पारिजात दशम सर्ग  

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पारिजात एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पारिजात (बहुविकल्पी)
पारिजात दशम सर्ग
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग दशम सर्ग
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
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पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

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स्वर्ग

सुरपुर

(1)

स्वर्ग है उर-अंभोज-दिनेश।
भाव-सिंहासन का अवनीप।
सदाशा-रजनी मंजु मयंक।
निराशा-निशा प्रदीप्त प्रदीप॥1॥

यदि मरण है तम-तोम समान।
स्वर्ग तो है अनुपम आलोक।
प्रकाशित उससे हुआ सदैव।
हृदय-तल परम मनोरम ओक॥2॥

उरों में भर बहु कोमल भाव।
सजाती है व्यंजन के थाल।
कराती है कितने प्रिय कर्म।
कामना सुरपुर की सब काल॥3॥

पुष्पवर्षण होता है ज्ञात।
अस्त्राशस्त्राों का प्रबल प्रहार।
बनाता है रण-भू को कान्त।
वीर का स्वर्गलाभ-संस्कार॥4॥

खुदे सरवर बन सरस नितान्त।
प्रकट करते हैं किसकी प्यासे।
कलस मन्दिर के कान्ति-निकेत।
स्वर्ग-रुचि के हैं रुचिर विकास॥5॥

नहीं जो होता जग को ज्ञात।
मंजुतम स्वर्गवास का मर्म।
बाँधाता क्यों कृतज्ञता पाश।
न हो पाते पितरों के कर्म॥6॥

जो नहीं होती उसकी चाह।
सुकृति की क्यों होती उत्पत्ति।
बनाती किसे नहीं उत्कंठ।
अलौकिक स्वर्गलोक-सम्पत्तिक॥7॥

हुआ कब किसी काल में म्लान।
सका भ्रम-भौंरा उसको छू न।
सौरभित है उससे संसार।
स्वर्ग है परम प्रफुल्ल प्रसून॥8॥

(2)

सुख गले लगता रहता है।
फूल सिर पर बरसाता है।
देवतों को अभिमत देते।
मोद फूला न समाता है॥1॥

नहीं चिन्ता चिन्तित करती।
चित्त चिन्तामणि बनता है।
नहीं ऑंसू आते, लोचन।
प्रेम-मुक्ताफल जनता है॥2॥

जरा है पास नहीं आती।
सदा ही रहता है यौवन।
दमकता ही दिखलाता है।
देवतों का कुन्दन-सा तन॥3॥

किसी को रोग नहीं लगता।
दुख नहीं मुख दिखलाता है।
अमर तो अमर कहाते हैं।
मर नहीं कोई पाता है॥4॥

असुविधा कान्त कर्मपथ में।
भला कैसे काँटा बोती।
सर्व निधिकयों के निधिक सुर हैं।
सिध्दि है करतल-गत होती॥5॥

जीविका के जंजालों में।
नहीं उनका जीवन फँसता।
हुन बरसता है सदनों में।
करों में पारस है बसता॥6॥

कामना पूरी होती है।
रुचिर रुचि हो-हो खिलती है।
कल्पतरु-फल वे खाते हैं।
सुधा पीने को मिलती है॥7॥

चारु पावक द्वारा विरचित।
देवतों का है पावन तन।
पूत भावों से प्रतिबिम्बित।
परम उज्ज्वल मणि-सा है मन॥8॥

महीनों भूख नहीं लगती।
अनुगता निद्रा रहती है।
वासना में उनकी सरसा।
सुरसरी-धारा बहती है॥9॥

स्वर्ग पर ही अवलम्बित है।
सुरगणों का गौरव सारा।
देव-कुल दिव्य भूतिबल से।
स्वर्ग है भूतल से न्यारा॥10॥

(3)

कहाँ सदा उत्ताकल तरंगित सुख-पयोधिक दिखलाता है।
महाशान्ति-रत्नावलि-माला जिससे सुरपति पाता है।
कहाँ प्रमोद-प्रसून-पुंज इतना प्रफुल्ल बन जाता है।
जिसे विलोक मानसर-विलसित विकच सरोज लजाता है॥1॥

कहाँ अप्सरा दमक दिखाकर द्युति दिगन्त में भरती है।
स्वरलहरी से मुग्ध बनाकर किसका हृदय न हरती है।
उसकी तानें राग-रागिनी को करती हैं मूर्तिमती।
जहाँ-तहाँ नर्त्तन-रत रह जो बन जाती हैं अरुन्धती॥2॥

कहाँ बजाकर वीणा तुम्बुरु सुधा प्रवाहित करता है।
कहाँ गान कर हाहा हूहू ध्वनि में गौरव भरता है।
उनके तालों स्वरों लयों से जो विमुग्धता होती है।
परमानन्द-बीज वह अभिरुचि शुचि अवनी में बोती है॥3॥

जिसकी हरियाली नीलम के मुँह की लाली रखती हैं।
नभ-नीलिमा देखकर जिसको निज कल कान्ति परखती है।
जिसके कुसुम नहीं कुम्हलाते, म्लान नहीं दल होता है।
कहाँ विलस वह फलद कल्पतरु बीज विभव का बोता है॥4॥

जिसका दर्शन सकल दिव्यता-दर्शन का फल देता है।
जिसका स्पर्श पुण्य पथ को बहु बाधाएँ हर लेता है।
विविध सिध्दि-साधना-सहचरी जिसकी पयमय छाती है।
कहाँ सर्वदा वह चिर-कामद कामधेनु मिल पाती है॥5॥

जिसकी कुसुमावलि कुसुमाकर का भी चित्त चुराती है।
जिसकी ललित लता ललामता मूर्तिमती कहलाती है।
वृन्दारक तरुवृन्द देख जिसके फूले न समाते हैं।
कहाँ लोक-अभिनन्दन नन्दन-वन-जैसा बन पाते हैं॥6॥

