संस्कार  

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'संस्कार' शब्द प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता, किन्तु 'सम्' के साथ 'कृ' धातु तथा 'संस्कृत' शब्द बहुधा मिल जाते हैं। ॠग्वेद[१] में 'संस्कृत' शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है, यथा 'दोनों अश्विन पवित्र हुए बरतन को हानि नहीं पहुँचाते।' ॠग्वेद[२] में 'संस्कृतत्र' तथा[३] 'रणाय संस्कृता' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण[४] में आया है-- 'सं इदं देवेभ्यो हवि: संस्कुरु साधु संस्कृतं संस्कुर्वित्येवैतदाह्।' शतपथ ब्राह्मण में आया है[५] 'स्त्री किसी संस्कृत (सुगठित) घर में खड़े पुरुष के पास पहुँचती है'।[६] छान्दोग्य उपनिषद में आया है--[७] 'उस यज्ञ की दो विधियाँ है, मन से या वाणी से, ब्रह्मा उनमें से एक को अपने मन से बनाता या चमकाता है।' जैमिनि के सूत्रों में संस्कार शब्द अनेक बार आया है[८] और सभी स्थलों पर यह यज्ञ के पवित्र या निर्मल कार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यथा ज्योतिष्टोम यज्ञ में सिर के केश मुँड़ाने, दाँत स्वच्छ करने, नाख़ून कटाने के अर्थ में[९]; या प्राक्षेण (जल छिड़कने) के अर्थ में[१०], आदि। जैमिनि के[११] में 'संस्कार' शब्द उपनयन के लिए प्रयुक्त हुआ है। शबर की व्याख्या में 'संस्कार' शब्द का अर्थ बताया है कि[१२] संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार[१३] संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है; पाप-मोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है। वीर मित्रोदय ने संस्कार की परिभाषा इस तरह की है-- यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है।…यह योग्यता दो प्रकार की है-

  • जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं (यथा उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन आरम्भ होता है) के योग्य हो जाता है, तथा
  • दोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है।

संस्कार शब्द गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता (वैखानस में मिलता है), किन्तु यह धर्मसूत्रों में आया है।[१४]

संस्कारों का उद्देश्य

मनु[१५] के अनुसार द्विजातियों में माता-पिता के वीर्य एवं गर्भाशय के दोषों को गर्भाधान-समय के होम तथा जातकर्म (जन्म के समय के संस्कार) से, चौल (मुण्डन संस्कार) से तथा मूँज की मेखला पहनने (उपनयन) से दूर किया जाता है। वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविद्य व्रत, पूजा, सन्तानोत्पत्ति, पंचमहायज्ञों तथा वैदिक यज्ञों से मानवशरीर ब्रह्म-प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। याज्ञवल्क्य[१६] का मत है कि संस्कार करने से बीज-गर्भ से उत्पन्न दोष मिट जाते हैं। निबन्धकारों तथा व्याख्याकारों ने मनु एवं याज्ञवल्क्य की इन बातों को कई प्रकार से कहा है। संस्कार तत्त्व में उद्धृत हारीत[१७] के अनुसार जब कोई व्यक्ति गर्भाधान की विधि के अनुसार संभोग करता है, तो वह अपनी पत्नी में वेदाध्ययन के योग्य भ्रूण स्थापित करता है, पुंसवन संस्कार द्वारा वह गर्भ को पुरुष या नर बनाता है, सीमान्तोन्नयन संस्कार द्वारा माता-पिता से उत्पन्न दोष दूर करता है, बीज, रक्त एवं भ्रूण से उत्पन्न दोष जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण एवं समावर्तन से दूर होते हैं। इन आठ प्रकार के संस्कारों से, अर्थात् गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण एवं समावर्तन से पवित्रता की उत्पत्ति होती है।

