"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट" के अवतरणों में अंतर
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गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) |
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+ | नहीं आवाज़ होती है, दिलों के टूट जाने की | ||
+ | ज़रूरत क्या है फिर तुमको, इसे सुनने-सुनाने की | ||
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+ | मेरे तन्हाई के आलम में सारे ख़ाब फीके थे | ||
+ | तुम्हारी ज़िद थी फिर इनको, बहारों से सजाने की | ||
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+ | जो मैं था वो तो रहने ही कहाँ तुमने दिया मुझको | ||
+ | जो मैं अब हो गया तुम सा, तो ज़िद है छोड़ जाने की | ||
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+ | मैं ख़ुश कितना हूँ ये तुमको बताने के लिए आया | ||
+ | तुम्हें फ़ुर्सत कहाँ नाचीज़ को दिल से लगाने की | ||
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+ | हज़ारों ख़्वाइशों को छोड़ के तुमको ही चाहा था | ||
+ | तुम्हें बेचौनियां रहती हैं अब सारे ज़माने की | ||
+ | </poem> | ||
+ | | [[चित्र:Dilon-ke-toot-jane-ki-aditya-chaudhary.jpg|250px|center]] | ||
+ | | 20 नवम्बर, 2014 | ||
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+ | पिछले दिनों, फ़ेसबुक चर्चा में एक ‘चर्च’ था (वाह ! ये तो नया शब्द ईजाद हो गया ‘चर्च’, इसका मतलब समझा जाय कि ‘Thread’ याने कोई Comment, हा हा हा)… तो ये चर्च ग्रामीण जीवन से जुड़ी बातों और शब्दों से संबंधित था। इन शब्दों की व्याख्या कर रहा हूँ... | ||
+ | 'चर्स' या 'पुर' :- | ||
+ | प्राचीन भारत में सिंचाई के कुछ साधन ऐसे थे जो अब विद्यमान नहीं हैं और कुछ अब भी हैं। एक था 'चर्स' या 'पुर' द्वारा सिंचाई, यह एक जटिल और जोखिम का काम था इसमें दो बैल और दो आदमी लगते थे। जो 'न्हैचिया' पर चलते थे। न्हैचिया उस ढलान को कहते थे जिस पर चलकर बैल पानी खींचते थे। | ||
+ | 'चर्स' या 'पुर' लगभग 7 मन पानी (लगभग पौने तीन सौ लीटर पानी) की क्षमता रखता था। यह चमड़े का बना होता था। जब पानी से भरा हुआ 'पुर' कुँए की मेड़ पर आता था तो एक व्यक्ति उसको अपनी तरफ़ खींचकर ख़ाली करता था। इस क्षण पर उसे ज़ोर से 'राम' कहना होता था, जिससे बैलों के साथ वाला व्यक्ति बैलों की रस्सी से 'किल्ली' (लकड़ी की मोटी कील) को निकाल देता था। पुर आसानी से ख़ाली हो जाता था। जब कुँए पर बैठा व्यक्ति 'राम' कहना भूल जाता था तो आदत के अनुसार बैल वापस चल देते थे। इससे 'पुर' भरी हुई हालत में ही कुँए में वापस जाने लगता था। यह भयानक विपत्ति होती थी जिसके कारण कभी-कभी बैल भी कुँए में चले जाते थे। | ||
+ | इस दुर्घटना का नाम होता है 'मचैंड़ा बजना' ( गाँव में 'मचैंड़ौ बाजगौ')। मैंने इस प्रकार की सिंचाई अपनी आखों से देखी है। अपने ही खेत में। | ||
+ | मेरे पिताजी के सामने यह दुर्घटना घटी थी। वे न्हैचिया पर कसरत करने जाते थे। जब उन्होंने देखा कि पुर वापस कुँए में जा रहा है तो उन्होंने रस्सा हाथों से पकड़ लिया और तब तक पुर को रोके रहे जब तक कि कई लोगों ने आकर साथ नहीं दिया। इसमें पिताजी के हाथों की खाल तक उतर गई थी। पिताजी बेहद शक्तिशाली थे, वरना अकेले पुर को रोकना असंभव जैसा काम माना जाता था। (चित्र में देखें) | ||