जो है प्रकृति कान्त कर-लालित, छवि जिसका पद धोती है।
जिसके कलित अंक में विलसे उज्ज्वलतम 'मणि' होती है।
सकल विश्व सौन्दर्य सदा जिसकी विभूति का है सेवी।
अमरावती-समान कहाँ पर देखी दिव्य मूर्ति देवी॥7॥

भरित अलौकिक बातों से है, स्वरित उच्चतम स्वर से है।
दमक रहा है परम दिव्य बन ललितभूत लोकोत्तर है।
जगतीतल-शरीर का उर है भव-विभूतियों से पुर है।
ऐसा कौन सरस सुन्दर है, सुरपुर-जैसा सुरपुर है॥8॥

(4)

है जहाँ सुखों का डेरा।
किस तरह वहाँ दुख ठहरें।
करती हैं विपुल विनोदित।
उठ-उठ विनोद की लहरें॥1॥

हैं लोग विहँसते हँसते।
या मंद-मंद मुसकाते।
है कोई खिन्न न होता।
सब हैं प्रसन्न दिखलाते॥2॥

औरों का विभव विलोके।
जी जाता है किसका जल।
है क्रोधा कौन कर पाता।
है कहाँ कलह-कोलाहल॥3॥

जो वचन कहे जाते हैं।
वे सब होते हैं तोले।
दिल में कड़वी बातों से।
पड़ पाते नहीं फफोले॥4॥

हैं नहीं बखेड़े उठते।
है नहीं झगड़ता कोई।
हैं नहीं जगाई जाती।
जी की बुराइयाँ सोई॥5॥

है अन्धाकधुन्धा न मचता।
है किसे न प्यारा धान्धाक।
पर मोह नहीं कर पाता।
परहित ऑंखों को अंधा॥6॥

ख्रिच एँच-पेंच भँवरों से।
चक्करें नहीं खाता है।
पड़ लोभ-सिंधु में परहित।
बेड़ा न डूब जाता है॥7॥

छल दम्भ द्रोह मद मत्सर।
सामने नहीं आते हैं।
दुर्भाव दिव्य भावों को।
मुख नहीं दिखा पाते हैं॥8॥

कब अहंमन्यता ममता।
मायामय है बन जाती।
उनकी मननीय महत्ता।
सात्तिवक सत्ता है पाती॥9॥

दुख से कराहता कोई।
है कहीं नहीं दिखलाता।
हो विकल वेदनाओं से।
दृग वारि नहीं बरसाता॥10॥

है काल नहीं कलपाता।
हैं त्रिकविधा ताप न तपाते।
ऑंसू आने से लोचन।
आरक्त नहीं बन पाते॥11॥

चित चोट नहीं खाते हैं।
मुँह नहीं किसी के सिलते।
चुभती लगती बातों से।
हैं नहीं कलेजे छिलते॥12॥

कमनीय कीत्तिक या कृति को।
है उज्ज्वलतम जिसका तन।
है मलिन नहीं कर पाता।
मैलेपन का मैलापन॥13॥

सुर है सद्वृत्तिक-विधाता।
सद्भाव-सदन के केतन।
सुरपुर है सहज समुज्ज्वल।
सात्तिवकता कान्त निकेतन॥14॥

अमरावती

(5)

मणि-जटित स्वर्ण के मंदिर।
विधिक को मोहे लेते हैं।
विधु को हैं कान्त बनाते।
दिव को आभा देते हैं॥1॥

हैं कनकाचल-से उन्नत।
परमोज्ज्वल त्रिकभुवन-सुन्दर।
हैं विविध विभूति-विभूषित।
दिव्यता-मूर्ति लोकोत्तर॥2॥

उनके कल कलश अनेकों।
हैं दिनमणि से द्युतिवाले।
आलोक-पुंज पादप के।
हैं विपुल विभामय थाले॥3॥

चामीकर-दण्ड-विमण्डित।
उड़त उतुंग धवजाएँ।
हैं कीत्तिक उक्ति-कान्ता की।
बहु लोलभूत रसनाएँ॥4॥

सब हैं समान ही ऊँचे।
हैं एक पंक्ति में सा।
नवज्योति-लाभ करते हैं।
अवलोके लोचन-ता॥5॥

वे सब हैं स्वयंप्रकाशित।
हैं स्वयं स्वच्छता-साधन।
देखे उनकी पावनता।
पावन हो जाते हैं मन॥6॥

हैं लगे यंत्र वे उनमें।
जो हैं बहु काम बनाते।
या मधुर स्वरों से गा-गा।
श्रुति को हैं सुधा पिलाते॥7॥

मंजुल मणियों के गहने।
पहने मौक्तिक-मालाएँ।
देवतों सहित लसती हैं।
उनमें दिव की बालाएँ॥8॥

चाँदी-विरचित सब सड़कें।
हैं चारों ओर चमकती।
चाँदनी-चारुता में थी।
दामिनी समान दमकती॥9॥

है हाट हाटकालंकृत।
है विपणि रत्नचय-भरिता।
जिसमें बहती रहती है।
पावन प्रमोदमय सरिता॥10॥

था कहीं नहीं मैलापन।
थी नहीं मलिनता मिलती।
सब समय स्वच्छता सित हो।
थी वहाँ सिता-सी खिलती॥11॥

बन सुधा-धावल रह निर्मल।
हैं सकल सदन छवि पाते।
होकर भी परम पुरातन।
नूतनतम थे दिखलाते॥12॥

थे दिव्य दिव्य से भी दिन।
थी विभावरी दिवसोपम।
दिव में प्रवेश-साहस कर।
तम बनता था उज्ज्वलतम॥13॥

