"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट" के अवतरणों में अंतर  

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उपस्थिति में अनुपस्थिति को जी लेना ही रिश्ते की गर्माहट बनाए रहता है... जीवन भर
 
ज़रा सोचिए जो साथ है वह न रहे तो ??? बस झगड़ा ख़त्म हो जाता है यह सोचते ही...
 
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| [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-1.jpg|250px|center]]
 
| 25 जनवरी 2015
 
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उपस्थिति में अनुपस्थिति को जी लेना ही रिश्ते की गर्माहट बनाए रहता है... जीवन भर
 
ज़रा सोचिए जो साथ है वह न रहे तो ??? बस झगड़ा ख़त्म हो जाता है यह सोचते ही...
 
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| 25 जनवरी 2015
 
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विवाह को; संस्कार कहिए, संस्था कहिए या रिश्ता, एक बात निश्चित और अद्भुत है कि विवाह ही ऐसा है जो कि समाज के बनाए नियमों और व्यवस्थाओं को मानने में सबसे आगे है और साथ ही साथ उन नियमों को तोड़ने और अस्वीकार करने में भी सबसे आगे है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, भारत का और कुछ अद्वितीय हो न हो लेकिन भारतीय पत्नी और भारतीय पति विश्व भर में सबसे आदर्श माने जाते हैं। यूरोप से लेकर अमरीका तक भारतीय पति या पत्नी की मांग सबसे ज़्यादा है। आख़िर ऐसी क्या ख़ास बात है इनमें ?
 
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| 24 जनवरी 2015
 
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मेरे एक परिचित ने कहा कि कुछ आतंकवाद के विषय पर भी लिख दीजिए। मैंने कहा ठीक है, लिख देता हूँ...फिर कुछ सोचकर वो बोले "लिख कर रख लीजिए, जब कोई बम फटे तब लेख को भारतकोश पर लगा देना क्योंकि करंट टॉपिक्स पर लिखना ज़्यादा अच्छा रहता है।"
 
मैं उनकी बात सुनकर स्तब्ध रह गया, मन में सोचा कि इसका सीधा मतलब तो यह है कि मैं अपने संपादकीय को भारतकोश पर प्रकाशित करने के लिए बम फटने की उम्मीद करूँ कि कब बम फटे और मैं अपना सम्पादकीय भारतकोश पर प्रकाशित करूँ?
 
ऐसा लगने लगा है कि जिस तरह भ्रष्टाचार की ख़बरें अब चौंकाने वाली नहीं रही, उसी तरह आतंक फैलाने वाली घटनाओं के लिए भी लोग सहज होते जा रहे हैं। चीन के महान दार्शनिक और 'ताओ-ते-चिंग' के रचियता 'लाओत्से' के अनुसार- लगातार भाले की नोंक की चुभन भी चुभन नहीं रहती यदि उसे बार-बार धीरे-धीरे चुभाते रहें। इसी तरह संगीतकारों के बहरा हो जाने, चित्रकारों के अंधा हो जाने और हर समय तीव्र गंध युक्त वातावरण में रहने वालों की गंध पहचानने की क्षमता ख़त्म हो जाने के उदाहरण भी हैं। निरन्तर लम्बे समय तक दोहराने से उस प्रक्रिया की ओर ध्यान स्वत: ही कम हो जाता है।
 
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| 24 जनवरी 2015
 
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यह मैंने विशेष रूप से नई पीढ़ी के लिए लिखा है… मैं अपनी कमज़ोरियों से कैसे लड़ा, जीता-हारा...
 
जब मैं केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ता था तो बेहद शर्मीला था। मुझे किसी से नमस्ते करने में भी बहुत शर्म आती थी। गाली क्या होती है मैं जानता ही नहीं था। ‘तू’ कहने को ही गाली समझता था। जो लड़के गाली देते थे उनसे बात भी नहीं करता था। बोलने में बुरी तरह हकलाता था। हकलाने के सबसे बड़ी समस्या मेरा नाम था। मैं ‘अ’ अक्षर नहीं बोल पाता था। मेरा नाम जब पूछा जाता तो जैसे मेरे पूरा अस्तित्व हिल जाता था। मैं मन ही मन अपना नाम दोहराने लगता था। दोहराते-दोहराते अचानक ज़ोर से मैं अपना नाम बता देता था या फिर ‘मऽऽऽदित्य’ ही कह देता था। सामने वाला अपने आप कह देता था "अच्छा-अच्छा आदित्य है आपका नाम”
 
स्कूल में बड़ी क्लास के लड़के मुझे घेर कर मुझसे मेरा नाम पूछते थे और न बताने पर हँसते थे। मेरे माता-पिता ने मुझे राजकुमारों से भी ज़्यादा सुविधाओं में पाला था। तीन-चार कर्मचारी मुझे खिलाने पर ही रहते थे। दिल्ली, मथुरा, आगरा की दुक़ानों पर मेरे समय का कोई खिलौना ऐसा नहीं था जो मेरे पास न हो। दूसरी क्लास में पढ़ने जाता था तो जो विदेशी घड़ी मैं पहनता था उसकी क़ीमत 140 रुपए थी। उस समय hmt घड़ी की क़ीमत 50-60 रुपये थी।
 
कुछ दिन बाद मैं मां के साथ कृष्णानगर (मथुरा) गया वहाँ वही लड़के मिल गए। छ:-सात लड़कों ने मुझे घेर लिया और लगे नाम पूछने, मैं नाम नहीं बता पा रहा था, तो उन्होंने मेरा नामकरण कर दिया ‘चिकना लौंडा घड़ी बाज़’। मैं कई दिनों तक उदास रहा। अपने हकलाने को लेकर मेरे भीतर हीनभावना भरने लगी। मैंने सोचा कि मुझे नाम बदल लेना चाहिए लेकिन ऐसा करने में भी मुझे शर्म महसूस होती थी। धीरे-धीर मैंने इस हकलाने वाली समस्या से लड़ना शुरु किया। एकान्त में अ अक्षर से शुरु होने वाले सभी शब्दों का बार-बार उच्चारण करता था, कुछ महीनों में अचानक मेरा हकलाना बंद हो गया।
 
कुछ बड़ा हुआ तो एक दूसरी समस्या से जूझना पड़ा। लम्बाई हो गई छ: फ़ीट और शरीर का वज़न था मात्र 54 किलो। इसी सींकिया पहलवान से आशा जी की शादी हुई। उस वक़्त फुर्ती तो बहुत थी लेकिन शरीर में मांस का नामोनिशान नहीं था। दिल्ली रहता था तो लॉन टेनिस का शौक़ हुआ। दो महीने में ही पार्लियामेन्ट क्लब में सबसे बढ़िया खेलने लगा। पिताजी सांसद थे किन्तु उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मेरा पंद्रह सौ रुपये महीने का ख़र्चा उठा सकते। मैंने लॉन टेनिस खेलना छोड़ दिया।
 
… हाँ तो मेरा वज़न बहुत कम था। हमारे पुराने ड्राइवर ने, जो कि कसरत किया करता था और काफ़ी तगड़ा भी था, मुझे ज़मीन से उठाकर खाट पर डाल दिया। मैंने कहा कि छ: महीने बाद मैं भी तुमको ऐसे ही उठा कर फेंक दूँगा। उसने कहा कि छ: महीने क्या छ: साल में भी कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे। बात मुझे चुभ गई।
 
मैंने कसरत करना शुरू कर दिया। 2 घंटे सुबह और ढाई घंटा शाम को कसरत करता था। रात के खाने में रोज़ाना एक कटोरी घी डालकर एक बड़ा डोंगा भर के उड़द की दाल, जो लगभग आधा किलो से अधिक वज़न की ही हो जाती थी, खाता था। साथ में एक या दो रोटी, एक किलो आम और एक किलो दूध लेता था। ढाई किलो वज़न खाने के बाद लेटा नहीं जाता था, टहलता रहता था। पाँच महीने में 16 किलो वज़न बढ़ा लिया और चार घंटे बिना रुके कसरत करने की ताक़त पैदा कर ली। तीन आदमियों को लाद कर बाहरी आंगन के दो चक्कर लगाने की शक्ति आ गई। 90 किलो की बैंच प्रेस करने लगा। उस ड्राइवर को तो अखाड़े में ऐसा फेंका कि उसने मुझसे ज़ोर आज़माने से तौबा करली। छ: की बजाय पाँच महीने में ही कर दिखाया।
 