यदि हम संस्कारों की संख्या पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि उनके उद्देश्य अनेक थे। उपनयन जैसे संस्कारों का सम्बन्ध था आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों से, उनसे गुण सम्पन्न व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित होता था, वेदाध्ययन का मार्ग खुलता था तथा अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थी। उनका मनौवैज्ञानिक महत्त्व भी था, संस्कार करने वाला व्यक्ति एक नये जीवन का आरम्भ करता था, जिसके लिए वह नियमों के पालन के लिए प्रतिश्रुत होता था। नामकरण, अन्नप्राशन एवं निष्क्रमण ऐसे संस्कारों का केवल लौकिक महत्त्व था, उनसे केवल प्यार, स्नेह एवं उत्सवों की प्रधानता मात्र झलकती है। गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन ऐसे संस्कारों का महत्त्व रहस्यात्मक एवं प्रतीकात्मक था। विवाह-संस्कार का महत्त्व था दो व्यक्तियों को आत्मनिग्रह, आत्म-त्याग एवं परस्पर सहयोग की भूमि पर लाकर समाज को चलते जाने देना।

संस्कारों की कोटियाँ

हारीत के अनुसार संस्कारों की दो कोटियाँ हैं;

  • ब्राह्म एवं,
  • दैव।

गर्भाधान ऐसे संस्कार जो केवल स्मृतियों में वर्णित हैं, ब्राह्म कहे जाते हैं। इनको सम्पादित करने वाले लोग ॠषियों के समकक्ष आ जाते हैं। पाकयज्ञ (पकाये हुए भोजन की आहुतियाँ), यज्ञ (होमाहुतियाँ) एवं सोमयज्ञ आदि दैव संस्कार कहे जाते हैं।

संस्कारों की संख्या

संस्कारों की संख्या के विषय में स्मृतिकारों में मतभेद रहा है। गौतम[१८] ने 40 संस्कारों एवं आत्मा के आठ शील-गुणों का वर्णन किया है। 40 संस्कार ये हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन (कुल 8), वेद के 4 व्रत, स्नान (या समावर्तन), विवाह, पंच महायज्ञ (देव, पितृ, मनुष्य, भूत एवं ब्रह्म के लिए), 7 पाकयज्ञ (अष्टका, पार्वण-स्थालीपाक, श्राद्ध, श्रांवणी, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी), 7 हविर्यज्ञ जिनमें होम होता है, किन्तु सोम नहीं (अग्नयाधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणी), 7सोमयज्ञ (अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तोर्याम)।

शंख एवं मिताक्षरा[१९] की सुबोधिनी गौतम की संख्या को मानते हैं। वैखानस ने नेटवर्क शरीर संस्कारों के नाम गिनाये हैं (जिनमें उत्थान, प्रवासागमन, पिण्डवर्धन भी सम्मिलित हैं, जिन्हें कहीं भी संस्कारों की कोटि में नहीं गिना गया है) तथा 22 यज्ञों का वर्णन किया है (पंच आह्निक यज्ञ, सात पाकयज्ञ, सात हविर्यज्ञ एवं सात सोमयज्ञ; यहाँ पंच आह्निक यज्ञों को एक ही माना गया है, अत: कुल मिलाकर 22 यज्ञ हुए)। गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में अधिकांश इतनी लम्बी संख्या नहीं मिलती। अंगिरा ने (संस्कारभयूख एवं संस्कारप्रकाश तथा अन्य निबन्धों में उद्धृत) 25 संस्कार गिनाये हैं। इनमें गौतम के गर्भाधान से लेकर पाँच आह्निक यज्ञों (जिन्हें अंगिरा ने आगे चलकर एक ही संस्कार गिना है) तक तथा नामकरण के उपरान्त निष्क्रमण जोड़ा गया है। इनके अतिरिक्त अंगिरा ने विष्णुबलि, आग्रयण, अष्टका, श्रावणी, आश्वयुजी, मार्गशीर्षी (आग्रहायणी के समान), पार्वण, उत्सर्ग एवं उपाकर्म को शेष संस्कारों में गिना है। व्यास[२०] ने 16 संस्कार गिनाये हैं। मनु, याज्ञवल्क्य, विष्णुधर्मसूत्र ने कोई संख्या नहीं दी है, प्रत्युत निषेक (गर्भाधान) से श्मशान (अन्त्येष्टि) तक के संस्कारों की ओर संकेत किया है। गौतम एवं कई गृह्यसूत्रों ने अन्त्येष्टि को गिना ही नहीं है। निबन्धों में अधिकांश ने सोलह संस्कारों की संख्या दी है, यथा- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, विष्णुबलि, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन, वेदव्रत-चतुष्टय, समावर्तन एवं विवाह। स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत जातूकर्ण्य में ये 16 संस्कार वर्णित हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, मौञ्जी (उपनयन), व्रत (4), गोदान, समावर्तन, विवाह एवं अन्त्येष्टि। व्यास की दी हुई तालिका से इसमें कुछ अन्तर है।

