वीरशैव सम्प्रदाय  

वीरशैव सम्प्रदाय को ही 'लिंगायत सम्प्रदाय' भी कहा जाता है, जिसके प्रवर्तक कर्नाटक के राजा विज्जल के प्रधानमंत्री वसवेश्वर थे। इस सम्प्रदाय में परम तत्व को ही 'लिंग' की संज्ञा दी गई है। परम तत्व की व्याख्या के लिए इस सम्प्रदाय में कहा गया है कि 'परशिव' और 'पराशक्ति' का सामरस्य ही परमतत्व है। ध्यान और चिन्तन पर आधारित 'शिवयोग' की साधना करने पर ही परम तत्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।

विश्व-कल्याण की कामना

इस सम्प्रदाय में दीक्षित साधक विश्व कल्याण की कामना से प्रभावित रहता है। वे समाजगत भेदभाव में अविश्वास करते हैं और जीविकोपार्जन के लिए किये जाने वाले प्रयास को ईश्वरार्पित कर्म समझते है। वस्तुत: उनकी भक्ति कर्म मूलक होती है। वीरशैव एक ऐसी परम्परा है, जिसमें भक्त शिव परम्परा से बँधा रहता है। यह सम्प्रदाय दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुआ। ये वेदों पर आधारित धर्म है। ये भारत का तीसरा सबसे बड़ा शैव मत है, लेकिन इसके ज़्यादातर उपासक कर्नाटक में हैं और भारत के दक्षिण राज्यों महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल ओर तमिलनाडु में वीरशैव सम्प्रदाय के उपासक अधिक संख्या में हैं।

एकेश्वरवादी धर्म

वीरशैव सम्प्रदाय के लोग एकेश्वरवादी धर्म में विश्वास करते हैं। तमिल में इस धर्म को 'शिवाद्वैत धर्म' अथवा 'लिंगायत धर्म' भी कहते हैं। उत्तर भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम शैवा आगम है। वीरशैव की सभ्यता को 'द्राविड सभ्यता' कहा जाता है। इतिहासकारों के दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ई. पू. में वीरशैव अफ़ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में आकर बस गये थे। तभी से उनके विद्वान आचार्य अपने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मंत्रों की रचना करने लगे थे। पहले चार वेद में भगवान शिव के परमब्रह्म प्रतिपादन के लिए प्रमाण किया श्रीकर भाष्य ने, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था।


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