दुर्ग  

दुर्ग एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- दुर्ग (बहुविकल्पी)

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दुर्ग शब्द का तात्पर्य है ऐसा गढ़ जहाँ पहुँचना कठिन हो। युद्ध के तरीकों में परिवर्तन के साथ दुर्ग का अर्थ भी बदलता रहा है, क्योंकि युद्ध से दुर्ग का सीधा संबंध है। किसी भूभाग या क्षेत्र की नैसर्गिक रक्षात्मक शक्ति की वृद्धि करना भी अब दुर्ग निर्माण के अंतर्गत माना जाता है।

दुर्ग (क़िला या राजधानी)

मनु[१]ने राजधानी को राष्ट्र के पूर्व रखा है। मेघातिथि[२] एवं कुल्लुक का कथन है कि राजधानी पर शत्रु के अधिकार से भय उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि वहीं सारा भोज्य पदार्थ एकत्र रहता है, वहीं प्रमुख तत्त्व एवं सैन्यबल का आयोजन रहता है। अत: यदि राजधानी की रक्षा की जा सकी तो परहस्त-गत राज्य लौटा लिया जा सकता है और देश की रक्षा की जा सकती है। भले ही राज्य का कुछ भाग शत्रु जीत ले, किन्तु राजधानी अविजित रहनी चाहिए। राजधानी ही शासन-यंत्र की धुरी है। कुछ लेखकों ने [३]पुर (राजधानी) या दुर्ग को राष्ट्र के उपरान्त स्थान दिया है। प्राचीन युद्ध परम्परा तथा उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति के कारण ही राज्य के तत्त्वों में राजधानी एवं दुर्गों को इतनी महत्ता दी गई है। राजधानी देश की सम्पत्ति का दर्पण थी और यदि वह ऊंची-ऊंची दीवारों से सुदृढ़ रहती थी तो सुरक्षा का कार्य भी करती थी।

याज्ञवल्क्य[४] ने लिखा है कि दुर्ग की स्थिति से राजा की सुरक्षा, प्रजा एवं कोश की रक्षा होती है[५]। मनु [६] ने दुर्ग के निर्माण का कारण भली-भांति बता दिया है, दुर्ग में अवस्थित एक धनुर्धर सौ धनुर्धरों को तथा सौ धनुर्धर एक सहस्र धनुर्धरों को मार गिरा सकते हैं।[७]। राजनीति प्रकाश द्वारा उद्धृत बृहस्पति में आया है कि अपनी-अपनी रानियों, प्रजा एवं एकत्र की हुई सम्पत्ति की रक्षा के लिए राजा को प्राकारों (दीवारों) एवं द्वार से युक्त दुर्ग का निर्माण करना चाहिए।[८]

चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख

कौटिल्य[९] ने दुर्गों के निर्माण एवं उनमें से किसी एक में राजधानी बनाने के विषय में सविस्तार लिखा है। उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है, यथा-

  1. औदक (जल से सुरक्षित, जो द्वीप-सा हो, जिसके चारों ओर जल हो)
  2. पार्वत (पहाड़ी पर या गुफ़ा वाला)
  3. धान्वन (मरुभूमि वाला, जलविहीन भूमिखंड, जहाँ झाड़-झंकार हों या अनुर्वर भूमि हो)
  4. वन-दुर्ग (जहाँ खंजन, जल-मुर्गियां हों, जल हो, झाड़-झंकार और बेंत एवं बाँसों के झुण्ड हों)।

कौटिल्य का कहना है कि प्रथम दो प्रकार के दुर्ग जल-संकुल स्थानों को सुरक्षा के लिए हैं और अन्तिम दो प्रकार जंगलों की रक्षा के लिए हैं। वायुपुराण [१०] ने दुर्ग के चार प्रकार दिए हैं।

मनु के अनुसार छ: प्रकार के दुर्ग

मनु [११], शान्तिपर्व[१२], विष्णुधर्मसूत्र [१३], मत्स्यपुराण [१४], अग्निपुराण [१५], विष्णुधर्मोत्तर [१६], शुक्रनीतिसार [१७]ने छ: प्रकार बताये हैं, यथा-