गृह्यसूत्रों में संस्कारों का वर्णन दो अनुक्रमों में हुआ है। अधिकांश विवाह से आरम्भ कर समावर्तन तक चले आते हैं। हिरण्यकेशि गृह्य, भारद्वाज गृह्य एवं मानव गृह्यसूत्र उपनयन से आरम्भ करते हैं। कुछ संस्कार, यथा कर्णवेध एवं विद्यारम्भ गृह्यसूत्रों में नहीं वर्णित हैं। ये कुछ कालान्तर वाली स्मृतियों एवं पुराणों में ही उल्लिखित हुए हैं। हम नीचे संस्कारों का अति संक्षिप्त विवरण उपस्थित करेंगें।

ॠतु-संगमन

वैखानस[२१] ने इसे गर्भाधान से पृथक् संस्कार माना है। यह इसे निषेक भी कहता है[२२] और इसका वर्णन[२३] में करता है। गर्भाधान का वर्णन[२४] में हुआ है। वैखानस ने संस्कारों का वर्णन निषेक से आरम्भ किया है।

गर्भाधान (निषेक), चतुर्थीकर्म या होम

मनु[२५], याज्ञवल्क्य[२६], विष्णु धर्मसूत्र[२७] ने निषेक को गर्भाधान के समान माना जाता है। शांखायान गृह्यसूत्र[२८], पारस्कर गृह्यसूत्र[२९] तथा आपस्तम्ब गृह्यसूत्र[३०] के मत में चतुर्थी-कर्म या चतुर्थी-होम की क्रिया वैसी ही होती है जो अन्यत्र गर्भाधान में पायी जाती है तथा गर्भाधान के लिए पृथक् वर्णन नहीं पाया जाता। किन्तु बौधायन गृह्यसूत्र[३१], काठक गृह्यसूत्र[३२], गौतम[३३] एवं याज्ञवल्क्य[३४] में गर्भाधान शब्द का प्रयोग पाया जाता है। वैखानस[३५] के अनुसार गर्भाधान की संस्कार-क्रिया निषेक या ॠतु-संगमन (मासिक प्रवाह के उपरान्त विवाहित जोड़े के संभोग) के उपरान्त की जाती है और वह गर्भाधान को दृढ करती है।

पुंसवन

यह सभी गृह्यसूत्रों में पाया जाता है; गौतम एवं याज्ञवल्क्य[३६] में भी।

गर्भरक्षण

शांखायन गृह्यसूत्र[३७] में इसकी चर्चा हुई है। यह अनवलोभन के समान है जो आश्वलायन गृह्यसूत्र[३८] के अनुसार उपनिषद में वर्णित है और आश्वलायन गृह्यसूत्र[३९] ने जिसका स्वयं वर्णन किया है।

सीमान्तोन्नयन

यह संस्कार सभी धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में उल्लिखित है। याज्ञवल्क्य[४०] ने केवल सीमन्त शब्द का व्यवहार किया है।

विष्णुबलि

इसकी चर्चा बौधायन गृह्यसूत्र[४१], वैखानस[४२] एवं अंगिरा ने की है किन्तु गौतम तथा अन्य प्राचीन सूत्रकारों ने इसकी चर्चा नहीं की है।

