गोरा उपन्यास भाग-11  

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ललिता के पास से लौटकर उस दिन विनय के मन में एक शंका रह-रहकर काँटे-सी चुभ रही थी। वह सोचने लगा- परेशबाबू के घर में मेरा आना-जाना किसी को अच्छा लगता है या नहीं, ठीक-ठीक यह जाने बिना मैं ज़बरदस्ती वहाँ जाता रहता हूँ, शायद यह ठीक नहीं है। शायद मैं कई बार असमय पहुँचकर उन्हें दुविधा में डालता रहा हूँ। उनके समाज का नियम मैं जानता नहीं, उस घर में मेरे जाने की मर्यादा क्या है, मुझे मालूम नहीं। हो सकता है कि मैं बेवकूफों की तरह ऐसी जगह दख़ल देता रहा हूँ, जहाँ घर के लोगों को छोड़कर किसी दूसरे को नहीं जाना चाहिए।

यह बात सोचते-सोचते अचानक उसको यह बात याद आई कि शायद ललिता ने उसके चेहरे पर कोई ऐसा भाव देखा हो जो उसे अपमानजनक लगा हो। ललिता के प्रति विनय के मन में क्या भाव है, यह विनय के आगे अब तक स्पष्ट नहीं था, लेकिन अब वह उससे छिपा न रहा। हृदय की इस नई अभिव्यक्ति का क्या किया जाए, इसके बारे में वह कुछ नहीं सोच सका। बाहर के व्यक्तित्तव से उसका मेल कैसे होगा, संसार के साथ उसका संबंध क्या है, क्या वह ललिता के प्रति असम्मान है या परेशबाबू के प्रति विश्वासघात-इन सब प्रश्नों को लेकर वह बड़ी उधेड़-बुन में उलझ गया। ललिता उसके मन की बात जान गई है तथा इसीलिए उस पर नाराज़ हुई है, यह कल्पना करके वह मानो धरती में समा जाना चाहने लगा।

विनय के लि‍ए परेशबाबू के घर जाना असंभव-सा हो गया और अपने घर का सूनापन भी एक बोझ जैसा उसे दबाने लगा। अगले दिन सबेरे ही वह आनंदमई के पास जा पहुँचा और बोला, "माँ, कुछ दिन मैं तुम्हारे यहाँ ही रहूँगा।" विनय के मन में कहीं यह बात भी छिपी थी कि गोरा की अनुपस्थित में वह आनंदमई को कुछ सांत्वना दे सकेगा। यह समझकर आनंदमई का हृदय द्रवित हो उठा। बिना कुछ कहे उन्होंने एक बार स्नेहपूर्वक विनय के कंधे पर हाथ रख दियां

विनय अपने खाने-पीने और सेवा-टहल के मामले में तरह-तरह के नखरे करने लगा। कभी-कभी वह आनंदमई के साथ इस बात को लेकर झूठ-मूठ झगड़ा करने लगता कि उसकी वहाँ पूरी देख-भाल नहीं होती। हर वक्त बातचीत और हल्ला-गुल्ला करते रहकर वह आनंदमई को और स्वयं अपने को बहलाने की चेष्टा करता। साँझ के समय जब मन को सँभालना मुश्किल होता तब ज़िद करके विनय आनंदमई को घर के कामों से हटाकर अपने कमरे के सामने बरामदे में चटाई बिछाकर बिठा लेता और उनसे उनके बचपन की और उनके मायके की बातें सुना करता- जब उनका विवाह नहीं हुआ था और जब वह अपने अध्‍यापक पितामह के टोल (विद्यालय) के छात्रों की लाडली थीं, जब सब लोग पितृहीना बालिका को हर बात में इतना सिर चढ़ाए रखते थे कि उनकी विधवा माता को बड़ी चिंता सताती रहती थी। विनय कहता, "माँ, कोई समय ऐसा भी था जब तुम मेरी माँ नहीं थी, मुझे यह सोचकर ही अचरज होता है। मुझे लगता है कि तुम्हें टोल के लड़के भी अपनी एक बहुत नन्हीं-सी माँ ही समझते रहे होंगे। बल्कि दादाजी महाशय को पालने-पोसने का जिम्मा भी तुम्हारा ही रहा होगा।"

एक दिन शाम को चटाई पर फैले हुए आनंदमई के पैरों के पास सिर रखते हुए विनय बोला, "माँ, जी चाहता है, अपनी सारी विद्या, बुध्दि विधाता को लौटाकर फिर शिशु होकर तुम्हारी गोद में आश्रय पाऊँ-दुनिया में तुम्हारे अलावा और मेरा कुछ न हो।"

विनय के स्वर में कुछ ऐसा भर्रायापन और थकान झलक रही थी कि आनंदमई को व्यथा के साथ आश्चर्य भी हुआ। वह विनय के पास सरककर धीरे-धीरे उसके माथे पर हाथ फेरने लगीं। काफ़ी देर चुप रहकर उन्होंने पूछा, "विनू, परेशबाबू के घर सब ठीक तरह हैं न?"

प्रश्न सुनकर विनय एकाएक चौंककर शरमा गया। सोचने लगा- माँ से कुछ भी छिपा नहीं रहता, माँ मेरी अंतर्यामी हैं। कुछ हिचकिचाते हुए बोला, "हाँ, वे सब लोग तो ठीक ही हैं।"

आनंदमई बोलीं, "मेरा बहुत मन होता है कि परेशबाबू की लड़कियों के साथ मेरी जान-पहचान हो जाती। उनकी तरफ से पहले तो गोरा के मन का भाव सहज नहीं था, लेकिन अब अगर उन्होंने उस तक को वश में कर लिया है तो वे सब मामूली लोग नहीं होंगी।"

उत्साहित होकर विनय ने कहा, "अनेक बार मैंने भी सोचा है कि किसी तरह परेशबाबू की लड़कियों के साथ तुम्हारा परिचय करा देता। परंतु गोरा को कहीं बुरा न लगे, इस भय से मैंने कभी कुछ कहा नहीं।"

आनंदमई ने पूछा, "बड़ी लड़की का क्या नाम है?"

इस प्रकार सवाल-जवाब के जरिए परिचय होते-होते जब ललिता की बात आई तब विनय ने किसी तरह उसे जल्दी से टालने की कोशिश की, लेकिन आनंदमई नहीं मानीं। मन-ही-मन हँसकर उन्होंने कहा, "सुना है, ललिता की बुध्दि बड़ी तेज़ है?"

विनय बोला, "तुमने किससे सुना?"

आनंदमई ने कहा, "क्यों, तुम्हीं से तो!"

एक समय पहले ऐसा भी था जब ललिता के संबंध में विनय के मन में किसी प्रकार का संकोच नहीं था। उन्हीं मोह-मुक्त दिनों में विनय ने आनंदमई के सामने ललिता की तीव्र बुध्दि की कितनी बचकाना चर्चा की थी, यह बात वह भूल गया था।

कुशल माँझी की तरह आनंदमई सब बाधाओं से बचाती हुई ललिता की बात रूपी नाव को ऐसे चलाती ले गईं कि विनय से उसके परिचय के इतिहास की मुख्य-मुख्य प्राय: सभी बातें जान गईं। गोरा को सज़ा होने के मामले से क्षुब्ध होकर ललिता स्टीमर में विनय के साथ अकेली भाग आई, यह बात भी विनय ने आज सुना डाली। कहते-कहते उसका उत्साह और भी बढ़ चला- साँझ होते ही जिस मलिनता ने उसे धर दबोचा था वह न जाने कहाँ उड़ गई। ललिता- जैसे एक आश्चर्यकारी चरित्र को जानना और इस तरह उसकी बात कर सकना अपने-आप में उसे एक बहुत बड़ा फ़ायदा जान पड़ने लगा। जब रात को भोजन का बुलावा आने से बातों का तार टूटा तब मानो हठात् स्वप्न से जागकर विनय ने जाना कि उसके मन में जो कुछ था वह सभी आनंदमई से कह दिया गया है। सारी बात आनंदमई ने ऐसे सहज भाव से सुनी, ऐसे ढंग से ग्रहण की, कि विनय को बिल्‍कुल ऐसा नहीं लगा कि इसमें कहीं कोई शर्म करने की बात हो सकती है। विनय ने आज तक माँ से कभी कुछ नहीं छिपाया छोटी-से-छोटी बात भी वह उन्हें बता देता था। लेकिन परेशबाबू के परिवार से परिचय होने के बाद उसमें कहीं कुछ अटक पड़ गई थी जो विनय के लिए स्वास्थ्यकर नहीं थी। आज ललिता के बारे में उसके मन की बात सूक्ष्मदर्शिनी आनंदमई के सामने इस प्रकार प्रकट हो गई है, यह सोचकर विनय का मन खिल उठा। अपने जीवन के इस पहलू का माँ के सामने पूरी तरह निवेदन किए बिना वह किसी तरह भी बिल्‍कुल निर्मल-मन न हो पाता- कहीं कुछ मैल अवश्य रह जाता।

रात को बहुत देर तक अनंदमई इन्हीं बातों को लेकर मन-ही-मन सोचती रहीं। गोरा के जीवन में जो समस्या उत्तरोत्तर और जटिल होती जा रही थी, शायद उसका कोई हल परेशबाबू के घर में मिल सकेगा, यह समझकर उन्होंने निश्चय किया किया कि जैसे भी हो उन लड़कियों से एक बार ‍‍मिलना ही ठीक होगा।