  1. धान्व दुर्ग (जल विहीन, खुली भूमि पर पाँच योजन के घेरे में)
  2. महीदुर्ग (स्थल दुर्ग, प्रस्तर खंडों या ईंटों से निर्मित प्राकारों वाला, जो 12 फुट से अधिक चौड़ा और चौड़ाई से दुगुना लम्बा हो)
  3. जलदुर्ग (चारों ओर जल से आवृत)
  4. वार्क्ष-दुर्ग (जो चारों ओर से एक योजन तक कँटीले एवं लम्बे-लम्बे वृक्षों, कँटीले लता-गुल्मों एवं झाड़ियों से आवृत्त हो)
  5. नृदुर्ग (जो चतुरंगिनी सेना से चारों ओर से सुरक्षित हो)
  6. गिरिदुर्ग (पहाड़ों वाला दुर्ग, जिस पर कठिनाई से चढ़ा जा सके और जिसमें केवल एक ही संकीर्ण मार्ग हो)।

मनु [१८] ने गिरिदुर्ग को सर्वश्रेष्ठ कहा है, किन्तु शान्तिपर्व [१९] ने नृदुर्ग को सर्वोत्तम कहा है, क्योंकि उसे जीतना बड़ा ही कठिन है। मानसोल्लास [२०] ने प्रस्तरों, ईंटों एवं मिट्टी से बने अन्य तीन प्रकार जोड़कर नौ दुर्गों का उल्लेख किया है। मनु [२१], सभापर्व [२२], अयोध्या [२३], मत्स्यपुराण [२४], कामन्दकीय नीतिसार [२५], मानसोल्लास [२६], शुक्रनीतिसार [२७], विष्णुधर्मोत्तर [२८] के अनुसार दुर्ग में पर्यापत आयुध, अन्न, औषध, धन, घोड़े, हाथी, भारवाही पशु, ब्राह्मण, शिल्पकार, मशीनें (जो सैकड़ों को एक बार मारती हैं), जल एवं भूसा आदि सामान होने चाहिए। नीतिवाक्यामृत[२९] का कहना है कि दुर्ग में गुप्त सुरंग होनी चाहिए, जिससे गुप्त रूप से निकला जा सके, नहीं तो वह बन्दी गृह सा हो जायेगा, वे ही लोग आने-जाने पायें, जिनके पास संकेत चिह्न हों और जिनकी हुलिया भली-भांति ले ली गयी हो। विशेष जानकारी के लिए देखिए कौटिल्य [३०], राजधर्मकांड [३१], राजधर्मकौस्तुभ [३२], जहाँ उशना, महाभारत, मत्स्यपुराण, विष्णुधर्मोत्तर आदि से कतिपय उद्धरण दिये गए हैं।[३३]

वैदिक कालीन दुर्ग

ऋग्वेद में बहुधा नगरों का उल्लेख हुआ है। इन्द्र ने पुरुकुत्स के लिए सात नगर ध्वस्त कर डाले [३४]। इन्द्र ने दस्युओं को मारा और उनके अयस् (ताम्र; 'हत्वी दस्यून् पुर आयसीर् नि तारीत्') के नगरों को नष्ट कर दिया[३५]। स्पष्ट है, ऋग्वेद के काल में भी प्राकारयुक्त दुर्ग होते थे। किन्तु दीवारें मिट्टी या लकड़ी की थीं या पत्थर, ईंटों की थीं; कुछ स्पष्ट रूप से कहा नहीं जा सकता।[३६] तैत्तिरीयसंहिता [३७] ने असुरों के तीन नगरों का उल्लेख किया है, जो अयस्, चाँदी एवं सोने (हरिणी) के थे। शतपथ ब्राह्मण में वर्णित अग्निचयन में सहस्रों पक्की ईंटों की आवश्यकता पड़ती थी। सिन्धु घाटी की नगरियों (मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा) में पक्की ईंटों का प्रयोग होता था[३८]। ऋग्वेद काल में भी ऐसा पाया जाना असम्भव नहीं होगा। रामायण एवं महाभारत में प्राकारों (दीवारों), तोरणों, अट्टालकों (ऊपरी मंजिलों), उपकुल्याओं आदि का उल्लेख राजधानियों के सिलसिले में पाया जाता है। कभी-कभी नगरों के नाम पर ही द्वारों के नाम पड़ जाते थे। पाण्डव लोग हस्तिनापुर के बाहर वर्धमानपुर द्वार से गये[३९]। महलों में नर्तनागार भी होते थे।[४०] रामायण [४१]में लंका के सात-सात एवं आठ-आठ मंज़िल वाले प्रासादों एवं पच्चीकारों से युक्त फर्शों का उल्लेख मिलता है। बृहतसंहिता [४२] में वास्तुशास्त्र पर 115 श्लोक आये हैं, जिनमें भवनों, प्रासादों आदि के निर्माण के विषय में लम्बा-चौड़ा आख्यायान पाया जाता है। इनमें दीवारों के लिए ईंटों या लकड़ी के प्रयोग की बात चलायी गई है।[३३]

