अपील  

अपील 'अपील' शब्द मूलत: अंग्रेजी का है जिसमें यद्यपि उसके कई अर्थ हैं तथापि हिंदी में उसका प्रयोग आवेदनपत्र के आशय में होता है जो किसी हेतु या वाद को नीचे के न्यायाधीश या न्यायाधिकरण से हटाकर उच्चतर न्यायाधीश या न्यायाधिकरण के समक्ष, नीचे के न्यायाधीश या न्यायाधिकरण निर्णय पर पुनर्विचार के लिए, प्रस्तुत किया जाता है। किसी हेतु या वाद के नीचे के न्यायाधीश या न्यायाधिकरण से हटाकर उच्चतर नयायाधीश या न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करना चार विभिझ प्रणलियों द्वारा होता है--
(1) अपील द्वारा,
(2) पुनरीक्षण द्वारा,
(3) लेख द्वारा, तथा
(4) निर्देश की कार्रवाई द्वारा। पुनरावलोकन की कार्रवाई द्वारा किसी न्यायाधीश या न्यायाधिकरण के निर्णय का पुनर्विचार उसी न्यायाधीश या न्यायाधीश द्वारा भी हो सकता है।

अपील और पुनरीक्षण में अंतर यह है कि पुनरीक्षण उच्चतर न्यायालय के स्वविवेक पर सदैव निर्भर रहता है और अधिकार या स्वत्व के रूप में उसकी माँग नहीं की जा सकती। उच्चतर न्यायालय पुनरीक्षण इसी आधार पर वियुक्त कर सकता है कि नीचे के न्यायालय द्वारा सार रूप में न्याय हो चुका है चाहे वह निर्णय विधि के प्रतिकूल ही हुआ हो। परंतु अपील ऐसे किसी आधार पर वियुक्त नहीं की जा सकती क्योंकि अपील का, एक बार स्वीकार हो जाने पर, निर्णय विधि के अनुसार किया जाना तब तक अनिवार्य है जब तक अपील करनेका अधिकार देनेवालीे समविधि में कोई विपरीत उपबंध न हो।

अपील भारत की लेखप्रणाली से अनेक रूपों में भिझ है। लेख की कार्रवाई केवल उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में हो सकती है जब कि अपील उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त अन्य न्यायालयों या न्यायाधिकरण में भी हो सकती है। लेख उच्च न्यायालय की अधीकरण शक्ति के अंतर्गत इस हेतु निकाला जाता है कि नीचे के न्यायालय, न्यायाधिकरण, शासन या उसके अधिकारीगण अपने क्षेत्राधिकार के बाहर काम न करें या सार्वजनिक प्रयोजन के लिए दिए हुए क्षेत्राधिकार का प्रयोग करना अस्वीकार न करें, अथवा उनके निर्णय प्रत्यक्ष रूप से देश की विधि के प्रतिकूल न होने पावें तथा वे अपना कर्तव्यपालन उचित रीति से करें। अपील इस प्रकार सीमाबद्ध नहीं है। अपील सभी प्रश्नों को लेकर हो सकती है---प्रश्न चाहे तथ्य का हो चाहे विधि का। द्वितीय अपील केवल विधि के प्रश्नों तक ही सीमित रहती है।

अपील और निर्देश में यह भेद है कि निर्देश की याचना नीचे के न्यायालय द्वारा उच्च्तर न्यायालय से की जाती है ताकि विधि या प्रथा के किसी ऐसे प्रश्न का, जिसके संबंध में नीचे के न्यायालय को युक्तियुक्त संदेह हो, उच्चतर न्यायालय द्वारा निर्णय करा लिया जाए।

इतिहास

अंग्रेजी सामान्य विधि में अपील के लिए कोई उपबंध नहीं था। परंतु सामान्य विधि न्यायालयों की गलतियाँ त्रुटिलेख के माध्यम से किंग्स बेंच न्यायालय द्वारा सुधारी जाए सकती थीं। त्रुटिलेख केवल विधि के प्रश्न पर होता था, तथ्य के प्रश्न पर नहीं।