तज प्रचंडता बन संयत।
मृदु स्वर भर-भर कुछ कहता।
चल मंद-मंद हो सुरभित।
शीतल समीर है बहता॥14॥

सित भानु भानु की किरणें।
हैं यथासमय आ जाती।
मिल कान्त तारकावलि से।
हैं दिव्य दृश्य दिखलाती॥15॥

घन किसी समय जो घिरता।
तो सरस सुधा बरसाता।
मुक्ता करके ओलों को।
पद अलौकिकों का पाता॥16॥

जब मंद-मंद रव करके।
अति मधुर मृदंग बजाता।
तब केलिमयी चपला का।
नर्त्तन था समाँ दिखाता॥17॥

घन-अंक त्याग, आ नीचे।
है मणिमाला बन जाती।
या बिजली दिव-सदनों में।
मंजुल झालरें लगाती॥18॥

थी प्रकृति परम अनुकूला।
प्रतिकूल नहीं होती थी।
पवि को प्रसून थी करती।
हिम से रचती मोती थी॥19॥

सब ओर स्फूत्तिक थी फैली।
थी मोद-मग्नता लसती।
बहती विनोद-धारा थी।
थी उत्फुल्लता विहँसती॥20॥

अप्रतिहत - गति - अधिकारी।
निज वेग-वारि-निधिक-मज्जित।
नभ-जल-थल-यान अनेकों।
अति आरंजित बहु सज्जित॥21॥

जब उड़ते तिरते चलते।
किसको न चकित थे करते।
श्रुतिमधुर मनोहर मंजुल।
रव थे दिगंत में भरते॥22॥

अवलोक अमरता-आनन।
था चित्त उल्लसित होता।
सहजात निरुजता का बल।
था बीज श्रेय का बोता॥23॥

आनन्द-तरंगें उर में।
थीं शोक-विमुक्ति उठाती।
चिन्ता-विहीनता मन को।
थी वारिज विकच बनाती॥24॥

हैं राग-रंग की उठती।
किस जगह अपूर्व तरंगें।
हैं कहाँ उमड़ती आती।
बादलों समान उमंगें॥25॥

बहु हास-विलास कहाँ पर।
है निज उल्लास दिखाता।
आमोद-प्रमोद कहाँ आ।
परियों का परा जमाता॥26॥

कर कान्त कलाएँ कितनी।
है मंद-मंद मुसकाती।
किस जगह देव-बालाएँ।
हैं दिव-दिव्यता दिखाती॥27॥

भर पूत भावनाओं से।
आनन्द मनाती खिलती।
किस जगह देवताओं की।
हैं दिव्य मूर्तियाँ मिलती॥28॥

हैं जहाँ न द्वन्द्व सताते।
है जहाँ दुख विमुख रहता।
क्यों वहाँ न रस रह पाता।
है जहाँ सुधारस बहता॥29॥

लौकिक होके सब किसकी।
कह सके अलौकिक सत्ता।
अनुपम मन-वचन-अगोचर।
है अमरावती-महत्ता॥30॥

नन्दन-वन

(6)

विविध रंग के विटप खड़े थे ऊँचा शीश उठाये।
पहने प्रिय परिधन मनोहर नाना वेश बनाये।
लाल-लाल दल लसित सकल तरु बड़े ललित थे लगते।
ललकित लोचन-चय को थे अनुराग-राग में रँगते॥1॥

हरित दलों वाले पादप थे जी को हरा बनाते।
याद दिलाकर श्यामल-तन की मोहन मंत्र जगाते।
पीला था नीला बन जाता, नीला बनता पीला।
रंग-बिरंगे तरुओं की थी रंग-बिरंगी लीला॥2॥

ह-भ सर्वदा दिखाते, सदा रहे फल लाते।
सुन्दर सुरभित सुमनावलि से वे थे गौरव पाते।
छवि विलोक कुसुमाकर इतना अधिक रीझ जाता है।
जिससे उनका साथ कभी वह त्याग नहीं पाता है॥3॥

कितने हैं कल-गान सुनाते, कितने वाद्य बजाते।
कितने पवन साथ क्रीड़ा कर कौतुक हैं दिखलाते।
कितने चमक-चमक बनते हैं ज्योति-पुंज के पुतले।
कितने प्रकृति-अंक के कहलाते हैं बालक तुतले॥4॥

कभी डालियाँ उनकी ऐसे प्रिय फल हैं टपकाती।
जिनको चख बरसों अमरों को भूख नहीं लग पाती।
उनके गि प्रसून गले का हार सदा बनते हैं।
ले-ले विमल वारि की बूँदें वे मोती जनते हैं॥5॥

लता लहलहाती ललामता मुखडे क़ी है लाली।
अपने पास लोक-मोहन की रखती है प्रिय ताली।
सदा प्रफुल्ल बनी रहती है, कभी नहीं कुम्हलाती।
उसकी कलित कीत्तिक सब दिन सुर-ललनाएँ हैं गाती॥6॥

उसकी लचक लोच कोमलता है कमाल कर देती।
मचल-मचलकर उसका हिलना है मन छीने लेती।
लपटी देख उसे तरुवर से सुरपुर की बालाएँ।
तल्लीनता कण्ठ की बनती हैं मंजुल मालाएँ॥7॥

सुमनस नन्दन-वन-सुमनों की है महिमा मनहारी।
कमनीयता मधुरता उनकी है त्रिकभुवन से न्यारी।
किसी समय जब सुन्दरता का है प्रसंग छिड़ जाता।
सबसे पहले नाम सुमन का तब मुख पर है आता॥8॥