महिम और उनके परिवार के सदस्य यही मानकर चल रहे थे कि शशिमुखी के साथ विनय का विवाह एक तरह से पक्का हो गया है। शशिमुखी तो अब विनय के सामने आती ही नहीं थी। शशिमुखी की माँ से विनय का परिचय कुछ ख़ास नहीं था। यह बात नहीं थी कि वह स्वभाव से लजीली हों, लेकिन उनकी प्रवृत्ति हर बात को छिपाकर रखने की थी। उनके कमरे का दरवाज़ा अक्सर बंद रहता था। पति को छोड़कर और सभी-कुछ को वह ताले में बंद रखती थी। पति को भी बहुत खुली छूट मिलती हो ऐसा तो नहीं था- पत्नी के शासन में उनकी गतिविधि बिल्कुल निर्दिष्ट थी और उनकी आज़ादी के क्षेत्र का दायरा अत्यंत सँकरा। सब-कुछ को इस तरह बाँधकर रखने की उनकी प्रवृत्ति के कारण शशिमुखी की माँ लक्खीमणि का संसार संपूर्णता उनकी मुट्ठी में था। बाहर के व्यक्ति का भीतर आना अथवा भीतर से व्यक्ति का बाहर जाना एक समान कठिन था। यहाँ तक कि गोरा की भी लक्खीमणि के महल में गति नहीं थी। इस क्षेत्र की व्यवस्‍था में किसी तरह की कोई दुविधा नहीं थी, क्योंकि यहाँ क़ानून बनाने वाली भी लक्खीमणि थीं और निचली अदालत से लेकर ऊँची अदालत तक भी लक्खीमणि ही थीं-एक्जीक्यूटिव ज्युडिशियल का भेद तो नहीं ही था, बल्कि लेजिस्लेटिव भी उसी के साथ जुड़ा हुआ था। बाहर के लोगों के साथ व्यवहार में महिम बड़े सख्त जान पड़ते थे, लेकिन लक्खीमणि के शासन में उन्हें अपनी इच्छानुसार चलने की कोई इजाजत नहीं थी, छोटी-छोटी बातों में भी नहीं।

विनय को लक्खीमणि ने आड़ से देख रखा था और पसंद भी किया था। महिम विनय को बचपन से ही गोरा के मित्र के रूप में देखने के इतने आदी हो गए थे कि शायद अति परिचय के कारण ही उन्होंने कभी विनय को अपनी कन्या के पात्र के रूप में नहीं देखा। जब लक्खीमणि ने उनकी दृष्टि विनय की ओर इस आशय से घुमाई तब सहधर्मिणी की बुध्दि के प्रति उनकी श्रध्दा बढ़ गई। लक्खीमणि ने पक्का निश्चय कर लिया कि विनय के साथ ही उनकी कन्या का विवाह होगा। एक बहुत बड़ी सुविधा की बात भी इस प्रस्ताव में उन्होंने अपने पति के मन में अच्छ तरह बिठा दी थी कि उन लोगों से विनय कोई दहेज नहीं माँग सकेगा।

विनय को घर में पाकर भी महिम दो-एक दिन उससे विवाह की बात न कर सके। गोरा की सज़ा को लेकर उसका मन व्यथित है, यह सोचकर वह चुप ही रहे।

आज रविवार था। महिम की साप्ताहिक दिवा-निद्रा पत्नी ने पूरी न होने दी। बंकिम बाबू के नव-प्रकाशित 'बंग दर्शन' का नया अंक लेकर विनय आनंदमई को सुना रहा था कि हाथ में पान का डिब्बा लिए हुए वहाँ पहुँचकर महिम धीरे से तख्तपोश पर बैठ गए।

उन्होंने पहले तो विनय को एक पान देकर गोरा की उच्छृंखलता और बेअक्ली पर विरक्ति प्रकट की। इसके बाद उसके छूटने में और कितने दिन शेष हैं, यह गिनते-गिनते मानो बिल्‍कुल अचानक उनको याद आ गया कि अगहन का महीना तो लगभग आधा बीत गया।

वह बोले, "विनय, तुमने जो कहा था कि तुम्हारे वंश में अगहन के महीने में विवाह का निषेध है, वह बिल्‍कुल व्यर्थ की बात है। अव्वल तो पोथी-पत्रे में निषेध के अलावा कुछ मिलता ही नहीं, उस पर अगर घर में ही अपना निजी शास्त्र बनाते रहोगे तो ख़ानदान चलेगा कैसे?"

विनय का संकट समझकर आनंदमई बोलीं, "शशिमुखी को विनय बचपन से ही देखता आ रहा है-उससे ब्याह करने की बात उसे नहीं जँचती। इसीलिए अगहन महीने का बहाना करके बैठा है।"

महिम बोले, "यह बात तो शुरू में ही कह देनी चाहिए थी।"

आनंदमई ने कहा, "अपनी इच्छा पहचानते भी तो देर लगती है, लेकिन महिम, पात्र का क्या अकाल है? गौर लौट आए, वह तो अनेक अच्छे लड़कों को जानता है- किसी एक को ठीक कर देगा।'

मुँह बनाते हुए महिम ने कहा, "हुँ:!"

थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोले, "माँ, अगर तुम्हीं विनय का मन न पलट देतीं तो वह इसमें कोई आपत्ति न करता।"

सकपकाकर विनय कुछ कहने जा रहा था, लेकिन आनंदमई ने उसे टोकते हुए कहा, "तो, सच बात कहूँ महिम, मैं इसे बढ़ावा नहीं दे सकी। विनय अभी लड़का है, हो सकता है कि बिना समझे-जाने यह कोई काम भी कर बैठता, लेकिन आगे चलकर वह ठीक न होता।"

विनय को ओट देकर आनंदमई ने महिम के गुस्से की मार अपने ऊपर ले ली है, यह समझकर विनय अपनी दुर्बलता पर लज्जित हो उठा। वह अपनी असहमति साफ-साफ प्रकट करने की उद्यत हो रहा था कि महिम और न रुककर मन-ही-मन यह कहते हुए उठकर चले गए कि विमाता कभी अपनी नहीं होती।

महिम ऐसा सोच सकता है, और विमाता होने के कारण वह संसार की कचहरी में हमेशा के लिए अभियुक्त की श्रेणी में रख दी गईं, यह आनंदमई जानतीं थीं। लेकिन लोग कहेंगे या सोचेंगे, इस बात का विचार करते हुए चलना उनकी आदत नहीं थी। जिस दिन से उन्होंने गोरा को गोद में उठा लिया था उसी दिन से उनकी प्रकृति लोगों के आचार और विचार से बिल्‍कुल स्वतंत्र हो गई थी। उस दिन से ऐसी बहुत-सी बातें वह करती आ रही थीं जिनके लिए लोग उनकी बुराई ही करें। उनके जीवन के मर्मस्थल में एक सत्य को छुपा रखने की जो बात उन्हें हमेशा दु:ख देती रहती थी, उसकी पीड़ा से यह लोक-निंदा ही उन्हें किसी सीमा तक मुक्त करती थी। जब लोग उन्हें ख्रिस्तान कहते थे तब गोरा को गले से लगाकर वह कहती थीं- भगवान जानते हैं कि ख्रिस्तान कहने से मेरा ज़रा भी अपमान नहीं होता।

इस तरह धीरे-धीरे सभी मामलों में लोगों की बातों से अपने व्यवहार को अलग कर लेने का उनको अभ्यास हो गया था। इसीलिए महिम के मन-ही-मन या प्रकट रूप से विमाता कहकर उन्हें लांछित करने पर भी वह अपने मार्ग से विचलित न होती थी।

आनंदमई ने कहा, "विनू, बहुत दिनों से तुम परेशबाबू के घर नहीं गए!"

विनय बोला, "अभी बहुत दिन कहाँ हुए हैं?"

आनंदमई, "स्टीमर से लौटने के अगले दिन से नहीं गए।"

यह कोई बहुत दिन तो नहीं होते, लेकिन विनय यह भी जानता था कि बीच में परेशबाबू के घर उसका आना-जाना इतना बढ़ गया था कि आनंदमई के लिए भी उसके दर्शन दुर्लभ हो गए थे। इस हिसाब से तो ज़रूर उसे परेशबाबू के घर गए हुए काफ़ी अरसा हो गया था और यह लोगों के ध्यान देने की बात थी।

विनय अपनी धोती के छोर से एक धागा खींचकर तोड़ता हुआ चुप हो गया।

उसी समय बेरे ने आकर खबर दी, "माँजी, उहाँ से माई लोक आया है।"

हड़बड़ाकर विनय उठ खड़ा हुआ। कौन आया है, कहाँ से आया है, यह पूछते-पूछते ही सुचरिता और ललिता कमरे में आ पहुँचीं। विनय का कमरे से बाहर जाना नहीं हुआ, वह स्तम्भित-सा खड़ा रहा।

आकर दोनों ने आनंदमई के पैरों की धूल ली। ललिता ने विनय की ओर विशेष ध्‍यान नहीं दिया, सुचरिता ने उसे नमस्कार करते हुए पूछा, "अच्छी तरह हैं?" फिर आनंदमई की ओर मुड़कर कहा, "हम लोग परेशबाबू के यहाँ से आई हैं।"

आनंदमई ने प्यार से उन्हें उठाते हुए कहा, "मुझे वह परिचय देने की ज़रूरत नहीं है। मैंने तुम लोगों को देखा नहीं, बेटी लेकिन घर-सा ही जानती हूँ।"

बातें होने लगीं। सुचरिता ने विनय को चुप बैठा देखकर उसे भी बातचीत में खींच लेने की कोशिश की। मृदु स्वर में बोली, "आप बहुत दिन से हमारे घर नहीं आए?"

एक बार ललिता की ओर देखकर विनय ने कहा, "बार-बार तंग करके कहीं आपका स्नेह न खो दूँ, इस डर से।"

तनिक हँसकर सुचरिता ने कहा, "स्नेह भी बार-बार तंग किए जाने की आश रखता है, शायद आप यह नहीं जानते?"

आनंदमई बोलीं, "ये बात यह खूब जानता है। तुम्हें क्या बताऊँ, इसकी फरमाइशों और नखरों के मारे सारा दिन मुझे फुरसत ही नहीं मिलती।" कहते हुए ममतामई दृष्टि से उन्होंने विनय की ओर देखा।

विनय बोला, "ईश्वर ने तुम्हें जो धैर्य दिया है, मेरे द्वारा वे उस धैर्य की परीक्षा लेते रहते हैं।"

ललिता को हल्का-सा धक्का देते हुए सुचरिता ने पूछा, "सुन रही है, ललिता? हम लोगों की परीक्षा शायद हो चुकी- हम लोग पास नहीं हुए न?"

