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परिचय

बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के पूर्वोत्तर में स्थित है। यह एक पहाड़ी इलाका है, जिसमें पूर्व स्वातंत्रय युग में अनेक छोटी बड़ी इमारतें थी। बुंदेलखंड का अधिकांश भूभाग अब उत्तर प्रदेश में है, किन्तु कुछ भाग मध्यप्रदेश में भी मिला है। यह उस भूखण्ड का नाम है, जिसके उत्तर में यमुना और दक्षिण में विन्ध्य पर्वत-श्रृंखला, पूर्व में बेतवा और पश्चिम में होंस अथवा तमसा नदी स्थित है। एक अन्य कवि ने अपनी कविता में बुंदेलखंड का परिचय इस प्रकार दिया है-

खजुराहो, देवगढ़ का दुनिया भर में बखान ।
पत्थर की मूर्तियों को मानो निल गए प्रान।।
चन्देरी, ग्वालियर की ऐतिहासिक कीर्ति-छटा।
तीर्थ अमरकंटक, चित्रकूट, बालाजी महान।।
सोनागिरि, पावा गिरि, पपौरा के धर्म-स्थल।
अपने धर्म-संस्कृति पर हमको भारी घमंड।।
जय जय भारत अखंड जय बुंदेलखंड ।।

इतिहास

बुंदेलों का पूर्वज पंचम बुंदेला था। बुंदेलखंड बुंदेल राजपूतों के नाम पर प्रसिद्ध है जिनके राज्य की स्थापना 14वीं शती में हुई थी। इससे पूर्व यह प्रदेश जुझौती अथवा जजाकभुक्ति नाम से जाना जाता था और चन्देलों द्वारा नवीं से चौदहवीं शताब्दी तक शासित होता रहा। श्री गोरेलाल तिवारी का मत है कि बुंदेलखंड नाम विंध्येलखंड का अपभ्रंश है। राज्य के प्रमुख नगर थे-

खजुराहो ज़िला भरतपुर खजुराहो में आज भी अनेक भव्य वास्तुकृतियाँ अवशिष्ट हैं।

महोवा-ज़िला हमीरपुर तथा कालंजर कालंजर में राज्य की सुरक्षा के लिए एक मजबूत क़िला था। शेरशाह इस क़िले की घेराबन्दी के समय 1545 ई॰ के समय यहीं मारा गया था।

ज़िला बाँदा

अनेक इतिहास पुरुषों और आल्हा की बाबन लड़ाईया बुंदेलखंड का प्रमाण हैं। यहाँ के वीर योद्धा बुन्देला कहलाए, बुन्देली यहाँ की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना की बोली रही है। यहाँ के लोग बुन्देली बोली बोलने के कारण ही बुन्देला कहलाए। बुन्देलखण्ड के रुपायन का गहरा सम्बन्ध महाराजा छत्रसाल के महत्त्वपूर्ण स्थान जेजामुक्ति से है।

मध्यकाल से पहले बुंदेलखंड शब्द इस नाम से प्रयोग में नहीं आया है।आधुनिक युग में ही इसके अन्य नाम और उनके उपयोग हुए हैं। बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक में बुंदेलखंड का इतिहास रायबहादुर महाराजसिंह ने लिखा था। इसमे बुंदेलखंड के अन्तर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना मुख्य थी।पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि "कृष्ण" तथा दीवान प्रतिपाल सिंह ने अपने स्रोतों से बुंदेलखंड का इतिहास लिखा परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे।

उद्योग और व्यापार

 दस्तकारी के लिए बुंदेलखंड की प्रसिद्ध दूर-दूर तक है। चंदेरी के कपड़ा और ज़री के काम के लिए, गऊ कपड़े बुनने के लिए तथा दतिया, ओरछा, पन्ना और छतरपुर मिट्टी के बर्तन तथा लकड़ी और पत्थर के काम के लिए यह प्रसिद्ध है। यहाँ कोरियों के द्वारा जाजम, दरी, कालीन, लोहारों के द्वारा बन्दूक के कुन्दे और नाल, गड़रियों के द्वारा कंबल तथा बजीरों के द्वारा चटाईयाँ, बच्चों के लेटने के लिए चँगेला, टोकनियाँ, चुलिया-टिपारे और पँखे आदि बड़ी कुशलता से बनाते हैं।