धारा-कुसुम-कुल के देखे जब हुई धारणा ऐसी।
तब सोचे, नन्दन-वन की कुसुमावलि होगी कैसी।
उनका रूप देख करके है रूप रूप पा जाता।
उनकी छाया में 'वसुन्धारा-कुसुम' कान्ति है पाता॥9॥

तरह-तरह के कुसुमों की हैं अमित क्यारियाँ लसती।
निज सजधाज-सम्मुख जो अवनी-सजधाज पर हैं हँसती।
किसी कुसुम का अलबेलापन है बहु मुग्ध बनाता।
किसी कुसुम की कलित रंगतों में है मन रँग जाता॥10॥

ए हैं वे प्रसून जो खिलकर म्लान नहीं होते हैं।
सौरभ-बीज जगत में जो सुरभित हो-हो बोते हैं।
आदर पाकर जो हैं सुरपति-शीश-मुकुट पर चढ़ते।
जो खिल-खिलकर भव-प्रमोद का पाठ सदा हैं पढ़ते॥11॥

देवपुरी उनके विकास से है विकसित हो पाती।
उनकी छटा देवबाला-तन की है छटा बढ़ाती।
वे हैं अनुरंजन-व्रत-रत रह दिवपति परम दुला।
वे हैं सुरसमूह के वल्लभ, सुरबाला के प्यारे॥12॥

आनन्दित रह स्वयं और को हैं आनन्दित करते।
भीनी-भीनी महँक सदा वे त्रिकभुवन में है भरते।
उनके द्वारा सद्भावों का व्यंजन हैं कर पाते।
वन्दित जन पर वृन्दारक हैं सदा फूल बरसाते॥13॥

जड़ी-बूटियाँ ज्योतिमयी हैं सदा जगमगाती हैं।
तेज:पुंज कलेवर द्वारा तेजस्विता जताती हैं।
पा करके विचित्र फल-दल हैं अद्भुत दृश्य दिखाती।
दिव्य लोक में कर निवास हैं अधिक दिव्यता पाती॥14॥

खिलीं अधाखिली मिलीं तनिक-सा खिलीं खेल दिखलाये।
बदल रूप ललना से लालन हुईं मन्द मुसकाये।
बन-बन कलित विकास क्रिया की कोमलतम पलिकाएँ।
कला दिखाती ही रहती हैं कलामयी कलिकाएँ॥15॥

है कल्पना कल्पपादप की कल्पलता की न्यारी।
पर उनके पाने का नन्दन-वन ही है अधिकारी।
जिसमें नहीं अलौकिकता हो, जिसमें हो न महत्ता।
क्यों है वह स्वर्गीय न जिसमें हो सुरपुर की सत्ता॥16॥

वह सदैव मुखरित रहता है खग-कुल-कलरव द्वारा।
कोमल मधुर स्वरों से बहती रहती है रस-धारा।
बहुरंगी विहंग जब उड़-उड़ स्वर्गिक गान सुनाते।
मोदमत्त बन तरु-तृण तक तब थे झूमते दिखाते॥17॥

बजती कान्त करों से वीणा सुधामयी स्वर-लहरी।
नृत्य-गान अप्सरा-वृन्द का लय-तालों पर ठहरी।
सुर-समूह का वर विहार सुरबाला की क्रीड़ाएँ।
सकल विश्व-मानस-विमोहिनी भावमयी व्रीडाएँ॥18॥

कूजित विहंग रंगीली तितली गुंजित अलि-मालाएँ।
कुंजों बीच बनी सोने की बड़ी दिव्य शालाएँ।
सुन्दर से सुन्दर विहार-थल दृश्य नितान्त मनोहर।
प्रकृति-रम्यता समय-सरसता लीलाएँ लोकोत्तर॥19॥

हो-हो स्वर्ग-विभूति-विभूषित, हो दिव्यता-निमज्जित।
हो अनुमोदनीय सुख के सब सामानों से सज्जित।
बतलाती हैं उड़ा-उड़ा के कान्त कीत्तिक के केतन।
वास्तव में सुविदित नन्दन-वन है आनन्द-निकेतन॥20॥

विबुध-वृन्द

(7)

जिसकी विजय-दुंदुभी का रव भव को कंपित करता है।
प्रकृत तेज जिसका दिगन्त के तिमिर-पुंज को हरता है।
वारिवाह जिसके निदेश से जग को जीवन देता है।
सप्त-रंग-रंजित निज धानु से जो विमुग्ध कर लेता है॥1॥

दिव्य अलौकिक बहु मणियों से मंडित मुकुट मनोहारी।
सकल मुकुटधार-शासन का है जिसे बनाता अधिकारी।
श्वेतवर्ण ऐरावत-सा मदमत्त गजेन्द्र-मंद-गामी।
सबसे ऊँचे सिंहासन का जिसे बनाता है स्वामी॥2॥

चार चक्षु है नहीं स्वयं जो है सहस्र लोचनवाला।
सारी जगती का रहस्य सब है जिसका देखाभाला।
आ यमराज सामने जिसके धर्मराज बन जाता है।
वह है सुरपति कर के पवि से जो लोकों का पाता है॥3॥

जिसकी ज्योति गगनतल में भी परमोज्ज्वल दिखलाती है।
सब भावों का सदुपयोग जिसकी शिक्षा सिखलाती है।
धूमधाम से बहती जिसकी धर्म-धुरंधरता-धारा।
है सुरपति सर्वस्व विपथ-गत सुर-समूह का धुरव तारा॥4॥

कहाँ नहीं उस सकल लोक-पालक की कला दिखाती है।
एक-एक फूलों में उसकी सुछवि छलक-सी जाती है।
एक-एक पत्तो पर उसका पता लिखा-सा मिलता है।
खुल जाता है ज्ञान-नयन जब मंद-मंद वह हिलता है॥5॥