इस बात में ललिता ने कोई योग नहीं दिया यह देखकर आनंदमई हँसकर बोलीं, "हमारे विनू बाबू अब अपने ही धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं। तुम लोगों को यह किस नज़र से देखता है यह तो तुम्हें नहीं मालूम- शाम से ही तुम लोगों की बात के सिवाय और कोई बात ही नहीं होती। और परेशबाबू की बात चलने पर बिल्‍कुल गद्गद् हो जाता है।"

आनंदमई ने ललिता के चेहरे की ओर देखा। हठ करके वह ऑंखें तो उठाए रही, लेकिन चेहरा लाल हो गया।

आनंदमई ने कहा, "तुम्हारे पिता की ओर से यह न जाने कितने लोगों से झगड़ा कर चुका है! इसके गुट के लोग तो 'ब्रह्म' कहकर जात-बाहर करने की सोच रहे हैं! विनू, इतना घबराने से तो काम नहीं चलेगा, बेटा-सच बात ही तो कह रही हूँ। और इसमें शर्माने जैसी भी तो कोई बात नहीं है। तुम क्या कहती हो, बेटी?"

आनंदमई ने जब इस बार ललिता की ओर देखा तो उसने ऑंखें झुका लीं। सुचरिता ने कहा "विनय बाबू हमें अपने ही लोग समझते हैं, यह हम जानती हैं। लेकिन ऐसा हमारे ही गुणों के कारण हो यह बात नहीं है, वह इनकी उदारता है।"

आनंदमई बोलीं, "यह बात मैं नहीं मानती। इसे तो बचपन से ही देखती आ रही हूँ, इतने दिन तो इसका दोस्त एक मेरा गोरा ही था। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि अपने गुट के लोगों से भी इसका मेल नहीं होता। लेकिन तुम लोगों से दो दिन की जान-पहचान में ही यह ऐसा हो गया है कि हमें भी इसका पता नहीं मिलता। मैंने तो सोचा था, इसके लि‍ए तुम लोगों से झगड़ा करूँगी, लेकिन अब देख रही हूँ कि मुझे भी इसके गुट में ही शामिल हो जाना होगा- तुम से सभी को हार माननी होगी।" कहते-कहते आनंदमई ने एक बार ललिता और एक बार सुचरिता की ठोड़ी छूकर अपनी उँगलियाँ चूम लीं।

सुचरिता ने विनय का बुरा हाल देखकर दया करके कहा, "विनय बाबू, बाबा भी आए हैं, कृष्णदयाल बाबू से बाहर के कमरे में बातें कर रहे हैं।"

सुनते ही विनय जल्दी से बाहर चला गया। तब आनंदमई गोरा और विनय की असाधारण दोस्ती की चर्चा करने लगीं। दोनों श्रोता उदासीन नहीं हैं, यह समझने में उन्हें देर न लगी। जीवन-भर आनंदमई इन्हीं दोनों लड़कों को मातृस्नेह का पूरा अर्ध्‍य देकर पूजती रही हैं, इनसे बढ़कर संसार में उनका कोई नहीं रहा है। छोटी लड़की की पूजा के मृत्तिका-शिव की भाँति उन्होंने इन दोनों को अपने हाथों से गढ़ा है ज़रूर, लेकिन इन दोनों को उनकी पूरी आराधाना मिलती रहती है। आनंदमई के मुँह से निकली उनकी गोद के इन दो देवताओं की कहानी स्नेह-रस में ऐसी डूबी हुई थी कि सुचरिता और ललिता सुनते नहीं अघा रही थीं। उनमें गोरा और विनय के प्रति श्रध्दा कम नहीं थी, लेकिन आनंदमई-जैसी माँ के ऐसे स्नेह के माध्‍यम से मानो दोनों से उनका एक नया और विशेष परिचय हुआ हो।

आज आनंदमई से जान-पहचान हो जाने पर मजिस्ट्रेट के प्रति ललिता का गुस्सा कुछ और बढ़ गया। ललिता के मुँह से गुस्से की बात सुनकर आनंदमई हँस दीं। बोलीं "बेटा, आज गोरा जेल में है यह बात मुझे कितना दु:ख दे रही है, यह अंतर्यामी ही जानते हैं। लेकिन साहब पर मैं गुस्सा नहीं कर सकी। मैं गोरा को जानती हूँ, जिसे वह ठीक समझता है उसके सामने नियम-कानून कुछ नहीं मानता, जब नहीं मानता तो विचारक उसे जेल भेजेंगे ही- इसके लिए उन्हें क्यों दोष दिया जाय? गोरा का कर्तव्य गोरा ने किया- उनका कर्तव्य वे करेंगे, इसमें जिनको दु:ख मिलना है उनको मिलेगा ही। मेरे गोरा की चिट्ठी पढ़ो तो समझ सकोगी बिटिया, कि वह दु:ख से नहीं डरा, किसी पर व्यर्थ बिगड़ा भी नहीं- किस बात का क्या परिणाम होगा, सब समझ-बूझकर ही आगे बढ़ा"

यह कहकर बड़ी सँभालकर रखी हुई गोरा की चिट्ठी बक्स से निकालकर उन्होंने सुचरिता को दी। बोलीं, "बेटी, ज़ोर-ज़ोर से पढ़ो, मैं फिर एक बार सुनूँ।'

गोरा की चिट्ठी पढ़ ली जाने पर तीनों थोड़ी देर स्तब्ध बनी रहीं। आनंदमई ने ऑंचल से ऑंखें पोंछ लीं। उनकी ऑंखों में जो ऑंसू थे उनमें केवल माँ के हृदय की पीड़ा ही नहीं थी, उसके साथ आनंद और गौरव भी मिला हुआ था। उनका गोरा क्या मामूली लड़का है! मजिस्ट्रेट उसका कसूर माफ करके दया करके छोड़ देंगे, वह क्या ऐसा है! उसने तो सारा अपराध स्वीकार कर जेल का दु:ख जान-बूझकर अपने ऊपर ओट लिया है। उसके इस दु:ख के लिए किसी से कोई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है, गोरा धीरज से उसे सह रहा है और आनंदमई भी सह लेंगी।

चकित होकर ललिता आनंदमई के चेहरे की ओर देखती रही। ललिता के मन पर ब्रह्म-परिवार का संस्कार बहुत दृढ़ था, जिन स्त्रियों को आधुनिक ढंग की शिक्षा नहीं मिली, और जिन्हें वह 'हिंदू घर की औरतें' कहकर चीन्हती थी उनके प्रति ललिता में सम्मान नहीं था। वरदासुंदरी बचपन से ही लड़कियों से कोई अपराध हो जाने पर उन्हें कहतीं- हिंदू घर की लड़कियों की तरह ऐसे काम नहीं करते! ऐसी बात सुनकर ललिता उस अपराध के लिए लज्जित होकर बराबर सिर नीचा कर लेती रही है। आनंदमई के मुँह से ये बातें सुनकर उसका हृदय बार-बार विस्मय से भर उठता था। जितना बल उतनी ही शांति और उतना ही आश्चर्यमय सद्-विवेक। आवेश के वेग में ललिता अपने को आनंदमई के सम्मुख बहुत ही हीन अनुभव कर रही थी। भीतर-ही-भीतर उसका मन बड़ा क्षुब्ध था, इसीलिए विनय के चेहरे की ओर वह देखती भी नहीं थी। और उससे बोली भी नहीं थी। लेकिन स्नेह, करुणा और शांति से मंडित आनंदमई के चेहरे की ओर देखकर उसके मन के भीतर जमे विद्रोह की ज्वाला ठंडी पड़ गई और चारों ओर के लोगों से उसका संबंध सहज-सा हो आया। ललिता ने आनंदमई से कहा, "गौर बाबू ने इतनी शक्ति कहाँ से पाई है, वह आपको देखकर आज समझ सकी हूँ।"

आनंदमई ने कहा, "तब ठीक नहीं समझीं। अगर गोरा मेरे साधारण लड़के जैसा होता तो मैं कहाँ से शक्ति पाती! तब क्या मैं उसका दु:ख ऐसे सह सकती?"

आज ललिता का मन क्यों इतना विकल हो उठा था, उसका थोड़ा इतिहास जानना यहाँ आवश्यक है।

पिछले कई दिनों से रोज़ सबेरे बिस्तर से उठते ही पहली बात ललिता के मन में यही आती रही कि आज विनय बाबू नहीं आएँगे। फिर भी सारा दिन उसके मन ने क्षण-भर के लिए भी विनय बाबू के आने की प्रतीक्षा करना नहीं छोड़ा। क्षण-क्षण पर उसे लगता रहा, शायद विनय आया है, वह शायद ऊपर न आकर निचले कमरे में परेशबाबू से बात कर रहा है। इसीलिए दिन में कितनी बार अकारण एक दूसरे से दूसरे कमरे में वह जाती रही है, इसका कोई हिसाब नहीं है। अंत में सारा दिन बीत जाने पर जब वह बिस्तर पर जा लेटती, तब सोच न पाती कि अपने मन का वह क्या करे। उसके भीतर से रोना उमड़ता और छाती जैसे फटने लगती, साथ-साथ गुस्सा भी आता- लेकिन गुस्सा किस पर है, यह समझ न पाती- शायद अपने ही ऊपर। वह बार- बार सोचती-यह क्या हुआ? ऐसे कैसे चलेगा? किसी तरह कोई रास्ता नहीं सूझता- ऐसे कितने दिन रह सकूँगी?

