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इसके पश्चात यथास्थान लौट जाने पर एक दिन जटासुर जब द्रौपदी को ले भागा तब भीमसेन ने उसको मारकर द्रौपदी की रक्षा की। काम्यक वन में रहते समय ही एक दिन पाण्डव लोग घूमते-फिरते कुबेर की नगरी में जा निकले। वहाँ झगड़ा हो गया जिसमें बहुत से [[यक्ष]], राक्षस आदि भीमसेन के हाथों से मारे गये।  
 
इसके पश्चात यथास्थान लौट जाने पर एक दिन जटासुर जब द्रौपदी को ले भागा तब भीमसेन ने उसको मारकर द्रौपदी की रक्षा की। काम्यक वन में रहते समय ही एक दिन पाण्डव लोग घूमते-फिरते कुबेर की नगरी में जा निकले। वहाँ झगड़ा हो गया जिसमें बहुत से [[यक्ष]], राक्षस आदि भीमसेन के हाथों से मारे गये।  
 
==युधिष्ठिर ने बचाया==
 
==युधिष्ठिर ने बचाया==
[[द्वैतवन]] में रहते समय एक बार भीमसेन एक अजगर की चपेट में आ गये। बात यह थी कि राजा नहुष, ऋषियों के शाप से, अजगर होकर वहाँ पड़े रहते थे। उस अजगर के पंजे से छोटने के लिए भीमसेन ने बड़ा जोर लगाया, पर कुछ न हुआ। अंत में [[युधिष्ठिर]] ने अजगर-रूपी नहुष के अनेक प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देकर भाई को बचाया। द्रौपदी को जब जयद्रथ ले भागा था। तब [[अर्जुन]] के साथ भीमसेन ने उसको हराकर द्रौपदी को बचाया था। युधिष्ठिर न रोकते तो भीमसेन [[जयद्रथ]] के प्राण लिये बिना न मानते। वे एक बार ऐसे सरोवर में पानी भरने और पीने को पहुँच गये जिस पर यक्ष का अधिकार था। रोके जाने पर भी वे पानी में उतर पड़े। इससे निर्जीव हो गये। इस बार भी युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर भीमसेन के प्राण बचाये थे। पाण्डवों ने भेष बदलकर राजा विराट के यहाँ अपना अज्ञातवास का समय बिताया था। भीमसेन उस समय राजा के रसोइया बने हुए थे। उन्होंने अपना नाम बल्लव रख लिया था। वहाँ रहते समय, राजा के सेनापति और साले, कीचक ने द्रौपदी को बहुत तंग कर रखा था। अंत में लाचार होकर द्रौपदी ने जब भीमसेन के आगे अपना दुखड़ा रोया तो बल्लव-नामधारी भीम ने [[कीचक]] को कुचल डाला। उसके मारे जाने की खबर पाकर त्रिगर्तराज सुशर्मा, [[विराट]] का गोधन छीनने को, चढ़ दौड़ा। सामना करने जाकर राजा विराट पकड़ लिये गये। तब भाइयों सहित भीम ने जाकर विराट को छुटाया और सुशर्मा को ऐसी मार मारी कि जिसका नाम।  
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[[द्वैतवन]] में रहते समय एक बार भीमसेन एक अजगर की चपेट में आ गये। बात यह थी कि राजा नहुष, ऋषियों के शाप से, अजगर होकर वहाँ पड़े रहते थे। उस अजगर के पंजे से छोटने के लिए भीमसेन ने बड़ा ज़ोर लगाया, पर कुछ न हुआ। अंत में [[युधिष्ठिर]] ने अजगर-रूपी नहुष के अनेक प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देकर भाई को बचाया। द्रौपदी को जब जयद्रथ ले भागा था। तब [[अर्जुन]] के साथ भीमसेन ने उसको हराकर द्रौपदी को बचाया था। युधिष्ठिर न रोकते तो भीमसेन [[जयद्रथ]] के प्राण लिये बिना न मानते। वे एक बार ऐसे सरोवर में पानी भरने और पीने को पहुँच गये जिस पर यक्ष का अधिकार था। रोके जाने पर भी वे पानी में उतर पड़े। इससे निर्जीव हो गये। इस बार भी युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर भीमसेन के प्राण बचाये थे। पाण्डवों ने भेष बदलकर राजा विराट के यहाँ अपना अज्ञातवास का समय बिताया था। भीमसेन उस समय राजा के रसोइया बने हुए थे। उन्होंने अपना नाम बल्लव रख लिया था। वहाँ रहते समय, राजा के सेनापति और साले, कीचक ने द्रौपदी को बहुत तंग कर रखा था। अंत में लाचार होकर द्रौपदी ने जब भीमसेन के आगे अपना दुखड़ा रोया तो बल्लव-नामधारी भीम ने [[कीचक]] को कुचल डाला। उसके मारे जाने की खबर पाकर त्रिगर्तराज सुशर्मा, [[विराट]] का गोधन छीनने को, चढ़ दौड़ा। सामना करने जाकर राजा विराट पकड़ लिये गये। तब भाइयों सहित भीम ने जाकर विराट को छुटाया और सुशर्मा को ऐसी मार मारी कि जिसका नाम।  
 