पुराणों में

राजा की राजधानी दुर्ग के भीतर या सर्वधा स्वतंत्र रूप से निर्मित हो सकती थी। मनु[४३], आश्रमवासिक[४४], शान्तिपर्व [४५], कामन्दकीय नीतिसार [४६], मत्स्यपुराण[४७] एवं शुक्रनीतिसार [४८] ने राजधानी के निर्माण के विषय में उल्लेख किया है। कौटिल्य [४९] ने विस्तार के साथ राजधानी के निर्माण की व्यवस्था दी है। कौटिल्य के मत से राजधानी के विस्तार-द्योतक रूप में पूर्व से पश्चिम तीन राजमार्ग तथा उत्तर से दक्षिण तीन राजमार्ग होने चाहिए। राजधानी में इस प्रकार बारह द्वार होने चाहिए। उसमें गुप्त भूमि एवं जल होना चाहिए। रथमार्ग एवं वे मार्ग जो द्रोणमुख, स्थानीय, राष्ट्र एवं चरागाहों की ओर जाते हैं, चौड़ाई में चार दण्ड (16 हाथ) होने चाहिए। कौटिल्य ने इसके उपरान्त अन्य कामों के लिए बने मार्गों की चौड़ाई का उल्लेख किया है। राजा का प्रासाद पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होना चाहिए और लम्बाई और चौड़ाई में सम्पूर्ण राजधानी का 9/10 भाग होना चाहिए। राजप्रासाद राजधानी के उत्तर में होना चाहिए। राजप्रासाद के उत्तर में राजा के आचार्य, पुरोहित, मंत्रियों के गृह तथा यज्ञ-भूमि एवं जलाशय होने चाहिए। कौटिल्य ने इसी प्रकार राजप्रासाद के चतुर्दिक, अध्यक्षों, व्यापारियों, प्रमुख शिल्पकारों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, बढ़इयों, शूद्रों आदि के आवासों का उल्लेख किया है। राजधानी के मध्य में अपराजित, अप्रतिहत, जयन्त एवं वैजयन्त के मूर्तिगृह तथा शिव, कुबेर, अश्विनी, लक्ष्मी, मदिरा (दुर्गा) के मन्दिर बने रहने चाहिए। प्रमुख द्वारों के नाम ब्रह्म, यम, इन्द्र एवं कार्तिकेय के नामों पर रखे जाने चाहिए। खाई के आगे 100 धनुषों (100 हाथ) की दूरी पर पवित्र पेड़ों के मण्डप, कुञ्ज एवं बाँध होने चाहिए। उच्च वर्णों के श्मशान स्थल दक्षिण में तथा अन्य लोगों के पूर्व या उत्तर में होने चाहिए। श्मशान के आगे नास्तिकों एवं चांडालों के आवास होने चाहिए। दस घरों पर एक कूप होना चाहिए। तेल, अन्न, चीनी, दवाएं, सूखी तरकारियाँ, ईधन, हथियार तथा अन्य आवश्यक सामग्रियां इतनी मात्रा एवं संख्या में एकत्र होनी चाहिए कि आक्रमण या घिर जाने पर वर्षों तक किसी वस्तु का अभाव न हो। उपयुक्त विवरण से मत्स्यपुराण की बहुत सी बातों का मेल नहीं बैठता[५०]। राजनीतिप्रकाश [५१] एवं राजधर्मकांड[५२] ने मत्स्यपुराण को अधिकांश में उद्धृत किया है। राजनीतिप्रकाश [५३] ने देवीपुराण से नगर, हट्ट, पुरी, पत्तन, मन्दिरों के निर्माण के विषय में बहुत-से अंश उद्धृत कर रखे हैं।[५४][३३]