अवधारणा के अनुसार

एक प्रचलित अवधारणा के अनुसार वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य प्लेटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिण पूर्व में पन्ना, और अजमगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के चार ज़िले- जालौन, झाँसी, हमीरपुर और बाँदा मध्यप्रेदश के चार ज़िले- दतिया, टीकमगढ़, छत्तरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में चम्बल नदी तक प्रसरित विस्तृत प्रदेश के नाम था। कनिंघम ने "बुन्देलखण्ड के विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के जिलों सहित विन्ध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था" माना है।

संस्कृति

बुन्देली संस्कृति के रंग अत्यधिक समृद्ध और विविधवर्णी है। डॉ. नर्मदाप्रसाद गुप्त के द्वारा लिखा गया है कि यहाँ की लोक संस्कृति पुलिंद, निषाद शबर, रामठ, दाँगी आदि आर्येतर संस्कृतियों के द्वारा प्रभावित थी। आर्य ॠषियों की आश्रमी संस्कृति रामायण काल में फली-फूली थी। और वन्य संस्कृति महाभारत काल में भी बनी रही थी। बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति की नींव नाग वाकाटक काल में रखी गई थी। लोक संस्कृति और लोक कलाओं को इस काल में जितना निखार और उत्कर्ष प्राप्त हुआ है, उतना इन सात-आठ सौ वर्षों में कभी नहीं दिखाई दिया है। बुन्देली लोक संस्कृति और लोक कलाओं की धारा इन समस्त परिवर्तनों और परिवर्द्धनों में भी अजस्त्र रुप से बहती रही है।

बुन्देलखण्ड शौर्य, साहस और श्रृंगार के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध अंचल है। भारत के मध्य भाग में स्थित होने के कारण यहाँ की भूमि पर अनेक जातियों- जनजातियों का हमेशा से आवागमन रहा है। यहाँ अनेक संस्कृतियों आती जाती रही है, इसके कारण बुन्देलखण्ड की संस्कृति में कई जातियों की संस्कृति के बहुत से तत्त्व मिलते हैं। जिनमे योद्धा जातियों- जनजातियों के लोगों की संस्कृतियों का आवागमन अधिक रहा है। इसके कारण यहाँ के लोगों में शौर्य और साहस जैसी प्रवृत्तियों का विकास हुआ है।

खजुराहो के कला मन्दिर इन मंदिरों में बुन्देलखण्ड की ही नहीं, विश्व की अप्रतिम धरोहर हैं। खजुराहो के मन्दिर में एक तरफ़ नृत्य, संगीत और उत्सव आयोजन के दृश्य उत्कीर्ण किये जाते हैं तो दूसरी तरफ़ आखेट, हस्ति युद्ध आदि के दृश्य उत्कीर्ण किये जाते हैं।

राजशेखर ने काव्य मीमांसा में बुन्देलखण्ड के नर्तक, गायक, वादक, चारण, चितेरे, विट, वेश्या, इन्द्रजालिक के अतिरिक्त हाथ के तालों पर नाचनेवाले, तैराक, रस्सों पर नाचनेवाले, दाँतों से खेल दिखानेवाले, पहलवान, पटेबाज और मदारियों का उल्लेख किया है। पूरे बुन्देलखण्ड में उत्सव-महोत्सव मनाने की प्रथा चली आ रही है। इसका उल्लेख अलबरुनी ने किया है-