==कुरुक्षेत्र का युद्ध==
 
==कुरुक्षेत्र का युद्ध==
[[कुरुक्षेत्र]] का युद्ध छिड़ने पर भीमसेन ने सेनापति की हैसियत से, युद्ध करके सारे कौरवों और उनके सेनापतियों का वध किया था। उन्होंने दुशासन का रक्त पीकर और दुर्योधन की जाँघें तोड़कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। युद्ध शांत हो जाने पर जब सब लोग हस्तिनापुर में पहुँचे तब धृतराष्ट्र ने, सांत्वना देने के बहाने, भीमसेन को अपने हृदय से लगाना चाहा। धृतराष्ट्र के मन की बात श्रीकृष्ण पहले से जानते थे। अतएव आलिंगन करने के लिए उन्होंने भीमसेन की लोहे की मूर्ति, जो पहले से तैयार रखी थी, उनके आगे करवा दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को इतने जोर से दबाया कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये।  
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[[कुरुक्षेत्र]] का युद्ध छिड़ने पर भीमसेन ने सेनापति की हैसियत से, युद्ध करके सारे कौरवों और उनके सेनापतियों का वध किया था। उन्होंने दुशासन का रक्त पीकर और दुर्योधन की जाँघें तोड़कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। युद्ध शांत हो जाने पर जब सब लोग हस्तिनापुर में पहुँचे तब धृतराष्ट्र ने, सांत्वना देने के बहाने, भीमसेन को अपने हृदय से लगाना चाहा। धृतराष्ट्र के मन की बात श्रीकृष्ण पहले से जानते थे। अतएव आलिंगन करने के लिए उन्होंने भीमसेन की लोहे की मूर्ति, जो पहले से तैयार रखी थी, उनके आगे करवा दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को इतने ज़ोर से दबाया कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये।  
  
 
दुर्योधन ने एक बार भीम की शैया पर सांप भी छोड़ था। [[महाभारत]] के चौदहवें [[दिन]] की रात्रि में भी युद्ध होता रहा। उस रात पांडवों ने [[द्रोणाचार्य|द्रोण]] पर आक्रमण किया था। युद्ध में भीम ने घूंसों तथा थप्पड़ों से ही कलिंग राजकुमार का, जयरात तथा धृतराष्ट्र-पुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध कर दिया। इसके अतिरिक्त भी बाह्लीक, दुर्योधन के दस भाइयों, [[शकुनी]] के पांच भाइयों तथा सात रथियों को भी उसने सहज ही मार डाला।<ref>[[महाभारत]], [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], 127, 128।–  [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]], 155।20-46, 157</ref>     
 
