आदर्शवाद  

आदर्शवाद 1. प्रत्यय और आदर्श-कुछ विचारकों के अनुसार मुनष्य और अन्य प्राणियों में प्रमुख भेद यह है कि मनुष्य प्रत्ययों का प्रयोग कर सकता है और अन्य प्राणियों में यह क्षमता विद्यमान नहीं। कुत्ता दो मनुष्यों को देखता है, परंतु 2 को उसने कभी नहीं देखा। प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं-वैज्ञानिक और नैतिक, संख्या, गुण, मात्रा आदि वैज्ञानिक प्रत्ययों का अस्तित्व तो असंदिग्ध है, परंतु नैतिक प्रत्ययों का अस्तित्व विवाद का विषय बना रहा है। हम कहते हैं-'आज मौसम बहुत अच्छा है'। यहाँ हम अच्छेपन का वर्णन करते हैं और इसके साथ अच्छाई के अधिक न्यून होने की ओर संकेत करते हैं। इसी प्रकार का भेद कर्मो के संबंध में भी किया जाता है। नैतिक प्रत्यय को आदर्श भी कहते हैं। आदर्श एक ऐसी स्थिति है, जो (1)वर्तमान में विद्यमान नहीं, (2) वर्तमान स्थिति की अपेक्षा अधिक मूल्यवान्‌ है, (3) अनुकरण करने के योग्य है और (4) वास्तविक स्थिति का मूल्य जांचने के लिए मापक का काम देती है। आदर्श के प्रत्यय में मूल्य का प्रत्यय निहित है। मूल्य के अस्तित्व की बाबत हम क्या कह सकते हैं?

कुछ लोग मूल्य को मानव कल्पना का पद ही देते हैं। जो वस्तु किसी कारण से हमें आकर्षित करती है, वह हमारी दृष्टि में मूल्यवान या भद्र है। इसके विपरीत अफ़लातून के विचार में प्रत्यय या आदर्श ही वास्तविक अस्तित्व रखते हैं, दृष्ट वस्तुओं का अस्तित्व तो छाया मात्र है। एक तीसरे मत के अनुसार, जिसका प्रतिनिधित्व अरस्तू करता है, आदर्श वास्तविकता का आरंभ नहीं, अपितु 'अंत' है। 'नीति' के आरंभ में ही वह कहता है कि सारी वस्तुएँ आदर्श की ओर चल रही हैं।

मूल्यों में उच्च और निम्न का भेद होता है। जब हम कहते हैं कि क ख से उत्तम है, तब हमारा आशय यही होता है कि सर्वोत्तम से ख की अपेक्षा क का अंतर थोड़ा है। मूल्य क तुलना का आधार सर्वोत्तम है। इसे नि:श्रेयस कहते हैं। प्राचीन यूनान और भारत के लिए नि:श्रेयस या सर्वश्रेष्ठ मूल्य के स्वरूप का समझना ही नीति में प्रमुख प्रश्न था।

2. नि:श्रेयस का स्वरूप-नि:श्रेयस या सर्वोच्च आदर्श के स्वरूप के संबंध में सभी इससे सहमत हैं कि यह चेतना से संबद्ध है, परंतु ज्योंही हम जानना चाहते हैं कि चेतना में कौन सा अंश साध्यमूल्य है, त्योंही मतभेद प्रस्तुत हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि सुख का उपभोग ऐसा मूल्य है। कुछ ज्ञान, बुद्धिमत्ता, प्रेम या शिवसंकल्प को यह पद देते हैं। कुछ इस विकल्प में एकवाद को छोड़कर अनेकवाद की शरण लेते हैं ओर कहते हैं कि एक से अधिक वस्तुएँ साध्यमूल्य हैं किसी वस्तु के साध्यमूल्य होने या न होने का निर्णय करने के लिए डाक्टर मूर ने निम्नलिखित सुझाव दिया है: कल्पना करो कि दो विकल्पों मे पूर्ण समानता है, सिवाय इस भेद के कि एक विशेष वस्तु एक विप्लव में विद्यमान है। इन दोनों विप्लवों में तुम्हारी बुद्धि किसके अस्तित्व को अधिक उपयुक्त समझती है? जो वस्तु ऐसी स्थिति में एक विप्लव को दूसरे से अधिक उपयुक्त बनाती है, वह साध्यमूल्य हैं।

3. आदर्शवाद की मान्य धारणाएँ-मूल्यों का अस्तित्व, उनमें श्रेष्ठता का भेद ओर सर्वश्रेष्ठ मूल्य का अस्तित्व आदर्शवाद की मौलिक धारणा है। इससे संबद्ध कुछ अन्य धारणाएँ भी आदर्शवादियों के लिए मान्य हैं। इनमें से हम यहाँ तीन पर विचार करेंगे: (1) सामान्य का पद विशेष से ऊँचा है। प्रत्येक बुद्धिवंत बुद्धिवंत होने के नाते भद्र में भाग लेने का अधिकारी है। (2) आध्यात्मिक भद्र का मूल्य प्राकृतिक भद्र से अधिक है। (3) बुद्धिवंत प्राणी (मनुष्य) में भद्र को सिद्ध करने की क्षमता है। मनुष्य स्वाधीन कर्ता है।