ग्राम एवं नगर का अन्तर

पाणिनि (7|3|14) ने ग्राम एवं नगर का अन्तर बताया है[५५]पतंजलि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि ग्राम, घोष, नगर एवं संवाह भांति-भांति के जनअधिवसितों (बस्तियों) के या बस्तियों के दलों के नाम हैं। वायुपुराण[५६] ने पृथक् रूप से पुरों (नगरों या पुरियों), घोषों (ग्वालों के ग्रामों), ग्रामों एवं पत्तनों का उल्लेख किया है। राजधानी, प्रासाद, कचहरियों, कार्यालयों, खाइयों आदि के निर्माण के विषय में देखिए शुक्रनीतिसार [५७], युक्तिकल्पतरु [५८], वायुपुराण [५९], मत्स्यपुराण [६०]। शुक्रनीतिसार [६१] ने पद्या (फुटपाथ), वीथी (गली) एवं मार्ग की चौड़ाई कम से कम 3, 5 एवं 10 हाथ कही है। अयोध्या की राजधानी के वर्णन के लिए देखिए रामायण (2|100|40-42)। रामायण [६२] एवं महाभारत [६३] से पता चलता है कि सड़कों पर छिड़काव होता था। हर्षचरित [६४] में बाण ने स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) का सुन्दर वर्णन किया है। राजधानी के स्थानीय शासन के विषय में देखिए कौटिल्य [६५]

पहाड़पुर पत्र (गुप्त संवत् 159=478-9 ई.) से पता चलता है कि नगर श्रेष्ठी (राजधानी के व्यापारियों एवं धनागार श्रेष्ठियों के प्रमुख) का चुनाव सम्भवत: स्वयं राजा करता था[६६]। सम्भवत: राजधानी के शासक को शासन कार्य में सहायता देने के लिए पौरमुख्यों या पौरवृद्धो की एक समिति होती थी। दामोदरपुर के पत्र [६७] में नगर सेठ (नगर श्रेष्ठी) का उल्लेख है। मेगस्थनीज[६८] ने पालिवोथ्रा (पाटलिपुत्र) नगर तथा उसके शासन का वर्णन किया है। वह कहता है कि 5-5 सदस्यों सदस्यों की 6 समितियां थी, जो क्रम से (1) शिल्पों, (2) विदेशियों, (3) जन्म-मरण, (4) व्यापार, बटखरों (5) निर्मित सामानों एवं (6) बेची हुई वस्तुओं का दसवाँ भाग एकत्र करने अर्थात् चुंगी करती थी। मेगस्थनीज़ के कथन से पता चलता है कि पाटलिपुत्र 80 स्टेडिया लम्बा एवं 15 स्टेडिया चौड़ा था, इसका आकार समानान्तर चतुर्भुज की भांति था और इसके चारों और लकड़ी की दीवारें थीं, जिनमें तीर छोड़ने के लिए छिद्र बने हुए थे। राजधानी के सामने खाई भी थी। एरियन [६९] के अनुसार पाटलिपुत्र में 570 स्तम्भ एवं 64 द्वार थे। अपने महाभाष्य में पतंजलि ने पाटलिपुत्र का उल्लेख कई बार किया है।[७०] महाभाष्य में पाटलिपुत्र शोण के किनारे बताया गया है[७१]और इसमें इसके प्रासादों का भी उल्लेख हुआ है[७२]फाहियान (सन 399-414 ई.) ने भी पाटलिपुत्र की शोभा का उल्लेख किया है और उसे प्रेतात्माओं के द्वारा बनाया हुआ कहा है।[७३]

भागवत पुराण[७४] में आया है कि वेन के पुत्र पृथु ने सर्वप्रथम पृथ्वी को समतल कराया और ग्रामों, नगरों, राजधानियों, दुर्गों आदि में जनों को बसाया। पृथु के पूर्व लोक जहाँ चाहते थे रहते थे, न तो ग्राम थे और न ही नगर। राजनीतिकौस्तुभ के अनुसार श्रीधर द्वारा उद्धृत भृगु के मत से ग्राम वह बस्ती है, जहाँ ब्राह्मण लोग अपने कर्मियों (मतदूरों) एवं शूद्रों के साथ रहते हैं। खर्बट नदी के तट की उस बस्ती को कहते हैं, जहाँ मिश्रित लोग रहते हैं और जिसके एक ओर ग्राम और दूसरी ओर नगर हो। राजनीतिकौस्तुभ[७५] द्वारा उद्धृत शौनक के मत से खेट उसे कहते हैं, जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, एवं वैश्य रहते हैं, वह स्थान जहाँ सभी जातियाँ रहती हैं, नगर कहलाता है। शौनक के मत से ब्राह्मण गृहस्थों को श्वेत एवं सुगन्धित मिट्टी में, क्षत्रियों को लाल एवं सुगन्धित मिट्टी वाले नगरों में तथा वैश्यों को पीली मिट्टी वाले स्थानों से बसना चाहिए।[३३]