दुर्योधन ने एक बार भीम की शैया पर सांप भी छोड़ था। [[महाभारत]] के चौदहवें [[दिन]] की रात्रि में भी युद्ध होता रहा। उस रात पांडवों ने [[द्रोणाचार्य|द्रोण]] पर आक्रमण किया था। युद्ध में भीम ने घूंसों तथा थप्पड़ों से ही कलिंग राजकुमार का, जयरात तथा धृतराष्ट्र-पुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध कर दिया। इसके अतिरिक्त भी बाह्लीक, दुर्योधन के दस भाइयों, [[शकुनी]] के पांच भाइयों तथा सात रथियों को भी उसने सहज ही मार डाला।<ref>[[महाभारत]], [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], 127, 128।–  [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]], 155।20-46, 157</ref>     

१४:४७, २७ मई २०१२ का अवतरण

भीम अथवा भीमसेन पांडु और कुंती के पुत्र और पांच पाण्डवों में से दूसरे भाई थे। भीम में दस हज़ार हाथियों का बल था और वह गदा युद्ध में पारंगत था। दुर्योधन की ही तरह भीम ने भी गदा युद्ध की शिक्षा श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम से ली थी। महाभारत में भीम ने ही दुर्योधन और दुःशासन सहित गांधारी के सौ पुत्रों को मारा था। द्रौपदी के अलावा भीम की पत्नी का नाम हिडिंबा था जिससे भीम का परमवीर पुत्र घटोत्कच था। घटोत्कच ने ही इन्द्र द्वारा कर्ण को दी गई अमोघ शक्ति को अपने ऊपर चलवाकर अर्जुन के प्राणों की रक्षा की थी। भीम बलशाली होने के साथ-साथ बहुत अच्छा रसोइया भी था । विराट नगर में जब अज्ञातवास के समय जब द्रौपदी सैरंध्री बनकर रह रही थी, द्रौपदी के शील की रक्षा करते हुए उसने कीचक को भी मारा था। श्रीकृष्ण के परम शत्रु मगध नरेश जरासंध को भी भीम ने ही मारा था।

फ़ौज़िया2 का उल्लेख इन लेखों में भी है: कीचक, बल्लव, अश्वत्थामा हाथी, ओधवती नदी, धर्म कुण्ड काम्यवन, द्रौपदी चीरहरण, लाक्षागृह, जरासंध एवं भीमबेटका गुफ़ाएँ भोपाल
भीम द्वारा दु:शासन वध
भीम-जरासंध युद्ध

जीवन परिचय

इनके पेट में वृक नामक तीक्ष्ण अग्नि होने के कारण इनका जन्म वायु देवता के संयोग से हुआ था। इनका जन्म होने पर यह आकाशवाणी हुई थी कि यह बड़े-बड़े बलवालों से भी श्रेष्ठ होगा। गोद में बालक भीम सो रहा था कि व्याघ्र को देखकर कुंती हड़बड़ाकर भागने को उठ बैठीं। उन्हें यह स्मरण ही न रहा कि गोद में बच्चा सो रहा है। इससे भीम गोद से चट्टान पर गिर पड़े। उनकी देह वज्र की तरह कड़ी थी। उसके लगने से चट्टान टूट गई। भीमसेन बचपन से ही बड़े बलवान थे। वे अकेले ही दुर्योधन प्रभृति सौ भाइयों की नाक में दम कर देते थे। इसी से वे इनसे कुढ़े रहते थे। एक बार कौरव और पाण्डव मिलकर गंगा तट पर एक बगीचे में खेलने-कूदने को गये। वहाँ पर दुर्योधन ने भीमसेन को खपा देने का एक उपाय किया। उसने मीठी-मीठी बातों में भुलाकर भोले-भाले भीमसेन को विष मिली हुई मिठाई खिला दी। अब वे जलक्रीड़ा करने लगे। तैरते-तैरते जब भीमसेन पर विष का असर हुआ तब वे बेहोश हो गये। बस, दुर्योधन ने चटपट उन्हें एक लता से बाँध-बूँधकर बहा दिया। भीमसेन इस दशा में डूबकर नागभवन में नाग-कुमारों के ऊपर गिरे तो उन्होंने इन्हें डँस लिया। इस प्रकार एक विष के प्रभाव को दूसरे विष ने उतार दिया। होश में आने पर भीमसेन नाग-कुमारों को मारने-पिटने लगे। उन्होंने भागकर नागराज वासुकि को यह हाल सुनाया। वासुकि तथा नागराज आर्यक (भीम के नाना के नाना) ने भीम को पहचान कर गले से लगा लिया, साथ ही प्रसन्न होकर उसे उस कुण्ड का जल पीने का अवसर दिया जिसका पान करने से एक हज़ार हाथियों का बल प्राप्त होता है। भीम ने वैसे आठ कुण्डों का रसपान करके विश्राम किया। तदनंतर आठ दिवस बाद वह सकुशल घर पहुंचा। दुर्योधन ने पुन: उसे कालकूट विष का पान करवाया था किंतु भीम के पेट में वृक नामक अग्नि थी जिससे विष पच जाता था तथा उसका कोई प्रभाव नहीं होता था। इसी कारण वह वृकोदर कहलाता था।

