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श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 74 श्लोक 31-44  

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दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः(74) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 31-44 का हिन्दी अनुवाद


‘सभासदों! श्रुतियों का यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करने पर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खों की बात से बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों की बुद्धि भी चकरा गयी है । पर मैं मानता हूँ कि आप लोग अग्रपूजा के योग्य पात्र का निर्णय करने में सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियों! आप लोग बालक सहदेव की यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही अग्रपूजा के योग्य हैं । यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान, व्रतधारी, ज्ञान के द्वारा अपने समस्त पाप-तापों को शान्त करने वाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रम्हनिष्ठ आदि उपस्थित हैं—जिनकी पूजा बड़े-बड़े लोकपाल भी करते हैं । यज्ञ की भूल-चूक बतलाने वाले उन सदसस्पतियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? । न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मों से यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओं का उल्लंघन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थिति में यह अग्रपूजा पात्र कैसे हो सकता है ? । आप लोग जानते हैं कि राजा ययाति ने इसके वंश को शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषों ने इस वंश का ही बहिष्कार कर दिया है। ये सर्वदा व्यर्थ मधुपान में आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजा के योग्य कैसे हो सकते हैं ? इन सबने ब्रम्हर्षियों के द्वारा सेवित मथुरा आदि देशों का परित्याग कर दिया और ब्रम्हवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चा रहित) समुद्र में किला बनाकर रहने लगे। वहाँ से जब ये बाहर निकलते हैं तो डाकुओं की तरह सारी प्रजा को सताते हैं’ परीक्षित्! सच पूछो तो शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसी से उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान श्रीकृष्ण को सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियार की ‘हुआँ-हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया ।परन्तु सभासदों के लिये भगवान की निन्दा सुनना असह्य था। उसमें से कई अपने-अपने कान बंद करके क्रोध से शिशुपाल को गाली देते हुए बाहर चले गये ।परीक्षित्! जो भगवान की या भगवत्परायण भक्तों की सुनकर वहाँ से हट नहीं जाता, वह शुभकर्मों से च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ।

परीक्षित्! अब शिशुपाल को मार डालने के लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृंजयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए । परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकारने लगा । उन लोगों को लड़ते-झगड़ते देख भगवान श्रीकृष्ण उठ कहदे हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओं को शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपाल का सिर छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से काट लिया । शिशुपाल के मारे जाने पर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचाने के लिये वहाँ से भाग खड़े हुए ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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