सोष्यन्ती-कर्म या होम

खादिर एवं गोभिल द्वारा यह उल्लिखित है। इसे काठक गृह्यसूत्र में सोष्यन्ती-सवन, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र एवं भारद्वाज गृह्यसूत्र में क्षिप्रसुवन तथा हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र में क्षिप्रसवन कहा गया है। बुधस्मृति[४३] में भी इसकी चर्चा है।

जातकर्म

इसकी चर्चा सभी सूत्रों एवं स्मृतियों में हुई है।

उत्थान

केवल वैखानस[४४] एवं शांखायन गृह्यसूत्र[४५] ने इसकी चर्चा की है।

नामकरण

सभी स्मृतियों में वर्णित है।

निष्क्रमण

इसे उपनिष्क्रमण या आदित्यदर्शन या निर्णयन भी कहते हैं। याज्ञवल्क्य[४६], पारस्कर गृह्यसूत्र[४७] तथा मनु[४८] ने इसे क्रम से निष्क्रमण, निष्क्रमणिका तथा निष्क्रमण कहा है। किन्तु कौशिक सूत्र[४९], बौधायन गृह्यसूत्र[५०], मानव गृह्यसूत्र[५१] ने क्रम ने इसे निर्णयन, उपनिष्क्रमण एवं आदित्यदर्शन कहा है। विष्णु धर्मसूत्र[५२] एवं शंख[५३] ने भी इसे आदित्य दर्शन कहा है। गौतम, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र तथा कुछ अन्य सूत्र इसका नाम ही नहीं लेते।

कर्णवेध

सभी प्राचीन सूत्रों में इसका नाम नहीं आता। व्यास स्मृति[५४], बौधायन गृह्यसूत्र[५५] एवं कात्यायन-सूत्र ने इसकी चर्चा की है।

अन्नप्राशन

प्राय: सभी स्मृतियों ने इसका उल्लेख किया है।

वर्षवर्धन या अब्दपूर्ति

गोभिल, शांखायन, पारस्कर एवं बौधायन ने इसका नाम लिया है।

चौल या चूड़ाकर्म या चूड़ाकरण

सभी स्मृतियों में वर्णित है।

विद्यारम्भ

किसी भी स्मृति में वर्णित नहीं है, केवल अपरार्क एवं स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित है।

उपनयन

सभी स्मृतियों में वर्णित है। व्यास[५६] ने इसका व्रतादेश नाम दिया है।

व्रत (चार)

अधिकांशतया सभी गृह्यसूत्रों में वर्णित हैं।

केशान्त या गोदान

अधिकांशत: सभी धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में उल्लिखित है।

समावर्तन या स्नान

इन दोनों के विषय में कई मत हैं। मनु[५७] ने छात्र-जीवनोपरान्त के स्नान को समावर्तन से भिन्न माना है। गौतम, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र[५८], हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र[५९], याज्ञवल्क्य[६०], पारस्कर गृह्यसूत्र ने स्नान शब्द को दोनों अर्थात् छात्र-जीवन के उपरान्त स्नान तथा गुरु-गृह्य से लौटने की क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया है। किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र[६१], बौधायन गृह्यसूत्र[६२], शांखायन गृह्यसूत्र[६३] एवं आपस्तम्ब धर्मसूत्र[६४] ने समावर्तन शब्द का प्रयोग किया है।

विवाह

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सभी में संस्कार रूप में वर्णित है।

महायज्ञ

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प्रति दिन के पाँच यज्ञों के नाम गौतम, अंगिरा तथा अन्य ग्रन्थों में आते हैं।

उत्सर्ग

वैखानस[६५] एवं अंगिरा ने इसे संस्कार रूप में उल्लिखित किया है।[६६]

उपाकर्म

वैखानस[६७] एवं अंगिरा में वर्णित है।[६८]

अन्त्येष्टि

मनु[६९] एवं याज्ञवल्क्य[७०] ने इसकी चर्चा की है।

शास्त्रों में ऐसा आया है कि जातकर्म से लेकर चूड़ाकर्म तक के संस्कारों के कृत्य द्विजातियों के पुरुष वर्ग में वैदिक मन्त्रों के साथ किन्तु नारी-वर्ग में बिना वैदिक मन्त्रों के किये जायें।[७१] किन्तु तीन उच्च वर्णों के नारी-वर्ग के विवाह में वैदिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।[७२]

