी युद्धनीति के विकास और संगठन के रख-रखाव की आवश्यकता के कारण भी यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था मज़बूत हुई। कोई भी राजा अपने साधनों से न तो घुड़सवारों की इतनी बड़ी संख्या को बनाए रख सकता था और न ही उनके साजो-सामान का प्रबन्ध कर सकता था। इसी कारण सेना का विकेन्द्रीकरण हुआ और सामंती सरदारों पर राज्य की सेवा के लिए निश्चित संख्या में घुड़सवारों और पैदल सिपाहियों को रखने की ज़िम्मेदारी आई।

भारत में सामंतवाद

दसवीं शताब्दी के बाद भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें सामंत, रानक अथवा रौत्त (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इन वर्गों की उत्पत्ति विभिन्न तरीकों से हुई थी। इनमें से कुछ ऐसे सरकारी अधिकारी थे जिनको वेतन मुद्रा की जगह ग्रामों में दिया जाता था, जिससे ये कर प्राप्त करते थे। कुछ और ऐसे पराजित राजा थे जिनके समर्थक सीमित क्षेत्रों के कर के अभी भी अधिकारी बने बैठे थे। कुछ और वंशागत स्थानीय सरदार या बहादुर सैनिक थे, जिन्होंने अपने कुछ हथियारबन्द समर्थकों की सहायता से अधिकार क्षेत्र स्थापित कर लिया था। इन लोगों की हैसियत भी अलग-अलग थी। इनमें से कुछ केवल ग्रामों के प्रमुख थे और कुछ का अधिकार कुछ ग्रामों पर था और कुछ ऐसे भी थे जो एक सारे क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो सके थे। इस प्रकार इन सरदारों की निश्चित श्रेणियाँ थी। ये अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए आपस में लगातार संघर्ष किया करते थे। ऐसे 'लगान' वाले क्षेत्र[१] जो राजा अपने अधिकारियों या समर्थकों को देता था, वे अस्थायी थे और जिन्हें राजा अपनी मर्ज़ी से जब चाहे, वापस ले सकता था। लेकिन बड़े विद्रोह अथवा विश्वासघात के मामलों में छोड़कर राजा द्वारा ज़मीन शायद ही वापस ली जाती थी। समसामयिक विचारधारा के अनुसार पराजित नरेश की भूमि को भी लेना पाप माना जाता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिनको भोग कहा जाता था

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