भारत में दुर्ग

भारत में दुर्ग की अनेक किस्में ज्ञात थीं। चाणक्य ने जलदुर्ग, मरुदुर्ग, वनदुर्ग आदि अनेक प्रकार के दुर्गों का वर्णन किया है। भारत के मुग़ल शासक दुर्ग रचना में बड़ी दिलचस्पी रखते थे, जिसका प्रमाण दिल्ली और आगरे के लाल क़िले तथा इलाहाबाद स्थित अकबर का क़िला है। पाश्चात्य देशों में दुर्ग-निर्माण-कला का विकास तोप और तोपखाने की फायर शक्ति के विकास के साथ साथ हुआ। भारत में तोपखाने का सर्वप्रथम उपयोग बहुत समय बाद, 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में किया था। अत: यहाँ दुर्ग कला का वैसा विकास होना संभव नहीं था।

दुर्गबंदी

दुर्गबंदी (देखें क़िलाबंदी) दो प्रकार की होती है, स्थायी और अस्थायी। शांति के समय कंक्रीट और प्रस्तर निर्मित क़िले, खाइयाँ, बाधाएँ और सैनिक आवास स्थायी दुर्गबंदी हैं और शत्रु से मुठभेड़ होने पर, या युद्ध अवश्यंभावी होने की स्थिति में की जानेवाली दुर्गबंदी, अस्थायी या मैदानी कहलाती है। मैदानी दुर्गबंदी लचीली होती है, अत: रक्षा के साथ ही आक्रमण होने के पहले अपने स्थिति को दृढ़ कर लेने का अवसर प्रदान करती है। खाईबंदी, अस्त्र अभिस्थापन, अस्त्रों के लिए स्पष्ट फायर क्षेत्र, सुरंग, कँटीले तार आदि बाधाएँ तथा गिर पेड़, चट्टान जैसे पदार्थों से उपलब्ध प्राकृतिक बाधाओं को और भी दृढ़ करना इत्यादि मैदानी दुर्गबंदी के अंतर्गत है। आधुनिक मैदानी दुर्गबंदी में गोपन और छद्मावरण आवश्यक हैं।

अकबर का क़िला, अजमेर

एक समय था जब युद्ध में आक्रमण की अपेक्षा सफल प्रतिरक्षा ही युद्ध की निर्णायिका होती थी। उन दिनों स्थायी दुर्गबंदी पर बहुत ध्यान दिया गया। तोप के आविष्कार के पूर्व मध्ययुगीन क़िले लगभग अभेद्य थे। शक्तिशाली से शाक्तिशाली आक्रमणकारी भी दुर्ग का घेरा डाले महीनों पड़े रहते थे। उन दिनों प्रतिरक्षा का अर्थ पराजय को यथासंभव अधिक से अधिक समय तक टालना मात्र था। दुर्ग रचना की कला में जर्मन, फ्रांसीसी, ब्रिटिश और इताली योगदान पर्याप्त हैं। 11वीं शताब्दी में नॉर्मन दुर्ग बने जो, भित्तिपातकों तक का प्रहार झेल जाते थे। धर्मयुद्धों के काल में भी दुर्गकला का विकास हुआ। क्रमिक प्रतिरक्षा पंक्ति के सिद्धांत पर एककेंद्रीय दुर्ग बने जिन्हें 13वीं और 14वीं शताब्दी के घेरा इंजन भी नहीं तोड़ पाते थे। बारूद के आविष्कार ने युद्ध विज्ञान में क्रांति कर दी और फलत: दुर्गबंदी में भी बड़े परिवर्तन हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में प्रबलतम दुर्गों का ध्वंस करने वाले अस्त्र बन सके थे।