इसके बाद थोड़ी बहुत कसरत की कोई ख़ास नहीं की… पिछले छ: सात साल से भारतकोश और ब्रजडिस्कवरी की वजह से सब छूट गया। हां एक और मज़ेदार बात कि जो लड़के मुझे बचपन में चिढ़ाया करते थे, मेरे बड़े होने पर चौधरी साब कहकर नमस्ते करने लगे, क्योंकि मैं शरीर से और सत्ता से बहुत ताक़तवर हो चुका था… बाक़ी की, दास्तान-ए-ज़िन्दगी फिर कभी सही
 
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| 23 जनवरी 2015
 
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पता नहीं हिन्दी भाषी लोग, हिन्दी को भी अंग्रज़ी अक्षरों में टाइप क्यों करते हैं ? हर एक डिवाइस में हिन्दी की सुविधा है फिर भी... अपनी मातृ भाषा का अपमान करने में क्या आनंद है पता नहीं ? फिर ज़रूरत क्या है इस बात पर बिगड़ने की, कि जब विदेशी हमारा अपमान करते हैं। यदि अंग्रेज़ी की लिपि इस्तेमाल करनी है तो फिर भाषा भी अंग्रेज़ी ही लिखिये ना ? अभी भी देर नहीं हुई है, कम से कम हिन्दी भाषी, भारतीय होने का प्रमाण तो दीजिए।
 
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| 22 जनवरी 2015
 
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ये जो मिरी आंखों में तैरता हुआ पानी है,
 
कुछ और नहीं
 
तुझसे मेरे रिश्ते की कहानी है
 
पैंतीस साल होने को आ रहे हैं
 
कुछ दिन बाद
 
अपनी शादी को
 
मगर लगता है कि
 
तेरे मेरे बीच
 
आज भी वही गर्माहट
 
और रवानी है
 
कौन कहता है कि
 
ख़ूब निबाहा है हमने ?
 
निबाहा तो बिल्कुल नहीं...
 
हमें तो ज़िन्दगी साथ-साथ
 
यूँ ही जीते जानी है...
 
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| [[चित्र:Asha-chaudhary.jpg|250px|center]]
 
| 22 जनवरी 2015
 
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उससे कह दो कि आ जाए पास मिरे
 
उसे बताओ कि क्या हैं अहसास मिरे
 
किस मर्ज़ की दवा हो तुम दोस्तो मेरे
 
जो मेरा महबूब ही नहीं है पास मिरे
 
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| 18 जनवरी 2015
 
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आदमी अच्छा हो या बुरा हो                           
 
नायक हो या खलनायक हो
 
सात्विकी या तामसी आदि
 
सब चल जाता है
 
बस एक बात है जो नहीं चलती
 
वो है घटिया पन
 
अादमी को घटिया नहीं होना चाहिए
 
राम को अच्छा और रावण को बुरा माना जाता है
 
रावण बुरा हो सकता है पर घटिया नहीं
 
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| 15 जनवरी 2015
 
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[[रश्मि प्रभा]] जी की एक पुस्तक आने वाली है। इस पुस्तक के संबंध में मुझे भी उनकी ओर से यह सम्मान मिला कि मैं अपने विचार व्यक्त करूँ। रश्मि जी, कविवर श्री सुमित्रानंदन जी की मानसपुत्री कवियित्री सरस्वती जी की पुत्री हैं। पूरा परिवार ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न है। मुझे इंतज़ार है इस पुस्तक के छपने का, बड़ी बेसब्री से…
 
 
 
इस पुस्तक का शीर्षक जानकर मुझे लगा कि इसमें कवियित्री के अपने जीवन से संबंधित कुछ अहसास होंगे लेकिन मैं ग़लत था। दर्शन और मनोविज्ञान जैसे बोझिल विषय को सरल-सहज गीत की तरह कहना कितना कठिन है यह कोई कृष्ण से पूछे। राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि “सारी दुनिया में एक कृष्ण ही ऐसा हुआ जिसने दर्शन को गीत बना दिया”। अर्जुन को समझाने के लिए गीता में कृष्ण को 109 बार ‘मैं’ कहना पड़ा लेकिन माना यह जाता है कि गीता ‘मैं’ के परे है। ‘मैं से परे मैं के साथ’ कविता संग्रह में कवियित्री, अपने कॅनवस ही से निकल कर; जब ख़ुद को देखती, बातें करती, रूठती और मनती-मनाती, जैसे बहुत से उपक्रम करती है तो कविता को आगे पढ़ने का मन होने लगता है।
 
 
 
जब हम ‘बिटवीन द लाइंस’ पढ़ने का या समझने का प्रयास करते हैं तो हमारा मन होता है कि इसे कभी कहा भी जाय, कभी लिखा भी जाए। इस ‘अकथ’ को लिखने का सफल प्रयास अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने उपन्यास ‘द ओल्डमॅन एंड द सी’ में बख़ूबी किया। इस प्रयास में हेमिंग्वे ने इस उपन्यास का सौ से अधिक बार पुनर्लेखन किया। यही काम उनसे पहले जापानी कथाकार अकूतगावा अपनी कहानियों में कर चुके थे। अकूतगावा की कहानियों पर अकीरा कुरोसावा ने अपनी कालजयी फ़िल्म राशोमॉन बनाई, जिसमें इस ‘अकथ कहानी’ की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति है । नाट्य विधा में सॅमुअल बॅकेट ने ‘वेटिंग फ़ोर गोडो’ में यही किया। कविता में यह, महाप्राण निराला ने किया उन्होंने इसके लिए छंद को भी तोड़ा और छायावाद के सम्राट बन गए। ग.मा. मुक्तिबोध इसे आगे बढ़ाकर ले गए और ‘अंधेरे में’ कविता एक बेमिसाल रचना की तरह सामने आई। इस ‘अकथ’ को लिखना बड़ा कठिन काम है। कविता में पिरोना तो बस पूछिए ही मत। बस यही करने की कोशिश की है कवियित्री ने अपनी इस पुस्तक में।
 
 
 
आत्मकथ्य के साथ न्याय करना, निष्पक्ष होना, काफ़ी मुश्किल है। कोई व्यक्ति जब अपनी कथा या मनोदशा का वर्णन करता है तो वह अपने जीवन के अव्यक्त विचारों को लेकर, अति मुखर भाव अपना लेता है और व्यावहारिक संतुलन खो बैठता है। जैसे कि केवल मैं ही मैं को कहना मानो अहम् ब्रह्मास्मि। दूसरों के प्रति व्यावहारिक होना आसान है लेकिन अपने प्रति व्यावहारिक होना अति दुष्कर प्रयास है। इंगार बर्गमॅन की फ़िल्म ऑटम सोनाटा में एक संवाद है:
 
‘A sense of reality is a matter of talent. Most people lack that talent and maybe it’s just as well.’
 
अजीब है लेकिन यह सच है कि वास्तविकता का अहसास होना एक प्रतिभा है। यह प्रतिभा उस समय अधिक प्रभावी होनी चाहिए जब आप आत्म कथ्य में, आत्म विवेचन का प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी कविता इसमें सहायक होती है और कभी बाधक भी।
 
कवियित्री ने भरसक ईमानदारी और काव्य सौन्दर्य से उन उलझे हुए पलों को सुलझाने का प्रयास किया है जिन्हें अनछुआ मानकर हम व्यक्त नहीं करते।
 
 
 
कवियित्री ने लिखा-
 
“साथ कोई 'हम' नहीं होता, मैं के साथ आना है, मैं के साथ जाना है और यही सत्य है …”
 
दर्द को बिना दर्द दिए कहना और उसके दर्शन की शुष्कता को गीत के रस से भिगो कर प्रस्तुत करके रुचिकर बना देने की कला कवियित्री को बख़ूबी आती है।
 
 
 
जीवन में सहजता, योग्यता नहीं अपितु गुण है। योग्यता अर्जित की जा सकती लेकिन गुण तो प्रतिभा की तरह ही जन्मजात होता है। लेखन के क्षेत्र में, सरलता-सहजता से लिखना एक बात है और सहज-सरल लेखन करना दूसरी बात। जो बात गहरी होती है वह धीरे-धीरे दिल-ओ-दिमाग़ में उतरती है। मैंने जब रश्मि प्रभा जी की एक ही कविता पढ़ी तो मुझे लगा कि अच्छा लिखती हैं लेकिन जब कई कविताएँ पढ़ीं तब लगा कि ये मामला कुछ अधिक बारीक़ और गहरा है। दो-चार कविताएँ पढ़कर मैंने दोबारा पहली वाली कविता पढ़ी तो वह पहले से ज़्यादा अच्छी लगी। मैंने अनुभव किया है कि मन:स्थिति का बयान करने वाली कविताएँ पढ़ने वाले के मन में भी बेचैनी पैदा कर देती हैं लेकिन यहाँ कुछ और ही अनुभव होता है। यह अनुभव है तसल्ली और तृप्ति का। मन शांत हो जाता है कवियित्री की कविताओं पढ़ने से… हो सकता है मैं अपनी जगह ग़लत हूँ लेकिन मेरा मानना यही है कि कविता को एक बार बेचैनी देने के बाद मन को शांत भी करने का दायित्व भी निभाना चाहिए।
 
