तराइन का द्वितीय युद्ध  

तराइन का द्वितीय युद्ध वर्ष 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी के मध्य लड़ा गया। तराइन के इस युद्ध को 'भारतीय इतिहास' का एक विशेष मोड़ माना जाता है। इस युद्ध में मुस्लिमों की विजय और राजपूतों की पराजय हुई। इस विजय से बाहरी आक्रमणकारियों के पाँव भारत में काफ़ी लम्बे तक जम गये। क्योंकि इस युद्ध से पूर्व भी पृथ्वीराज के कई हिन्दू राजाओं से युद्ध हो चुके थे और इन राजाओं से उसके आपसी सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं थे, जिस कारण अधिकांश राजपूत राजाओं ने 'तराइन के द्वितीय युद्ध' में पृथ्वीराज का साथ नहीं हुआ।

ग़ोरी की तैयारी

तराइन की दूसरी लड़ाई को 'भारतीय इतिहास' का एक निर्णायक मोड़ माना जाता है। 'तराइन के प्रथम युद्ध' में मिली करारी हार के बाद बदला लेने के लिए शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी दूसरे युद्ध के लिए बहुत तैयारियाँ करके आया। कहा जाता है कि वह 1,20,000 सैनिकों के साथ मैदान में उतरा, जिसमें बड़ी संख्या में बख्तरबंद घुड़सवार और 10,000 धनुर्धारी घुड़सवार शामिल थे। यह सोचना उचित नहीं होगा कि पृथ्वीराज चौहान ने अपनी ओर से शासन में लापरवाही की या उसे स्थिति का अंदाजा तभी लग सका, जब बहुत देर हो चुकी थी।

पृथ्वीराज द्वारा मदद का अनुरोध

यह सही है कि इस अंतिम अभियान का सेनाध्यक्ष स्कंन्द, कहीं और फँसा था। जैसे ही पृथ्वीराज ने ग़ोरियों के ख़तरे को भाँपा, उसने उत्तर भारत के सभी राजाओं से सहायता का अनुरोध किया। बताया जाता है कि कई राजाओं ने उसकी मदद के लिए अपने सैनिक भेजे, लेकिन कन्नौज का शासक जयचन्द्र चुप रहा। माना जाता है कि जयचन्द्र की पुत्री 'संयोगिता' पृथ्वीराज से प्रेम करती थी और पृथ्वीराज उसे भगा लाया था। इसलिए जयचन्द्र इस अपमान को सहन नहीं कर पा रहा था। किंतु अब अनेक इतिहासकार इस कथन को स्वीकार नहीं करते। यह कहानी बहुत बाद में कवि चंदबरदाई ने लिखी, जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि थे और उसके वर्णन में कई एक असंभाव्य घटनाएँ हैं। यथार्थ में इन दोनों राज्यों के बीच पुरानी दुश्मनी थी और इस कारण कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जयचन्द्र ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया।

मुहम्मद ग़ोरी की विजय

कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान की सेना में तीन सौ हाथी तथा 3,00,000 सैनिक थे, जिनमें बड़ी संख्या में घुड़सवार भी थे। दोनों तरफ़ की सेनाओं की शक्ति के वर्णन में अतिशयोक्ति भी हो सकती है। संख्या के हिसाब से भारतीय सेना बड़ी हो सकती है, किंतु तुर्क सेना बड़ी अच्छी तरह संगठित थी। वास्तव में यह दोनों ओर के घुड़सवारों का युद्ध था। शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी की जीत श्रेष्ठ संगठन तथा तुर्की घुड़सवारों की तेज़ी और दक्षता के कारण ही हुई। भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती तथा समाना के क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उन्होंने अजमेर पर चढ़ाई की और उसे जीता। कुछ समय तक पृथ्वीराज को एक ज़ागीरदार के रूप में राज करने दिया गया, क्योंकि उस काल के ऐसे सिक्के मिले हैं, जिनकी एक तरफ़ 'पृथ्वीराज' तथा दूसरी तरफ़ 'श्री मुहम्मद साम' का नाम ख़ुदा हुआ है। पर इसके शीघ्र ही बाद षड़यंत्र के अपराध में पृथ्वीराज को मार डाला गया और उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया गया। दिल्ली के शासकों को भी उसका राज्य वापस कर दिया गया, लेकिन इस नीति को शीघ्र ही बदल दिया गया। दिल्ली के शासक को गद्दी से उतार दिया और दिल्ली गंगा घाटी पर तुर्कों के आक्रमण के लिए आधार स्थान बन गई। पृथ्वीराज चौहान के कुछ भूतपूर्व सेनानियों के विद्रोह के बाद पृथ्वीराज के लड़के को भी गद्दी से उतार दिया गया और उसकी जगह अजमेर का शासन एक तुर्की सेनाध्यक्ष को सौंपा दिया गया। इस प्रकार दिल्ली का क्षेत्र और पूर्वी राजस्थान तुर्कों के शासन में आ गया।

विशेष तथ्य

पृथ्वीराज चौहान की सहायता के लिए कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी थीं, किंतु उस समय का गहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा। किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद ग़ोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रामाणिक ज्ञात होता है। उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी। पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी मुस्लिम सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था, किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा। इस प्रकार 1192 ई. के उस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। युद्ध में पराजित होने के पश्चात् पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई, इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते हैं। कुछ के मतानुसार वह बंदी बना कर दिल्ली में रखा गया था और बाद में ग़ोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर ग़ज़नी ले जाया गया था और वहाँ पर उसकी मृत्यु हुई। ऐसी भी किंवदंती है कि पृथ्वीराज का दरबारी कवि और सखा चंदबरदाई अपने स्वामी की दुर्दिनों में सहायता करने के लिए ग़ज़नी गया था। उसने अपने बुद्धि कौशल से पृथ्वीराज द्वारा मुहम्मद ग़ोरी का संहार कराकर उससे बदला लिया था। फिर मुहम्मद ग़ोरी के सैनिकों ने उन दोनों को मार डाला। इस किंवदंती का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं हैं, अतः वह प्रामाणिक ज्ञात नहीं होती।

इन्हें भी देखें: तराइन का प्रथम युद्ध, पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद ग़ोरी एवं मध्यकालीन भारत


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