ललिता यह जानती है कि विनय हिंदू ह, किसी प्रकार भी विनय के साथ उसका विवाह नहीं हो सकता। फिर भी अपने हृदय को किसी तरह वश में न रख पाकर लज्जा और भय से उसके प्राण सूख रहे थे। हालाँकि विनय का हृदय उससे विमुख नहीं है, यह बात उसने समझ ली थी, समझ लेने पर ही अपने मन पर काबू रखना उसके लिए और कठिन हो गया था। इसीलिए जब वह विद्दल होकर विनय की बाट जोह रही होती, तब साथ ही एक भय भी उसे लगा रहता कि कहीं विनय आ ही न जाए। इसी तरह अपने साथ खींच-तान करते-करते आखिर आज उसके धैर्य का बाँध टूट गया था। उसने सोचा, विनय के न आने से ही उसके प्राण इतने बेचैन हैं, एक बार उसे देख लेने से ही यह अशांति दूर हो सकेगी।

वह सबेरे ही सतीश को पकड़कर अपने कमरे में ले गई। आजकल मौसी को पाकर अपनी दोस्ती की बात सतीश एक तरह से भूला हुआ ही था। ललिता ने उससे कहा, "विनय बाबू से तेरा झगड़ा हो गया है क्या?"

सतीश ने बलपूर्वक इस अपवाद का खंडन किया। ललिता बोली, "बड़े आए तेरे दोस्त! तू तो हर वक्त 'विनयबाबू विनयबाबू' की रट लगाए रहता है और वह मुड़कर तेरी ओर देखते भी नहीं।"

सतीश ने कहा, "वाह, तुम्हारे कहने से क्या! यह कभी हो ही नहीं सकता!"

घर में सबसे छोटे सतीश को अपना बड़प्पन सिध्द करने के लिए बार-बार गले के ज़ोर से काम लेना पड़ता है। किंतु आज पक्का प्रमाण देने के लिए वह उसी पल दौड़ा हुआ विनय के घर गया। लौटकर बोला, "वह तो घर पर नहीं है, इसीलिए आ भी नहीं सके।"

ललिता ने पूछा, "इतने दिन क्यों नहीं आए?"

सतीश ने कहा, " इतने दिन से ही तो नहीं हैं।"

तब ललिता ने जाकर सुचरिता से कहा, "दीदी, एक बार हम लोगों को गौर बाबू की माँ के पास हो आना चाहिए।"

सुचरिता ने कहा, "लेकिन उनसे तो परिचय नहीं है।"

ललिता ने कहा, "वाह, गौर बाबू के पिता तो बाबा के बचपन के दोस्त हैं?"

सुचरिता को भी याद आ गया। बोली, "हाँ, सो तो है।"

सुचरिता उत्साहित हो उठी। बोली, "भई ललिता, तुम जाकर बाबा से पूछो?"

ललिता ने कहा, "नहीं, मैं नहीं कह सकूँगी, तुम जाकर कहो!"

अंत में परेशबाबू के पास सुचरिता ने ही जाकर बात चलाई। उन्होंने कहा, "ठीक तो है, हमारा पहले ही जाना उचित होता।'

भोजन के बाद जाने की बात जब तय हो गई, तब ललिता का मन विपरीत हो उठा। न जाने कहाँ से मान और संदेह आकर उसे उलटी तरफ खींचने लगे। उसने जाकर सुचरिता से कहा, "दीदी, तुम बाबा के साथ चलो। मैं नहीं जाऊँगी।"

सुचरिता ने कहा, "यह कैसी बात कही? तू नहीं जाएगी तो मैं भी अकेली नहीं जाऊँगी। बड़ी अच्छी लड़की है तू-चल, गड़बड़ मत कर!"

बहुत मनाने पर ललिता गई। लेकिन उसे लगा जैसे विनय के सामने उसकी हार हुई है। विनय तो बड़ी आसानी से उसके घर आए बिना रह सका और वह आज विनय को देखने दौड़ी है, अपनी इस हार के अपमान-बोध से उसे भारी गुस्सा हो आया। विनय को वहाँ देख पाने की आश से ही उसने आनंदमई के घर जाने का इतना आग्रह किया था, मन-ही-मन इस बात को वह बिल्‍कुल अस्वीकार करने की चेष्टा करने लगी और इसीलिए अपनी इस हठ को सिध्द करने के लिए न उसने विनय की ओर देखा, न उसके नमस्कार का जवाब दिया, न उससे कोई बात की। विनय ने सोचा, ललिता ने उसके मन की छुपी बात ताड़ ली है, इसीलिए वह उसकी ऐसी अवज्ञा करके उसका प्रत्याख्यान कर रही है। उससे ललिता को प्रेम भी हो सकता है, ऐसा अनुमान करने लायक़ आत्मविश्वास विनय में नहीं था।

विनय ने संकोच से दरवाज़े के पास आकर खड़े-खड़े ही कहा, "परेशबाबू अब घर जाना चाहते हैं, इन सबको खबर देने को कहा है।"

विनय कुछ इस ढंग से खड़ा हुआ था कि ललिता उसे देख न सके।

आनंदमई ने कहा, "यह कैसे हो सगता है! मुँह मीठा किए बि‍ना ही चले जाएँगे! और अधिक देर नहीं होगी- विनय, तुम ज़रा यहाँ बैठो, मैं एक बार देख आऊँ। बाहर ही क्यों खड़े हो, कमरे में आकर बैठो!"

ललिता की ओर पीठ करके विनय थोड़ी दूर पर जगह ठीक करके बैठा। विनय के प्रति उसके व्यवहार में कोई मैल नहीं है, कुछ ऐसे ही सहज भाव से ललिता ने कहा, "विनय बाबू, आपने अपने बंधु सतीश का क्या बिल्‍कुल त्याग कर दिया है, यह जानने के लिए आज सबेरे वह आपके घर गया था।"

अचानक देववाणी सुनकर मनुष्य जैसे चकित हो जाता है, ऐसे ही विस्मय से विनय चौंक उठा। उसका वह चौंकना सबको दीख गया होगा, वह यह सोचकर अत्यंत लज्जित हो गया। अपनी स्वाभाविक चतुराई का कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका, कानों तक लाल होता हुआ वह बोला, "सतीश गया था क्या? मैं तो घर नहीं था।"

अचानक देववाणी सुनकर मनुष्य जैसे चकित हो जता है, ऐसे ही विस्मय से विनय चौंक उठा। उसका यह चौंकना सबको दीख गया होगा, वह यह सोचकर अत्यंत लज्जित हो गया। अपनी स्वाभाविक चतुराई का कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका, कानों तक लाल होता हुआ वह बोला, "सतीश गया था? मैं तो घर नहीं था।"

विनय को ललिता की इस साधारण-सी बात से अपार आनंद हुआ। क्षण-भर में सारे विश्व पर छाया हुआ एक गहरा संशय एकदम टूटने वाले दु:स्वप्न-सा दूर हो गया। मानो पृथ्वी पर उसके चाहने लायक़ और कुछ बाकी न रहा। उसका मन कह उठा- मैं बच गया, मैं बच गया। ललिता नाराज़ नहीं है, ललिता ने उस पर कोई संदेह नहीं किया।

विनय बोला, "दुनिया में जो लोग शिकायत नहीं करते, चुप रह जाते हैं, उन्हीं को तो दोषी ठहराया जाता है। दीदी, तुम्हारे मुँह से ऐसी बात नहीं सुहाती-तुम स्वयं इतनी दूर चली गई हो कि दूसरे ही अब तुम्हें दूर जान प ड़ते हैं।"

आज पहले-पहल विनय ने सुचरिता को दीदी कहा था। सुचरिता के कानों को यह बहुत मधुर लगा। पहले परिचय के समय ही विनय के प्रति उसके मन में जो सौहार्द उत्पन्न हुआ था, मानो इस संबोधन से ही उसे एक स्नेहपूर्ण आकार मिल गया।

जब परेशबाबू लड़लियों को लेकर विदा हुए तब दिन समाप्त प्राय: हो गया था। आनंदमई से विनय ने कहा, "माँ, आज तुम्हें कोई काम नहीं करने दूँगा। चलो, ऊपर चलें।"

अपने हृदय की हलचल को विनय सँभाल नहीं पा रहा था। आनंदमई को ऊपर ले जाकर उसने अपने हाथ से फर्श पर चटाई बिछाकर उन्हें बैठाया। विनय से आनंदमई ने पूछा, "विनय, क्यों, आखिर बात क्या है?"

विनय ने कहा, "मुझे कोई बात नहीं कहनी, तुम्हीं कहो!"

परेशबाबू की लड़कियाँ उन्हें कैसी लगीं, यही सुनने के लिए विनय का मन छटपटा रहा था।

आनंदमई ने कहा, "वाह, बस इसीलिए तू मुझे बुला लाया? मैं तो समझी कि कोई काम की बात होगी।"

विनय ने कहा, "बुलाकर न लाता तो ऐसा सूर्यास्त कहाँ देख पातीं"

कलकत्ता की छतों पर उस दिन अगहन मास का सूर्य मलिन भाव से ही अस्त हो रहा था। विविधा रंगों की कोई छटा नहीं थी, आकाश में धूमिल बदली में एक सुनहरी फीकी-सी आभा झलक रही थी। किंतु विनय के मन को आज इस मुर्झाई हुई साँझ की धूसरता भी रंगीन लग रही थी। उसे ऐसा लग रहा था मानो चारों दिशाएँ उसे निविड़ता से घेर रही हों, आकाश मानो उसे छू रहा हो।

आनंदमई ने कहा, "दोनों लड़कियाँ बड़ी लक्ष्मी हैं।"

इस चर्चा को विनय ने रुकने नहीं दिया, तरह-तरह से इसको युक्तिपूर्वक आगे बढ़ाता रहा। परेशबाबू की लड़कियों के बारे में न जाने कब-कब की कौन-कौन सी छोटी-बड़ी सभी बातें सामने आईं, उनमें से कई बिल्‍कुल तुच्छ थीं, लेकिन उस अगहन की म्लान नीरव साँझ में एकांत कमरे में विनय के उत्साह और आनंदमई की उत्सुकता से घरेलू जीवन के अप्रसिध्द इतिहास की ये छोटी-छोटी बातें भी गंभीर महिमामई हो उठी थीं।

सहासा आनंदमई ने एक लंबी साँस लेकर कहा, "सुचरिता के साथ यदि गोरा का विवाह हो सकता तो मुझे बड़ी खुशी होती।"

विनय उछल पड़ा। बोला, "माँ, अनेक बार यह बात सोची है। गोरा के बिल्‍कुल उपयुक्त संगिनी है।"

आनंदमई, "लेकिन ऐसा क्या हो सकेगा?"