यह उपाय निष्फल होने पर दुर्योधन ने, अस्त्र-परीक्षा के बहाने, गदायुद्ध में भीमसेन को ठण्डा कर देना चाहा किंतु उसमें भी उसके दाँत खट्टे हुए। इसके पश्चात लाक्षागृह में पाण्डवों के भस्म करने का जो जाल फैलाया गया था उसमें से भागते समय भीमसेन ने माता को कन्धे पर बिठा लिया, नकुल-सहदेव को बगल में ले लिया और युधिष्ठिर तथा अर्जुन को हाथ से उठा लिया। वे इसी दशा में सबको लेकर भाग गये थे। अब ये लोग एक सरोवर के तट पहुँचे। वहाँ एक बड़ा भारी बरगद का पेड़ था। उस पर हिडिम्ब नामक राक्षस, अपनी बहन हिडिम्बा के साथ रहता के साथ, रहता था। कुंती और अन्य चारों पाण्डव तो थककर सो रहे थे पर भीमसेन पहरा देने लगे। इस समय हिडिम्बा राक्षसी सुन्दर स्त्री का रूप रखकर, भीमसेन के पास पहुँची और उनसे पत्नी बनने का अनुरोध करने लगी। भीमसेन ने उसकी बात मान ली और हिडिम्ब राक्षस ल्प मार गिराया। इस राक्षस के मारने से भीमसेन के साथ अन्य राक्षसों की शत्रुता हो गई। आगे चलकर उन्होंने कई अवसरों पर भीमसेन से बदला लेने की कोशिश कि किंतु सभी मारे गये। हिडिम्बा के गर्भ से भीम के घटोत्कच नाम का एक लड़का पैदा हुआ। यह पाण्डवों के बड़े काम आया। इससे भीमसेन का बल और राक्षसों की माया थी।

एकचक्रा नगरी में रहते समय भीमसेन ने वक राक्षस को मारकर वहाँ वालों का संकट काटा था। उक्त नगरी में रहते समय ही पाण्डवों को द्रौपदी के स्वयंवर की सूचना मिली थी।

राजसूय यज्ञ

श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन-स्नातक का रूप रखकर-गिरिव्रज में गये थे। वहाँ भीमसेन ने युद्ध करके जरासन्ध को पछाड़ा था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की इच्छा करने पर भीमसेन ने पांचाल, विदेह, गण्डक और दशार्ण प्रभृति देशों पर विजय प्राप्त करके पुलिन्द नगर के अधिपति सुकुमार, चेदिराज शिशुपाल, कुमार राज्य के स्वामी श्रेणिमान, कोशल देश के राजा बृहद्बल, अयोध्या-नरेश दीर्घयज्ञ और काशिराज सुबाहु प्रभृति से 'कर' वसूल किया था। फिर उत्तर दिशा पर चढ़ाई करके मोदागिरि और गिरिव्रज आदि के राजाओं को तथा शक, बर्बर और समुद्रतट-निवासी म्लेच्छ आदि को वश में कर लिया था।

