श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 1- 9  

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दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः (33) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1- 9 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! गोपियाँ भगवान की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राणप्यारे के अंग-संग से सफल-मनोरथ हो गयीं । भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की ॥ २ ॥ सम्पूर्ण योगों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों से शोभायमान भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शन की लालसा से, उत्सुकता से उनका मन उनके वश में नहीं था । स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान के निर्मल यश का गान करने लगे । रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पायजेब और करधनी के छोटे-छोटे घुँघरु एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोर की हो रही थी । यमुनाजी की रमणरेती पर व्रजसुन्दरियों के बीच में भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चामल रही हो । नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेग से; कभी चाक की तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकतीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्करातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलने की फुर्ती से उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे। नाचने के परिश्रम से उनके मुँह पर पसीने की बूँदे झलकने लगी थीं। केशों की चोटियाँ कुछ ढीली पद गयी थीं। नीवीं की गाँठे खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलाल की पेम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रहीं थीं। परीक्षित्! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी । गोपियों का जीवन भगवान की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर से मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्ण का संस्पर्श पा-पाकर और भी आनन्दमग्न हो रही थीं। उनके राग-रागिनियों से पूर्ण गान से यह सारा जगत् अब भी गूँज रहा है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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