संस्कार एवं वर्ण

द्विजातियों में गर्भाधान से लेकर उपनयन तक के संस्कार अनिवार्य माने गये हैं तथा स्नान एवं विवाह नामक संस्कार अनिवार्य नहीं हैं, क्योंकि एक व्यक्ति छात्र-जीवन के उपरान्त संन्यासी भी हो सकता है (जाबालोपनिषद)। संस्कारप्रकाश ने क्लीब बच्चों के लिए संस्कारों की आवश्यकता नहीं मानी है।

क्या शूद्रों के लिए कोई संस्कार है? व्यास ने कहा है कि शूद्र लोग बिना वैदिक मन्त्रों के गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौल, कर्णवेध एवं विवाह नामक संस्कार कर सकते हैं। किन्तु वैजवाप गृह्यसूत्र में गर्भाधान (निषेक) से लेकर चौल तक के सात संस्कार शूद्रों के लिए मान्य हैं। अपरार्क[७३] के अनुसार गर्भाधान से चौल तक के आठ संस्कार सभी वर्णों के लिए (शूद्रों के लिए भी) मान्य हैं। किन्तु मदनरत्न, रूपनारायण तथा निर्णयसिन्धु में उद्धृत् हरिहरभाष्य के मत से शूद्र लोग केवल छ; संस्कार, यथा-- जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ा एवं विवाह तथा पंचाह्निक (प्रति दिन के पाँच) महायज्ञ कर सकते हैं। रघुनन्दन के शूद्रकृत्यतत्त्व में लिखा है कि शूद्र के लिए पुराणों के मन्त्र ब्राह्मण द्वारा उच्चरित हो सकते हैं, शूद्र केवल 'नम:' कह सकता है। निर्णयसिन्धु ने भी यही बात कही है। ब्रह्म पुराण के अनुसार शूद्रों के लिए केवल विवाह का संस्कार मान्य है। निर्णयसिन्धु ने मत-वैभिन्न्य की चर्चा करते हुए लिखा है कि उदार मत सत्-शूद्रों के लिए तथा अनुदार मत असत्-शूद्रों के लिए है। उसने यह भी कहा है कि विभिन्न देशों में विभिन्न नियम हैं।