ऐसे भेद बतानेवाली जिसकी कृपा निराली है।
जिसके कर में सकल लोक-हित-कामुकता की ताली है।
जो है त्रिकभुवन-शांति-विधाता, सुरपुर का हितकारी है।
वह है सुरगुरु जिसकी गुरुता नीति-निपुणता न्यारी है॥6॥

जिसकी तंत्री सुने विश्वहृत्तांत्री बजने लगती है।
जिसकी भावमयी स्वर-लहरी भक्ति-रंग में रँगती है।
जिसका कल आलाप श्रवण में सुधा-बिन्दु टपकाता है।
आलबाल उर लसित प्रेमतरु जिससे तरु हो पाता है॥7॥

जिसकी महिमामयी मूर्ति मन को रसमत्त बनाती है।
किसे नहीं जिसकी तदीयता तदीयता दे पाती है।
सुर-सदनों में जिसका प्रेम-प्रवाह प्रवाहित रहता है।
वह है वह आनन्द-मग्न देवर्षि जिसे जग कहता है॥8॥

रमा चंचला हों; पर अचला जिसके यहाँ दिखाती हैं।
ऋध्दि-सिध्दियाँ जिसकी सेवा कर फूली न समाती हैं।
नव निधिकयाँ निधिक के समान जिसकी निधिक में लहराती हैं।
जिसके महाकोष में अगाणित मणियाँ शोभा पाती हैं॥9॥

जो त्रिकभुवन के घन-समूह का धाता माना जाता है।
जिसकी कृपा हुए लक्षाधिकप महारंक बन पाता है।
सदा भरापूरा जिसका अक्षय भांडार कहाता है।
वह कुबेर है जिसका वैभव कूत न कोई पाता है॥10॥

जिसके तरल हृदय की महिमा जलधिक-तरंगें गाती हैं।
कल-कल रव करके सरिताएँ जिसकी कीत्तिक सुनाती हैं।
सकल जलाशय जिसके करुणामय आशय के आलय हैं।
पा जिसका संकेत पयोधार सदा बरस पाते पय हैं॥11॥

करके जीवन-दान सर्वदा जो जग-जीवनदाता है।
एक-एक तरु-तृण से जिसका जलसिंचन का नाता है।
वाष्परूप में परिणत हो जो पूत्तिक व्याप्ति की करता है।
वह है वरुण असरसों में भी जो सदैव रस भरता है॥12॥

जिसकी ज्योति सदा जगतीतल में जगती दिखलाती है।
भर-भर तारक-चय में जिसकी भूरि विभा छवि पाती है।
बसकर जो विद्युत-प्रवाह में कान्त कलाएँ करता है।
जिसका तेज:पुंज तमा के तिमिर पुंज को हरता है॥13॥

जो है दीप्ति विभूतिमान जो विश्व-विलोचन-तारा है।
आलोकिता प्रकृति की कृति को जिसका प्रबल सहारा है।
जो कर रत्नराजि को रंजित मणि को कान्त बनाता है।
वह पावक है दिव भी जिससे परम दिव्यता पाता है॥14॥

उठा-उठा उत्ताकल तरंगें निधिक को कंपित करता है।
जो दिगन्त में महाघोर रव गरज-गरजकर भरता है।
ले तुरंग का काम छिन्न घन से तरंग में आता है।
जो प्रवेश कर कीचक-रन्धारों में वर वेणु बजाता है॥15॥

खिला-खिला करके कलियों को हँसा-हँसाकर फूलों को।
उड़ा-उड़ाकर वन-विभूतियों के बहुरंग दुकूलों को।
जो बहता है सुरभित हो, नर्त्तन कर मुग्ध बनाता है।
वह समीर है जो सारी संसृति का प्राण कहाता है॥16॥

यह संसार व्याधिक-मन्दिर है बहु तापों से तपता है।
उसका गला विविध पीड़ाओं द्वारा बहुधा नपता है।
इनका शमन हाथ में जिन विबुधों के रहता आया है।
रस-रसायनो द्वारा निर्मित जिनकी अद्भुत काया है॥17॥

जड़ी-बूटियों में प्रभाव जिनका परिपूरित रहता है।
स्रोत निरुजता का ओषधिक में जिनके बल में बहता है।
स्वयं अगद रह सगदों को जो अगद सदैव बनाते हैं।
वे पीयूषपाणि-पुंगव अश्विनीकुमार कहाते हैं॥18॥

जिसका आगम अरुण दिखा अरुणाभा सूचित करता है।
जो सिन्दूर उषा-रमणी की मंजु माँग में भरता है।
जिससे पावनतम प्रभात नित प्रभा-पुंज पा जाता है।
जिसके कान्ति-निकेतन कर से जगत कान्त बन पाता है॥19॥

जो है जागृति मूर्तिमन्त, जो दिव्य दिवस का धाता है।
सतरंगी किरणें धारण कर जो सप्ताश्व कहाता है।
जो विभिन्न रूपों से सा भव में व्याप्त दिखाता है।
वह दिनमणि है जो त्रिकलोकपति-लोचन माना जाता है॥20॥

जो रजनी का रंजन कर रजनी-रंजन कहलाता है।
जो नभतल में विलस-विलस हँस-हँसकर रस बरसाता है।
दिखा तेज तारक-चय में जो तारापति-पद पाता है।
जो है सिता-सुन्दरी का पति सिन्धुसुता का भ्राता है॥21॥

जो शिव के विशाल मस्तक पर बहु विलसित दिखलाता है।
सुन्दर से सुन्दर भव-आनन जिसका पटतर पाता है।
मिले अलौकिक रूप-माधुरी जो बनता जग-जेता है।
वह मयंक है जो संसृति को सुधासिक्त कर देता है॥22॥