  • चैत की एकादशी को झूले का दिन
  • पूर्णिमा को वसन्तोत्सव
  • आश्विन पूर्णिमा को पशुओं का त्यौहार और कुश्तियों का आयोजन
  • कार्तिक प्रतिपदा को दीपावली का उत्सव तथा
  • फाल्गुन पूर्णिमा में स्रियों का दोलोत्सव एवं होली, आदि मनाये जाते है, और यह सब बुन्देलखण्ड की भूमि पर आज भी सहज उपलब्ध है।

बुंदेलखंड का भोजन, पेय व वस्राभरण

महुआ और बेर बुंदेलखंड के लोगों का सबसे प्रिय भोजन है। ये दोनों वृक्ष इस जगह के लोकप्रिय वृक्ष हैं। यहाँ महुआ को मेवा, बेर को कलेवा ( नास्ता ) और गुलचुल का सबसे बढ़िया मिष्ठान माना जाता है, जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है

मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई।
इतनी चीजें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।

लटा मछुओं को भूनकर और उसके बाद कूट कर उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिला कर छोटी- छोटी कुचैया की तरह बनाया जाता है, यह इस जगह का विशेष भोजन रहा है। यहाँ के लोग बाहर से आने वाले मेहमानों के लिए इसी भोजन को परोसते थे। यहाँ के लोगों की एक कहावत अधिक प्रचलित हैं कि

खानें को मउआ, पैरबै में अमोआ इस बात का संकेत देती है कि स्थानीय लोगों में मउआ और अमोआ दोनों काफी लोकप्रिय रहा है। भोजन के संबंध में अनेक लोकमान्यताएँ प्रचलित हैं:-

चैत मीठी चीमरी बैसाख मीठो मठा
जेठ मीठी डोबरी असाढ़ मीठे लठा।
सावन मीठी खीर- खँड़ यादों भुजें चना,
क्वाँर मीठी कोकरी ल्याब कोरी टोर के।
कातिक मीठी कूदई दही डारो मारे कों।
अगहन खाव जूनरी मुरी नीबू जोर कें।
पूस मीठी खिचरी गुर डारो फोर कों।
मोंव मीठी मीठे पोड़ा बेर फागुन होरा बालें।
समै- समै की मीठी चीजें सुगर खबैया खावें।

बुंदेलखंड वासियों में हर मौसम में अलग भोजन खाने का प्रचलन था। ये लोग भोजन खाने में कभी- कभी काफ़ी सावधानी से काम लेते हैं। बुंदेलखंड के लोगों में बेर का बहुत ही विशेष महत्व था। यहाँ की एक कहावत है

मुखें बेर, अघाने पोंड़ा ये लोग भोजन खाने से पहले बेर जरूर खाते थे।

कनी उर भाला की अनी यहाँ के लोगों का मानना था कि कच्चे चावल की नोक भाले की नोक के बराबर हानिकारक होती है।

बुंदेलखंड के लोगों के भोजन का प्रभाव लोकसंस्कृति पर दिखाई देता था। इसलिए वह लोग यह मानते थे कि जैसा भोजन किया जाएगा, वैसा ही मन होगा।

जैसो अनजल खाइये, तैसोई मन होये।
जैसो पानी पीजिए, तैसी बानी होय।।

बुन्देलखण्ड की महिमा

इस कविता के द्वारा बुंदेलखंड की महिमा इस प्रकार है।

यह बुन्देलखण्ड की धरती है, हीरे उपजाया करती है।
कालिन्दी शशिमुख की वेणी, चम्बल, सोन खनकते कंगना।
विन्ध्य उरोज साल बन अंचल, निर्मल हँसी दूधिया झरना।
केन, धसान रजत कर धौनी, वेत्रवती साड़ी की सिकुड़न।
धूप छांह की मनहर अंगिया, खजुराहो विलास गृह उपवन।
पहिन मुखर नर्मदा पैंजनी, पग-पग शर्माया करती है।
यह बुन्देलखण्ड की धरती, हीरे उपजाया करती है।