 
 
सुर साम्राज्ञी लता जी जब गातीं हैं तो पता नहीं चलता कि उनके गायन के पीछे कितनी अनोखी प्रतिभा और नियमित अभ्यास छुपा है। इसका पता तो तब चलता है जब हम साथ गाने-गुनगुनाने का प्रयास करते हैं या फिर दूसरी गायिकाओं को उनक़ी नक़ल करते सुनते हैं। किसी लेखक या कवि की रचनाओं की आलोचना-समालोचना करना एक प्रचलित परंपरा है लेकिन आलोचना के संसार में विभिन्न आलोचकों मतैक्य हो पाना असंभव ही होता है। कोई भी रचनाकार, एक भिन्न दुनिया में विचरण करते हुए ही अपनी कृति को रचता है। उसकी दुनिया में उसी के द्वारा रचे गए मूल्य और सरोकार होते हैं जिनको वह समाज के साथ समरस करने का प्रयत्न करता है। इस प्रयास में रचनाकार स्वयं अपने अस्तित्व को भी नकारने की प्रक्रिया से गुज़र जाता है। स्वयं से ही असहमत हो जाता है। कवियित्री के इस पुस्तक में पाठक इन अनुभवों से निश्चित ही रूबरू होंगे।
 
 
 
 
 
जहाँ तक इन पंक्तियों को लिखने की बात है वह ये है कि रश्मि प्रभा जी से मेरा कोई व्यक्ति परिचय नहीं है। फ़ेसबुक पर उनकी कविताएँ पढ़ीं और बहुत अच्छी लगीं। इन कविताओं की गहराई ही कारण बना इन पंक्तियों को लिखने का...     
 
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| 15 जनवरी 2015
 
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प्रेम पर कुछ पोस्ट आईं कुछ कमेंट आए, तो मैंने भी कुछ लिख दिया...
 
 
 
प्रेम, सत्य और ईश्वर को समझना इतना मुश्किल कर दिया गया कि लोग इनको अपनी सोच से बाहर का समझने लगे और यह सोचने लगे कि 'अजी हमारे बस की कहाँ है ये तो बहुत मुश्किल कार्य है'। यह सब किया व्याख्याकारों ने क्योंकि इसी से तो उनकी दुकान चलती है। इन लोगों ने योजना बनाई कि इन तीनों को इतना कठिन कर दो कि कोई समझ न पाए, तभी तो लोग हमारे पास आएंगे और हमारी दुकान चलेगी। जबकि प्रेम सभी करते हैं, सत्य सभी बोलते हैं, ईश्वर से सभी परिचित हैं, हां इतना अवश्य है कि कभी कम तो कभी ज़्यादा, कभी जानकर तो कभी अनजाने… । ईश्वर, सत्य और प्रेम तीनों एक ही हैं और सभी में, सभी के लिए और सभी के साथ हैं
 
 
 
यहाँ पर मैं, मात्र स्त्री पुरुष के प्रेम की बात कर रहा हूँ…
 
 
 
श्री कृष्ण भगवान ने प्रेम को इतने सरल ढंग से समझाया है कि छोटे बच्चे की भी समझ में आ जाए। कृष्ण से जब पूछा गया कि आपका और राधा का प्रेम कैसा है ? कृष्ण ने कहा कि मेरा और राधा का प्रेम, मेरे और राधा के प्रेम जैसा ही है, इसकी तुलना किसी से की नहीं जा सकती। इसका सीधा अर्थ है कि प्रत्येक का प्रेम उसका अपने आप में अनूठा है।
 
प्रत्येक का प्रेम अलग है, इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रत्येक के प्रेम का तरीक़ा अलग है भिन्न है। हम सब प्रेम करते हैं और उसे अपनी तरह से करते हैं। सबका प्रेम भिन्न होते हुए भी प्रेम तो एक ही है। राधा, मीरा, सोहणी, हीर, जूलियट आदि का प्रेम का तरीक़ा भिन्न था।
 
 
 
लोग कहते हैं कि कृष्ण के लिए राधा का प्रेम सर्वश्रेष्ठ था लेकिन कभी सोचा है कृष्ण की आठ पत्नियों के बारे में... जो यह जानते हुए भी कि कृष्ण राधा से प्रेम करते हैं, कृष्ण के साथ रहती थीं और कृष्ण से प्रेम करती थीं। राधा यदि कृष्ण की पटरानी होती तो कोई और ऐसी निकलती जिसके साथ कृष्ण के प्रेम की चर्चा होती। समस्या यह है कि पत्नी के प्रेम को प्रेम माना ही नहीं जाता। इसी तरह पति के प्रेम को भी प्रेम कहां माना जाता है।
 
 
 
प्रसिद्ध प्रेम ‘कहानी' के लिए जुदाई बहुत ज़रूरी है। इसी के साथ प्रेम की ‘वास्तविकता' के लिए मिलन ही होना चाहिए। प्रेम की धार, प्रेम की गहराई और सच्चाई का पता तो तभी लगता है जब प्रेमी, एक साथ रहते हैं। यही फ़र्क़ है प्रेम कहानी और हक़ीक़त के प्रेम में। दूर रहकर, विरह के प्रेम-गीत गाना और प्रेमी या प्रेमिका से साथ रहकर जीवन भर सहजता से साथ जीना, दोनों अलग बात हैं लेकिन श्रेष्ठ है साथ जीवन जीना।
 
 
 
प्रेमी/प्रेमिका एक दूसरे के लिए जान दे सकते हैं लेकिन पति/पत्नी तो एक दूसरे के लिए जान भी दे सकते हैं और जीवन भी।
 
 
 
यदि प्रेमी साथ न रहते हों तो उनके भीतर से एक दूसरे के लिए विपरीत लिंग का प्रकृति जन्य शारीरिक आकर्षण के प्रति सहज भाव होना असंभव है। यह तभी सहज स्थिति में आता है जब वे पर्याप्त समय साथ बिताते हैं। इसके बाद उत्पन्न होता है, प्रेम।
 
 
 
हीर-रांझा, सोहणी-महिवाल, लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट आदि सारी प्रेम कहानी इसलिए मशहूर हैं क्यों कि प्रेमी मिल नहीं पाए। असल मे प्रेम का कहानी बनने का अर्थ ही न मिल पाना है। मिल गए तो हैप्पी एन्डिंग, अब ज़रा सोचिए प्रेम में कहीं हैप्पी एन्डिंग होती है ?
 
 
 
कभी प्रेमिका के चांटे में प्रेम होता तो कभी प्रेमी की डांट में… । कभी उल्टे जवाब में प्रेम होता है। प्रेमिका ने पूछा “मैं तुमसे शादी करूँगी पर तुम्हारी मां का कोई काम नहीं करूँगी बोलो क्या कहते हो?” प्रेमी ने कहा “तो फिर मुझे नहीं करनी तुमसे शादी” इस पर प्रेमिका बोली “तुम सचमुच मेरे योग्य हो, अब तो मैं तुमसे ही शादी करूँगी”
 
 
 
अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी देखें…
 
वैज्ञानिक कहते हैं जब कोई पुरुष-स्री एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं याने प्रेम में होते हैं तो मस्तिष्क का कुछ हिस्सा निष्क्रिय हो जाता है। यह वह हिस्सा है जहाँ से तार्किक बुद्धि पैदा होती है याने सोचने समझने की क्षमता पैदा होती है। दुनिया प्रेमियों से कहती है कि अरे ज़रा बुद्धि से सोच कि तूने उसमें क्या देखा ? अब बुद्दि तो प्रेम ने निष्क्रिय कर दी होती है वह प्रेमी/प्रेमिका बेचारा सोचे कैसे?
 
