बिल्ली का न्याय  

बिल्ली का न्याय पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

कहानी

          एक वन में एक पेड की खोह में एक चकोर रहता था। उसी पेड के आस-पास कई पेड और थे, जिन पर फल व बीज उगते थे। उन फलों और बीजों से पेट भरकर चकोर मस्त पडा रहता। इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए। एक दिन उडते-उडते एक और चकोर सांस लेने के लिए उस पेड की टहनी पर बैठा। दोनों में बातें हुईं। दूसरे चकोर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह केवल वह केवल पेडों के फल व बीज चुगकर जीवन गुजार रहा था। दूसरे ने उसे बताया- 'भई, दुनिया में खाने के लिए केवल फल और बीज ही नहीं होते और भी कई स्वादिष्ट चीज़ें हैं। उन्हें भी खाना चाहिए। खेतों में उगने वाले अनाज तो बेजोड होते हैं। कभी अपने खाने का स्वाद बदलकर तो देखो।'
दूसरे चकोर के उडने के बाद वह चकोर सोच में पड गया। उसने फैसला किया कि कल ही वह दूर नजर आने वाले खेतों की ओर जाएगा और उस अनाज नाम की चीज़ का स्वाद चखकर देखेग।
दूसरे दिन चकोर उडकर एक खेत के पास उतरा। खेत में धान की फसल उगी थी। चकोर ने कोंपलें खाई। उसे वह अति स्वादिष्ट लगीं। उस दिन के भोजन में उसे इतना आनंद आया कि खाकर तृप्त होकर वहीं आँखें मूंदकर सो गया। इसके बाद भी वह वहीं पडा रहा। रोज खाता-पीता और सो जाता। छह - सात दिन बाद उसे सुध आई कि घर लौटना चाहिए।
इस बीच एक खरगोश घर की तलाश में घूम रहा था। उस इलाके में ज़मीन के नीचे पानी भरने के कारण उसका बिल नष्ट हो गया था। वह उसी चकोर वाले पेड के पास आया और उसे ख़ाली पाकर उसने उस पर अधिकार जमा लिया और वहां रहने लगा। जब चकोर वापस लौटा तो उसने पाया कि उसके घर पर तो किसी और का क़ब्ज़ा हो गया हैं। चकोर क्रोधित होकर बोला - 'ऐ भाई, तू कौन हैं और मेरे घर में क्या कर रहा हैं?'
खरगोश ने दांत दिखाकर कहा - 'मैं इस घर का मालिक हूं। मैं सात दिन से यहां रह रहा हूं, यह घर मेरा हैं।'
चकोर गुस्से से फट पडा - 'सात दिन! भाई, मैं इस खोह में कई वर्षो से रह रहा हूं। किसी भी आस-पास के पंछी या चौपाए से पूछ ले।'
खरगोश चकोर की बात काटता हुआ बोला- 'सीधी-सी बात हैं। मैं यहां आया। यह खोह ख़ाली पडी थी और मैं यहां बस गया मैं क्यों अब पडोसियों से पूछता फिरुं?'
चकोर गुस्से में बोला- 'वाह! कोई घर ख़ाली मिले तो इसका यह मतलब हुआ कि उसमें कोई नहीं रहता? मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि शराफत से मेरा घर ख़ाली कर दे वर्ना…।'
खरगोश ने भी उसे ललकारा- 'वर्ना तू क्या कर लेगा? यह घर मेरा है। तुझे जो करना है, कर ले।'
चकोर सहम गया। वह मदद और न्याय की फरीयाद लेकर पड़ोसी जानवरों के पास गया सबने दिखावे की हूं-हूं की, परन्तु ठोस रुप से कोई सहायता करने सामने नहीं आया।
एक बूढे पड़ोसी ने कहा - 'ज़्यादा झगडा बढाना ठीक नहीं होगा। तुम दोनों आपस में कोई समझौता कर लो।' पर समझौते की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, क्योंकि खरगोश किसी शर्त पर खोह छोडने को तैयार नहीं था। अंत में लोमडी ने उन्हें सलाह दी - 'तुम दोनों किसी ज्ञानी-ध्यानी को पंच बनाकर अपने झगडे का फैसला उससे करवाओ।'
दोनों को यह सुझाव पसंद आया। अब दोनों पंच की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे। इसी प्रकार घूमते-घूमते वे दोनों एक दिन गंगा किनारे आ निकले। वहां उन्हें जप तप में मग्न एक बिल्ली नजर आई। बिल्ली के माथे पर तिलक था। गले में जनेऊ और हाथ में माला लिए मृगछाल पर बैठी वह पूरी तपस्विनी लग रही थी। उसे देखकर चकोर व खरगोश खुशी से उछल पडे। उन्हें भला इससे अच्छा ज्ञानी-ध्यानी कहां मिलेगा। खरगोश ने कहा - 'चकोर जी, क्यों न हम इससे अपने झगडे का फैसला करवाएं?'
चकोर पर भी बिल्ली का अच्छा प्रभाव पडा था। पर वह जरा घबराया हुआ था। चकोर बोला - 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है पर हमें जरा सावधान रहना चाहिए।' खरगोश पर तो बिल्ली का जादू चल गया था। उसने कहा- 'अरे नहीं! देखते नहीं हो, यह बिल्ली सांसारिक मोह-माया त्यागकर तपस्विनी बन गई है।'
सच्चाई तो यह थी कि बिल्ली उन जैसे मूर्ख जीवों को फांसने के लिए ही भक्ति का नाटक कर रही थी। फिर चकोर और खरगोश पर और प्रभाव डालने के लिए वह जोर-जोर से मंत्र पडने लगी। खरगोश और चकोर ने उसके निकट आकर हाथ जोडकर जयकारा लगाया - 'जय माता दी। माता को प्रणाम।'
बिल्ली ने मुस्कुराते हुए धीरे से अपनी आँखें खोली और आर्शीवाद दिया - 'आयुष्मान भव, तुम दोनों के चहरों पर चिंता की लकीरें हैं। क्या कष्ट है तुम्हें, बच्चो?'
चकोर ने विनती की - 'माता हम दोनों के बीच एक झगडा हैं। हम चाहते हैं कि आप उसका फैसला करें।'
बिल्ली ने पलकें झपकाईं - 'हरे राम, हरे राम! तुम्हें झगडना नहीं चाहिए। प्रेम और शांति से रहो।' उसने उपदेश दिया और बोली - 'खैर, बताओ, तुम्हारा झगडा क्या है?'
चकोर ने मामला बताया। खरगोश ने अपनी बात कहने के लिए मुंह खोला ही था कि बिल्ली ने पंजा उठाकर रोका और बोली 'बच्चो, मैं काफ़ी बूढी हूं ठीक से सुनाई नहीं देता। आँखें भी कमज़ोर हैं इसलिए तुम दोनों मेरे निकट आकर मेरे कान में ज़ोर से अपनी-अपनी बात कहो ताकि मैं झगडे का कारण जान सकूं और तुम दोनों को न्याय दे सकूं। जय सियाराम।'
वे दोनों भगतिन बिल्ली के बिलकुल निकट आ गए ताकि उसके कानों में अपनी-अपनी बात कह सकें। बिल्ली को इसी अवसर की तलाश थी उसने ‘म्याऊं’ की आवाज़ लगाई और एक ही झपट्टे में खरगोश और चकोर का काम तमाम कर दिया। फिर वह आराम से उन्हें खाने लगी।


सीख- दो के झगड़े में तीसरे का ही फ़ायदा होता हैं, इसलिए झगडों से दूर रहो।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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