विनय, "क्यों नहीं हो सकेगा? मुझे तो लगता है, गोरा को सुचरिता पसंद न हो ऐसी बात ही नहीं है।"

आनंदमई से यह बात छिपी न थी कि गोरा का मन किसी ओर आकृष्ट हुआ है। और विनय की अनेक बातों से उन्होंने यह भी जान लिया था कि वह लड़की सुचरिता ही होगी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद आनंदमई ने कहा, "लेकिन सुचरिता क्या हिंदू घर में विवाह करेगी?"

विनय ने पूछा, "अच्छा माँ, गोरा ब्रह्म के घर विवाह नहीं कर सकता? क्या तुम राजी न होओगी?"

आनंदमई, "बिल्कुल राजी होऊँगी।"

विनय ने फिर पूछा, "होओगी?"

आनंदमई बोलीं, "क्यों नहीं होऊँगी, विनू? मन से मन का मेल होने से ही ब्याह होता है- उस समय कौन-सा मंतर पढ़ा गया। उत्साहित होकर उसने कहा, "माँ, तुम्हारे मुँह से यह सब बातें सुनकर मुझे बड़ा विस्मय होता है। इतनी उदार बुध्दि तुमने कहाँ से पाई?"'

हँसकर आनंदमई ने कहा, "गोरा से ही पाई है।"

विनय ने कहा, "गोरा तो इससे उल्टी बात कहता है।"

आनंदमई, "उसके कहने से क्या होता है? मैंने जो कुछ सीखा है सब गोरा से ही सीखा है। मनुष्य नाम की चीज़ कितना बड़ा सत्य है, और मनुष्य जिन चीज़ों को लेकर गुटबंदी करता है, लड़ मरता है, वे सब कितनी झूठी हैं- भगवान ने यह सब बात जिस दिन गोरा को मुझे दिया उसी दिन समझा दी थी- बेटा, वहीं आकर भगवान सबको मिलाते हैं और स्वयं भी आ मिलते है। उन्हे हटाकर मंत्र और मतवाद पर मिलाने का भार छोड़ देने से थोड़े ही चलेगा?"

आनंदमई के पैरों की धूल लेकर विनय ने कहा, "माँ, तुम्हारी बात मुझे बहुत अच्छी लगी। मेरा आज का दिन सार्थक हुआ।"



परेशबाबू के परिवार में सुचरिता की मौसी हरिमोहिनी को लेकर एक विकट अशांति फैल गई। उसका विवरण देने से पहले सुचरिता को हरिमोहिनी ने अपना जो परिचय दिया था वही संक्षेप में बता देना ही ठीक होगा-

तुम्हारी माँ से मैं दो साल बड़ी थी। पिता के यहाँ हम दोनों के लाड़-प्यार की सीमा नहीं थी, क्योंकि हमारे घर में तब तक केवल हम दोनों कन्याएँ ही जन्मीं थीं- और कोई शिशु घर में नहीं था। चाचा-काका लोगों के दुलार के मारे हम लोगों के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे।

जब मेरी उम्र आठ साल की थी तब पालसा के विख्यात राय चौधारी परिवार में मेरा विवाह हुआ। उन लोगों का कुल जितना बड़ा था धन भी वैसा ही था। लेकिन भाग्य में सुख नहीं लिखा था। विवाह के समय दहेज की बात को लेकर मेरे ससुर से पिता का झगड़ा हो गया था। मेरे पीहर के इस अपराध को ससुराल वाले कभी क्षमा नहीं कर सके। सभी कहते रहते- लड़के का दूसरा ब्याह कर दें तब देखेंगे कि इस लड़की की क्या हालत होती है। मेरी दुर्दशा देखकर ही पिता ने प्रण किया कि था कि फिर किसी धनी के घर लड़की नहीं देंगे। तभी तुम्हारी माँ ग़रीब घर में ब्याही गई थीं।

परिवार बहुत बड़ा होने से मुझे आठ-नौ साल की उम्र से ही रसोई करनी पड़ती थी। पचास-साठ लोग खाने वाले थे। सबको खिलाकर किसी दिन मुझे निरे भात तो कभी दाल-भात पर ही गुजारा करना पड़ता था। किसी दिन दो बजे खाना मिलता था तो किसी-किसी दिन शाम ही हो जाती थी। भोजन करते ही शाम की रसोई में जुट जाना पड़ता था। और रात को ग्यारह-बारह बजे जाकर खाने का मौक़ा मिलता था। सोने की कोई निश्चित जगह नहीं थी, अंत:पुर में जिस दिन जिसके पास थोड़ी जगह मिल जाती उसी के पास पड़ी रहती। किसी-किसी दिन तो पीढ़े डालकर उन्हीं पर सोना पड़ता।

मेरे प्रति घर में सबका जो अनादर भाव था उसका असर स्वामी के मन पर भी हुए बिना न रहा। काफ़ी दिन से वह मुझे दूर ही दूर रखते आ रहे थे।

इस बीच मैं जब सत्रह साल की थी तब मेरे एक लड़की हुई, मनोरमा। लड़की को जन्म देने के कारण ससुराल में मेरी हालत और भी बदतर हो गई। सारे अनादर और अपमान के बीच एक मात्र यह लड़की ही मेरी सांत्वना और आनंद थी। उसके बाप या किसी दूसरे से मनोरमा को कोई प्यार नहीं मिला, इसलिए यह और भी मेरे प्यार की अधिकारी बन गई।

तीन साल बाद जब मेरे लड़का हुआ तब से मेरी हालत कुछ सुधरने लगी। तब से मैं गृहिणी गिनी जाने लायक़ समझी गई। मेरी सास तो थी नहीं- मनोरमा के जन्म के दो साल बाद ससुर भी मर गए थे। उनकी मृत्यु के बाद जायदाद के बारे में देवरों से मुकदमेबाज़ी होने लगी। अंत में बहुत-सी पूँजी लुटा देने के बाद बँटवारा हो गया।

मनोरमा के विवाह का समय आया। कहीं वह बहुत दूर न चली जाय, कहीं उसे फिर देख न पाऊँ, इसी आशंका से पालसा से पाँच-छ: कोस की दूरी पर सिमुल नामक गाँव में उसे ब्याह दिया। देखने में लड़का कार्तिकेय-सा सुंदर था- जैसा रंग वैसा रूप- घर भी अच्छा खाता-पिता था।

अपमान और कष्ट के दिन पहले जैसे बीतते रहे थे, सुहाग मिट जाने के पहले कुछ दिन विधाता ने मुझे वैसा ही सुख भी दिखाया। पिछले दिनों में पति मुझे बड़ा मान देने लगे थे और मुझसे सलाह लि‍ए बिना कोई काम नहीं करते थे। लेकिन इतना सौभाग्य में कैसे सहती! हैजा फैला, चार दिन के अंतर पर लड़का और स्वामी दोनों मर गए। जिस दु:ख की कल्पना भी असह्य जान पड़ती है उसे भी मनुष्य सह लेता है, शायद यही बताने के लिए ईश्वर ने मुझे बचा लिया।

धीरे-धीरे जमाई का असली परिचय मिलने लगा। सुंदर फूल के भीतर ऐसा काला साँप छिपा रह सकता है, यह कौन सोच सकता था? वह कुसंगति में पड़कर शराबी हो गया है, मेरी लड़की ने भी मुझे यह नहीं बताया था। जब-तब जमाई आकर तरह-तरह की ज़रूरतें बताकर मुझसे रुपया माँग ले जाता था। दुनिया में मुझे तो किसी के लिए पैसा जोड़ रखने की ज़रूरत थी नहीं, इसलिए जमाई जब मनुहार करके मुझसे कुछ माँगता तो मुझे अच्छा ही लगता। बीच-बीच में मेरी लड़की मुझे टोक देती थी, फटकारकर यह भी कहती कि तुम्हीं ऐसे पैसे देकर उनकी आदतें और बिगाड़ रही हो- रुपया हाथ आते ही वह उसे कहाँ कैसे उड़ा देते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं है। मैं सोचती, मुझसे उसकी स्वामी के ऐसे रुपया लेने से उसकी ससुराल वालों का अपमान होगा इसी डर से शायद मनोरमा मुझे मना करती रहती है

फिर मुझे न जाने क्या सूझी कि मैं अपनी लड़की से छिपाकर जमाई को उसकी शराब के पैसे देने लगी। मनोरमा को जब पता लगा तो एक दिन उसने मुझे रो-रोकर अपने स्वामी के कलंक की पूरी कहानी सुना दी। मैं तो सिर पकड़कर बैठ गई। वह सब दु:ख की बात और क्या बताऊँ, मेरे ही एक देवर की बुरी संगति और प्रोत्साहन के कारण जमाई इतना बिगड़ गया था।

जब मैंने रुपया देना बंद कर दिया, और जब उसे यह संदेह हो गया कि मेरी लड़की ने ही मुझे मना किया है, तब वह और भी खुलकर खेलने लगा। उसने इतना अत्याचार आरंभ किया तथा सभी के सामने मेरी लड़की का इतना अपमान करने लगा कि उससे बचने के लिए मैं फिर लड़की से छिपाकर उसे रुपया देने लगी। मैं जानती थी कि मैं उसे रसातल को भेज रही हूँ, लेकिन वह मनोरमा को कितना असह्य कष्ट दे रहा है सुनकर मैं रह नहीं पाती थी।

अंत में एक दिन- मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, माघ के महीने के आखिरी दिन थे। गर्मी उस साल जल्दी ही पड़ने लगी थी, हम लोग बातें कर रहे थे कि 'अभी से हमारे ऑंगन के आम के पेड़ में बौर आ गया है।' उसी माघ के एक दिन तीसरे पहर दरवाज़े पर आकर एक पालकी रुकी। मैंने देखा, मनोरमा ने हँसते-हँसते आकर मुझे प्रणाम किया। मैंने पूछा, "कहो मनू, तुम लोगों की क्या खबर है?"

