राव मालदेव  

राव मालदेव (1544 ई.) मारवाड़ (राजस्थान) के वीर और शक्तिशाली राजाओं में से एक थे। उनकी राजधानी जोधपुर थी। राव मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति से शेरशाह काफ़ी चिंतित रहा करता था। इसीलिए उसने बीकानेर नरेश कल्याणमल एवं मेड़ता के शासक वीरमदेव के आमन्त्रण पर राव मालदेव के विरुद्ध सैन्य अभियान किया। राव मालदेव और वीरमदेव की आपसी अनबन का शेरशाह ने बखूवी लाभ उठाया और युद्ध में विजय प्राप्त की।

राजगद्दी की प्राप्ति

12 मई, 1531 को राव गंगा के निधन के बाद राव मालदेव जोधपुर के शासक बने थे, जो अपने समय के राजपूताना के सबसे शक्तिशाली शासक माने जाते थे। मालदेव और वीरमदेव में आपसी कटुता बहुत ज़्यादा थी। अतः शासक बनते ही उन्होंने मेड़ता पर आक्रमण शुरू कर दिए थे।

डीडवाना पर अधिकार

पराकर्मी वीरमदेव ने अजमेर में मालवा के सुल्तान के सूबेदार को भगाकर अजमेर पर अधिकार कर लिया, जो मालदेव को सहन नहीं हुआ और उसने अपने पराकर्मी सेनापति 'जैता' और 'कुंपा' के नेतृत्व में विशाल सेना भेज कर मेड़ता और अजमेर पर हमला कर वीरमदेव को हरा कर खदेड़ दिया, लेकिन साहसी वीरमदेव ने डीडवाना पर अधिकार कर लिया। मालदेव की विशाल सेना ने वहाँ भी वीरमदेव को जा घेरा।

शेरशाह से युद्ध

डीडवाना भी हाथ से निकल जाने के बाद वीरमदेव अमरसर राव रायमल जी के पास आ गया, जहाँ वह एक वर्ष तक रहा और आखिर में शेरशाह सूरी के पास जा पहुँचा। राव मालदेव की वीरमदेव के साथ अनबन का फायदा शेरशाह ने उठाया। चूँकि मालदेव की हुमायूँ को शरण देने की कोशिश ने शेरशाह को क्रोधित कर दिया था, जिसके चलते शेरशाह ने अपनी सेना मालदेव की महत्त्वाकांक्षा के चलते वीरमदेव व बीकानेर के कल्याणमल के साथ भेजकर जोधपुर पर चढाई कर दी। दोनों सेनायें 'भल' नामक स्थान पर एक-दूसरे के सम्मुख आ खड़ी हुईं। यहाँ भी शेरशाह ने कूटनीति का सहारा लेते हुए मालदेव के शिविर में यह भ्रांति फैला दी कि उसके सरदार उसके साथ नहीं हैं। इससे मालदेव ने निराश होकर बिना युद्ध किये वापस होने का निर्णय कर लिया। फिर भी उसके सेनापति जैता और कुंपा ने अपने ऊपर किये गये अविश्वास को मिटाने के लिए शेरशाह की सेना से टक्कर ली, परन्तु वे वीरगति को प्राप्त हुए।

शेरशाह की विजय

इस युद्ध को जीतने के बाद शेरशाह ने कहा कि- "मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान के साम्राज्य को प्रायः खो चुका था।" शेरशाह ने भागते हुए मालदेव का पीछा करते हुए अजमेर, जोधपुर, नागौर, मेड़ता एवं आबू के क़िलों को अधिकार में कर लिया। शेरशाह की यह विजय उसके मरने के बाद स्थायी नहीं रह सकी। अभियान से वापस आते समय शेरशाह ने मेवाड़ को भी अपने अधीन कर लिया। जयपुर के कछवाह राजपूत सरदारों ने भी शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश क्षेत्र शेरशाह के नियंत्रण में आ गया।


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