यज्ञ हो चुकने पर जब युधिष्ठिर शकुनि के साथ जुआ खेलने में सर्वस्व गँवा चुके और दुर्योधन ने अपनी जाँघ दिखलाकर जब द्रौपदी का अपमान किया तब भीमसेन ने उस दरबार में ही उस जाँघ को तोड़ने की-बदला लेने-की प्रतिज्ञा की थी। राज-पाट छिन जाने पर वन को जाते हुए भीमसेन को दुशासन ने तरह-तरह से चिढ़ाया था, उनको मकुना, खोखला तिल और बैल कहा था। इससे क्रुद्ध होकर भीमसेन ने प्रतिज्ञा की थी कि युद्ध-क्षेत्र में मारकर तेरा रक्तपान करूँगा।

पाण्डव लोग जिस समय काम्यक वन में दिन बिता रहे थे उस समय वक राक्षस के भाई किर्मीक ने बदला लेने के लिए भीमसेन पर हमला किया था। भीमसेन ने उसे युद्ध में मार डाला था।

कुबेर की नगरी

वनवास के समय एक दिन द्रौपदी के पास, हवा में उड़कर, एक फूल आ गिरा। उसकी विलक्षण सुगन्ध देख जब द्रौपदी ने भीमसेन से वैसे ही फूल ला देने को कहा तब वे उस ओर गये जिधर से वह फूल आया था। रास्ते में हनुमानजी से भेंट हो गई। जान-पहचान तो थी नहीं इससे भीमसेन ने उन्हें मामूली बन्दर समझ कुछ उलटी-पलटी बातें कह दीं। अंत में परिचय पाने पर खेद प्रकट किया। जिस रूप को धारण करके हनुमानजी समुद्र पार गये थे वह रूप उन्होंने भीमसेन को प्रार्थना करने पर दिखला दिया। फिर हनुमानजी से उस पुष्प के उत्पत्तिस्थान-कुबेर के उपवन- का पता पाकर भीमसेन उसी ओर गये। वे बगीचे से फूल तोड़ने लगे तो कुबेर के सेवकों ने रोका और कुबेर को सूचना दी।

इसके पश्चात यथास्थान लौट जाने पर एक दिन जटासुर जब द्रौपदी को ले भागा तब भीमसेन ने उसको मारकर द्रौपदी की रक्षा की। काम्यक वन में रहते समय ही एक दिन पाण्डव लोग घूमते-फिरते कुबेर की नगरी में जा निकले। वहाँ झगड़ा हो गया जिसमें बहुत से यक्ष, राक्षस आदि भीमसेन के हाथों से मारे गये।