 
 
एक प्रेमिका ने कहा “मैं तुम्हें बहुत सोच समझ कर प्यार कर रही हूँ” प्रेमी को हंसी आ गई। कुछ दिन और बीत गए, प्रेमिका ने फिर कहा “मेरे दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया है, मैं कुछ सोच नहीं पा रही, मैं जानती हूँ कि मैं ग़लत कर रही हूँ, पर फिर भी तुमसे दूर नहीं रह सकती” इस बार प्रेमी ने उसे सगाई की अंगूठी पेश कर दी और कहा “मुझसे शादी करोगी ?”
 
 
 
इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो प्रेमी या प्रेमिका के रूप में अपनी प्रसिद्धि न चाहता हो। इस बात का विश्वास हम सारी दुनिया को और अपने आप को भी दिलाना चाहते हैं कि प्रेम करने योग्य हैं और हमारी वरीयता प्रेम है न कि कुछ और। इसीलिए कभी-कभी प्रेम के लिए नहीं बल्कि प्रसिद्धि के लिए भी ख़ुद को प्रेम का स्वरूप बनाने में लग जाते हैं।
 
 
 
ईश्वर, सत्य और प्रेम हमारे आस-पास और हमारे साथ हमेशा हैं उनको अप्राप्य समझना हमारी भूल है जो कि एक सोची समझी साज़िश का शिकार हो जाना है। सत्य बोलना, प्रेम करना और ईश्वर की गोद में रहना हमारा मूल स्वभाव है। इसके लिए किसी गुरु, संत, मंदिर, अभ्यास आदि की आवश्यकता नहीं है।
 
 
 
किसी को ईश्वर मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे में मिलता है। किसी को सत्य अपने कर्म में मिलता है। किसी को प्रेम, प्रेमी/ प्रेमिका या पति-पत्नी में मिलता है। यह तो मन की मौज है, जहाँ मिले ले लो… 
 
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| 14 जनवरी 2015
 
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मेरी सभी भारतवासियों से अपील है कि चार बच्चे पैदा करें।
 
 
 
एक को हिन्दू, एक को मुसलमान, एक को सिख और एक को ईसाई बनाएँ। इसी के साथ पति या पत्नी में से एक बौद्ध हो जाए... इसके बाद भी हिन्दू धर्म को कोई हानि नहीं होगी। हिन्दू धर्म में सभी धर्मों को आत्मसात करने और तादात्म बैठाने की अद्भुत क्षमता है।
 
 
 
भारत को यदि महान मानते हैं तो इसे महान ही बना रहने दें। किसी एक ही धर्म के लोगों का श्मशान न बनाएँ।
 
 
 
जो ये मानते हैं कि हिन्दू धर्म को ख़तरा है तो उनको यह समझ लेना चाहिए कि भारत में रहने वाले सभी धर्मों के लोग हिन्दू धर्म की उत्सव-उल्लास की संस्कृति को सहज ही अपनाते हैं। यहाँ आते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं।
 
 
 
हिन्दू धर्म को जब, 50 वर्ष शासन करके, औरंगज़ेब नहीं नष्ट कर पाया तो ये टटपूंजिए आतंकवादी क्या बिगाड़ लेंगे। हमारी महानता देखिए कि आज भी दिल्ली में औरंगज़ेब के नाम पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण मार्ग है। साथ ही यह भी ग़ौर फ़रमांएँ कि भारत में मुस्लिम मांएँ अपने बेटे का नाम औरंगज़ेब नहीं रखतीं।
 
</poem>
 
 
|  13 जनवरी 2015
 
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<poem>
 
ये कहानी ठीक वैसे ही शुरू होती है जैसे कि एक ज़माने में चंदामामा, नंदन और पराग में हुआ करती थी। एक गाँव में एक रघु नाम का लकड़हारा रहता था। जंगल से लकड़ियाँ काट कर लाता और गाँव में बेच कर अपने परिवार का पालन-पोषण करता। एक दिन जंगल में उसे किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी, देखा तो एक बहुत तगड़ा शेर पैर में कील चुभ जाने के कारण दर्द से कराह रहा था।
 
रघु से शेर ने कहा-
 
"भाई मेरे! यह मत सोचो कि मैं शेर हूँ और तुमको कोई नुक़सान पहुँचाऊँगा। मेरी मदद करो, मैं तुम्हारा एहसान मानूंगा... सोचो मत! मेरे पैर से लोहे की कील निकाल दो... रहम करो मेरे भाई !"
 
रघु ने हिम्मत की और शेर के पैर से कील निकाल दी। शेर ने रघु को कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा और लंगड़ाता हुआ घने जंगल की ओर चला गया।
 
 
 
रघु तो लगभग रोज़ाना ही जंगल में लकड़ियाँ लेने जाता था। तीन‌-चार दिन बाद उसे शेर मिला और उसके सामने दो हिरन मारकर डाल दिए और कहा- "इन हिरनों को बाज़ार में बेचकर तुमको अच्छे पैसे मिल जाएंगे।" बस फिर क्या था, ये एक सिलसिला ही बन गया, रघु जंगल में जाता और शेर उसे कई जानवर मारकर दे देता। रघु ने जानवर ढोने के लिए एक बैलगाड़ी भी ख़रीद ली और अपने परिवार के साथ बहुत आनंद से दिन गुज़ारने लगा।
 
 
 
एक दिन शेर और रघु जंगल में बैठे बात कर रहे थे तो रघु ने कहा- "मित्र! तुम मेरे घर कभी नहीं आते... कभी मुझे भी मौक़ा दो कि मैं तुम्हारी आवभगत कर सकूँ। मेरे परिवार के साथ चलकर रहो, वे भी तुमसे मिलना चाहते हैं... तुमसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे।" शेर ने कहा- "देखो भाई रघु! भले ही मैं तुम्हारा दोस्त हूँ लेकिन हूँ तो मैं जानवर ही...। कैसे निभा पायेंगे मुझको तुम्हारे घरवाले ? मैं जंगली हूँ और जंगल में ही ठीक हूँ" रघु नहीं माना और शेर को अपने घर ले ही गया।
 
घरवाले पहले डरे फिर शेर के साथ सहज हो गये लेकिन महीने भर में ही शेर की ख़ुराक ने लकड़हारे के घर का बजट और उसकी बीवी का दिमाग़ ख़राब कर दिया। असल में शेर खायेगा भी तो अपने शरीर और आदत के हिसाब से। एक बार में तीस चालीस किलो मांस और वह भी रोज़ाना। बाज़ार से मांस और दूध ख़रीदने में रघु के घर के बर्तन तक बिकने की नौबत आ गई। रघु की पत्नी इस 'जंगली दोस्त' से बहुत परेशान थी। आख़िरकार रघु की पत्नी ने रघु से कहा- "तुम्हारे दोस्त को अब वापस जंगल में ही चला जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि इसे खिलाने को जब कुछ भी न हो तो ये हमारे बच्चों को ही खा जाय? तुम इससे कहो कि ये यहाँ से चला जाय।" "लेकिन वो मेरा दोस्त है, मैं उसे जाने के लिए नहीं कह सकता..." रघु ने कुछ भी कहने से मना कर दिया।
 
 
 
रघु की पत्नी की बातें शेर ने सुन ली थी क्योंकि उसने ये बातें शेर को सुनाते हुए ही कहीं थीं। शेर ने रघु को बुलाया और बोला- "तुम अपनी कुल्हाड़ी लाओ और मेरे सर में पूरी ताक़त से मारो! अगर तुमने मना किया तो मैं तुमको और तुम्हारे परिवार को खा जाऊँगा। साथ ही मैं तुम्हारे किसी सवाल का जवाब भी नहीं दूँगा... जल्दी करो!" मन मार कर रघु ने कुल्हाड़ी शेर के सर में मार दी। कुल्हाड़ी शेर के सर में गड़ गई। सर में गड़ी हुई कुल्हाड़ी के साथ ही शेर जंगल में चला गया।
 
 
 
महीनों बीत गये!
 