हँसकर मनोरमा ने कहा, "क्यों, जब तक कोई खबर न हो यों ही क्या माँ के घर नहीं आ सकते?"

मेरी समधिन ऐसी बुरी नहीं थी। उन्होंने मुझे कहला भेजा कि बहू के संतान होने वाली है। संतान होने तक उसका माँ के पास रहना ही अच्छा है। मैं समझी कि ठीक यही बात होगी। यह मैं नहीं समझ सकी कि जमाई ने इस हालत में ही मनोरमा को मारना-पीटना शुरू कर दिया है और किसी अनिष्ट के डर से ही समधिन ने अपनी बहू को मेरे पास भेज दिया है। मनू और उसकी सास ने मिलकर मुझे भुलावे में रखा। मनोरमा को मैं अपने हाथ से तेल मलकर नहलाना चाहती तो वह तरह-तरह के बहाने करके टाल देती। असल में उसकी कोमल देह पर मार के जो निशान थे उन्हीं को वह मेरी नज़रों से छिपाना चाहती थी।

बीच-बीच में जमाई आकर मनोरमा को लौटा ले जाने के लिए हल्ला-गुल्ला किया करता। लड़की के मेरे पास रहते उसे रुपए के लिए हठ करने में बाधा होती। लेकिन यह झिझक भी धीरे-धीरे उसने छोड़ दी और रुपए के लिए मनोरमा के सामने भी मुझे तंग करने लगा। मनोरमा ज़िद कहती, "बिल्‍कुल रुपया मत दो!" लेकिन मेरा मन बड़ा दुर्बल था- कहीं जमाई मेरी लड़की पर और अधिक न बिगड़ उठे इस भय से उसे कुछ दिए बिना मुझसे न रहा जाता था।

मनोरमा ने एक दिन कहा, "माँ, तुम्हारा रुपया-पैसा सब मैं रखूँगी।" और यह कहकर वह मेरे चाबी-बक्से पर क़ब्ज़ा कर बैठी। जमाई ने जाकर जब मुझसे कुछ पाने का उपाय न देखा और जब मनोरमा को भी किसी तरह न पिघला सका तब बोला, "मँझली बहू के घर ले जाऊँगा।" मैं मनोरमा से कहती, "दे दे बेटी, उसे कुछ रुपया देकर विदा कर दे- नहीं तो न जाने क्या कर बैठेगा!" लेकिन मेरी मनोरमा एक तरफ जितनी नरम थी दूसरी तरफ उतनी ही कड़ी थी। वह कहती, "नहीं, रुपया किसी तरह नहीं दिया जाएगा।"

एक दिन जमाई आकर ऑंखें लाल करके बोले, "कल मैं तीसरे पहर पालकी भेज दूँगा। बहू को अगर न भेजा तो अच्छा नहीं होगा, कहे देता हूँ।"

अगले दिन शाम से पहले ही पालकी आने पर मनोरमा से मैंने कहा, "बेटी और देर करना ठीक नहीं है, अगले हफ्ते ही फिर तुम्हें लाने के लिए किसी को भेज दूँगी।"

मनोरमा ने कहा, "आज रहने दो माँ, आज मेरा जाने को मन नहीं होता, दो-एक दिन बाद आने को कह दो!"

मैंने कहा, "बेटी, पालकी लौटा देने से बिगड़ैल जमाई क्या छोड़ेगा? जाने दो मनू, तुम आज ही चली जाओ!"

मनू ने कहा, "नहीं माँ, आज मेरे ससुर कलकत्ता गए हुए हैं, फागुन के मध्‍य तक लौट आएँगे- तब जाऊँगी।"

फिर भी मैंने कहा, "नहीं बेटी, चली ही जाओ।"

तब मनोरमा तैयार हो गई।

मैं उसकी ससुराल के नौकर और पालकी वाले कहारों को खिलाने-पिलाने के प्रबंध में लगी रही। जाने से पहले उसके पास थोड़ी देर बैठ लूँ या उसे अपने हाथों से सजा दूँ, या उसे जो खाना अच्छा लगता है वही उसे खिलाकर प्यार-जतन के साथ उसे विदा करूँ, इसका अवकाश ही नहीं मिला। पालकी पर सवार होने से पहले मुझे प्रणाम करके पैरों की धूल लेते हुए उसने कहा, "माँ, तो मैं जा रही हूँ।"

वह सचमुच ही जा रही थी, यह क्या तब मैं जानती थी। वह जाना नहीं चाहती थी, मैंने ही उसे ज़बरदस्ती विदा कर दिया- इस दु:ख से मेरी छाती अब फट रही है- अब वह किसी तरह जुड़ा नहीं सकेगी।

उसी रात में गर्भपात होने से मनोरमा की मृत्यु हो गई। मुझे यह खबर मिलने से पहले छिपाकर बड़ी शीघ्रता से उसका दाह-संस्कार किया जा चुका था।

जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, कुछ किया नहीं जा सकता, सोचकर पार नहीं पाया जा सकता, रोकर जिसे चुकाया नहीं जा सकता, वह दु:ख भी कैसा दु:ख है तुम नहीं समझ सकोगी- समझने की ऐसी ज़रूरत भी नहीं है। मेरा तो सब-कुछ चला गया, लेकिन फिर भी मुसीबत नहीं चुकी। स्वामी और पुत्र की मृत्यु के बाद से मेरी जायदाद पर देवरों की नीयत थी। वे जानते थे कि मेरे मरने पर ज़मीन-जायदाद सब उन्हीं की होगी, लेकिन जब तक प्रतीक्षा करने का भी धैर्य उनमें नहीं था। इसके लिए किसी को दोष क्या दूँ, सचमुच मुझ-जैसी अभागिनी का जीते रहना भी भारी अपराध है। दुनिया में जिनकी अनेक ज़रूरतें हैं, मुझ-जैसे प्रयोजनहीन जीव के अकारण उनकी जगह घेरे रहना लोग कैसे सह सकते हैं?

मनोरमा जब तक थी तब तक मैं देवरों की किसी बात के भुलावे में नहीं आई। जहाँ तक हो सका अपनी जायदाद पर अपने अधिकार के लिए लड़ती रही। मैं जब तक जीती हूँ मनोरमा के लिए रुपया जुटाती रहकर उसे दे जाऊँगी, यही मेरा निश्चय था। अपनी लड़की के लिए मैं रुपया जुटाने की कोशिश कर रही हूँ, यही मेरे देवरों के लिए असह्य हो रहा था- उन्हें लगता था कि मैं उनका ही धन चुरा रही हूँ। नीलकांत स्वामी का एक पुराना विश्वासी कर्मचारी था, वही मेरा सहायक था। मैं अगर अपना पावना कुछ छोड़कर आपस में कुछ निबटारा करने की कोशिश भी करती तो वह किसी तरह राजी न होता- वह कहता, "हमारे हक का एक पैसा भी कोई कैसे लेता है, देखूँगा।" इसी हक की लड़ाई के चलते ही मेरी लड़की की मृत्यु हो गई। उसके अगले दिन ही मेरे मँझले देवर ने आकर मुझे वैराग्य का उपदेश दिया। बोले, "भाभी, ईश्वर ने तुम्हारी जो हालत कर दी है उसके बाद गृहस्थी में रहना अब ठीक नहीं है। जितने दिन जीना है तीर्थ में जाकर धर्म-कर्म में मन लगाओ। हम लोग तुम्हारे खाने-पहनने का बंदोबस्त कर देंगे।"

अपने कुल-पुरोहित को मैंने बुला भेजा। उनसे कहा, "ठाकुर, इस असह्य दु:ख से बचने का उपाय बता दो- मुझे उठते-बैठते कहीं एक क्षण को शांति नहीं है-मैं मानो चारों ओर से आग से घिर गई हूँ। जहाँ जाती हूँ, जिधर जाती हूँ, यंत्रणा से मुक्ति का कहीं कोई रास्ता नहीं देख पाती।"

मुझे गुरु हमारे ठाकुर द्वारे के भीतर ले गए और बेले, "यह गोपीवल्लभ ही तुम्हारे स्वामी, पुत्र कन्या सब-कुछ हैं। इनकी सेवा करने से ही तुम्हारे सब दु:ख दूर होंगे।"

दिन-रात मैं ठाकुरघर में ही पड़ी रहती। मैंन बड़ी कोशिश की कि अपना सारा मन ठाकुर को ही सौंप दूँ-लेकिन वही न अपनाएँ तो मैं दूँ कैसे? और उन्होंने अपनाया ही कहाँ?

मैंने नीलकांत को बुलाकर कहा, "नीलू दादा, मैंने तय कर लिया है कि अपनी सब संपत्ति देवरों के ही नाम कर दूँगी। खुराक के लिए वे लोग हर महीने कुछ रुपया दे दिया करेंगे।"

नीलकांत ने कहा, "यह कभी नहीं हो सकेगा। तुम औरत हो, इन सब बातों में मत आ जाना।"

मैंने कहा, "मुझे अब जायदाद का करना क्या है?"

नीलकांत ने कहा, "ऐसा कहने से नहीं चलेगा। हमारा जो हक है उसे हम छोड़ेंगे क्यों? ऐसा पागलपन मत करना!"

