श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 74 श्लोक 17-30  

दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः(74) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


सोम लता से रस निकालने के दिन महाराज युधिष्ठिर ने अपने परम भगवान याजकों और यज्ञ कर्म की भूल-चूक का निरिक्षण करने वाले सदसस्पतियों का बड़ी सावधानी से विधिपूर्वक पूजन किया ।

अब सभासद् लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा—अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा— ‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूप में भी ये ही हैं । यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग—ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के ही हेतु हैं । सभासदों! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ, भगवान श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रम्ह हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्र का भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छह भावविकारों से रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप संकल्प से ही जगत् सृष्टि, पालन और संहार करते हैं । सारा जगत् श्रीकृष्ण के ही अनुग्रह से अनेकों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थों का सम्पादन करता है ।इसलिये सबसे महान् भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करने से समस्त प्राणियों की तथा अपनी भी पूजा हो जाती है । जो अपने दान-धर्म को अनन्त भाव से युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थों के अतरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण को ही दान करे । परीक्षित्! सहदेव भगवान की महिमा और उनके प्रभाव को जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये।उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया । धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राम्हणों की यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े आनन्द से प्रेमोद्रेक से विह्वल होकर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की । अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनन्द से भगवान के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया । उन्होंने भगवान को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्द के आँसुओं से इस प्रकार भर गये कि वे भगवान को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे । यज्ञसभा में उपस्थित सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण को इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः ! जय जय !’ इस प्रकार के नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाश से स्वयं ही पुष्पों की वर्षा होने लगी ।

परीक्षित्! अपने आसन पर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान श्रीकृष्ण के गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभा में हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयता के साथ भगवान सुना-सुना कर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा—





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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