संस्कार-विधि

आधुनिक समय में गर्भाधान, उपनयन एवं विवाह नामक संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार बहुधा नहीं किये जा रहे हैं। आश्चर्य तो यह है कि ब्राह्मण लोग भी इन्हें छोड़ते जा रहे है। अब कहीं-कहीं गर्भाधान भी त्यागा-सा जा चुका है। नामकरण एवं अन्नप्राशन संस्कार मनाये जाते हैं, किन्तु बिना मन्त्रोच्चारण तथा पुरोहित को बुलाये। अधिकतर चौल उपनयन के दिन तथा समावर्तन उपनयन के कुछ दिनों के उपरान्त किये जाते हैं। बंगाल ऐसे प्रान्तों में जातकर्म तथा अन्नप्राशन एक ही दिन सम्पादित होते हैं। स्मृत्यर्थसार का कहना है कि उपनयन को छोड़कर यदि अन्य संस्कार निर्दिष्ट समय पर न किये जायें तो व्याह्रतिहोम[७४] के उपरान्त ही वे सम्पादित हो सकते हैं। यदि किसी आपत्ति के कारण कोई संस्कार न सम्पादित सका हो तो पादकृच्छ्र नामक प्रायश्चित्त करना आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार समय पर चौल न करने पर अर्घ-कृच्छ्र करना पड़ता है। यदि बिना के आपत्ति के जान-बूझकर संस्कार न किये जायें तो दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है। इस विषय में निर्णयसिन्धु ने शौनक के श्लोक उद्धृत किये हैं।[७५] निर्णयसिन्धु ने कई मतों का उद्धरण दिया है। एक के अनुसार प्रायश्चित्त के उपरान्त छोड़े हुए संस्कार पुन: नहीं किये जाने चाहिए, दूसरे मत के अनुसार सभी छोड़े हुए संस्कार एक बार ही कर लिये जा सकते हैं और तीसरे मत से छोड़ा हुआ चौलकर्म उपनयन के साथ सम्पादित हो सकता है। धर्मसिन्धु (तृतीय परिच्छेद, पूर्वार्ध) ने उपर्युक्त प्रायश्चित्तों के स्थान पर अपेक्षाकृत सरल प्रायश्चित्त बताये हैं, यथा एक प्राजापत्य तीन पादकृच्छों के बराबर है, प्राजापत्य के स्थान पर एक गाय का दान तथा गाय के अभाव में एक सोने का निष्क (320 गुञ्जा), पूरा या आधा या चौथाई भाग दिया जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति चाँदी के निष्क का भाग या उसी मूल्य का अन्न दे सकता है। क्रमश: इन सरल परिहारों (प्रत्याम्नायों) के कारण लोगों ने उपनयन एवं विवाह को छोड़कर अन्य संस्कार करना छोड़ दिया। आधुनिक काल में संस्कारों के न करने से प्रायश्चित्त का स्वरूप चौल तक के लिए प्रति संस्कार चार आना दान रह गया है तथा आठ आना दान चौल के लिए रह गया है।[७६]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ॠग्वेद, 5।76।2
  2. ॠग्वेद, 6।28।4
  3. ॠग्वेद, 8।39।9
  4. शतपथ ब्राह्मण, 1।1।4।10
  5. शतपथ ब्राह्मण, 3।2।1।22-'तस्मादु स्त्री पुमांसं संस्कृते तिष्ठन्तमभ्येति'
  6. देखिए इसी प्रकार के प्रयोग में वाजसनेयी संहिता, 4।34
  7. 'तस्मादेष एवं यज्ञस्तस्य मनश्च वाक् च वर्तिनी। तयोरन्तरां मनसा संशरोति ब्रह्मा वाचा होता', छान्दोग्यो उपनिषद, 4।16।1-2
  8. 3।1।3; 3।2।15; 3।8।3; 9।2।9; 42, 44; 9।3।25; 9।4।33; 9।4।50 एवं 54; 10।1।2 एवं 11 आदि
  9. 3।8।3
  10. 9।3।25
  11. जैमिनि, 6।1।35
  12. 'संस्कारी नाम स भवति यस्मिन्जाते पदर्थो भवति योग्य: कस्यचिदर्थस्य', शबर, 3।1।3
  13. 'योग्यतां चादधाना: क्रिया: संस्कारा इत्युच्यन्ते'
  14. देखिए, गौतम धर्मसूत्र, 8।8; आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1।1।1।9 एवं वासिष्ठ धर्मसूत्र, 4।1
  15. मनु, 2।27-28
  16. याज्ञवल्क्य, 1।13
  17. गर्भाधानवदुपेतो ब्रह्मगर्भं संदधाति। पुंसवनात्पुंसीकरोमति। फलस्थापनान्मातापितृजं पाप्मानमपोहति।