 
 
लकड़हारे का जीवन-क्रम पहले की तरह ही जंगल से लकड़ियाँ लाकर गाँव में बेचने का चलता रहा। एक दिन अचानक शेर रघु के सामने आ गया और बोला- "कैसे हो दोस्त! देखो मेरे सर का घाव बिलकुल भर गया है। मेरे बालों में पूरी तरह छुप गया है। किसी को दिखता नहीं है कि मुझे सर में कभी कुल्हाड़ी की चोट लगी थी या कोई गहरा घाव भी था... लेकिन तम्हारी पत्नी ने जो कड़वी बातें मुझसे की थीं, उन बातों का घाव अभी तक नहीं भरा। वे बातें आज भी रात में मुझे चैन से सोने नहीं देतीं। बात का घाव बहुत गहरा होता है दोस्त! ये घाव कभी नहीं भरता...।"
 
 
 
इस कहानी का जुड़ाव भारतकोश बनाने से है। मथुरा-वृन्दावन में अक्सर अंग्रेज़ पर्यटक मिल जाते हैं। एक बार बातों ही बातों में भारत के इतिहास पर चर्चा शुरू हो गयी। मैंने और मेरे मित्र ने कहा कि हम इंटरनेट पर भारत का एन्साक्लोपीडिया बनाने की सोच रहे हैं, तो उसने कहा कि आपका इतिहास तो हम अंग्रेज़ों ने लिखा है और आपका एन्साक्लोपीडिया इंटरनेट पर भी अंग्रेज़ ही बनाएँगे। ये आपके बस की बात नहीं है। बस यही बात मुझे चुभ गयी और भारतकोश का काम शुरू हो गया…         
 
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|  [[चित्र:Shrer-raghu.jpg|250px|center]]
 
| 12 जनवरी 2015
 
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माइकल एंजेलो की मशहूर कृति है यह। जीसस के शांत शरीर को सूली से उतारने के बाद मदर मॅरी की गोद मिली। बेटे का परम सौभाग्य और मां का परम दु:ख। इस कृति ला नाम ‘पीता’ (Pieta) है लॅटिन में इसका अर्थ है कर्तव्य परायणता।
 
 
 
जवान पुत्र के मृत शरीर को गोद में लिए बैठी मां के लिए ये क्षण पीड़ा, दु:ख,अवसाद आदि से कहीं बढ़कर हैं। इसलिए मदर मॅरी के चेहरे पर कोई भाव नहीं है। जब मैंने इस कृति को पहली बार देखा तो आँखों से निरंतर आँसू बहते रहे... 
 
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|  [[चित्र:Pieta.jpg|250px|center]]
 
|  11 जनवरी 2015 
 
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सुन !                                         
 
तुझे आज सुनना होगा
 
तुझे अब बदलना होगा
 
 
 
(बस यही मेरी हार है
 
यह प्यार नहीं व्यापार है...)
 
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|  11 जनवरी 2015 
 
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हक़ीक़त !                                     
 
कहीं सपनों का बिखर जाना ही तो नहीं ?
 
तो फिर क्यों न जिया जाए सपनों की दुनिया में ही ?
 
और किया जाय हक़ीक़त से इंकार
 
मगर ये हो नहीं सकता
 
ये सब सोचना है बेकार...
 
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|  11 जनवरी 2015 
 
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प्रचारम् ब्रह्मास्मि ! 
 
 
 
प्रिय मित्रो ! मेरी इस लम्बी पोस्ट को आप पूरा पढ़ ज़रूर लें क्योंकि इसमें मैंने अपने मन की बातें लिखने की कोशिश भी की है। मेरी इस कोशिश में किसी के दिल को ठेस लगे तो मैं विनम्रता से क्षमायाचना कर रहा हूँ।
 
 
 
जब हम कहीं किसी दूसरे शहर जाते हैं तो खाना खाने के लिए कोई ऐसा भोजनालय ढूंढते हैं जिस पर भीड़ ज़्यादा हो क्यों हम यह सोचते हैं कि अधिक लोग खा रहे हैं तो भोजन बढ़िया होगा। यही बात हम मंदिरों पर भी लागू कर देते हैं। जिस मंदिर में भीड़ ज़्यादा, उस मंदिर का भगवान भी उतना ही महिमामयी। प्रचारित धर्म, प्रचारित भगवान और प्रचारित संत हमें बहुत प्रभावित करते है।
 
 
 
क्या हुआ है हमें, हम ऐसे क्यों हैं ? क्या हर चीज़ हमें मार्केटिंग के आधार पर ही पसंद आती है। हमारा अपना निर्णय हमारा अपना नज़रिया कुछ भी अस्तित्व नहीं रखता…
 
घर के पास रहने वाली लड़की-लडक़े को हम नेक्स्ट डोर गर्ल या नेक्स्ट डोर बॉय कह सामान्य बना देते हैं लेकिन उसके फ़िल्मों या टी.वी. धारावाहिक में आ जाने पर वह हमारे लिए सेलिब्रिटी हो जाता है। ये मानसिकता क्या है और क्या सबकी ही ऐसी मानसिकता होती है। इस तरह तो प्रत्येक व्यक्ति के तीन प्रकार हुए। एक वह जो कि वह सचमुच है, दूसरा वह जो कि स्वयं को किसी पद्धति विशेष से प्रचारित किए हुए है और तीसरा वह जिसे समाज ने अपने ढंग से प्रचारित किया है।
 
 
 
महापुरुषों के साथ भी यही हुआ है। श्रीकृष्ण भगवान की पूजा करते-करते आज ब्रजवासी थकते नहीं लेकिन जब कृष्ण हुए तो उन्हें मथुरा छोड़के द्वारिका रहना पड़ा। अपने समकालीनों से अनेक अपमान सहने पड़े। उनकी श्रेष्ठता की पहचान कितने लोग कर पाए थे ? शायद ही कोई जान पाया हो कि मैं उस कृष्ण के पास बैठा हूँ जिसे हज़ारों साल बाद पूजा जाएगा। यही हाल प्रभु ईसा मसीह का रहा, सूली पर चढ़ा दिए गए एक सामान्य अपराधी की भांति। किसी ने नहीं कहा कि ये तो भगवान हैं ऐसा मत करो। बुद्ध दो बार मथुरा आए, पहली बार में किसी ने भिक्षा भी नहीं दी, कौन पहचान पाया कि वो भगवान हैं। स्वामी महावीर को तो पत्थर मार कर लहूलुहान कर देते थे लोग। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद को यहूदी जन गालियाँ देते थे। मुहम्मद के 'अस्सलाम अ अलैकुम' का जवाब 'अलैकुम अस्साम' से देते थे। अस्सलाम में से ‘ल' निकाल दें तो सलामत की बजाय मर जाने का मतलब हो जाता है। कितने उदाहरण दूँ… असंख्य उदाहरण हैं। गुरु नानक, कबीर साहब, आदि किसी को भी तो नहीं पहचान पाए हम।
 
 
 
अब जब वो प्रचार के दायरे में आ गए और उनके साथ अनेक अंधविश्वास जुड़ गए तब हम कहते हैं कि भई सचमुच ही भगवान हैं। यदि भगवान पहले हुए तो अब भी तो होंगे ? कहां हैं वो ? सच बात तो ये है कि उनको पहचाना नहीं जा रहा है… वो यहीं कहीं हैं हमारे अास-पास हैं पर हम उन्हें साधारण, पागल, झक्की, सनकी या अव्यावहारिक कहकर ख़ारिज करते रहते हैं।
 
 
 
मैं न तो संत हूँ न कोई भगवान, मैं तो एक बहुत साधारण इंसान हूँ। कम से कम दिल की बात कहना चाहूँ तो मुझे बोलने से रोका क्यों जाता है। क्यों चाहते हैं आप कि मैं घुटता रहूँ और वह बोलूँ जो कि आप सुनना चाहते हैं। मैं समझ सकता हूँ जब मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति पर इतनी वर्जनाएँ लगाई जा रही हैं तो इन महान संतों पर तो समाज का कहर बरपा होगा।
 
 
 
ज़रा मेरी भी सुनिए...
 
 
 
मज़ेदार बात यह है कि हम सच्चाइयों से जितना दूर ख़ुद को रखते हैं उतना ही दूर अपने प्रिय को भी देखना चाहते हैं। जब से मैंने अपने सिगरेट पीने वाली पोस्ट डाली है तब से फ़ेसबुक पर मुझे बहुत अच्छा इंसान समझने वालों की संख्या घट गई है। लाइक कम होने लगे हैं, कमेंट कम होने लगे हैं और शेयर भी कम होने लगे हैं। कमेंट की भाषा भी बदल गई। लोगों को लगा कि अरे ये तो सिगरेट पीता है...
 