युधिष्ठिर ने बचाया

द्वैतवन में रहते समय एक बार भीमसेन एक अजगर की चपेट में आ गये। बात यह थी कि राजा नहुष, ऋषियों के शाप से, अजगर होकर वहाँ पड़े रहते थे। उस अजगर के पंजे से छोटने के लिए भीमसेन ने बड़ा ज़ोर लगाया, पर कुछ न हुआ। अंत में युधिष्ठिर ने अजगर-रूपी नहुष के अनेक प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देकर भाई को बचाया। द्रौपदी को जब जयद्रथ ले भागा था। तब अर्जुन के साथ भीमसेन ने उसको हराकर द्रौपदी को बचाया था। युधिष्ठिर न रोकते तो भीमसेन जयद्रथ के प्राण लिये बिना न मानते। वे एक बार ऐसे सरोवर में पानी भरने और पीने को पहुँच गये जिस पर यक्ष का अधिकार था। रोके जाने पर भी वे पानी में उतर पड़े। इससे निर्जीव हो गये। इस बार भी युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर भीमसेन के प्राण बचाये थे। पाण्डवों ने भेष बदलकर राजा विराट के यहाँ अपना अज्ञातवास का समय बिताया था। भीमसेन उस समय राजा के रसोइया बने हुए थे। उन्होंने अपना नाम बल्लव रख लिया था। वहाँ रहते समय, राजा के सेनापति और साले, कीचक ने द्रौपदी को बहुत तंग कर रखा था। अंत में लाचार होकर द्रौपदी ने जब भीमसेन के आगे अपना दुखड़ा रोया तो बल्लव-नामधारी भीम ने कीचक को कुचल डाला। उसके मारे जाने की खबर पाकर त्रिगर्तराज सुशर्मा, विराट का गोधन छीनने को, चढ़ दौड़ा। सामना करने जाकर राजा विराट पकड़ लिये गये। तब भाइयों सहित भीम ने जाकर विराट को छुटाया और सुशर्मा को ऐसी मार मारी कि जिसका नाम।

कुरुक्षेत्र का युद्ध

कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ने पर भीमसेन ने सेनापति की हैसियत से, युद्ध करके सारे कौरवों और उनके सेनापतियों का वध किया था। उन्होंने दुशासन का रक्त पीकर और दुर्योधन की जाँघें तोड़कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। युद्ध शांत हो जाने पर जब सब लोग हस्तिनापुर में पहुँचे तब धृतराष्ट्र ने, सांत्वना देने के बहाने, भीमसेन को अपने हृदय से लगाना चाहा। धृतराष्ट्र के मन की बात श्रीकृष्ण पहले से जानते थे। अतएव आलिंगन करने के लिए उन्होंने भीमसेन की लोहे की मूर्ति, जो पहले से तैयार रखी थी, उनके आगे करवा दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को इतने ज़ोर से दबाया कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये।

दुर्योधन ने एक बार भीम की शैया पर सांप भी छोड़ था। महाभारत के चौदहवें दिन की रात्रि में भी युद्ध होता रहा। उस रात पांडवों ने द्रोण पर आक्रमण किया था। युद्ध में भीम ने घूंसों तथा थप्पड़ों से ही कलिंग राजकुमार का, जयरात तथा धृतराष्ट्र-पुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध कर दिया। इसके अतिरिक्त भी बाह्लीक, दुर्योधन के दस भाइयों, शकुनी के पांच भाइयों तथा सात रथियों को भी उसने सहज ही मार डाला।[१]

धृतराष्ट्र से भीमसेन का बचाव

युद्ध के भयंकर कांड का समापन योद्धाओं की मां, बहन, पत्नियों के रूदन तथा मृत वीरों की अंत्येष्टि क्रिया से हुआ। इसी निमित्त हस्तिनापुर पहुंचने पर धृतराष्ट्र को रोती हुई द्रौपदी, पांडव, सात्यकि तथा श्री कृष्ण भी मिले। यद्यपि व्यास तथा विदुर धृतराष्ट्र को पर्याप्त समझ चुके थे कि उनका पांडवों पर क्रोध अनावश्यक है। इस युद्ध के मूल में उनके प्रति अन्याय कृत्य ही था, अत: जनसंहार अवश्यभावी था तथापि युधिष्ठर को गले लगाने के उपरांत धृतराष्ट्र अत्यंत क्रोध में भीम से मिलने के लिए आतुर हो उठे। श्रीकृष्ण उनकी मनोगत भावना जान गये, अत: उन्होंने भीम को पीछे हटा, उनके स्थान पर लोहे की आदमक़द प्रतिमा धृतराष्ट्र के सम्मुख खड़ी कर दी। धृतराष्ट्र में दस हज़ार हाथियों का बल था। वे धर्म से विचलित हो भीम को मार डालना चाहते थे क्योंकि उसी ने अधिकांश कौरवों का हनन किया था। अत: लौह प्रतिमा को भीम समझकर उन्होंने उसे दोनों बांहों में लपेटकर पीस डाला। प्रतिमा टूट गयी किंतु इस प्रक्रिया में उनकी छाती पर चोट लगी तथा मुंह से ख़ून बहने लगा, फिर भीम को मरा जान उसे याद कर रोने भी लगे। सब अवाक देखते रह गये। श्रीकृष्ण भी क्रोध से लाल-पीले हो उठे। बोले-'जैसे यम के पास कोई जीवत नहीं रहता, वैसे ही आपकी बांहों में भी भीम भला कैसे जीवित रह सकता था! आपका उद्देश्य जानकर ही मैंने आपके बेटे की बनायी भीम की लौह-प्रतिमा आपके सम्मुख प्रस्तुत की थी। भीम के लिए विलाप मत कीजिये, वह जीवित है।' तदनंतर धृतराष्ट्र का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने सब पांडवों को बारी-बारी से गले लगा लिया।[२]

