विपुल पर्वत  

विपुल पर्वत अथवा 'विपुलगिरि' अथवा 'विपुलाचल' राजगृह[१] के सात पर्वतों में परिगणित है। इस पर्वत का महाभारत, सभापर्व[२] दक्षिणात्य पाठ में उल्लेख है-

'पाडंरे विपुले चैव तथा वाराहकेसपि च चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातंगेच शिलाच्चये।'

'सब्वे विजीवा इच्छन्ति, जीवउंण मरिज्जउं, तम्हा पाणिवधं समणा परिवज्जयंतिण।'

अर्थात "सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए प्राणिवाध घोर पाप है। जो श्रमण हैं, वे इसका परित्याग करते हैं।"

  • विष्णुपुराण[४] के अनुसार विपुल इलावृत के चार पर्वतों[५] में से पश्चिम की ओर का पर्वत है-

'विपुलः पश्चिमे पाश्वे सुपार्श्वश्चोत्तरै स्मृत:।'


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजगीर, बिहार
  2. सभापर्व 2,1
  3. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 860 |
  4. विष्णुपुराण 2,2,17
  5. विपुल, सुपार्श्व, मंदर, गंधमादन

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः



"https://amp.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=विपुल_पर्वत&oldid=509868" से लिया गया