परंतु रोमन विधि में अपील के लिए उपबंध था। इंग्लैड में अपील की कार्रवाई रोमन विधि से ली गई और अंग्रेजी विधि में उसका समावेश उन वादों में हुआ जिनका निर्णय सुनीति क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लार्ड चांसलर द्वारा अथवा धर्म या नौकाधिकरण न्यायालयों द्वारा होता था। बाद में, समविधि ने अपील के अधिकार को, सामान्य विधि तथा अन्य क्षेत्राधिकार के अंतर्गत होनेवाले दोनों प्रकार के वादों में, नियमित रूप दिया।

प्राचीन भारत में, जब विवाद कम होते थे, राजा स्वयं प्रजाए के विवादों का निपटारा करता था। उस समय अपील का प्रश्न नहीं था क्योंकि राजा न्याय का स्रोत था। परंतु राजा के न्यायालय के साथ साथ लोकप्रिय न्यायालय हुआ करते थे, बाद में राजा ने स्वयं नीचे के न्यायालयों की स्थापना की। लोकप्रिय न्यायालय या नीचे के निर्णय के विरुद्ध अपील राजा के समक्ष हो सकती थी (द्र. 'इवोल्यूशन ऑव इंग्लिश लॉ', एन.सी.सेन गुप्ता, पृष्ठ 45)।

मुगल काल में व्यवहारवादों की अपील सदर दीवानी अदालत में तथा दंडवादी की अपील निज़ाम--ए--अदालत में होती थी। परंतु सन्‌ १८५७ ई. के असफल स्वातंत्रय युद्ध के पश्चात्‌ जब ब्रिटिश राज्य ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में लिया, सदर दीवानी अदालत तथा निज़ाम-ए-अदालत का उन्मूलन हो गया और उनका क्षेत्राधिकार कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास स्थित महानगर-उच्च-न्यायालयों को दे दिया गया। बाद में भारत के विभिन्न प्रांतों में उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई।

अपील के प्रकार

अपील सामान्यत: दो प्रकार की होती है---
प्रथम अपील या द्वितीय। कतिपय वादों में तृतीय अपील भी हो सकती है। प्रथम अपील आरंभिक न्यायालय के निर्णाय के संबंध में उच्चतर न्यायालय में होती है।
द्वितीय अपील--अपील न्यायालय के निर्णय के संबंध में श्रेष्ठतम अधिकारी के समक्ष होती है।

व्यवहार अपील

व्यवहार वादों में न्यायालय के समस्त आदेश दो भागों में विभाजित होते हैं--'आज्ञप्ति' तथा आदेश'। आज्ञप्ति से तात्पर्य उस अभिनिर्णयन से है जिसके द्वारा, जहाँ तक अभिनिर्णयन देनेवाले न्यायालय का संबंध है, वाद या वादानुरूप अन्य आरंभिक कार्रवाई में निहित विवादग्रस्त सब या किसी एक विषय के संबंध में, विभिझ पक्षों के अधिकारों का अंतिम रूप से निवारण होता है (धारा 2 (2) व्यवहार-प्रक्रिया-संहिता)। आदेश से तात्पर्य व्यवहार न्यायालय के ऐसे प्रत्येक विनिश्चय से है जाए आज्ञप्ति की श्रेणी में नहीं आता (धारा 2 (14), व्यवहार-प्रक्रिया-संहिता)। आदेश के विरूद्ध केवल एक अपील हो सकती है।

