इंद्र का अहंकार  

इंद्र ऐरावत हाथी की सवारी करते हुए।

देवताओं के राजा इंद्र के स्वभाव के विषय में भला कौन नहीं जानता। अंहकारी, दंभी और लोभी तो वह हैं ही, दूसरों की उन्नति देखकर जलना उनके स्वभाव की ख़ास विशेषता थी। दूसरे देवताओं को वह अपने से तुच्छ समझते थे। अपनी राजगद्दी के विषय में वह इतने आशंकित रहते थे कि जहाँ कहीं कोई ऋषि−मुनि तपस्या−साधना में बैठा नहीं कि उनकी रातों की नींद उड़ जाती थी कि कहीं कोई साधक भगवान विष्णु को खुश करके उनसे उनका इंद्रासन ही न मांग ले। रसिक इतने थे कि अधिकांश समय रंभा, मेनका और उर्वशी जैसी अप्सराओं के नृत्यों की महफिल सजाए रखते थे। भगवान भोले शंकर और ब्रह्मा जी उन्हें अक्सर समझाते रहते थे कि वे अपने स्वभाव को बदलें, लेकिन इंद्र पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था।


शनिदेव को क्रोध आ गया। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, 'देवराज! मैं आपसे विरोध नहीं बढ़ाना चाहता। फिर भी यदि आप अहंकार में चूर होकर दूसरों को अपमानित करना चाहते हैं, तो सुन लीजिए, कल आपको मेरा भय सताएगा। यहाँ तक कि आप खाना−पीना तक भूल जाएंगे। हो सके तो कल मेरी पकड़ से बचने का उपाय कीजिएगा।'

एक बार नारद मुनि इंद्रपुरी गए। बातचीत होने लगी। नारद जी दूसरे देवताओं के महत्त्व और प्रभाव की चर्चा कर रहे थे। नारद जी बता रहे थे कि दूसरे देवता कितने श्रेष्ठ हैं। उनका अपने−अपने स्थान पर क्या−क्या महत्त्व है, किंतु इंद्र को ये सब बातें बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। दूसरों की महिमा और महत्त्व का बखान सुनकर वह चिढ़ गए और बोले, 'नारद! आख़िर मैं देवराज बनाया गया हूँ तो इसलिए न कि मैं ही सब देवताओं से श्रेष्ठ हूँ। फिर आप क्यों बार−बार दूसरों की प्रशंसा कर रहे हैं? मेरे सामने उनका बखान करना, एक तरह से मेरा अपमान करना ही है। क्या आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?' नारद जी भी नारद जी ही थे। बिना किसी लाग−लपेट के साफ−साफ कहने वाले। उन्हें भला किसकी परवाह थी। वह तो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। अतः देवराज इंद्र की बातें सुनकर व्यंग्य से मुस्कराए और बोले, 'देवराज‍! आप मेरी बातों को अपना अपमान समझते हैं, यह बहुत बड़ी भूल है। वैसे भी, यदि आप सम्मान चाहते हैं, तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए। प्रशंसा उसी को मिलती है जो दूसरों की प्रशंसा करता है। दूसरे देवताओं की निंदा करके और उनको तुच्छ समझकर आप सम्मान नहीं पा सकते। सामने वाले को आइने के समान समझना चाहिए। जैसे शीशे में टेढ़ा मुँह करके देखने पर मुँह टेढ़ा ही दिखाई देता है, उसी प्रकार सामने वाले प्राणी का अपमान करने पर अपमान ही मिलता है और सम्मान करने पर सम्मान। उसी प्रकार यदि सम्मान पाना हो तो सम्मान करना सीखो।' इंद्र को यह बात बुरी लगी। उन्होंने कहा, 'जब मैं राजा बनाया गया हूँ तो दूसरे देवताओं को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा। आख़िर राजा सर्वोपरि होता है।'
नारद जी ने कहा, 'यह आपकी भूल है। आप दूसरे देवताओं को अपनी प्रजा समझते हैं, जबकि वे आपकी प्रजा नहीं, आपके मित्र और साथी हैं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार कीजिए जैसा साथी, मित्रों और सहयोगियों से किया जाता है। बड़प्पन का मद अंत में दुःखदायी होता है। यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि घमंडी का सिर नीचा ही होता है।' 'इसमे घमंड वाली क्या बात है। मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है। मैं वर्षा का स्वामी हूँ। बिना मेरी आज्ञा के एक बूंद पानी नहीं बरस सकता।' अभिमानपूर्ण लहजे में इंद्र ने कहा, 'और जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा। अन्न उत्पन्न नहीं होगा और सारी दुनिया भूख और प्यास से तड़प−तड़पकर मर जाएगी। देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे।' 'आप ठीक कहते हैं।' नारद जी बोले, 'किंतु दूसरे देवताओं का महत्त्व भी कुछ कम नहीं। जिस प्रकार जीवन के लिए जल आवश्यक है, उसी प्रकार अन्य वस्तुओं का महत्त्व भी कुछ कम नहीं−वायु, अग्नि, प्रकाश, इनकी भी उतनी ही महत्ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वरुण देव, अग्नि देव, सूर्य देव सभी देवता अपनी−अपनी शक्तियों के स्वामी हैं। सभी देवता कुछ−न−कुछ कर सकने में समर्थ हैं। आप उनसे मित्रता रखिए, तभी कल्याण है। नहीं तो किसी समय आपदा में पड़ जाएंगे। बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता।'
इंद्र ठठाकर हँस पड़े, 'अजी, जाइये भी! आप ठहरे महात्मा! शंख बजाने और मंजीरे पीटने के सिवा आप और क्या जानें? आप ब्राह्मण हैं, इसलिए इतना डरते हैं। मैं देवता हूँ−क्षत्रिय! मुझे किसका डर?' 'किसी दूसरे का डर चाहे न हो, मगर शनि का भय आपको पहले सताएगा। यदि कुशलता चाहते हो तो शनि देव से बचकर रहें। वह यदि एक बार कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस−नहस कर डालते हैं और जिसे अपनी कृपा का पात्र बना लें, उसके पौ बारह हो जाते हैं।' कहकर नारद जी चल पड़े। इंद्र का अभिमान उन्हें खटक गया था। नारद जी का काम था संसार भर के समाचार इधर से उधर पहुँचाना। यदि उन्हें उस जमाने का चलता−फिरता रेडियो कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। असल में वे देशाटन के प्रेमी और बातूनी थे। इसलिए घूम−फिरकर अपना मन बहलाते थे। वैसे वे बड़े विद्वान् और त्यागी महात्मा थे। तीसरे ही दिन नारद जी शनि लोक में जा पहुँचे। शनि देवता ने उनका स्वागत करते हुए कुशल समाचार पूछा। 'यूं तो सब कुशल मंगल है शनिदेव।' नारद जी ने कहा, 'मगर अपने इंद्रदेव कुछ ज़्यादा ही अहंकारी और घमंडी हो गए हैं। अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं।' कहते हुए उन्हें इंद्र से हुआ अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया। इंद्र के अहंकार का पता पाकर शनिदेव ने कहा, 'आप चिंता न करें। अगले रविवार को बैकुंठ में सभा होगी। वहीं मैं इंद्र से मिलकर उन्हें समझा दूंगा। सारा अहंकार उसी दिन दूर हो जाएगा। अपने सामने दूसरों को तुच्छ समझना तो सचमुच बहुत बुरी बात है।' शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार खटक गया। थोड़ी देर तक इधर−उधर की बातें होती रहीं, फिर नारद जी चले आए।