मैदानी दुर्गबंदी

शत्रु के मार्ग में बाधा उपस्थित करना, बहुत प्राचीन विद्या है। बाधा ऐसी होनी चाहिए कि शत्रु अपने अस्त्रों का प्रयोग करने में असुविधा का अनुभव करे, लेकिन प्रतिरक्षक को कोई असुविधा न हो। शत्रु के आक्रमण तथा स्थानीय आक्रमण को विभक्त करने में मैदानी दुर्गबंदी सहायक होती है। फायर शक्ति, टैंक और छाताधारी सेना के कारण अब स्थायी दुर्गों का कोई उपयोग नहीं रह गया हैं, किंतु मैदानी दुर्गबंदी से बाधा उत्पन्न करके शत्रु के आने में देर की जा सकती है।

खाई युद्ध

खाई युद्ध कोई नई विद्या नहीं है। प्राचीन रोम में हर सैनिक को खाई खोदनी पड़ती थी। जूलियस सीज़र ने कँटीले तारों, सुरंगों और विस्फोटकों को छोड़कर, आधुनिक काल में ज्ञात सभी विद्याओं का प्रयोग किया था। मंगोलों ने 13वीं शताब्दी में खाई बंदी का प्रयोग किया था। अंतर यह है कि आधुनिक काल की खाइयाँ तोपखाने के कारण अधिक गहरी और मज़बूत होती हैं। अस्त्रों के विकास ने मैदानी दुर्गबंदी को बहुत प्रभावित किया है।

पश्चिमी देशों की अपेक्षा अमरीका वालों ने मैदानी दुर्गबंदी को तेज़ीसे ग्रहण किया, क्योंकि अमरीका में स्थायी दुर्ग नहीं थे। क्रांतियुद्ध में अमरीकियों को सदा ही मैदानी दुर्गबंदियों पर निर्भर रहना पड़ा।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान

प्रथम विश्वयुद्ध पश्चिम में प्रथम विश्वयुद्ध घेराबंदी का युद्ध था। लाखों सैनिक महीनों तक खाइयों में पड़े रहते थे। खाइयों में प्रतिरक्षा की कार्यवाइयाँ होती थीं और तोपखानों का विन्यास इस प्रकार किया जाता था कि शत्रु का प्रवेश तीसरी पंक्ति में न हो सके। दोनों पक्ष मनोबल तोड़ने के प्रयासों पर अधिकाधिक बल देते थे।

सुरंग का आविष्कार

प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति और द्वितीय युद्ध के प्रारंभ के मध्यकाल में सुरंग का आविष्कार महत्त्वपूर्ण रहा। खाई तंत्र, कँटीले तार की बाधा, मशीनगन तथा तोपखाना अभिस्थापन और टैंकों से बचाव के लिए सुरंग बिछाने का अध्ययन किया गया। दुर्गबंदी की दिशा में फ्रांस में माजिनो रेखा, जर्मनी में सीगफ्रड रेखा और रूस में स्तालिन रेखा पर ध्यान केंद्रित हुआ। टैंकों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के लिए इस्पात और कंक्रीट की बाधाओं के अतिरिक्त जंगलों औ बाढ़ क्षेत्रों का भी उपयोग किया गया। हवाई सुरक्षा के लिए अतिरिक्त तोप अभिस्थापन, खोज बत्ती और व्यापक टेलिफोन संचार की व्यवस्था हुई तथा हवाई प्रेक्षण से बचने और शत्रु की स्थल सेना को धोखा देने के लिए छिपने की विधियों का निर्माण हुआ। मैदानी दुर्गबंदियों तक पहुँचने के लिए रेल और सड़कों की वृद्धि की गई तथा वायुयानों के उतरने के लिए अवतरणक्षेत्र और भूमिगत वायुयान शालाओं का निर्माण हुआ। विषैली गैसों से रक्षा तथा पैदल सेना के नजदीकी आक्रमण का सामना करने के लिए स्थितियों का संगठन किया गया। इन दिनों तटीय दुर्गबंदी पर बड़ा ध्यान रखा गया। लेकिन युद्ध से सिद्ध हो गया कि तोप और टैंक के सम्मुख इनका अस्तित्व महत्वहीन है।