भीमसेन के पुत्र

द्रौपदी के गर्भ से भीमसेन का जो पुत्र उत्पन्न हुआ था उसका नाम सुतसोम था। उसे अश्वत्थामा ने मार डाला काशिराज-पुत्री बलन्धरा से उत्पन्न इनके पुत्र का नाम सर्वग था। भीमसेन में जिस प्रकार अत्यधिक मात्रा में बल था उसी प्रकार उनमें बुद्धि की कमी थी। यदि वे बुद्धिमान होते तो जरासन्ध के जीतने के लिए उन्हें श्रीकृष्ण की बुद्धि की अपेक्षा न रहती। फिर भी वे निरे बुद्धिहीन न थे। क्रोधी तो वे बहुत बड़े थे। अकेले उन्होंने अपने चाचा धृतराष्ट्र के सौ बेटों को खपा डाला। पुत्रों के मारे जाने पर धृतराष्ट्र जब युधिष्ठिर के आश्रय में रहकर जी खोलकर दानपुण्य किया करते थे तब भीमसेन कभी-कभी एक-आध लगती हुई बात कह दिया करते थे। कैसे न कहते? अपने चचेरे भाइयों से उन्हें जैसा कुछ दुख मिला था उसे वे क्योंकर भूल सकते थे? यदि वे उसे भूल जाते तो कहना पड़ता कि उनमें नाम लेने की भी समझ नहीं है।

द्युतक्रीड़ा

भीमसेन अपन भाइयों को बहुत मानते थे। युधिष्ठिर का तो वे बहुत अधिक आदर करते थे। पर जुए में द्रौपदी को हार जाने के कारण वे युधिष्ठिर पर बुरी तरह बिगड़ खड़े हुए। उन्होंने कहा-भाई साहब, राजा लोग आपको भेंट में जो धन दे गये थे वह सब आपने हार दिया। सवारियों, हथियारों और साम्राज्य को ही अपने नहीं गँवाया, प्रत्युत हम लोगों को भी दाँव पर रख दिया। इस सबको चुपचाप सह लिया। कारण यह था कि बड़े भाई होने से आप ही सारी सम्पत्ति के और हमारे स्वामी थे, परंतु द्रौपदी को दाँव में बदलकर हार जाना अक्षम्य है। इसे मैं सहन नहीं कर सकता। जुआरियों के घर में जो वेश्याएँ होते हैं उन्हें भी वे दाँव पर नहीं लगाते। अपनी स्त्री की तो बात ही अलग है। आपके ही कारण द्रौपदी कौरवों द्वारा अपमानित और लांछित हो रही हैं। इससे मुझे बड़ा क्रोध चढ़ आया है। इसे मैं आप पर ही उतारूँगा। जिन हाथों से आपने बेढंगा जुआ खेला है उन्हें मैं अभी आग में जला दूँगा। सहदेव, झटपट आग लाओ।

