श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 52 श्लोक 1-15  

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दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (52) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

द्वारकागमन, श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास रुक्मणिजी का सन्देशा लेकर ब्राम्हण का आना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्यारे परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्द पर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफा से बाहर निकले । उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष-वनस्पति पहले की अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकार के हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशा की ओर चल दिये । महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्ति से युक्त एवं संशय-सन्देह से मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगाकर गन्ध-मादन पर्वत पर जा पहुँचे । भगवान नर-नारायण के नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रम में जाकर बड़े शान्त-भाव से गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द सहते हुए वे तपस्या के द्वारा भगवान की आराधना करने लगे ।

इधर भगवान श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आये। अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारका को ले चले । जिस समय भगवान श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका । परीक्षित्! शत्रु-सेना का प्रबल वेग देखकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्यों की-सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले । उनके मन में तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों—इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीँ छोड़कर अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सुकोमल चरणों से ही—पैदल भागते चले गये । जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेना के साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था । बहुत दूर तक दौड़ने के कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गये। उस पर्वत का ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे । परीक्षित्! जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गये और बहुत ढूँढ़ने पर भी पता न चला, तब उसने ईधन से भरे हुए प्रवर्षण पर्वत के चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया । जब भगवान ने देखा कि पर्वत के छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लाँघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वत से एकदम नीचे धरती-पर कूद आये । राजन्! उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँ से चलकर फिर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आये । जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये और फिर वह बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेश को चला गया । यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्ध में) कह चुका हूँ कि आनर्तदेश के राजा श्रीमान् रैवतजी ने अपनी रेवती नाम की कन्या ब्रम्हाजी की प्रेरणा से बलरामजी के साथ ब्याह दी ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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