 
 
अब सोच रहा हूँ कि अपने संबंध में ढेर सारा सच फ़ेसबुक पर डाल दूँ तो शायद एक भी फ़ोलोअर नहीं रहेगा क्योंकि मैं तो बहुत ही साधारण इंसान हूँ और सभी साधारण इंसानों में कमियों का तो ख़ज़ाना होता है। कभी-कभी फ़ेसबुक पर एकांत का आनंद होने का अहसास करना चाहता हूँ।
 
 
 
आप मुझे, मुझसे दूर करके क्यों देखना चाहते हैं ? सच बोलना हिम्मत का काम है। वह करता भी हूँ लेकिन फिर भी मैं कोई ऐसा सच बोलने से रुक जाता हूँ जहां मेरे अलावा किसी दूसरे की बदनामी होने का ख़तरा हो।
 
मैं अनेक ऐसे व्यक्तियों से परिचित हूँ जिन्हें इंसान मानने में मुझे संकोच होता है वे इतने अधिक इंसानियत से परे हैं कि व्याख्या करना भी मुश्किल है। मेरे ये परिचित सिगरेट, शराब, तम्बाक़ू से बहुत दूर हैं। हां बहुत से ऐसे भी हैं जो कोई नशा भी नहीं करते और बेहतरीन इंसान भी हैं।
 
 
 
अपनी बुरी आदतों, अपनी कुंठाओं, वासनाओं, विकृत मानसिकताओं के संबंध में सच बोलने वाले कितने हैं ? जबकि सभी इनकी गिरफ़्त में हैं। कौन है जो ईर्ष्या नहीं करता, वासना, आसक्ति, लोभ, क्रोध, मद, प्रशंसा अादि से दूर है। फिर भी मैं जानता हूँ कि जब-जब किसी ने सत्य कहा है समाज ने उसे प्रताड़ना ही दी है…
 
 
 
तो हे मेरे मित्रो ! मैं बिना प्रचारित हुए ही जीने का आनंद लेना चाहता हूँ। मुझे कुछ तथाकथित सफल लोगों की तरह; महान, ज़हीन, सभ्य, सुसंस्कृत, विद्वान, गरिमामयी आदि नहीं बनना है और ना ही मैं बन सकता हूँ इसलिए मुझे, जैसा मैं हूँ वैसा ही रहने दें… इस ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी पोस्ट को पढ़ने के लिए बहुत धन्यवाद! <nowiki> www.bharatkosh.org</nowiki> पर अपना स्नेह बनाए रखिए...
 
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|  10 जनवरी 2015 
 
|-
 
 
<poem>
 
कहते हैं कि शिकायत कमज़ोर लोग किया करते हैं… मगर फिर भी…             
 
 
 
सब ख़ुद को तलाश करते हैं
 
मुझे पाकर
 
कोई मुझे क्यूँ नहीं ढूंढता
 
मेरे पास आकर
 
 
 
जादुई आइने की तरह
 
मुझे रखा जाता है पास में
 
कि पूरे कराऊँगा मैं सारे सपने…
 
दिखाऊंगा वही
 
जो देखना चाहते हैं वो
 
अपने आप में
 
 
 
आह ! कैसा लगता होगा मुझे
 
कभी तो कोई ऐसा भी होता
 
जो, मेरे सपनों
 
और मेरे वजूद के बारे में भी
 
संजीदा होता
 
 
 
जैसे मैं कोई डिक्शनरी
 
कोई संदर्भ पुस्तक
 
ज़िन्दगी पढ़ाने वाली किताब
 
 
 
जिसमें हर बात का हाज़िर है जवाब
 
अरे! दीमक खा गई है
 
अब इस किताब को
 
मुझे मेरी ज़िन्दगी का भी तो
 
हिसाब दो
 
 
 
मेरे दिल को लेकर अजीब ख़याल
 
कि
 
अरे ! तुम तो सब सह लोगे…
 
-कैसे सह लेता हूँ कभी सोचा है ?
 
पीड़ा से विराट होने के लिए
 
मैं क्या-क्या मूल्य देता हूँ...
 
हर बार टूटता-बिखरता हूँ
 
लेकिन हँस देता हूँ।
 
 
 
वो सूखे फूल, वो लम्हे
 
वो कपड़े, वो पर्दे
 
किसे देदूँ ?
 
और तस्वीरें ?
 
ख़त
 
यादें
 
सपने
 
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|  [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-60.jpg|250px|center]]
 
| 10 जनवरी 2015
 
|-
 
 
<poem>
 
किसान विरुद्ध भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में                       
 
यह मेरी कविता नहीं बल्कि मेरा आर्तनाद है, मित्रो !
 
 
 
मैं किसान हूँ भारत का
 
और सबका अन्न-विधाता हूँ
 
 
 
सब जन्म मुझी से पाते हैं
 
सब मेरी पैदा खाते हैं
 
अन्न-खाद्य सामग्री सब
 
मैं तुमको देता आया हूँ
 
फिर भी तुमने क्यों समझा है
 
ज्यों मैं ग़ैरों का जाया हूँ ?
 
 
 
सीमा पर
 
गोली खाने को
 
जो सीना आगे आता है
 
उन सीनों में दिल मेरा है
 
ये तुम्हें समझ नईं आता है ?
 
 
 
शहरों में गाली सुनता हूँ
 
गांवों में वोटर जनता हूँ
 
जब कभी पुकार कोई आए तो
 
'सुन ओ गवांर !'
 
भी सुनता हूँ
 
 
 
अब ये क्या किया ?
 
पाप है यह...
 
कैसा पैशाचिक मानस है
 
नीच नराधम कर्म है यह
 
यह हत्या से भी बढ़कर है
 
 
 
अधिग्रहण तो पहले होता था
 
यह ग्रहण
 
बलात-हरण है अब
 
 
 
देखो ! किसान को मत छेड़ो
 
वो पहले से ही शापित है
 
यदि फुंकार उठी ज्वाला
 
सिंहासन भस्म हुए समझो
 
</poem>
 
 
| 7 जनवरी 2015
 
 
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<poem>
 
<poem>
मुझे 12 साल की उम्र में ही ब्रोंकल अस्थमा हो गया था। उस समय आज जैसे इलाज नहीं थे। कई-कई रातों को पूरी-पूरी रात बैठके गुज़ारता था। पूरा घर सोया होता था मैं अकेला अपने कमरे में जगा बैठा रहता था। बैठे-बैठे ही नींद भी आ जाती थी और नहीं भी…
+
यह स्तुति अब तुम बंद करो
कमरे से पीपल का पेड़ दिखता था। वही था जो मुझसे रातभर बात करता था। यह कवितानुमा चीज़ मैंने लगभग 15-16 वर्ष की उम्र 1974-75 में लिखी थी। यह मेरी प्रथम कविता है।
+
अर्जुन ! जाओ अब तंग न करो
 
+
ऐसा कह मौन हुए केशव
निशाचर निरा मैं
+
सहमे से खड़े हुए थे सब
छायाहीन
 
प्रतिबिम्बित मानसयुक्त,
 
अचेतन मन का स्वामी
 
उत्कंठा लिए
 
मैं सार्वकालिक, सार्वभौमिक सत्य
 
खोजता लगातार
 
 
 
हताश फिर भी,
 
नियत भविष्य के लिए
 
स्वागत द्वारों को नकार
 
मैं हिचकता हुआ
 
लगातार
 
 
 
सोच वही...
 
और क्यों नहीं बदल पाता
 
हर बार
 
  
ज्योंही हिला पत्ता पीपल का,
+
सहसा विराट बन हुए अचल
चौंका निशाचर मैं
+
यह रूप देख सब थे निश्चल
अनिवार
+
गंभीर रूप रौरव था स्वर
 +
नि:श्वास छोड़ फिर हुए मुखर
  
लिए भूत अपना,
+
अर्जुन! सुन मेरी करुण कथा
भेंट करने, भविष्य को
+
जब कोई नहीं था बस मैं था
साकार
+
इन सूर्य चंद्र से भी पहले
 +
मैं ही मैं था, मैं ही मैं था
  
फूलों की झाड़ी
+
मैं अगम अगोचर अनजाना
में काँटों की आड़ लिए
+
कोई साथ नहीं मैंने जाना
भौंका किया लगातार
+
ब्रह्मांड-व्योम बिन जीता था
 +
अस्तित्व, काल से रीता था
  
लिप्त आडम्बरों से
+
अमरत्व नहीं मैंने पाया
सकुचाता हुआ
+
ना काल मुझे ग्रसने आया
व्यवस्थित अव्यवस्था के लिए
+
कोई आदि नहीं मेरा होता
भाड़ झोंका किया
+
चिर निद्रा लीन नहीं होता
लगातार
 
  
चौंका मैं पीपल के पत्ते से
+
मुझको एकांत सताता था
बार बार   
+
मैं यूं ही जीये जाता था
 +
फिर एक दिवस ऐसा आया
 +
मैं रचूँ सृष्टि, मुझको भाया
 
