मूर्ख बातूनी कछुआ  

मूर्ख बातूनी कछुआ पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

कहानी

          एक तालाब में एक कछुआ रहता था। उसी तलाब में दो हंस तैरने के लिए उतरते थे। हंस बहुत हंसमुख और मिलनसार थे। कछुए और उनमें दोस्ती होते देर न लगी। हंसों को कछुए का धीमे-धीमे चलना और उसका भोलापन बहुत अच्छा लगा। हंस बहुत ज्ञानी भी थे। वे कछुए को अदभुत बातें बताते। ॠषि-मुनियों की कहानियां सुनाते। हंस तो दूर-दूर तक घूमकर आते थे, इसलिए दूसरी जगहों की अनोखी बातें कछुए को बताते। कछुआ मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुनता। बाकी तो सब ठीक था, पर कछुए को बीच में टोका-टाकी करने की बहुत आदत थी। अपने सज्जन स्वभाव के कारण हंस उसकी इस आदत का बुरा नहीं मानते थे। उन तीनों की घनिष्टता बढती गई। दिन गुजरते गए।
          एक बार बडे ज़ोर का सूखा पडा। बरसात के मौसम में भी एक बूंद पानी नहीं बरसा। उस तालाब का पानी सूखने लगा। प्राणी मरने लगे, मछलियां तो तडप-तडपकर मर गईं। तालाब का पानी और तेज़ीसे सूखने लगा। एक समय ऐसा भी आया कि तालाब में ख़ाली कीचड रह गया। कछुआ बडे संकट में पड गया। जीवन-मरण का प्रश्न खडा हो गया। वहीं पडा रहता तो कछुए का अंत निश्चित था। हंस अपने मित्र पर आए संकट को दूर करने का उपाय सोचने लगे। वे अपने मित्र कछुए को ढाडस बंधाने का प्रयत्न करते और हिम्म्त न हारने की सलाह देते। हंस केवल झूठा दिलासा नहीं दे रहे थे। वे दूर-दूर तक उडकर समस्या का हल ढूढते। एक दिन लौटकर हंसों ने कहा 'मित्र, यहां से पचास कोस दूर एक झील हैं।उसमें काफ़ी पानी हैं तुम वहां मजे से रहोगे।' कछुआ रोनी आवाज़ में बोला 'पचास कोस? इतनी दूर जाने में मुझे महीनों लगेंगे। तब तक तो मैं मर जाऊंगा।'
कछुए की बात भी ठीक थी। हंसों ने अक़्ल लडाई और एक तरीका सोच निकाला।
वे एक लकडी उठाकर लाए और बोले 'मित्र, हम दोनों अपनी चोंच में इस लकडी के सिरे पकडकर एक साथ उडेंगे। तुम इस लकडी को बीच में से मुंह से थामे रहना। इस प्रकार हम उस झील तक तुम्हें पहुंचा देंगे उसके बाद तुम्हें कोई चिन्ता नहीं रहेगी।'
उन्होंने चेतावनी दी 'पर याद रखना, उडान के दौरान अपना मुंह न खोलना। वरना गिर पडोगे।'
कछुए ने हामी में सिर हिलाया। बस, लकडी पकडकर हंस उड चले। उनके बीच में लकडी मुंह दाबे कछुआ। वे एक कस्बे के ऊपर से उड रहे थे कि नीचे खडे लोगों ने आकाश में अदभुत नज़ारा देखा। सब एक दूसरे को ऊपर आकाश का दृश्य दिखाने लगे। लोग दौड-दौडकर अपने छज्जों पर निकल आए। कुछ अपने मकानों की छतों की ओर दौडे। बच्चे बूडे, औरतें व जवान सब ऊपर देखने लगे। खूब शोर मचा। कछुए की नजर नीचे उन लोगों पर पडी।
उसे आश्चर्य हुआ कि उन्हें इतने लोग देख रहे हैं। वह अपने मित्रों की चेतावनी भूल गया और चिल्लाया 'देखो, कितने लोग हमें देख रहे है!' मुंह के खुलते ही वह नीचे गिर पडा। नीचे उसकी हड्डी-पसली का भी पता नहीं लगा।

सीख- बेमौके मुंह खोलना बहुत महंगा पडता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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