हक से बड़ा नीलकांत को और कुछ दीखता ही नहीं था। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई। जायदाद मुझे विष-सी लग रही थी, लेकिन संसार में मेरा एकमात्र विश्वासी यह नीलकांत ही था, इसलिए उसके मन में मैं चोट कैसे पहुँचाती? वही तो इतने दु:ख में मेरे उस एक हक की रक्षा करता आया था।

अंत में एक दिन मैंने नीलकांत से छिपाकर एक काग़ज़ पर सही कर दी। उसमें क्या लिखा था अच्छी तरह मैंने देखा-समझा भी नहीं। मैंने सोचा था, सही करने में हर्ज क्या है- ऐसा मैं रखना ही क्या चाहती हूँ जो किसी के ठग लेने का भय हो। सब-कुछ तो मेरे ससुर का था, उनके लड़के ले लेंगे तो ले लें।

लिखा-पढ़ी की रजिस्ट्री हो जाने पर मैंने नीलकांत को बुलाकर कहा, "नीलू दादा, नाराज़ मत होना, मेरा जो कुछ था मैंने उसकी लिखा-पढ़ी कर दी है, मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है।"

घबराकर नीलकांत ने कहा, "ऐं-क्या कर दिया तुमने?"

काग़ज़ पढ़कर नीकांत ने जब देख लिया कि मैंने सचमुच अपना सब अधिकार छोड़ दिया है, तब उसके क्रोध की सीमा न रही। स्वामी की मृत्यु के बाद से मेरा हक बचाना ही उसके जीवन का एक मात्र अवलंबन था। उसकी सारी बुध्दि, सारी शक्ति बराबर इसी कार्य में लगी रहती थी। इसी के लिए मामला-मुकदमा, वकील के घर दौड़ना, आईन-कानून खोज निकालना, इसी सब में वह सुखी था- यहाँ तक कि अपना घर सँभालने की भी उसे फुरसत न होती थी। वही हक एक निर्बोध स्त्री ने जब कलम के एक झटके से मिटा दिया तब नीलकांत को शांत करना असंभव हो गया।

वह बोला, "खैर, अब यहाँ से मेरा संबंध चुक गया, मैं चला।"

अंत में ऐसे नराज़ होकर नीलू दादा भी मुझे छोड़ जाएँगे, मेरे ससुराल के भाग्य की आखरी लिखत क्या यही थी? मैंने उसकी बड़ी मिन्तें कीं, उसे बुलाकर समझाया, "दादा, मुझ पर क्रोध मत करो, मैंने कुछ रुपया जोड़ रखा था, उसमें से यह पाँच सौ रुपया तुम्हें दे रही हूँ- जिस दिन तुम्हारे लड़के की बहू आएगी उस दिन इनसे उसके गहने बनवाकर मेरे आशीर्वाद के साथ दे देना।"

नीलकांत ने कहा, "मुझे और रुपया नहीं चाहिए। हमारी मिल्कियत का सब-कुछ ही जब चला गया तब यह पाँच सौ रुपया लेकर मुझे संतोष नहीं होगा। वह रहने दो।" यह कहकर मेरे स्वामी का अंतिम सच्चा बंधु भी मुझे छोड़कर चला गया।

मैंने ठाकुरद्वारे में शरण ली। देवरों ने कहा, "तुम तीर्थ करने जाओ!"

मैंने कहा, "मेरी ससुराल ही मेरा तीर्थ है, और जहाँ ठाकुर हैं वहीं मेरा आश्रय है।"

लेकिन घर के किसी ज़रा कोने पर भी मैं अधिकार किए रहूँ, यह उनके लिए असह्य होने लगा। इस बीच उन्होंने हमारे घर में अपना माल-असबाब लाकर तय कर लिया था कि कौन-सा कमरा किस काम में लाया जाएगा। अंत में उन्होंने कहा, "अपने ठाकुर को तुम ले जा सकती हो- उसमें हम लोग आपत्ति नहीं करेंगे।"

मैंने जब इसमें आनाकानी की तब वे बोले, "यहाँ तुम्हारा खर्चा कैसे चलेगा?"

मैंने कहा, "क्यों, तुम लोगों ने जो खुराक तय की है वही मेरे लिए यथेष्ट होगी।"

उन्होंने कहा, "कहाँ, खुराक की तो कोई बात नहीं है।"

तब अपने विवाह के ठीक चौंतीस साल बाद एक दिन मैं ठाकुर को लेकर ससुराल से निकल पड़ी। नीलू दादा की खोज करने जाने पर पता चला कि वह मुझसे पहले ही वृंदावन चले गए हैं।

गाँव के तीर्थ-यात्रियों के साथ मैं काशी पहुँची। लेकिन पापी मन को कहीं शांति नहीं मिली। रोज ठाकुर को पुकारकर कहती, "ठाकुर, मेरे पति मेरे बेटा-बेटी मेरे लिए जितने सत्य थे। तुम भी मेरे लिए उतने ही सत्य हो जाओ!" लेकिन मेरी प्रार्थना वह कहाँ सुनते थे! मेरा मन किसी तरह न सँभलता, मेरा सारा शरीर-मन रोता रहता। बाप रे बाप! मनुष्य की जान भी कितनी सख्त होती है!

मैं आठ वर्ष की उम्र में ससुराल गई थी, तब से एक दिन के लिए भी पीहर नहीं आ सकी। तुम्हारी माँ के विवाह के समय आने की बड़ी कोशिश की थी, कोई नतीजा नहीं निकला। फिर बाबा की चिट्ठी से ही तुम लोगों के जन्म की और फिर बहन की मृत्यु की खबर मिली। माँ की गोद से वंचित हुए तुम लोगों को एक बार मैं अपनी गोद में बिठा सकूँ, अब तक ईश्वर ने ऐसा सुयोग नहीं दिखाया।

तीर्थ घूमकर जब यह देख लिया कि माया अब भी मन को घेरे हुए है, किसी अपनी चीज़ को पाने के लिए हृदय की तृष्णा अभी नहीं मरी- तब तुम लोगों की खोज करने लगी। सुना था कि तुम्हारे पिता धर्म छोड़कर, समाज छोड़कर अलग हो गए थे। लेकिन उससे क्या होता- तुम्हारी माँ मेरी सगी बहन जो थी।

काशी में एक भले आदमी थे। तुम लोगों का पता पाकर यहाँ आई हूँ। सुना है परेशबाबू ठाकुर-देवता कुछ नहीं मानते, लेकिन ठाकुर उन पर प्रसन्न हैं, यह उनका चेहरा देखते ही पता चल जाता है। पूजा पाकर ही ठाकुर भूल नहीं जाते, यह मैं खूब जानती हूँ। परेशबाबू ने उन्हें कैसे वश में कर लिया इसका पता लगाऊँगी। जो हो बिटिया, मेरे अकेले रहने का समय अभी नहीं आया- वह मैं नहीं कह सकती- ठाकुर जब दया करें.... लेकिन तब तक तुम्हें छाती से लगाए रखे बिना मैं नहीं रह सकूँगी।


वरदासुंदरी की अनुपस्थिति में परेशबाबू ने हरिमोहिनी को आश्रय दिया था। छत पर अकेले कमरे में उन्हें स्थान देकर ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि अपने आचार का पालन करने में उन्हें कोई विघ्न न हो।

लौटकर वरदासुंदरी अपनी गृह-व्यवस्था के बीच यह अकल्पित प्रादुर्भाव देखकर एकदम जल-भुन गईं बड़े तीखे स्वर में उन्होंने परेशबाबू से कहा, "यह मुझसे नहीं होगा।"

परेशबाबू ने कहा, "हम सबको तुम सह सकती हो, और उस एक अनाथिनी विधवा को नहीं सह सकोगी?"

वरदासुंदरी जानती थी कि लोक-व्यवहार का ज्ञान परेशबाबू को बिल्‍कुल नहीं है। किसी बात से दुनिया में क्या सुविधा या असुविधा होती है इस बारे में वह कभी कुछ सोचते ही नहीं, सहसा एक-न-एक काम कर बैठते हैं। उसके बाद कोई चाहे गुस्सा करे, बिगड़े या रोए-धोए, वह एकदम पत्थर की मूर्ति बने बैठे रहते हैं। भला ऐसे आदमी से कौन निबाह सकता है? ज़रूरत होने पर जिसके साथ झगड़ा भी न किया जा सके उसके साथ कौन स्त्री गृहस्थी चला सकती है!

सुचरिता और मनोरमा की उम्र लगभग एक ही थी। हरिमोहिनी को लगने लगा कि देखने में भी सुचरिता बहत-कुछ मनोरमा-सी ही है, और स्वभाव भी उससे मिलता-जुलता है- वैसी ही शांत और वैसी ही दृढ़। कभी-कभी अचानक पीठ की तरफ से उसे देखकर हरिमोहिनी का हृदय एकाएक चौंक उठता। किसी-किसी दिन साँझ के अंधकार में वह नि:शब्द अकेली बैठकर रो रही होतीं, तब सुचरिता के पास आने पर पलकें बंद करके उसे दोनों हाथों से खींचकर छाती से लगाकर कह उठतीं, "अहा, मुझे लग रहा है कि उसी को मैं छाती से लगाए हूँ। वह जाना नहीं चाहती थी, ज़बरदस्ती मैंने उसे भेज दिया-दुनिया में क्या कभी किसी तरह मेरी यह सज़ा पूरी न होगी। शायद जो दंड मिलना था, मिल चुका- अब वह फिर आ गई है- यही तो लौट आई है- वैसी ही हँसती हुई लौट आई है- मेरी बिटिया, मेरी मणि-माणिक, मेरा धन!"