प्रथम अपील व्यवहार

प्रक्रियासंहिता की धारा 96 के अंतर्गत किसी आज्ञप्ति के विरुद्ध बाद के मूल्यानुसार उच्च न्यायालय या जिला न्यायधीश के समक्ष होती है। प्रथम अपील में तथ्य तथा विधि के सभी प्रश्नों पर विचार हो सकता है। प्रथम अपील न्यायालय को परीक्षण न्यायालय की समस्त शक्तियाँ प्राप्त हैं। द्वितीय अपील, व्यवहार--प्रक्रिया--संहिता की जारा 100 के अंतर्गत व्यवहारवादों में आज्ञप्ति के विरुद्ध केवल विधि संबंधी प्रश्नों पर, न कि तथ्य के प्रश्न पर, उच्च न्यायालय में होती है। जब द्वितीय अपील की सुनवाई उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश द्वारा होती है तब यह न्यायाधीश 'लेटर्स पेटेंट' या उच्च न्यायालय विधानीय अधिनियम के अंतर्गत, उसी न्यायालय के दो न्यायधीशों के खंड के समक्ष एक और अपील की अनुमति दे सकता है। == दंड अपील == दंड अपील संबधी विधि दंड--प्रक्रिया--संहिता की धारा 404 से लेकर 431 तक में दी हुई है। दंड संबंधी वादों में केवल एक अपील हो सकती है। इसका एक ही अपवाद है। जब अपील न्यायालय अभियुक्त को निमुक्त कर देता है तब दंड-प्रक्रिया-संहिता की धारा 417 के अंतर्गत विमुक्ति आदेश के विरुद्ध द्वितीय अपील उच्च न्यायालय में हो सकती है।

जब जिलाधीश के अतिरिक्त कोई अन्य दंडनायक दंड--प्रक्रिया--संहिता की धरा 122 के अंतर्गत किसी वाद को स्वीकार या विमुक्त करना अस्वीकार कर दे तब उसके आदेश के विरुद्ध अपील जिलाधीश के समक्ष हो सकती है (धारा 406 (अ) दंड-प्रक्रिया-संहिता)। उत्तर प्रदेश राज्य ने जिलाधीश के समक्ष होनेवाली इस अपील का भी उन्मूलन कर दिया है और अपील जिलाधीश के समक्ष न होकर सत्रन्यायालय में होती है।

ऐसे मामलों को छोड़कर, जिनमें परीक्षण न्यायालय द्वारा होता है, दंड अपील तथ्य तथा विधि, दोनों प्रश्नों पर हो सकती है। मृत्यु-दंड-प्राप्त व्यक्ति के साथ परीक्षित व्यक्ति की ओर से की जानेवाली अपीलों को छोड़कर, न्यायसभ्य द्वारा परीक्षित समस्त वादों की अपील केवल विधि विषयक प्रश्नों कें संबंध में ही हो सकती है। अपील-न्यायालय परीक्षण-न्यायालय द्वारा दिए गए दंडादेश की पुष्टि कर सकता है अथवा उसको उलट सकता है, अभियुक्त को विमुक्त कर सकता है, सिद्धदोष ठहरा सकता है या उस अभियोग से मुक्त कर सकता है जिसके लिए उसका परीक्षण हुआ था अथवा दंडादेश यथास्थित रखते हुए संमति बदल सकता है, परंतु दंडादेश की वृद्धि नहीं कर सकता। वह पुन: परीक्षण अथवा परीक्षणार्थ समर्पण का आदेश भी दे सकता है। (धारा 423, दंड-प्रक्रिया-संहिता)।

संविधान के अनुच्छेद 132 से 136 तक के उपबंधों के अनुसार किसी उच्च न्यायालय या अंतिम क्षेत्राधिकारवाले किसी न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध, उच्चतम न्यायालय में अपील हो सकती है। अनुच्छेद 132 के अंतर्गत किसी भी निर्णय, आज्ञप्ति अथवा दंडादेश के विरुद्ध अपील उच्चतम न्यायालय में हो सकती है, यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित कर दे कि उस मामले में संविधान के निर्वचन का कोई सारवान विधिप्रश्न अंतर्ग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाणपत्र देना स्वीकार कर दे तो उच्चतम न्यायालय अपील के लिए विशेष इजाजत दे सकता है। जहाँ उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाणपत्र दे देता है अथवा उच्चतम न्यायालय विशेष इजाजत दे देता है वहाँ उच्चतम न्यायालय की अनुज्ञा से संविधान के निर्वचन संबंधी प्रश्न के अतिरिक्त अन्य प्रश्न भी उठाए जाए सकते हैं।