इन तीनों धारणाओं पर तनिक विचार की आवश्यकता है।

(1) स्वार्थ और सर्वार्थ-सामान्य और विशेष का भेद स्वार्थवाद और सर्वार्थवाद के विवाद में प्रकट होता है। भोगवाद (सुखवाद) ने स्वार्थ से आरंभ किया, परंतु शीघ्र ही इसके ध्एय में सर्वार्थ ने स्थान प्राप्त कर लिया। मनुष्य का अंतिम उद्देश्य अधिक से अधिक संख्या का अधिक से अधिक उपभोग है। दूसरी ओर कांट ने भी कहा कि निरपेक्ष आदेश की दृष्टि में सारे मनुष्य एक समान साध्य हैं, कोई मनुष्य भी साधन मात्र नहीं। मृत्यु की तरह नैतिक जीवन सभी भेदों को मिटा देता है। कोई मनुष्य कर्तव्य से ऊपर नहीं, कोई अधिकारों से वंचित नहीं

(2) आध्यात्मिक और प्राकृतिक मूल्य-इस विषय में कांट का कथन प्रसिद्ध है: जगत में ओर इसके परे भी हम शिवसंकल्प के अतिरिक्त किसी वस्तु का भी चिंतन नहीं कर सकते, जो बिना किसी शर्त के शुभ या भद्र हो। जान स्टुअर्ट मिल जैसे सुखवादी ने भी कहा, तृप्त सुअर से अतृप्त सुकरात होना उत्तम है। मिल ने यह नहीं देखा कि इस स्वीकृति में वह अपने सिद्धांत से हटकर आदर्शवाद का समर्थन कर रहे हैं। सुकरात में ऐसा आध्यात्मिक अंश है जो सुअर में विद्यमान नहीं।

टामस हिल ग्रीन ने विस्तार से यह बताने का यत्न किया है कि आधुनिक नैतिक भावना प्राचीन यूनान की भावना से इन दो बातों में बहुत आगे बढ़ी है-मनुष्य और मनुष्य में भेद कम हो गया है,और जीवन में आध्यात्मिक पक्ष अग्रसर हो रहा है।

(3) नैतिक स्वाधीनता-कांट के विचार में मानव प्रकृति में प्रमुख अंश 'नैतिक भावना' का है, वह अनुभव करता है कि कर्त्तव्यपालन की मांग शेष सभी मांगों से अधिक अधिकार रखती है, नैतिक आदेश 'निरपेक्ष आदेश' है। इस स्वीकृति के साथ नैतिक स्वाधीनता की स्वीकृति भी अनिवार्य हो जाती है। 'तुम्हें करना चाहिए, इसलिए तुम कर सकते हो।' योग्यता के अभाव में उत्तरदायित्व का प्रश्न उठ ही नहीं सकता।[१]

4. श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम-यहाँ एक कठिन स्थिति प्रस्तुत हो जाती है: नैतिक आदर्श श्रेष्ठतम की सिद्धि है या उसकी ओर चलते जाना है? जिस अवस्था को हम श्रेष्ठतम समझते हैं, उसे प्राप्त करने पर उसे श्रेष्ठतम ही पाते हैं। जहाँ कहीं भी हम पहुँचे, त्रुटि ओर अपूर्णता बनी रहती है। स्वयं कांट ने कहा है कि हमारा अंतिम उद्देश्य पूर्णता है, और इसकी सिद्धि के लिए अनंत काल की आवश्यकता है। कुछ विचारक तो कहते हैं कि अपूर्णता का कुछ अंश रहना ही चाहिए। सोर्टो अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'नैतिक मूल्य' में कहता है: 'कल्पना करो कि सारे मूल्यों की सिद्धि हो गई है। ऐसा होने पर नीति का क्या बनेगा? आगे बढ़ने के लिए कोई आदर्श रहेगा ही नहीं। सफलता सारे प्रयत्न का अंत कर देगी और इस तरह सिद्धि प्राप्त नैतिक आदर्श जीवन को पूर्ण करने में समाप्त कर देगा। इस कठिनाई के कारण ब्रैडले ने कहा कि नैतिक जीवन में आंतरिक विरोध है: सारे नैतिक प्रयत्न का अंत इसकी अपनी हत्या है।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 367-68 |
  2. सं.ग्रं.-प्लेटो: रिपब्लिक; अरस्तू: एथिक्स; कांट: मेटाफिज़िक्स ऑव एथिक्स; मूर: एथिक्स।

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