अगले रविवार को बैकुंठपुरी में देवताओं की सभा हुई। विष्णु उसके सभापति थे। सब देवता आए। उन्होंने अलग−अलग मसलों पर अपने−अपने विचार रखे। शाम होने पर सभा समाप्त हो गई। इसी अवसर पर अचानक शनिदेव और इंद्र देव का आमना−सामना हो गया। शनिदेव तो बड़ी नम्रता और सामान्य रूप से इंद्र से मिले, मगर इंद्र तो अपने ही अहंकार में चूर रहते थे। शनिदेव को देखते ही उन्हें नारद जी की याद आ गई कि शनिदेव से बचकर रहना। बस, उस बात के याद आते ही इंद्र का अहंकार जाग उठा और बिना किसी भूमिका के उन्होंने शनिदेव से कहा, 'शनि जी! सुना है आप किसी का कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन मैं आपसे नहीं डरता। मैं देवराज हूँ। हर बात में आपसे बड़ा हूँ। मेरा आप कुछ नहीं कर सकते।' शनि को बातचीत का ढंग खटका। फिर भी उन्होंने अपने आप को संभालकर कहा, 'मैंने तो आपसे ऐसा कुछ भी नहीं कहा इंद्रराज जो आप इस प्रकार का रूखा व्यवहार मेरे साथ कर रहे हैं। फिर भी समय पर देखा जाएगा कि कौन कितने पानी में है। अभी से मैं क्या कहूँ।' 'समय पर क्या, अभी दिखाइए न! वह समय आप आज ही बुला लीजिए। मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ।' इंद्रदेव अड़ गए मानो व्यर्थ का झगड़ा मोल लेने की ठाने बैठे हों। किसी ने सच ही कहा है−'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' अर्थात्, जब किसी पर बुरा वक़्त आना होता है तो उसकी बुद्धि ख़राब हो जाती है। वह उलटे−सीधे काम करके स्वयं को मुसीबतों और कठिनाइयों में धकेलने की चेष्ठा करता है।