</poem>
 
</poem>
|  
+
|
| 7 जनवरी 2015
 
|-
 
 
 
<poem>
 
<poem>
मसला-ए-मुहब्बत में
+
मैंने ही सृष्टि रची अर्जुन !
वैसे तो सब ठीक-ठाक है
+
अब सुनो बुद्धि से श्रेष्ठ वचन
बस एक ही बात अच्छी नहीं
+
मनुजों के लिए नहीं थी ये
कि कमबख़्त दिल से
+
सब जड़-चेतन समरस ही थे
डेढ़ फ़ुट ऊपर दिमाग़ है
 
</poem>
 
 
| 7 जनवरी 2015
 
|-
 
 
<poem>
 
यह post एक बिटिया के लिए जिसे नारी शक्ति (नारी विमर्श) पर लेख लिखना है।         
 
नारी विमर्श की यदि बात की जाए तो नारी का संघर्ष जो पुरुष से ‘समानता' के लिए किया जा रहा है, वह एक ग़लत दिशा में किया हुआ संघर्ष है। नारी को अपने स्वयंभू अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहना चाहिए। पुरुष से समानता करने में लगा रहना, नारी की शक्ति नहीं बल्कि नारी की सबसे बड़ी कमज़ोरी है और पुरुष द्वारा किया गया एक सफल षड़यंत्र, जिसकी अधिकतर नारियां शिकार हैं।
 
पुरुष द्वारा किए गए सुनियोजित षड़यंत्र में नारी का फंस जाना, एक सोची समझी चाल में आ जाना है। नारी को उन्मुक्त आकाश की उड़ान से वंचित करने वाला षड़यंत्र, इतना सफल चक्रव्यूह है, जिससे लड़ना बहुत सी नारियों के वश में नहीं है। यदि नारी चाहे, तो इस षड़यंत्र से अपने आप को बचाते हुए उन्मुक्त उड़ान भर सकती है।
 
  
सबसे पहली बात तो यह है कि पुरुष से समानता करने की चाह में नारी के सामने एक लक्ष्य सदैव बना रहता है। पुरुष प्रतीक और मिथक बन कर नारी सम्मुख प्रस्तुत रहता है, जो कि नारी को एक घेरे में ही विचरण करने को बाध्य करता है। ज़रा सोचिए कि मदर टॅरेसा, इस पुरुष स्पर्धा का हिस्सा बनीं होतीं तो क्या उन्हें शांति का नोबेल और पोप द्वारा संत की उपाधि मिल पाती। कोई पुरुष सोच भी नहीं सकता कि वह कभी मदर टॅरेसा का स्थान पा सकेगा।
+
पर मानव इसका केन्द्र बना
 +
विज्ञान ज्ञान का सेतु तना
 +
हर प्राणी पीछे छूट गया
 +
मैं भी मानव से रूठ गया
  
फ़िल्म क्वीन का एक दृश्य याद कीजिए जिसमें शारीरिक रूप से अशक्त जैसी दिखने वाली नायिका का पर्स छीनने का प्रयास एक बलिष्ठ ग़ुंडा करता है। नायिका किसी तरह की जूडो-कराटे आदि न करके केवल अपना पर्स नहीं छोड़ती और ग़ुंडा नाक़ाम हो जाता है।
+
मैंने रचकर संसार सकल
</poem>
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होते देखा सब कुछ निष्फल
|
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कोई और नहीं खोता कुछ भी
| 7 जनवरी 2015 
+
मरता मैं हूँ कोई और नहीं
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<poem>
 
आजकल ख़ुद से मुलाक़ात करने की बहुत कोशिश कर रहा हूँ।       
 
हो नहीं पा रही।
 
ख़ुद को जानने की कोशिश कर रहा हूँ।
 
जान नहीं पा रहा।
 
ख़ुद को जानकर अपनी रचना फिर से करना चाह रहा हूँ।
 
कर पाऊंगा क्या ?
 
ख़ुद से नाराज़ हूँ।
 
ख़ुद को ख़ुद ही मनाने ही कोशिश कर रहा हूँ।
 
कर पाऊँगा क्या ?
 
रंजिशें और भी हैं, ज़माने में उनको देख ज़रा
 
इस तरहा कब तलक ख़ुद के ख़िलाफ़ लड़ लेगा...
 
</poem>
 
 
|  6 जनवरी 2015 
 
|-
 
 
<poem>
 
धर्म; प्रेम, उत्सव, उल्लास, स्वतंत्रता का कारण होना चाहिए। गहराई से न देखकर यदि यूँ ही एक नज़र डालें तो पाएँगे कि धर्म; विद्वेष, कठोर वर्जनाओं, नीरस प्रार्थनाओं और हिंसाओं का कारण बन गया है। कहने के लिए, धार्मिक व्यक्ति होने को तो बहुत हैं लेकिन सही मायनों में धार्मिक बहुत ही कम होते हैं।
 
  
धर्म एक कर्तव्य बन गया, जबकि यह कर्तव्य नहीं बल्कि करुणा और ममत्व होना चाहिए। हम कोई, धर्म की नौकरी नहीं कर रहे जो धर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो जाएँ। मां अपने बच्चे को पालने में अपना कोई कर्तव्य नहीं पूरा करती। वह तो बस बिना प्रयास यह स्वत: ही करती है, करती भी नहीं बल्कि स्वत: ही ‘होता’ है।
+
तुम मुझे सर्वव्यापी कहकर
 +
कर रहे पाप सब रह रह कर
 +
मैं ही हंता, सृष्टा मैं ही ?
 +
कृष्ण, कंस दोनों मैं ही?
  
मुझे अनेक, धार्मिक व्यक्तियों से मिलकर ऐसा नहीं लगता कि मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिल रहा हूँ जिसमें प्रेम, करुणा, ममत्व और उत्सव भरपूर मात्रा में समाहित हैं। याने उसका जीवन सहज प्रेम से भरा हुआ है। ऐसा धार्मिक होने का अर्थ क्या?
+
यदि स्वयं कंस में भी रहता
 +
वह दुष्ट भला कैसे मरता
 +
कुछ तो विवेक से भान करो
 +
सद्गुणी जनों का ध्यान धरो
  
यदि धार्मिक होना है तो चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक, रामकृष्ण परमहंस, कबीर आदि जैसे हो जाओ न ? या फिर धार्मिक होने का ढोंग क्यों ? कर्तव्य या डर के कारण धार्मिक होना कितना बनावटी है इसका अंदाज़ा अापको तभी होगा जब आप ईश्वर से प्रेम करने लगेंगे। जब ईश्वर की अवहेलना करने पर आपको यह डर नहीं रहेगा कि ईश्वर आपका अनिष्ट कर देगा। यदि आप ईश्वर को माने बिना या किसी धर्म के अनुयायी बने बिना ही प्रेम और करुणा से परिपूर्ण हैं तो आप, बिना ईश्वर को माने ही धार्मिक हैं और ईश्वर सदैव अापके साथ है।
+
क्यों नहीं तुम्हें यह ज्ञान हुआ
 
+
किस कारण ये अज्ञान हुआ
कर्तव्य प्रेम का शत्रु है और ईश्वर प्रेम का ही स्वरूप है।
+
अपराधी मुझको मान लिया
 
+
मैंने मुझको ही दंड दिया?
यहाँ एक बात और बता दूँ जो कि महत्वपूर्ण है। प्रेमी प्रेमिका विवाह होने पर बदल क्यों जाते हैं ? इसका कारण भी कर्तव्य है। कर्तव्य के अस्तित्व में आते ही प्रेम विदा हो जाता है। यदि पति पत्नी एक दूसरे के कर्तव्यनिष्ठ न हो जाएँ, तो प्रेम जीवनभर बना रहेगा। इसलिए कर्तव्यनिष्ठ नहीं प्रेमनिष्ठ बनिए।     
 
 
</poem>
 
</poem>
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+
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| 3 जनवरी 2015
 
|-
 
 
 
<poem>
 
<poem>
प्रिय मित्रो! पर्यावरण से संबंधित मेरी एक कविता… 
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अर्जुन! कैसा है ये अनर्थ
 
+
मेरा, होना ही हुआ व्यर्थ
आसमान को काला कर दे                     
+
किसकी ऐसी अभिलाषा थी?
हर नदिया को नाला कर दे
+
जो मेरी ये परिभाषा की?
हरी-भरी सुंदर धरती को
 