परमानन्द दिया ही इसने, यहीं राष्ट्रकवि हमने पाया।
इसी भूमि से चल तुलसी ने, धर-धर सीताराम रमाया।
चित्रकूट देवगढ़ यहीं पर, पावन तीर्थ प्रकृति रंगशाला।
झांसी के रण-बीचि यहीं पर, धधकी प्रथम क्रान्ति की ज्वाला।
पीछें रहकर यह स्वदेश को, नेता दे जाया करती है।
यह बुन्देलखण्ड की धरती, हीरे उपजाया करती है।

बुंदेलखंड की कला

हमें आज भी बुंदेलखंड के बीते वैभव की झलक उक्त भूमि पर छिटकी हुई पाषाण काल से प्राप्त होती है। इस कला ने बुंदेलखंड की भूमि पर कितना आदर पाया और इस कला का यहाँ कितना विकास हुआ, यह बात पुरातत्व-विशेषज्ञों से छिपी हुई नहीं है। बुंदेलखंड से प्रागैतिहासिक काल कि आदिवासियों द्वारा पूजी जाने वाली मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इनका मूल्य कला की दृष्टि से अधिक नहीं है, किंतु मूर्तिकला के आदि रुप का इनसे अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है। ये मूर्तियाँ बहुत मायने रखती हैं और अमूल्य हैं। बुंदेलखंड के अन्य स्थानों में पक्के रंग की चित्रकारी भी मिलती है। इन चित्रकारियों का रंग इतना पक्का है कि अब तक किसी प्रकार भूमि मिट नही हो पाया है। इन चित्रकारियों में मनुष्यों और घोड़ों के भद्दे चित्र हैं। शिला-भित्तियों पर  देवरा के निकट गैरिक रंग के बने हुए चित्र मानव प्रकृति की आदिम अनुभूतियों के साक्षी हैं। इन चित्रों में पशुओं का प्रदर्शन किया गया है।

रामायण तथा महाभारत के स्वर्ण युगों की कला-कृतियों का संबंध जहाँ तक है, बुंदेलखंड की क्या सारे भारत में वे नहीं के बराबर है। युधिष्ठिर के सभा-भवन का निर्माण महाभारत युग में जिस कुशलता से दानव आदि कलाकारों ने किया था, उसका वर्णन ग्रंथों में ही सीमित है।

कलिं और खजुराहों की कला कृतियाँ

तृतीय शताब्दी से तेहरवीं शताब्दी तक इस प्रांत में उस स्थापत्य कला का सृजन हुआ जो कलिं और खजुराहों की कृत्तियों में जीवन्त रुप में आज भी वर्तमान हैं। कलिं का कला चंदेली काल की है। खजुराहो की उससे भी पहले की है, खजुराहो में चीनी यात्री (जो कि हर्षवर्धन के राज्य-काल में आया था) ह्येनसांग ने भी मंदिर का होना लिखा है। खजुराहो का विशाल मन्दिर, देवगढ़ की विष्णुमूर्ति, दतिया का पुराना महल, पन्ना का बृहस्पति कुण्ड, जतारा का मदनसागर आदि वास्तुकला के प्रमाण है।

खजुराहो में बीस मन्दिरों के समूह की कविकल्पना की मूर्तियों को बनाके पृथ्वी पर उतारा गया है। इस मन्दिर के बाहर और भीतर दोनों ओर की दीवारों को देवताओं, अप्सराओं, सुंदरियों, विद्याधरों, युगल-मिथुनों, गज और शार्दूलों की सुन्दर कला-कृतियों से सजाया गया है। खजुराहों के शिल्पी अनुपम कृतित्व हैं, उसकी नारी प्रतिमाएँ इतनी सुंदर हैं कि उनको देख कर ऐसा लगता है मानो जड़ में चेतन अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ जाग उठा हो। इतना सम्मोहन है कि पाषाण में जीवन सपंदन का भ्रम होने लगता है।

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