    रेतोरक्तगर्भोपघात: पञ्चगुणो जातकर्मणा प्रथममपोहति नामकरणेन द्वितीयं प्राशनेन तृतीयं चूडाकरणेन चतुर्थं स्नापनेन पञ्चममेतैरष्टाभि: संस्कारैर्गर्भोपघातात् पूतो भवतीति। संस्कारतत्त्व (पृष्ठ, 857)।
  18. गौतम, 8।14-24
  19. 2।4
  20. व्यास, 1।14-15
  21. 1।1
  22. 6।2
  23. 3।9
  24. 3।10
  25. मनु, 2।16 एवं 26
  26. याज्ञवल्क्य, 1।10-11
  27. विष्णु धर्मसूत्र, 2।3 एवं 27।1
  28. शांखायान गृह्यसूत्र, 1।18-19
  29. पारस्कर गृह्यसूत्र, 1।11
  30. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, 8।10-11
  31. बौधायन गृह्यसूत्र, 4।6।1
  32. काठक गृह्यसूत्र, 30।8
  33. गौतम, 8।14
  34. याज्ञवल्क्य, 1।11
  35. वैखानस, 3।10
  36. याज्ञवल्क्य, 1।11
  37. शांखायन गृह्यसूत्र, 1।21
  38. आश्वलायन गृह्यसूत्र, 1।13।1
  39. आश्वलायन गृह्यसूत्र, 1।13।5-7
  40. याज्ञवल्क्य, 1।11
  41. बौधायन गृह्यसूत्र, 1।10।13-17 तथा 1।11।2
  42. वैखानस, 3।13
  43. संस्कारप्रकाश में उद्धृत, पृष्ठ 139
  44. वैखानस, 3।18
  45. शांखायन गृह्यसूत्र, 1।25
  46. याज्ञवल्क्य, 1।11
  47. पारस्कर गृह्यसूत्र, 1।17
  48. मनु, 2।34
  49. कौशिक सूत्र, 58।18
  50. बौधायन गृह्यसूत्र, 2।2
  51. मानव गृह्यसूत्र, 1।19।1
  52. विष्णु धर्मसूत्र, 27।10
  53. शंख, 2।5
  54. व्यास स्मृति, 1।19
  55. बौधायन गृह्यसूत्र, 1,12,1
  56. व्यास, 1।14
  57. मनु, 3।4
  58. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, 5।12-13
  59. हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र, 1।9।1
  60. याज्ञवल्क्य, 1।51
  61. आश्वलायन गृह्यसूत्र, 3।81
  62. बौधायन गृह्यसूत्र, 2।6।1
  63. शांखायन गृह्यसूत्र, 3।1
  64. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1।2।7।15 एवं 31
  65. वैखानस, 1।1
  66. वेदाध्ययन का किसी-किसी ॠतु में त्याग
  67. वैखानस, 1।1
  68. वेदाध्ययन का वार्षिक आरम्भ
  69. मनु, 2।16
  70. याज्ञवल्क्य, 1।10
  71. आश्वलायन गृह्यसूत्र, 1।15।12, 1।16।6, 1।17।18; मनु 2।66 एवं याज्ञवल्क्य, 1।13
  72. मनु, 2।67 एवं याज्ञवल्क्य, 1।13
  73. याज्ञवल्क्य, 1।11-12 पर
  74. भू:, भुव:, स्व: (या सुव:) नामक रहस्यात्मक शब्दों के उच्चारण्के साथ विमलीकृत मक्खन की आहुति देना व्याह्रति-होम कहलाता है।
  75. अथ संस्कारलोपे शौनक:- आरभ्याधानमाचौलात् कालेऽतीते तु कर्मणाम्। व्याह्रत्याग्निं तु संस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम्॥
    एतेष्वेकैकलोपे तुं पादकृच्छ्र समाचरेत्। चूड़ायामर्धकृच्छ्र स्यादापदि त्वेवमीरितम्। अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्॥
    निर्णयसिन्धु, 3 पूर्वार्ध; स्मृति मु. (वर्णाश्रम धर्म, पृष्ठ 99)।
  76. देखिए, मदनपारिजात (पृष्ठ 752 कृच्छ्रप्रत्याम्नाय); संस्कारकौस्तुभ (पृष्ठ 141-142 अन्य प्रत्याम्नायों के लिए)। आजकल उपनयन के समय देर में संस्कार-सम्पादन के लिए निम्न संकल्प है--
    अमुकशमर्ण पुत्रस्य गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयन-जातकर्मनामकरणान्नप्राशनचौलान्तानां संस्काराणां कालातिपतिजन्ति (या लोपजनित)
    प्रत्यवायपरिहारार्थ प्रतिसंस्कारं पादकृच्छ्रात्यकप्रायश्चित्तं चूडाया अर्षकृच्छ्रात्मकं प्रतिकृच्छ्रं पोमूलारयस निष्कपादपादप्रत्याम्नायद्वाराहमाचरिष्ये।

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