गिट्टी पत्थर वाला कर दे
 
 
 
पॉलीथिन के ढेर लगा दे
 
घास कुचल दे,पेड़ गिरा दे
 
सारे सुन्दर ताल सुखाकर
 
घर-आंगन बाज़ार बना दे
 
  
मज़हब की दीवार बना दे
+
रक्तिम आँखों के ज्वाल देख
रिश्तों का हर रूप मिटा दे
+
अर्जुन, भगवन् का भाल देख
ज़ात-पात के रंग दिखा कर
+
आँखें मलता सब सुना किया
दुर्गम पहरेदार बिठा दे
+
जैसे-तैसे मन शांत किया
  
पत्थर को भगवान बना दे
+
क्या हंता हो सकती माता
मुल्लों को मीनार चढ़ा दे
+
क्या काल पिता लेकर आता
सांस न पाए कोई सुख की
+
जिसने तुमको यह जन्म दिया
ऐसा ये संसार बना दे
+
उसको तुमने यम रूप दिया
  
मोबाइल फ़ोनों में रम जा
+
यदि पिता मुझे तुम कहते हो
बंद घरों, कमरों में थम जा
+
तो क्यों सहमे से रहते हो
चला के टीवी मंहगा वाला
+
मैं नहीं, देव-दानव कोई
एक जगह कुर्सी पे जम जा
+
निज ममता नहीं कभी सोई
  
बाग़ो को फ़र्नीचर कर दे
+
दुष्टों में नहीं वास करता
आमों को बोतल में भर दे
+
मैं मित्र सखा हूँ उन सबका
खेतों में तू सड़क बना कर
+
जो करुणा का रस पीते हैं
फ़सलों की बेदख़ली कर दे
+
समदृष्टि भाव से जीते हैं
  
कभी तो थोड़ी रोक लगा दे
+
कण-कण में बसा नहीं हूँ मैं
कभी तो अच्छी सोच बना ले
+
सद हृदय ढूँढता शनै: शनै:
नहीं रहेगा कुछ भी जीवित
+
और फिर उसमें बस जाता हूँ
इस धरती की जान बचा ले
+
जीवन की गीता गाता हूँ
</poem>
 
|
 
| 3 जनवरी 2015
 
|-
 
 
<poem>
 
मैंने कभी अपनी ज़िन्दगी को अहमियत नहीं दी। शायद इसीलिए ज़िन्दगी मेरे हाथ से हर बार फिसल जाती है…
 
</poem>
 
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| 2 जनवरी 2015
 
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केशी घाट गया था। ज़हर बन चुके यमुना जल से लोग आचमन कर रहे थे। इसमें बंदर भी शामिल हुआ तो मैंने फ़ोन से क्लिक कर लिया...
 
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| 2 जनवरी 2015
 
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मैं समय हूँ, काल हूँ मैं                  
 
सकल व्योमिक चाल हूँ मैं
 
पल, घड़ी और प्रहर हूँ मैं
 
दिवस मास और साल हूँ मैं
 
 
 
मैं समय संसार रचता
 
सकल ये ब्रह्माण्ड रचता
 
मुझसे सूरज चांद तारे
 
मैं तेरा आकार रचता
 
 
 
बारहों आदित्य मेरे
 
आठ वसुओं का मैं स्वामी
 
और ग्यारह रुद्र मुझको
 
मानते अपना रचयिता
 
 
 
एक नया ये वर्ष देने
 
फिर से तेरे सामने हूँ
 
फिर से जी ले
 
फिर से मर ले
 
संग मैं संग्राम में हूँ
 
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| 1  जनवरी 2015
 
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मैं हर साल ऐसा सोचता हूँ कि                       
 
काश ! मैं नए साल में :-
 
-एक अच्छा इंसान बन जाऊँ।
 
पर बन नहीं पाता।
 
-किसी का दिल न दुखाऊँ।
 
पर ऐसा कर नहीं पाता।
 
-ग़ुस्से पर क़ाबू कर लूँ
 
पर हो नहीं पाता
 
-झूठ न बोलूँ
 
पर बोल जाता हूँ (दूसरों के शुभ के लिए)
 
-अनुशासन से जीवन जीऊँ
 
पर जी नहीं पाता
 
-मूर्खताएँ न करूँ
 
पर कर जाता हूँ
 
-किसी का अपमान न करूँ
 
पर कर जाता हूँ
 
-किसी को कष्ट न दूँ
 
पर दे जाता हूँ
 
-अपनों की पसंद का बन जाऊँ
 
पर नहीं बन पाता
 
-बुरी आदतों को छोड़ दूँ
 
पर छोड़ नहीं पाता
 
-लालच छोड़ दूँ
 
पर छोड़ नहीं पाता
 
और भी बहुत कुछ…
 
पर कर नहीं पाता
 
चिकना घड़ा हूँ...
 
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| 1  जनवरी 2015
 
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नए साल की सर्द हवाओ !
 
जब तुम उसको छूकर जाओ
 
कह देना उससे...
 
मैं उसको
 
बहुत याद करता रहता हूँ…   
 
 
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| 1 जनवरी 2015
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| 1 फ़रवरी 2015  
 
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१२:४०, १५ फ़रवरी २०१५ का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

यह स्तुति अब तुम बंद करो
अर्जुन ! जाओ अब तंग न करो
ऐसा कह मौन हुए केशव
सहमे से खड़े हुए थे सब

सहसा विराट बन हुए अचल
यह रूप देख सब थे निश्चल
गंभीर रूप रौरव था स्वर
नि:श्वास छोड़ फिर हुए मुखर

अर्जुन! सुन मेरी करुण कथा
जब कोई नहीं था बस मैं था
इन सूर्य चंद्र से भी पहले
मैं ही मैं था, मैं ही मैं था

मैं अगम अगोचर अनजाना
कोई साथ नहीं मैंने जाना
ब्रह्मांड-व्योम बिन जीता था
अस्तित्व, काल से रीता था

अमरत्व नहीं मैंने पाया
ना काल मुझे ग्रसने आया
कोई आदि नहीं मेरा होता
चिर निद्रा लीन नहीं होता

मुझको एकांत सताता था
मैं यूं ही जीये जाता था
फिर एक दिवस ऐसा आया
मैं रचूँ सृष्टि, मुझको भाया

मैंने ही सृष्टि रची अर्जुन !
अब सुनो बुद्धि से श्रेष्ठ वचन
मनुजों के लिए नहीं थी ये
सब जड़-चेतन समरस ही थे

पर मानव इसका केन्द्र बना
विज्ञान ज्ञान का सेतु तना
हर प्राणी पीछे छूट गया
मैं भी मानव से रूठ गया

मैंने रचकर संसार सकल
होते देखा सब कुछ निष्फल
कोई और नहीं खोता कुछ भी
मरता मैं हूँ कोई और नहीं

तुम मुझे सर्वव्यापी कहकर
कर रहे पाप सब रह रह कर
मैं ही हंता, सृष्टा मैं ही ?
कृष्ण, कंस दोनों मैं ही?

यदि स्वयं कंस में भी रहता
वह दुष्ट भला कैसे मरता
कुछ तो विवेक से भान करो
सद्गुणी जनों का ध्यान धरो

क्यों नहीं तुम्हें यह ज्ञान हुआ
किस कारण ये अज्ञान हुआ
अपराधी मुझको मान लिया
मैंने मुझको ही दंड दिया?

अर्जुन! कैसा है ये अनर्थ
मेरा, होना ही हुआ व्यर्थ
किसकी ऐसी अभिलाषा थी?
जो मेरी ये परिभाषा की?

रक्तिम आँखों के ज्वाल देख
अर्जुन, भगवन् का भाल देख
आँखें मलता सब सुना किया
जैसे-तैसे मन शांत किया

क्या हंता हो सकती माता
क्या काल पिता लेकर आता
जिसने तुमको यह जन्म दिया
उसको तुमने यम रूप दिया

यदि पिता मुझे तुम कहते हो
तो क्यों सहमे से रहते हो
मैं नहीं, देव-दानव कोई
निज ममता नहीं कभी सोई

दुष्टों में नहीं वास करता
मैं मित्र सखा हूँ उन सबका
जो करुणा का रस पीते हैं
समदृष्टि भाव से जीते हैं

कण-कण में बसा नहीं हूँ मैं
सद हृदय ढूँढता शनै: शनै:
और फिर उसमें बस जाता हूँ
जीवन की गीता गाता हूँ

1 फ़रवरी 2015

शब्दार्थ

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