दूसरा विश्वयुद्ध के दौरान

दूसरा विश्वयुद्ध में टैंकों से बचने का प्रश्न था। टैकों के मार्ग में सुरंग बिछाकर उनके पहुँचने में देरी की जा सकती थी। प्रशांत द्वीपों में रेत के बोरों का प्रयोग हुआ। जापानियों की मैदानी दुर्गबंदी, सुव्यवस्थित होती थी। खोदे हुए स्थान को जंगली पत्तों, टहनियों से वे इस प्रकार छिपा देते थे कि सैनिक स्थितियों को पहचानना कठिन हो जाता था। नगरों में घरों में रहकर युद्ध करना, मैदानी दुर्गबंदी में सम्मिलित किया गया। युद्ध के लिए पत्थर के बने मज़बूत घर चुन लिए गए और खाइयाँ खोदने के लिए बुलडोज़रों का उपयोग किया गया। इन साधनों का ठीक प्रकार से समन्वयन आवश्यक था, जिसके अभाव में इनसे अपना ही घातक अहित होता था।

जर्मनी ने स्माल क़िला जीतकर किया चकित

जर्मनी ने एक दिन के अंदर बेल्जियम का एल्बेन-स्माल क़िला जीतकर सारे विश्व को चकित कर दिया। इस क़िले को जर्मनी ने किसी गुप्त अस्त्र के उपयोग से नहीं जीता, बलिक इसलिए जीता कि उसने मॉडलों द्वारा आक्रमण का अनेक बार पूर्वाभ्यास कर लिया था। जर्मनी ने माजिनो रेखा को उत्तर की ओर से पार करके प्रभावहीन कर दिया। इसी उपाय से उन्होंने स्तालिन रेखा को प्रभावहीन किया। रूसियों की 100 मील गहरी दुर्गबंदी भी जर्मनों की चालों के आगे प्रभावहीन सिद्ध हुई। लेकिन रूसियों को जर्मनी के आक्रमण की दिशा का पता लग गया, जिसके कारण वे उनके आक्रमण की तीव्रता को रोकने में सफल हुए। कुछ समय बाद जापानियों ने सिंगापुर की तटीय दुर्गबंदी को निरर्थक कर दिया। जापानी इस दुर्ग के उत्तर में उतर पड़े थे और इस शक्तिशाली दुर्ग की तोपें केवल समुद्र की दिशा में फायर कर सकती थीं।