उच्च न्यायालय के किसी अंतिम निर्णय, आज्ञप्ति या आदेश अपील उच्चतम न्यायालय में हो सकती है, यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि (क) विवादविषय की राशि या मूल्य प्रथम बार के न्यायालय में बीस हजार रुपए या किसी ऐसी अन्य राशि से, जो इस बारे में उल्लिखित की जाए, कम नहीं है, अथवा (ख) उसमें उतनी राशि या मूल्य की संपत्ति से संबद्ध कोई वाद या प्रश्न प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अंतग्रस्त है, अथवा (ग) मामला उच्चतम न्यायालय में अपील के योग्य है। यदि उच्च न्यायालय का निर्णय पूर्ववत्‌ नीचे के न्यायालय के निश्चय की पुष्टि करता है तब उच्च न्यायालय को यह और प्रमणित करना होता है कि अपील में कोई सारवान्‌ विधिप्रश्न अंतर्ग्रस्त है (अनुच्छेद 133)।

उच्च न्यायालय की किसी दंड कार्रवाई में दिए हुए निर्णय या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होती है, यदि उच्च न्यायालय ने अपील में अभियुक्त व्यक्ति को मृत्युदंडादेश दिया है; अथवा उच्च न्यायालय प्रमाणित करता है कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील करने योग्य है।

अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की विशेष अनुमति से अपील हो सकती है।

प्रति--आपत्ति

जब व्यवहारवाद में किसी पक्ष की ओर से अपील होती है तब उत्तरवादी को आज्ञप्ति के उस भाग के विरुद्ध, जो उसके विपरीत है, प्रति-आपति प्रस्तुत करने का अधिकार होता है। वह अपनी निजी अपील भी कर सकता है परंतु प्रति-अपील तथा प्रति-आपत्ति में यह अंतर होता है कि प्रति-अपील तो अपील के लिए निर्धारत अवधि के भीतर होनी चाहिए तथा संबंधी समसत नियमों का पालन आवश्यक हैं, किंतु प्रति-आपत्ति, व्यवहार-प्रक्रिया-संहिता की क्रमसंखा 41, नियम 23 के अंतर्गत, अपील की सुनवाई की सूचना उत्तरवादी द्वारा प्राप्त की जाने की तिथि से 30 दिन के अंदर प्रस्तुत की जा सकती है। उच्चतम न्यायालय में होनेवाली अथवा दंडविषयक अपीलों में कोई प्रति-आपत्ति नहीं होती।

अवधि कलकत्ता, मद्रास तथा बंबई के उच्च नयायालयों द्वारा, आरंभिक क्षेत्राधिकार के प्रयोग के अंतर्गत दी गई आज्ञप्ति या आदेश में अपील करने की अवधि 20 दिन है।

व्यवहारवादों में अपील जिला न्यायाधीश के समक्ष आज्ञप्ति या आदेश में तिथि से 30 दिन के अंदर की जा सकती है। उच्च न्यायालय में अपील करने की अवधि 30 दिन है और एक न्यायाधीश की आज्ञाप्ति या आदेश से दो न्यायाधीशों के समक्ष अपील करने की अवधि 90 दिन है।

मृत्युदंडादेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील करने की अवधि मृत्युदंडादेश की तिथि से सात दिन है।

उच्च न्यायालय के अतिरिक्त अन्य किसी न्यायालय में अपील करने की अवधि 30 दिन है। विमुक्ति के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील करने की अवधि तीन मास है। शेष मामलों में अपील करने की अवधि 60 दिन है।