'आप बड़े अहंकारी हैं, देवराज!'
'और आप दूसरों को धमकाया करते हैं। लेकिन मैं फिर कहता हूँ−इंद्र आपसे नहीं डरेगा।'

शनि देवता को क्रोध आ गया। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, 'देवराज! मैं आपसे विरोध नहीं बढ़ाना चाहता। फिर भी यदि आप अहंकार में चूर होकर दूसरों को अपमानित करना चाहते हैं, तो सुन लीजिए−कल आपको मेरा भय सताएगा। यहाँ तक कि आप खाना−पीना तक भूल जाएंगे। हो सके तो कल मेरी पकड़ से बचने का उपाय कीजिएगा।' कहकर शनिदेव तेज़ीसे एक ओर चले गए। इंद्र ने फिर उसी तरह अपमान भरी हँसी हँसकर कहा, 'मैं भी देखता हूँ कि आप भी कितने पानी में हैं।' इसी प्रकार बड़बड़ाते हुए वह इंद्रलोक की तरफ प्रस्थान कर गए। उस रात इंद्र को बड़ा भयानक स्वप्न दिखाई दिया, जैसे कोई काला−कलूटा विकराल दैत्य मुँह फैलाए उन्हें निगल जाना चाहता हो। सवेरे नींद से उठकर उन्होंने सोचा, 'उस भयानक स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है? क्या पता, कि यह शनि की ही कोई करतूत हो। अवश्य ही वह आज मुझे कोई चोट पहुँचाने की चेष्ठा कर सकता है। इसलिए मुझे किसी ऐसी जगह छिप जाना चाहिए जहाँ वह मुझे ढूँढ़ ही न सके।' ऐसा विचार कर उन्होंने झटपट कपड़े बदलकर भिखारी का वेश बनाया और जंगल की ओर निकल गए। किसी को इस बात की भनक भी न पड़ने दी कि वह किस उद्देश्य से कहाँ और क्यों जा रहे हैं। यहाँ तक कि अपनी पत्नी इंद्राणी को भी उन्होंने इस संदर्भ में कुछ नहीं बताया। किसी को इस विषय में कुछ भी न बताने का कारण भी था। इंद्र को यह बात मालूम थी कि मेरे स्वभाव और व्यवहार से कई देवता रूठे रहते हैं। इसलिए उन्हें शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि वे सब शनि की सहायता करने लगें। उस दशा में मैं अकेला हो जाऊँगा। बस, इस विचार के उठते ही उनका साहस छूट गया और वे भयभीत होकर जंगल के घने भाग में जा घुसे।


अब तक एक पहर दिन चढ़ आया था। इंद्र ने सोचा−आख़िर जब शनि ने मुझे चुनौती दी है, तो मेरी खोज भी करेंगे। बिना मुझे खोजे तो वह मेरा कुछ बिगाड़ ही नहीं सकते, लेकिन मुझे खोजने में भी वह कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उसके लिए भले ही उन्हें धरती−आकाश एक करना पड़े। अरे हाँ, आकाश के नाम पर ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि आकाश मार्ग से उड़ते हुए वह मुझे यहाँ देख लें। इसलिए किसी झाड़ी में छिपकर बैठना चाहिए। आस−पास झाड़ियाँ तो थीं, पर उनमें भी दिखाई देने की आशंका थी। हारकर इंद्र ने एक पुराने पेड़ की कोटर में शरण ली। पेड़ बहुत बड़ा था। उसका कोटर गुफ़ा जैसा चौड़ा और गहरा था। इंद्र उसी में छिपकर बैठ गए। उन्होंने सोचा− 'शनि देवता लाख सिर पटकें, मुझे किसी भी सूरत में अब नहीं खोज पाएंगे। चींटी को भी पता नहीं चल सकता कि मैं यहाँ छिपा बैठा हूँ। फिर शनि की तो बिसात ही क्या है। शनि का अहंकार आज ही मिट जाएगा। व्यर्थ ही उन्होंने सारे संसार को डरा रखा है।' उधर शनि देवता न कहीं आए, न कहीं गए । धमकी देने के समय उन्होंने केवल अपनी छाया भर इंद्र पर डाल दी थी, बस। वह अपना काम करते रहे। इंद्र कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। उन्हें अपनी शक्ति पर पूरा विश्वास था। वह जानते थे कि इंद्र चाहे जहाँ जाएं, मेरी छाया अपना प्रभाव अवश्य डालेगी और ऐसा हो भी रहा था। शनि के बिना कुछ किए−धरे इंद्र की शांति भंग हो चुकी थी। अपनी सुरक्षा के चक्कर में खाना तो क्या, उन्हें पानी पीने तक की सुध नहीं थी। बात केवल दिन भर की ही थी। जब सूरज डूब गया और रात आने लगी, तब इंद्र कोटर से बाहर निकले। चौकन्नी निगाहों से इधर−उधर देखा। कहीं कोई न था। समझ गए कि या तो शनिश्चर इधर आए ही नहीं, और अगर आए भी हांगे तो झख मारकर लौट गए होंगे। आख़िर मुझे खोजना इतना आसान कहाँ था। मेरी गंध तो हवा तक को नहीं मिली; शनि की क्या गिनती है। यही सब सोचते हुए इंद्र मन−ही−मन खुश हो रहे थे और होते भी क्यों नहीं, अपनी समझ के अनुसार तो उन्होंने शनिदेव को धोखा दे दिया था। अब तो उन्हें उस क्षण का इंतज़ार था कि कब शनिदेव से भेंट हो और वह उन्हें अपमानित करें। उनका उपहास उड़ाएँ।