भीमसेन के संबंध में धृतराष्ट्र की यह उक्ति सुनने लायक है- भीमसेन के भय के मारे मुझे रात को नींद नहीं आती। इन्द्र्तुल्य तेजस्वी भीम का सामना कर सकवे वाला एक आदमी भी मुझे अपनी ओर नहीं दीख पड़ता। वह बड़ा उत्साही, क्रोधी, उद्दण्ड, टेढ़ी नज़र से देखने वाला और कड़ी आवाज वाला है। न तो वह हँसी-दिल्लगी करता है और न वैर को भूलता है। वह बहुत अधिक परिमाण में भोजन करता और एकाएक काम कर बैठता है। उसके हाथों सताये हुए मेरे लड़के बचपन में थर-थर काँपते थे। झगड़े के समय ही भीमसेन ने मेरे लड़कों को छोड़ दिया, यही बड़ा लाभ है। भीमसेन बचपन में भी कभी मेरे कहें में नहीं रहा। इस समय तो बेटों ने उसे तरह-तरह से कष्ट दिये हैं, भला अब वह मेरी बात मानने लगा? व्यासजी ने मुझे बतलाया है कि अद्वितीय शूर और बली भीमसेन गोरे रंग का तथा ताड़ के पेड़ जैसा ऊँचा है। वह अर्जुन से भी मुट्टी-भर ऊँचा है। वह वेग में घोड़े से और बल में हाथी से भी बढ़कर है।

"जरासन्ध ने तमाम राजाओं को जीत लिया था। दैवयोग से केवल कुरुगण भीष्म के प्रभाव से और यादव लोग नीति के बल से जरासन्ध के काबू में नहीं हुए थे। उसी जरासन्ध के काबू में नहीं हुए थे। उसी जरासन्ध को भीम ने अस्त्र-शस्त्र से नहीं, केवल बाहुबल से मार डाला। भला उससे मेरे बेटों को कौन बचावेगा।"

भाई की रक्षा

द्रोणाचार्य का सामना करने वाले योद्धा थे ही कितने? किंतु एक दिन भीमसेन ने उनको भी खूब हैरान किया था। जिस दिन जयद्रथ को मारकर अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने वाले थे उस दिन बड़ा घमासान युद्ध हो रहा था। देर तक अर्जुन की कुछ खबर न मिलने से युधिष्ठिर बड़े चिंतित हुए। युद्ध पर जाने से पूर्व अर्जुन युधिष्ठिर की रक्षा का भार भीम को सौंप गये थे। इसलिए उन्हें अर्जुन की खबर लाने को जाने की इच्छा न होती थी पर बड़े भाई के आग्रह को कहाँ तक टालते। अंत में धृष्टद्युम्न के यह जिम्मा लेने पर, कि मैं इन्हें द्रोणाचार्य के चंगुल से बचाये रहूँगा, भीमसेन भाई की खबर लाने को रवाना हुए और विपक्ष की सेनाओं को मारते-काटते आगे बढ़े तो द्रोणाचार्य ने बाण वर्षा करके उन्हें रोक दिया। आचार्य की मार-काट से क्रुद्ध हो भीमसेन रथ से कूद दौड़े। उन्होंने आचार्य के रथ को उठाकर पलट दिया। यदि आचार्य फुर्ती से कूदकर अलग न हो जाते तो रथ के साथ उनकी भी हड्डी-पसली एक हो जाती। आचार्य बार-बार नये रथ बैठते और भीमसेन उसको बात की बात में पटककर तोड़ डालते थे। इस प्रकार उन्होंने आचार्य के आठ रथों को तोड़-ताड़कर लोगों को अचम्भे में डाल दिया था।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, 127, 128।– द्रोणपर्व, 155।20-46, 157
  2. महाभारत, स्त्रीपर्व, 12, 13।-
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