जिनकी ब्रह्मपुरी में वाणी वीणा बजती रहती है।
जिसकी ध्वनि ब्रह्माण्डमयी बन, पाती महिमा महती है।
प्राणिमात्रा-कंठों में उसकी झंकृत छटा दिखाती है।
विविध स्वरों ध्वनियों में परिणत हो वह मुग्ध बनाती है॥23॥

जिनके चारों वदन वेद हैं जो भव-भेद बताते हैं।
सृष्टि-सृजन की सकल अलौकिक बातें जिनमें पाते हैं।
जिनकी रचना के चरित्रा अति ही विचित्र दिखलाते हैं।
वे हैं ब्रह्मा पलक मारते जो ब्रह्मांड बनाते हैं॥24॥

दो क्या, चार भुजाओं से जो जग का पालन करते हैं।
चींटी हो या हो गजेन्द्र जो उदर सभी का भरते हैं।
स्तनपायी प्राणीसमूह को जो पय सदा पिलाते हैं।
प्रस्तर-भ कीटकों को जो दे-दे अन्न जिलाते हैं॥25॥

जो है कर्म-सूत्र-संचालक विविध विधन-विधाता है।
जो हैं कुत्सित पात्रा नियामक सत्पात्रों के पाता है।
हैं संसार-चक्र-परिचालक जो वैकुंठ-निवासी हैं।
वे हैं अखिल लोक के नायक वे ही रमा-विलासी हैं॥26॥

मंगर्लमूर्ति सुअन हैं जिनके जिनको मोदक प्यारे हैं
सुर-सेनापति श्याम-र्कात्तिकक जिनके बड़े दुला हैं।
सिंहवाहिनी प्रिया सुरसरी-धारा जिनकी प्यारी है।
भाल-विराजित चन्द्रकला से जिसकी मुख-छवि न्यारी है॥27॥

जिनके तन की वर विभूति सारी विभूतियाँ देती हैं।
जिनकी कृपादृष्टि रंकों को भी सुरपति कर लेती है।
है कैलास धाम जिनका जिनको मति समझ न पाती है।
वे शिव हैं जिनकी कुटिला भूर प्रलयंकरी कहाती है॥28॥

दैवी कला सकल लोकों ओकों में कान्त दिखाती है।
सा ब्रह्मांडों में सुरगण-सत्ता सबल जनाती है।
सबमें सकल सुसंगत बातें सहज भाव से भरते हैं।
सारी संसृति का नियमन नियमानुसार वे करते हैं॥29॥

ब्रह्मलोक में है विशेषता है बैकुंठ-विभवशाली।
बाते हैं गौरव-उपेत कैलास-धाम गरिमावाली।
पर न भ्रान्तिवश उनके वासस्थल को स्वर्ग बताते हैं।
क्या 'त्रिकदेव' चतुरानन कमलापति शिव कहे न जाते हैं॥30॥

स्वर्ग की कल्पना

(8)

अच्छा होता, दुख न कभी होता, सुख होता।
सब होते उत्फुल्ल, न मिलता कोई रोता।
उठती रहतीं सदा हृदय में सरस तरंगें।
कुचली जातीं नहीं किसी की कभी उमंगें॥1॥

बजते होते घर-घर में आनन्द-बधावे।
निरानन्द मिलते न धूम से करते धावे।
सदा विहँसता जन-जन-चद्रानन दिखलाता।
किसी काल में कहीं न कोई मुख कुम्हलाता॥2॥

बहती मिलती सकल मानसों में रस-धारा।
छिदता बिंधाता नहीं हृदय वेदन-शर द्वारा।
होते जगती-जीव मंजु भोगों के भोगी।
करने पर भी खोज न मिलता कोई रोगी॥3॥

होती मन की बात, तोड़ते सब नभ-ता।
बैठा मिलता कहीं नहीं कोई मन मा।
होते सब स्वच्छन्द धर्मरत पर-उपकारी।
कहीं न मिलते पाप-ताप-तापित अपकारी॥4॥

सदन-सदन में रमा रमण करती दिखलाती।
नहीं धाड़कती पेट के लिए कोई छाती।
जहाँ-तहाँ सब ओर नित बरसता हुन होता।
कहीं न कोई कभी गाँठ की पूँजी खोता॥5॥

नवयौवन से सदा लसित होते नर-नारी।
आती जरा कभी न, न जाती ऑंखें मारी।
मिले अमरता कभी नहीं मानव मर पाता।
सरस सुधा कर पान न अपना प्राण गँवाता॥6॥

नहीं किसी का जीवन-सा पारस खो जाता।
सोने का संसार न मिट्टी में मिल पाता।
सब सदनों में परम हर्ष-कोलाहल होता।
खोकर अपने रत्न न कोई रोता-धोता॥7॥

चिरजीवन कर लाभ लोक फूला न समाता।
नहीं काल विकराल किसी का हृदय कँपाता।
द्वारों चौबारों पर मिलती नौबत झड़ती।
किसी कान में कभी नहीं क्रन्दन-ध्वनि पड़ती॥8॥

दिव्य नारि-नर-वृन्द गा-बजा रीझ रिझाते।
कर-कर हास-विलास उल्लसित लसित दिखाते।
सब उद्वेजक भाव सामने सहम न आते।
सा नीरस व्यसन विषय तन परस न पाते॥9॥

हभ तरुवृन्द फलों से भ दिखाते।
पर हो-हो कंटकित न औरों को उलझाते।
फूल-फूलकर फूल फबीले बन मुसकाते।
पर रज से अंधो न रसिक भौं बन पाते॥10॥