उच्चतम न्यायालय में अपील करने की अनुमति के लिए आवेदनपत्र उच्च न्यायालय में प्रस्तुत करने की अवधि 90 दिन है। यदि उच्च न्यायालय वह प्रमाणपत्र देना अस्वीकार कर दे जिसके लिए प्रार्थना की गई है, तो अस्वीकार किए जाने की तिथि से 60 दिन के अंदर, उच्च न्यायालय में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132 या 136 के अंतर्गत प्रमाणपत्र के लिए आवेदन दिया जा सकता है।

ऐसे मामलों में जिनमें उच्च न्यायालय को उच्चतम न्यायालय में अपील करने की अनुमति या प्रमाणपत्र देने की शक्ति है, उच्चतम न्यायालय में अपील करने की इजाजत के लिए किसी ऐसे आवेदनपत्र को अंगीकार नहीं करता जो उच्च न्यायालय में न दिया जाकर सीधे उसको दिया जाता है। अपवाद रूप कुछ मामलों को छोड़ एतदर्थ केवल कुछ ऐसे मामले ही अपवाद समझे जाते हैं जिनमें इस आधार पर आवेदनपत्र को अस्वीकार करने से घोर अन्याय होने की आशंका रहती है। जहाँ उच्च न्यायालय में आवेदनपत्र देने का कोई उपबंध विधि में हनीं है वहाँ संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत आवेदनपत्र देने की अवधि संबद्ध आदेश (जिसके विरुद्ध अपील होनी है) की तिथि से 80 दिन है।

साधारण सिद्धांत---अपील में प्रयुक्त होनेवाले साधारण सिद्धांत इस प्रकार हैं:
(1) अपील की कार्रवाई समविधि से उत्पन्न हुई है अत: जब तक विधि में कोई उपबंध न हो, अपील नहीं हो सकती।
(2) अपील वाद या अन्य कार्रवाई की श्रृंखला है और अपील न्यायालय का निर्णय प्राथमिक रूप से उन्हीं परिस्थितिओं पर आधारित होता है जो नीचे के न्यायालय के विनिश्चय की तिथि पर वर्तमान थीं। किंतु अपील-न्यायालय बाद की घटनाओं पर भी ध्यान दे सकता है और नीचे के न्यायालय की आज्ञप्ति या आदेश में वादविषय के अनुसार न्यायोचित संशोधन कर सकता या उसे हटा सकता है।
(3) अपील प्रक्रिया का विषय न होकर मौलिक अधिकार का विषय समझी जाती है और यह मान लिया जाता है कि अपील के अधिकार का अपहरण करनेवाली किसी विधि का प्रयोग चालू अपील या वाद में तब तक नहीं होगा जब तक आवश्यक रूप से उसको अनुदर्शी प्रभाव न दिया गया हो। यदि ऐसा कोई अनुदर्शी प्रभाव नहीं दिया गया है तो चाहे नीचे के न्यायालय के निर्णय के पूर्व ही वह विधि लागू हो चुकी हो, अपील का निर्णय उस विधि के अनुसार होगा जो वाद या अन्य कार्रवाई के आरंभ की तिथि पर लागू था।
(4) साधारणतया अपील का निर्णय नीचे के न्यायालय में प्रस्तुत किए गए साक्ष्य के आधार पर किया जाता है। केवल वही नया साक्ष्य अपील न्यायलय द्वारा स्वीकार किया जाए सकता है जाए किसी पक्ष को समुचित खोज तथा प्रयत्न करने पर भी उस समय प्राप्त नहीं हो सका था जिस समय आरंभ के न्यायालय में वाद का परीक्षण चल रहा था।
(5) नीचे के न्यायालय की आज्ञप्ति का अपील-न्यायालय की आज्ञप्ति या आदेश में समावेश तभी होता है जब वह आज्ञप्ति या आदेश अपील के सभी मामलों की पूरी सुनवाई के बाद दिया जाता है, परंतु जब अपील किसी दोष के कारण अथवा किसी प्रारंभिक आपत्ति के आधार पर, जैसे न्यायालय शुल्क न देने पर या अवधि समाप्ति के कारण, विमुक्त कर दी जाती है तब ऐसा नहीं किया जा सकता। किंतु अपील-न्यायालय की आज्ञप्ति में परीक्षण न्यायालय की आज्ञप्ति का समावेश हो जाने से वाद या अन्य कार्रवाई उपस्थित करने के अवधिकाल की गति नहीं रुकती जब तक कि वादहेतु नीचे के न्यायालय के विनिश्चय से उत्पन्न हुआ है।
(6) दंड संबंधी उन मामलों को छोड़कर जिनमें अपील न्यायालय दंडादेश में वृद्धि नहीं कर सकता, अपील न्यायालय को ऐसा कोई भी आदेश देने की शक्ति रहती है जो आरंभ के न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है।[१]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.---कारपस जूरिस सेकंडम का 'अपील' शीर्षक लेख; व्यवहार-प्रक्रिया-संहिता; दंड-प्रक्रिया-संहिता।
  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 141,142,143 |