ऐसा कहकर सुचरिता के सारे चेहरे पर हाथ फेरकर उसे चूमकर वह ऑंसुओं में डूबी रहतीं, सुचरिता की ऑंखों में भी ऑंसू आ जाते। वह मौसी की गर्दन में हाथ डालकर कहती, "मौसी, मैं भी तो माँ का प्यार बहुत दिन नहीं पा सकी, वही खोई हुई माँ आज फिर लौट आई हैं। कितनी बार कितने दु:ख के समय जब ईश्वर को पुकारने की शक्ति नहीं रही, जब भीतर-ही-भीतर मन टूट गया है, तब मैंने माँ को पुकारा है। आज वही माँ मेरी पुकार सुनकर आ गई है।"

हरिमोहिनी कहतीं, "ऐसा मत कह, मत कह। तेरी बात सुनकर मुझे इतना आनंद होता है कि मैं डर जाती हूँ। हे ठाकुर, इधर ध्‍यान न देना ठाकुर! सोचती हूँ कि और मोह नहीं करूँगी, मन को पत्‍थर करके रखूँगी, लेकिन मुझसे होता नहीं। मैं बड़ी दुर्बल हूँ, मुझ पर दया करो, मुझे और मत मारो! नहीं, राधारानी, तू जा, चली जा, मुझे छोड़ जा- मुझे फिर मत बाँध, मत बाँध! मेरे गोपी वल्लभ, मेरे जीवन नाथ, मेरे गोपाल, मेरे नीलमणि‍, मुझे फिर किस जंजाल में डाल रहे हैं....!"

सुचरिता कहती, "तुम मुझे ज़बरदस्ती नहीं हटा सकोगी मौसी, मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ूँगी- बराबर इसी तरह तुम्हारे पास ही रहूँगी।"

वह यह कहकर मौसी की छाती में सिर छिपाकर शिशु-सी चुप बैठी रहती।

सुचरिता के साथ दो दिन में ही उसकी मौसी का ऐसा गहरा संबंध हो गया कि उस थोड़े-से समय से उसकी तुलना नहीं हो सकती।

इससे भी वरदासुंदरी विरक्त हुईं। "इस लड़की को तो देखो! जैसे हमने कभी इसको लाड़-प्यार ही नहीं किया। मैं पूछती हूँ, इतने दिन मौसी कहाँ थी? बचपन से ही पाल-पोसकर हमने बड़ा किया, और आज मौसी का नाम सुनते ही जैसे हमें पहचानती ही नहीं। मैं बराबर उनसे कहती रही हूँ, तुम लोग जो सब सुचरिता को अच्छा-अच्छा कहते हो, वह बाहर से भी भली मानस दीखती है, लेकिन उसके मन की थाह पाना सरल नहीं है। इतने दिन हमने उसके लिए जो कुछ किया, सब निष्फल हो गया है।"

वरदासुंदरी का दर्द परेशबाबू नहीं समझेंगे, यह वह जानती थी। इतना ही नहीं, हरिमोहिनी के प्रति विरक्ति प्रकट करने से वह परेशबाबू की नज़रों में गिर जाएँगी, इसमें भी उन्हें ज़रा संदेह नहीं था। इससे उनका गुस्सा और भी बढ़ गया था। परेशबाबू चाहे जो कहें, लेकिन अधिकांश बुध्दिमान लोगों की राय वरदासुंदरी से ही मिलती है, यही साबित करने के लिए वह अपना गुट बढ़ाने की चेष्टा करने लगीं। अपने समाज के प्रधान-अप्रधान सभी लोगों के साथ वह हरिमोहिनी के मामले की चर्चा करने लगीं। हरिमोहिनी का हिंदूपन, उनकी ठाकुर-पूजा, घर में लड़के-लड़कियों पर उसका बुरा प्रभाव, इस सबको लेकर उनके आरोपों का अंत नहीं था।

केवल दूसरों के सामने चर्चा तक ही बात नहीं थी, वरदासुंदरी सभी तरह से हरिमोहिनी को तंग भी करने लगी। हरिमोहिनी के चौका-बासन के लिए जो अहीर बेरा पानी खींच देता था, ठीक समय पर उसे वह दूसरे काम में लगा देतीं। उस संबंध में कोई बात चलने पर उसे वह दूसरे काम में लगा देतीं। उस संबंध में कोई बात चलने पर वह कह देतीं, "क्यों, रामदीन तो है" रामदीन जात का दुसाधथा, वह जानती थीं कि उसके हाथ का पानी हरिमोहिनी काम में नहीं लाएँगी। कोई यह बात कहता तो वह जवाब देतीं, "इतनी बह्मनाई करनी हो तो हमारे ब्रह्म घर में क्यों आईं?" ऐसे मामलों को लेकर उनकी कर्तव्य-भावना बड़ी प्रखर हो उठती है। वह कहतीं, ब्रह्म-समाज में धीरे-धीरे सामाजिक शैथिल्य बहुत बढ़ता जा रहा है, इसीलिए ब्रह्म-समाज कोई काम नहीं कर पा रहा है। जहाँ तक उनका ज़ोर चलेगा वह इस शैथिल्य में योग नहीं देंगी-कभी नहीं। इस पर अगर कोई ग़लत समझे तो वह भी उन्हें स्वीकार है, और अगर घर के लोग ही विरुध्द हो जाएँ तो उसे भी वह सिर झुकाकर सह लेंगी। दुनिया में जिन महापुरुषों ने कोई भी बड़ा काम किया है, उन सभी को निंदा और विरोध सहना पड़ा है, इस बात की वह सभी को याद दिलाने लगीं।

लेकिन कोई असुविधा हरिमोहिनी को नहीं हरा सकती थी। उन्होंने जैसे प्रण कर लिया था कि वे कृष्‍ण-साधना की चरम-सीमा तक पहुँच जाएँगी। उन्होंने भीतर जो असह्य दु:ख पाया है मानो बाहर भी उससे सामंजस्य बनाए रखने के लिए वह प्रतिदिन कठोर आचार के द्वारा नए कष्टों का सृजन करती हुई चलती थीं। इस तरह स्वेच्छा से दु:ख को वरण करके उसे आत्मीय बनाकर वश में करने का ही उनको अभ्यास था।

जब हरिमोहिनी ने देखा कि पानी की असुविधा होती है तब उन्होंने भोजन पकाने का काम बिल्‍कुल छोड़ ही दिया। ठाकुर के सामने निवेदन करके प्रसाद-स्वरूप दूध और फल पर ही दिन काटने लगीं। इससे सुचरिता को बहुत दु:ख हुआ किंतु मौसी ने उसे यह कहकर समझा-बुझा दिया कि, "यह मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ है, बेटी! मुझे ऐसा ही चाहिए था। मुझे इसमें कोई कष्ट नहीं है, बल्कि आनंद ही है।"

सुचरिता ने पूछा, "मौसी, अगर मैं दूसरी जाति के हाथ का खाना-पानी न लूँ तो तुम मुझे अपना काम करने दोगी?"

हरिमोहिनी बोलीं, "क्यों बेटी, जो धर्म तुम मानती हो उसी के अनुसार चलो- मेरे लिए तुम्हें दूसरे मार्ग पर नहीं चलना होगा। मैंने तुम्हें पाया है, तुम मेरे पास हो, रोज़ तुम्हें देख पाती हूँ, यही मेरा आनंद है। परेशबाबू तुम्हारे गुरु हैं, पिता हैं, जो शिक्षा उन्होंने तुम्हें दी है, तुम उसी को मानकर चलो, उसी से भगवान तुम्हारा मंगल करेंगे।"

वरदासुंदरी के सारे अत्याचार हरिमोहिनी ऐसे सहने लगीं मानो वह कुछ समझी ही न हों। परेशबाबू जब आकर उनसे पूछते, "कैसी हैं, कोई असुविधा तो नहीं है न?" तब वह कह देतीं, "मैं बहुत सुख से हूँ।"

लेकिन सुचरिता को वरदासुंदरी के अत्याचार बराबर अखरते रहते। वह शिकायत करने वाली नहीं थी, और परेशबाबू के सामने वरदासुंदरी के व्यवहार की बात तो वह किसी प्रकार न कह सकती। चुपचाप वह भी सब-कुछ सहती रही, इन सब मामलों में किसी प्रकार का विरोध करने में उसे बड़ा संकोच होता।

इसका परिणाम यही हुआ कि धीरे-धीरे सुचरिता संपूर्णतया अपनी मौसी के साथ हो गई। मौसी के बार-बार मना करने पर भी खाने-पीने के संबंध में वह पूर्णतया हरिमोहिनी की अनुवर्ती होकर चलने लगी। अंत में यह देखकर कि सुचरिता को कष्ट होता है, विवश होकर हरिमोहिनी ने फिर रसोई करना आरंभ कर दिया। सुचरिता ने कहा, "मौसी, तुम मुझे जैसे रहने को कहोगी मैं वैसे ही रहूँगी, लेकिन तुम्हारे लिए पानी मैं स्वयं खींचकर लाऊँगी- वह मैं किसी तरह नहीं छोड़ूँगी।"

हरिमोहिनी ने कहा, "बेटी, तुम बुरा मत मानना, लेकिन उसी जल से मुझे ठाकुर का भोग भी तो लगाना होता है।"

सुचरिता ने कहा, "मौसी, क्या तुम्हारे ठाकुर भी जाति मानते हैं? क्या उन्हें भी पाप लगता है- क्या उनका भी समाज है?"

अंत में सुचरिता की निष्ठा के आगे एक दिन हरिमोहिनी को हार माननी ही पड़ी। सुचरिता की सेवा को उन्होंने संपूर्ण भाव से ग्रहण कर लिया। सतीश भी दीदी की देखा-देखी 'मौसी की रसोई खाऊँगा' के मोह में आ गया। इस प्रकार इन तीनों के मिल जाने से परेशबाबू के घर के कोने में अलग एक छोटी-सी गृहस्थी जुट गई। अकेली लिता ही इन दोनों के बीच सेतु-सी बनी रह गई। वरदासुंदरी अपनी और किसी लड़की को इधर फटकने भी न देतीं, लेकिन ललिता को मना कर सकने की हिम्मत उनमें नहीं थी।

गोरा उपन्यास
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