घनरुचि तन की छटा दिखा नभ में घन आते।
सरस वारि कर दान रसा को रसा बनाते।
पर कभी न वे कर्ण-विदारी नाद सुनाते।
न तो गिराते विज्जु, न तो ओले बरसाते॥11॥

बहता रहे समीर महँकता शीतल करता।
पर ऑंधी बन रहे न नयनों में रज भरता।
लतिका से कर केलि बने जीवन-संचारी।
पेड़ न टूटे धवंस न हो फूली फुलवारी॥12॥

ऐसी ही कामना सदा मानव करते हैं।
कुछ ऐसे ही भाव भावुकों में भरते हैं।
भव का द्वन्द्व विलोक मनुज भावित होता है।
देख काल-मुख आठ-आठ ऑंसू रोता है॥13॥

इस विचार ने बुध जन को है बहुत सताया।
कैसे होगी अजर अमर मानव की काया।
क्या लोकों में लोक नहीं है ऐसा न्यारा।
जिसे मिला हो भू-उपद्रवों से छुटकारा॥14॥

देख चित्त की वृत्तिक समा है गया दिखाया।
मिला रंग में रंग, रंग है गया जमाया।
कहते हैं कुछ विबुध, पता कब गया बताया।
है सुरपुर-कल्पना किसी कल्पक की माया॥15॥

स्वर्ग की वास्तवता

(9)

नीलाम्बर में बड़े अनूठे रत्न जड़े हैं।
भव-वारिधिक में विपुल विद्युत-स्तंभ खड़े हैं।
ता हैं अद्भुत विचित्र अत्यंत निराले।
परम दिव्य आलोक निलय कौतुक तरु थाले॥1॥

यदि स्वकीय विज्ञात सौर-मंडल को ले लें।
चिन्ता-नौका को विचार-वारिधिक में खे लें।
तो होगा यह ज्ञात एक उसके ही ता।
हैं मन-वचन-अगोचर मति-अवगति से न्या॥2॥

फिर अनन्त तारक-समूह की सारी बातें।
कैसे हैं उनके दिन या कैसी हैं रातें।
क्या रहस्य हैं उनके, क्या है उनकी सत्ता।
क्या है उनका बल विवेक अधिकार महत्ता॥3॥

किसी काल में बता सकेगा कोई कैसे।
बड़े विज्ञ भी कह न सकेंगे, वे हैं ऐसे।
दिनमणि से सौगुने बड़े नभ में है ता।
जो हैं दिव दिव्यता-करों से गये सँवा॥4॥

ऐसे तारक-चय की भी है कथा सुनाई।
जिनकी किरणें अब तक हैं न धारा पर आयी।
वे हैं द्युतिसर्वस्व अलौकिक गुणगणशाली।
है उनकी विभुता अचिन्त्य, दिव्यता निराली॥5॥

क्या इनमें से कोई भी सर्वोत्ताम तारा।
स्वर्ग नाम से जा सकता है नहीं पुकारा।
हैं तारक के सिवा सौर-मंडल कितने ही।
क्या हैं बहु विख्यात अलौकिक स्वर्ग न वे ही॥6॥

क्या न सौर-मंडल हमलोगों का है अनुपम।
क्या न हमा सूर्यदेव हैं प्रकृत दिव्यतम।
रविमंडल विस्तृत वसुधा से बहुत बड़ा है।
जो अवनी है मटर तो द्युमणि-बिम्ब घड़ा है॥7॥

अग्नि-शरीरी वृन्दारक हैं माने जाते।
तरणि-बिम्ब-वासी भी हैं आग्नेय कहाते।
हैं सुरगुरु विधु सहित सौर-मंडल में रहते।
क्या होगा अयथार्थ उसे जो दिव हैं कहते॥8॥

बुध्ददेव में है अनात्मवादिता दिखाती।
ईश-विषय में नहीं जीभ उनकी खुल पाती।
पर वे भी हैं स्वर्गलोक-सत्ता बतलाते।
जैन-धर्म के ग्रंथ स्वर्गगुणगण हैं गाते॥9॥

हैं बिहिश्त के दिव्य गान जनदश्त सुनाते।
स्वर्ग-दृश्य देखे मूसा-दृग हैं खुल जाते।
ईसा हैं स्वर्गीय पिता के पुत्रा कहाते।
पैगम्बर जन्नत-पैगामों को हैं लाते॥10॥

फिर कैसे यह कहें स्वर्ग-संबंधी बातें।
हैं झूठी, हैं गढ़ी, हैं तिमिर-पूरित रातें।
मरने पर मानव-तन हैं रज में मिल जाता।
किसी दूसरी जगह नहीं है जाता-आता॥11॥

जा करके परलोक पलटता कौन दिखाया।
है उसका वह पंथ जन जिसे खोज न पाया।
इसीलिए परलोक स्वर्ग आदिक की बातें।
जँचतीं नहीं, जान पड़ती हैं उतरी ताँतें॥12॥

हैं अनात्मवादिता इन विचारों में पाते।
ज्ञान-नयन किसलिए नहीं हैं खोले जाते।
है शरीर से भिन्न 'जीव' यह कभी न भूले।
क्यों अबोध लोहा न बोध पारस को छू ले॥13॥

करके तन का त्याग कहाँ है आत्मा जाती।
यह जिज्ञासा विबुधो है यही बताती।
कर्मभूमि में जीव कर्म का फल पाता है।
उच्च कर्म कर उच्च लोक में वह जाता है॥14॥

विबुधों का वर बोध अबुधता का बाधक है।
यह विचार भी स्वर्गसिध्दि का ही साधक है।
तर्क-वितर्क विवाद और है बहुत अल्पमत।
स्वर्गलोक-अस्तित्व है विपुल बुध-जन-सम्मत॥15॥

शार्दूल-विक्रीडित

(10)