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ख़ाना ख़ानाबदोश कोष्ण उपभोग उपभोक्ता उत्पादन उत्पादक आखेटक नौगम्य अवस्थित और उपस्थित अभिज्ञ और अनभिज्ञ अफ़वाह और किंवदंती अधिकांश और अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अनुवाद अध्यास सहोदरा सहोदर दशलक्षण धर्म संयम जनश्रुति परास राजमहल सुदर्शन अनुष्ठान कठौती कठौता बारगीर बारगी बीजना जुगाड़ खरल नाल कश्कोल सदक़ा छिन्नक अरणी आप: वलय तरंग अवशेष साखी अभंग अबीर श्रृंग राका लोककथा अखाड़ा अंगहीन बावली खंडहर सफ़र सारिका अंतर्धान दैत्य विधि यम (संयम) निवेश नाम पुछत्तर बखार तत्थो-थंभो बेला गोरु आसरैत मुदा अलग्योझा द्विज अम्बु प्रव्रज्या ईहित ईहामृग ईहा ईहग ईसरी ईसर ईसन ईस ईष्म ईषु ईषिका ईषा ईषना ईषद ईषत्‌स्पृष्ट ईषत ईश्वरोपासना ईश्वरीय ईश्वरी ईश्वराधीन ईश्वरवादी ईश्वर-वाद ईश्वर-प्रणिधान ईशित्व ईशिता ईशा ईशता ईली ईलि ईल ईर्ष्यालु ईर्ष्या ईर्ष्यक ईर्ष्य ईर्षु ईर्षित ईर्षालु ईर्षा ईर्षणा ईरित ईरण ईरमद ईरखा ईर ईमानदारी ईमानदार ईमन-कल्यान ईमन ईप्सु ईप्सित ईप्सा ईडा त्रिगंभीर त्रिगंधक त्रिगंग त्रिखी त्रिखा त्रिख त्रिक्षुर त्रिक्षार त्रिकोण-मिति त्रिकोण-भवन त्रिकोण-फल त्रि-कूर्चक त्रिकूटा त्रिकूट गढ़ 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प्रकृत एकार्थ उन्नम्र उज्जृम्भण ईशान उन्नत उज्जृम्भ जय्य जय नैरुज्य जल्प मन्द तेज नमस्कार नम्रता नम्र प्रभाव आर्जव प्रताप अक्रोपोलिस अंतश्चेतना अंत:करण अगोरा अतिनूतन युग अनागामी अनल अनग्रदंत अतिवृद्धि अधिहृषता (ऐलर्जी) अनुबंध अनुभव अनुभववाद अन्यथानुपपत्ति अन्यथासिद्धि अपील अभिप्रेरक अल्बम अराजकता आमीन आयाम इंजील इंटर लिंगुआ कोषाध्यक्ष दैनिक मासिक


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