दूसरे विश्वयुद्ध से यह लगभग सिद्ध हो गया कि स्थायी दुर्गबंदी के निर्माण में धन और श्रम व्यय करना व्यर्थ है, क्योंकि शत्रु के आने में देर उत्पन्न करने के और भी उपाय हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि स्थायी दुर्ग सर्वदा के लिए समाप्त हो गए, क्योंकि भविष्य में परमाणवीय युद्ध के समय सेनाओं को कंक्रीट की बनी खाइयों का आश्रय लेना पड़ सकता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु (9|294)
  2. मेघातिथि (मनु 9|295)
  3. (यहाँ तक की मनु ने भी, 7|69-70)
  4. याज्ञवल्क्य (1|321)
  5. (जनकोशात्मकगुप्तये)
  6. मनु (7|74)
  7. देखिए पंचतन्त्र (1|229 एवं 2|14)
  8. बृहस्पति। आत्मदारार्थलोकानां सञ्चितानां तु गुप्तये। नृपति: कारयेद दुर्ग प्राकारद्वारसंयुतम्। राजनीतिप्रकाश, पृष्ठ 202 एवं राजधर्म काण्ड, पृष्ठ 28।
  9. कौटिल्य (2|3 एवं 4)
  10. वायु पुराण (8|108)
  11. मनु (7|70)
  12. शान्तिपर्व (56|35 एवं 86|4-5)
  13. विष्णुधर्मसूत्र (3|6)
  14. मत्स्यपुराण (217|6-7)
  15. अग्निपुराण (222|4-5)
  16. विष्णुधर्मोत्तर (2|26|6-9, 3|323|16-21)
  17. शुक्रनीतिसार (4|6)
  18. मनु (7|79)
  19. शान्तिपर्व (56|35)
  20. मानसोल्लास (2|5, पृष्ठ 78)
  21. मनु (7|75)
  22. सभापर्व (5|36)
  23. अयोध्या (100|53)
  24. मत्स्यपुराण (217|8)
  25. कामन्दकीय नीतिसार(4|60)
  26. मानसोल्लास (3|5, श्लोक 550-555)
  27. शुक्रनीतिसार (4|612-13)
  28. विष्णुधर्मोत्तर (2|26|20-88)
  29. (दुर्गसमुद्देश, पृष्ठ 199)
  30. कौटिल्य (2|3)
  31. राजधर्मकांड (पृष्ठ 28-36)
  32. राजधर्मकौस्तुभ (पृष्ठ 115-117)
  33. ३३.० ३३.१ ३३.२ ३३.३ पुस्तक- धर्मशास्त्र का इतिहास | पृष्ठ संख्या- 663 - 666 | लेखक- पांडुरंग वामन काणे
  34. (ऋग्वेद 1|63|7)
  35. (ऋग्वेद 2|20|8)
  36. देखिए हॉप्किंस, जे.ए.ओ.एस., जिल्द 13, पृष्ठ 174-176।
  37. तैत्तिरीयसंहिता (6|2|3|1)
  38. (मार्शल, जिल्द 1, पृष्ठ 15-26)
  39. (वनपर्व, 1|9-10)
  40. (विराटपर्व 22|16 एवं 25-26)। और देखिए शान्तिपर्व (69|60, 86|4-15)।
  41. रामायण (5|2|50-53)
  42. बृहतसंहिता (अध्याय 53)
  43. मनु (7|70 एवं 76)
  44. आश्रमवासिक (5|16-17)
  45. शान्तिपर्व (86|6-10)
  46. कामन्दकीय नीतिसार (4|57)
  47. मत्स्यपुराण (217|9)
  48. शुक्रनीतिसार (1|213-217)
  49. कौटिल्य (2|4)
  50. (मत्स्यपुराण 217|9-87)
  51. राजनीतिप्रकाश (पृष्ठ 208-213)
  52. राजधर्मकांड (पृष्ठ 28-36)
  53. राजनीतिप्रकाश (पृष्ठ 214-219)
  54. eमिलाइये 'ग्रामा हट्टादिशून्या:, पुरोहट्टादिमत्य:, त एव महत्य: पत्तनानि, दुर्गाण्यौदकादीनि। खेटा: कर्षकग्रामा:। खर्वटा: पर्वतप्रान्तग्रामा इति।' श्रीधर (भागवतपुराण 4|18|31), राजनीतिकौस्तुभ द्वारा उद्धृत (पृष्ठ 102)। शिल्परत्न (अध्याय 5) में ग्राम, खेटक, खर्वट, दुर्ग, राजधानी, पत्तन, द्रोणिक, शिबिर, स्कन्धावार, स्थानीय, विडम्बक, निगम एवं शाखानगर की परिभाषाएं दी गयी हैं। मय मत (10|92) ने इनमें दस का उल्लेख किया है और (9|10) ग्राम, खेट, खर्वट, दुर्ग तथा नगर के विस्तार का वर्णन किया है।
  55. (प्राचांग्रामनगराणाम्)
  56. वायुपुराण (94|40)
  57. शुक्रनीतिसार (1|213-258)
  58. युक्तिकल्पतरु (पृष्ठ 22)
  59. वायुपुराण (8|108)
  60. मत्स्यपुराण (130)
  61. शुक्रनीतिसार (1|260-267)
  62. रामायण (6|112|42, सिक्तरथ्यान्तरायणा)
  63. महाभारत (आदिपर्व 221|36)
  64. हर्षचरित (3)
  65. कौटिल्य (2|36)
  66. (एपि. इ., जिल्द 20, पृष्ठ 59)
  67. (एपि. ई., जिल्द, 15, पृष्ठ 130, 133, गुप्त संवत 129)
  68. (मैकरिंडिल की एंश्येण्ट इंडिया, फ़्रैगमेंट 34, पृष्ठ 187)
  69. (मैकरिंडिल, पृष्ठ 209-210)
  70. (जिल्द 1, पृष्ठ 380)।
  71. (पाणिनि 2|1|16)
  72. (वार्तिक 4, पाणिनि 4|3|36 एवं जिल्द 2, पृष्ठ 321, पाणिनि 4|3|134)
  73. और देखिए राइस डेविड्स (बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 34-41)।
  74. भागवत पुराण (4|18|30-32)
  75. राजनीतिकौस्तुभ (पृष्ठ 130-4)

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