है ऐरावत-सा गजेन्द्र न कहीं, है कौन देवेन्द्र-सा।
है कान्ता न शची समान अपरा देवापगा है कहाँ।
श्री जैसी गिरिजा गिरा सम नहीं देखी कहीं देवियाँ।
पाई कल्पलतोपमा न लतिका, है स्वर्ग ही स्वर्ग-सा॥1॥

शोभा-संकलिता नितान्त ललिता कान्ता कलालंकृता।
लीला-लोल सदैव यौवनवती सद्वेश-वस्त्राकवृता।
नाना गौरव-गर्विता गुणमयी उल्लासिता संस्कृता।
होती है दिव-दिव्यता-विलसिता स्वर्गांगना सुन्दरी॥2॥

शुध्दा सिध्दि-विधायिनी अमरता आधारिता निर्जरा।
सारी आधिक-उपाधिक-व्याधिक-रहिता बाधादि से वर्जिता।
कान्ता कान्ति-निकेतनातिसरसा दिव्या सुधासिंचिता।
नाना भूति विभूति मूर्ति महती है स्वर्ग स्वर्गीयता॥3॥

जो होती न विराजमान उसमें दिव्यांग देवांगना।
जो देते न उसे प्रभूत विभुता देवेश या देवते।
नाना दिव्य गुणावली-सदन जो होती नहीं स्वर्गभू।
तो पाती न महान भूति महती होती महत्ता नहीं॥4॥

होते म्लान नहीं प्रसून, रहते उत्फुल्ल हैं सर्वदा।
पाके दिव्य हरीतिमा विलसती है कान्त वृक्षावली।
पत्तो हैं परिणाम रम्य फल हैं होते सुधा से भ।
है उद्यान न अन्य, स्वर्ग-अवनी के नन्दनोद्यान-सा॥5॥

जो हो स्वथ्य शरीर, भाग्य जगता, पद्मासना की कृपा।
जो हो पुत्रा विनीत, बुध्दि विमला, हो बंधु में बंधुता।
जो हो मानवता विवेक-सफला, हों सात्तिवकी वृत्तिकयाँ।
हो कान्ता मृदुभाषिणी अनुगता तो स्वर्ग है सद्म ही॥6॥

होती है विकरालता जगत की जाते जहाँ कम्पिता।
आता काल नहीं समीप जिसके आरक्त ऑंखें किये।
होता है भय आप भीत जिसकी निर्भीकता भूति से।
जा पाते यमदूत हैं न जिसमें है स्वर्ग-सा स्वर्ग ही॥7॥

होता क्रन्दन है नहीं, न मिलता है आत्ता कोई कहीं।
हाहाकार हुआ कभी न, उसने आहें सुनीं भी नहीं।
देखा दृश्य न मृत्यु का, न दव से दग्धाक विलोकी चिता।
है आनन्द-निधन स्वर्ग-विभुता उत्फुल्लता-मूर्ति है॥8॥

गाती है वह गीत, पूत जिससे होती मनोवृत्तिक है।
लेती है वह तान रीझ जिससे है रीझ जाती स्वयं।
ऐसी है कलकंठता कलित जो है मोहती विश्व को।
है संगीत सजीव मूर्ति दिव की लोकोत्तारा अप्सरा॥9॥

सारी मोहन-मंत्र-सिध्दि स्वर में, आलाप में मुग्धता।
तालों में लय में महामधुरता, शब्दावली में सुधा।
भावों में वर भावना सरसता उत्कंठता कंठ में।
देती है भर भूतप्रीतिध्वनि में गंधार्व गंधार्वता॥10॥

जागे सात्तिवक भाव भूति टलती हैं तामसी वृत्तिकयाँ।
देखे दिव्य दिवा-विकास छिपती है भीतभूता तमा।
जाती है मिट ज्ञान भानु-कर से अज्ञान की कालिमा।
पाते हैं द्युति लोक लोक दिव की आलोकमाला मिले॥11॥

पाते हैं बहुदीप्ति देवगण से दिव्यांगना-वृन्द से।
होते झंकृत हैं सदैव बजते वीणादि झंकार से।
हो आरंजित रत्न से विलसते हैं मोहते लोक को।
ऑंखों में बसते सदा विहँसते आवास हैं स्वर्ग के॥12॥

हो-हो नृत्य-कला-निमग्न दिखला अत्यन्त तल्लीनता।
पाँवों के वर नूपुरादि ध्वनि से संसार को मोहती।
ले-ले तान महान मंजु रव से धारा सुधा की बहा।
नाना भाव-भरी परी सहित गा है नाचती किन्नरी॥13॥

नाना रोग-वियोग-दु:ख-दल से जो द्वंद्व से है बचा।
सारी ऋध्दि प्रसिध्द सिध्दि निधिक पा जो भूति से है भरा।
जो है मृत्यु-प्रपंच-हीन जिसमें हैं जीवनी ज्योतियाँ।
तो क्या है अपवर्ग-पुण्य बल से जो स्वर्ग ऐसा मिले॥14॥

सारी संसृति है विभूति उसकी, है भूत-सत्ता वही।
प्यारा है वह लोक लोकपति का है लोक प्यारा उसे।
जो हो जाय अनन्यता जगत में तो अन्यता है कहाँ।
तो क्या है अपवर्ग-प्राप्ति-गरिमा, तो स्वर्ग ससर्ग क्या॥15॥

जो माने न उसे असार, समझे संसार की सारता।
जो देखे तृण से त्रिकदेव तक में दिव्यांग की दिव्यता।
जो ऑंखें अवलोक लें अखिल में आत्मीयता का समा।
जो मानव का हो महान मन तो क्या साहिबी स्वर्ग की॥16॥

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पन्ने की प्रगति अवस्था
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