+ | पासी :- | ||
+ | भुस को सर पर ले जाने के लिए गाँवों में एक जालीदार गठरी बुनी जाती है। जिसमें लॉन टेनिस के नेट जैसी बुनाई होती है। | ||
+ | बढ़ार:- | ||
+ | बारात जब अगले दिन सुबह विदा न होकर एक दिन और रुकती है तो वह बढ़ार कहलाती है, उसे बारात की दावत न कहकर बढ़ार की दावत कहते हैं। | ||
+ | भोका:- यह चमड़े, बांस की फंच्चट या टिन की सहायता से बना एक बड़े सूप की बनावट का चौकोर परात जैसा उपकरण होता है। इसमें चार रस्सियां बंधी होती हैं। दो-दो रस्सियों को दो व्यक्ति पकड़ते हैं और पानी को खेत में फेंकते हैं। केवल प्रयोग बतौर मैंने इसे चलाया है, पेट की मांस पेशियां खिंच जाती हैं। (सिक्स पॅक बनाने का देहाती साधन भी है… हा हा हा)- (चित्र में देखें) | ||
+ | ढेंकली: | ||
+ | ये सिंचाई का साधन था, जो कहीं-कहीं आज भी प्रयोग में है। ये एक लम्बी ‘बल्ली’ होती थी जो ‘Y’ के आकार के लकड़ी के खूंटे पर टिकी होती थी। इसका एक सिरा जिस पर कोई बड़ा सा बर्तन बंधा होता था; कुँए, बावड़ी, नदी या नहर की तरफ़ रहता था और दूसरे सिरे पर एक रस्सी बांधी जाती थी। रस्सी को ढीला करने और फिर खींचने से पानी भरकर खेत में उडेला जा सकता था। (चित्र में देखें) | ||
+ | रहट: | ||
+ | ये सिंचाई का साधन था। इसके बारे में तो ज़्यादातर लोग जानते होंगे। (चित्र देखें) | ||
+ | लदपामरी: | ||
+ | फावड़े से मिलता-जुलता उपकरण जो पूरा लकड़ी का होता है। गाय-भैंस का गोबर खिसकाने-इकट्ठा करने के काम आता है। मैंने इसका इस्तेमाल किया है। | ||
+ | तिक: | ||
+ | हल जोतने के लिए दो बैल या दो भैंसे चाहिए। इसके लिए अपना jargon है। सामान्यत: बाँये (अंदर वाले) बैल को ‘आ:' और दाँये (बाहरी) को तिक कहा जाता है और यही दोनों शब्द इनको क़ाबू करने के लिए भी बोले जाते हैं। बैल ज़्यादा समझदार होते हैं वे अधिक आसानी से समझ लेते हैं और भैंसा तो फिर भैंसा है ही… | ||
+ | पैर: | ||
+ | कटाई के समय, ‘पैर' खेत के एक हिस्से में बना लिया जाता है। इसी पैर में फ़सल से अनाज निकाला जाता है। | ||
+ | पैर बनाना भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। एक बड़ी सी क्यारी बना ली जाती है। इसमें पानी भर देते हैं। नंगे पैरों से इसकी खुंदाई होती है। सूखने के बाद पैर तैयार हो जाता है। यहीं पर बालों से अनाज निकालने का कार्यक्रम चलता है। | ||
+ | लांक: | ||
+ | कटी फ़सल के ढेर को ही लांक कहते हैं। | ||
+ | </poem> | ||
+ | | [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-55.jpg|250px|center]] | ||
+ | | 17 नवम्बर, 2014 | ||
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+ | हर आन कस की दारद हुश व राइव दीन। | ||
+ | पस अज़ मर्ग बर मन कुनद आफ़रीन॥ | ||
+ | -फ़िरदौसी | ||
+ | इसका अर्थ है “हर वह व्यक्ति जो साहित्य को परखने की दृष्टि रखता है, वह मेरे मरने के बाद भी मेरे कृत्य की प्रशंसा अवश्य करेगा।” | ||
+ | ईरान के मशहूर कवि फ़िरदौसी ने दसवीं शताब्दी में 60 हज़ार शेरों का महाकाव्य ‘शाहनामा’ की रचना की। शाहनामा की तुलना महाभारत और इलियड से की जाती है। | ||
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+ | | 17 नवम्बर, 2014 | ||
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१२:५०, २२ नवम्बर २०१४ का अवतरण
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