एंगारी  

एंगारी यह शब्द प्राचीन फारस की राजकीय संदेशहर सेवा (रायल कीरियर सर्विस) के नामकरण से प्राप्त हुआ है। वहाँ से ग्रीक और लातिनी में 'दूत' के अर्थ में यह शब्द प्रचलित हुआ।

प्राचीन रोम साम्राज्य तथा मध्यकालीन विधिग्रंथों में, एंगारी सैनिक परिवहन के लिए घोड़े, गाड़ियों इत्यादि स्थल यातायात के साधनों की अर्थना तक ही सीमित था। परंतु कुछ काल बाद, एंगारी के अधिकार की ओट में, युद्धसंलग्न देश, जिनके पास प्रचुर मात्रा में जहाज नहीं होते थे, तटस्थ देशों के व्यापारी जहाजों को, जो उनके बंदरगाहों में उपस्थित होते थे, पकड़ लेते थे तथा अग्रिम भाड़ा देकर उन्हें तथा उनके नाविकों को बाध्य करते थे कि उनकी सेना, गोला बारूद तथा अन्य सामान दूसरी जगह पहुँचा दें।

फ्रांस के लुई 14वीं ने इस अधिकार का बहुत आश्रय लिया। परंतु १७वीं शताब्दी में, अपने जहाजों तथा नाविकों को इस अधिकार से पकड़े जाने से बचाने के लिए, देशों ने संधियाँ कर लीं। इस कारण 18वीं और 19वीं शताब्दियों में यह अधिकार लगभग अव्यावहारिक सा हो गया।

वर्तमान अंतरराष्ट्रीय विधि में एंगारी किसी देश की युद्धकाल में या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह अधिकार प्रदान करता है कि जहाज, हवाईजहाज, रेल का सामान या यातायात के अन्य साधन जो दूसरे देशों के हैं, परंतु उनके अधिक्षेत्र में उपस्थित हैं, अपने काम में ले आए। परंतु उस देश को यातायात के साधनों के उन मालिकों की पूरी क्षतिपूर्ति करनी होगी। किंतु वर्तमान काल में नाविकों या अन्य चालकों की सेवाएँ नहीं प्राप्त की जा सकती हैं।[१]

पहले महायुद्ध में एंगारी के कई दृष्टांत उपस्थित हुए। जमोरा वाद (1916) में, इंगलिस्तान के पुनर्वाद न्यायालय (अपेलेट कोर्ट) ने यह विचार प्रकट किया कि एंगारी का अधिकार उपयोग में लाने के लिए आवश्यक है, कि तटस्थ देश के जहाज या माल की, युद्धरतदेश के बचाव, या युद्धसंपादन अथवा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यकता हो। इसी प्रकार उपर्युक्त न्यायालय ने, कमरशल इस्टेट्स कंपनी ऑव ईजिस्ट बनाम बोर्ड ऑवट्रेड (1925) में निश्चय किया कि एंगारी का अधिकार अंतरराष्ट्रीय विधि में इतनी भली प्रकार स्थापित हो गया है कि वह इंग्लैंड की जनपदीय विधि का भाग बन गया है। मार्च, सन्‌ 1918 में अमरीका, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने एंगारी के आधार पर उन डच जहाजों की माँग कर ली थी जो उस समय उनके बंदरगाहों में थे।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 204 |
  2. सं.ग्रं.-हाल, डब्ल्यू.ई. : ए ट्रीटाइज़ ऑन इंटरनैशनल ला, 1924।

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