अँधेरा बढ़ता जा रहा था। इंद्र ने अंगड़ाई लेकर देह को एक झटका दिया और जल्दी−जल्दी अपने इंद्रलोक की ओर चल दिए। दूसरे दिन सुबह ही उनका सामना शनिदेव से हो गया। शनिदेव उन्हें देखकर अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए। इंद्रदेव उनकी मुस्कान में छिपे व्यंग्य को न समझ सके और विजय के मद में चूर होकर बोले, 'कहिए शनि देवता! कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके। अब तो कोई संदेह नहीं है कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है?' शनि देवता ठठाकर हँस पड़े। शनिदेव को इस प्रकार हँसते देखकर इंद्रदेव झुंझला उठे और कुढ़कर बोले, 'आपको हँसी आ रही है। लेकिन आपकी जगह पर कोई दूसरा होता तो शरम के मारे मुँह छिपा लेता। आपने कल बड़े ताव से मुझे पकड़ लेने की चुनौती दी थी; लेकिन पकड़ना तो दूर, आप मुझे छू भी न सके। क्या यही आपका सामर्थ्य है? इसी के बल पर आप फूले−फूले फिरते हैं। दरअसल, नारद जैसे लोगों ने आपको बेवजह सिर चढ़ा रखा है और ये ही आपका नाम लेकर दूसरों को डराते रहते हैं। आपमें कितना बल है, यह मैं देख चुका हूँ।' शनि ने हँसते हुए उत्तर दिया, 'आप जैसे बुद्धिमान को कौन समझाए कि आप हारे और मैं जीता, फिर भी आप मुझे धिक्कार रहे हैं। जाकर किसी को यह सारी घटना सुनाइए, तब पता चलेगा कि आप कितने बुद्धिमान और साहसी हैं।' इंद्र ने आँखे निकाल कर पूछा, 'क्या कहा, मैं हार गया हूँ? कैसे? आप अपनी विजय का प्रमाण तो दीजिए। ख़ाली कह देने से क्या होता है। इस प्रकार तो मैं भी कह सकता हूँ कि विजय मेरी हुई है। कल का पूरा दिन निकल गया, आख़िर क्या बिगाड़ पाए आप मेरा? आप मेरा बाल तक बांका नहीं कर सके। पूरी तरह स्वस्थ और निश्चिंत आपके सामने खड़ा हूँ।' 'अगर ऐसी बात है तो सुनो−पहले परसों मेरे द्वारा कहे शब्दों पर गौर करिए......।' शनि ने कहा, 'मैंने कहा था कि कल आप खाना−पीना भूल जाएंगे। वही बात हुई। आप मेरे भय से पेड़ के कोटर में छिपे रहे। दिन भर न खाया, न पीया। आपने मारे भय के बाहर झांका तक नहीं। यह मेरी छाया का ही प्रभाव था जो मैंने आप पर उसी समय डाल दी थी जब परसों हमारी भेंट हुई थी। मुझमें इतनी शक्ति है कि स्वयं न जाकर अपनी छाया से ही किसी को पकड़ लेता हूँ। उसी छाया के प्रभाव से आप डरकर भागे और दिन भर बिना कुछ खाए−पिए कोटर में छिपे रहे। जिसे आप अपनी बुद्धिमानी समझते हैं, वह मेरा भय था। यदि भय न होता, तो राजभवन छोड़कर कोटर में जाकर छिपने का क्या कारण था? अरे, भय के मारे तो आपने अपनी पत्नी इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया। जरा सोचो कि जब मेरी छाया ने ही इतने कौतुक दिखा दिए तो यदि मैं प्रत्यक्ष रूप से कुपित हो जाता तो क्या होता?'

इंद्र का सिर नीचा हो गया। हाथ जोड़कर बोले, 'मेरा अहंकार दूर हो गया शनि देवता! सचमुच, आप मुझसे अधिक समर्थ और प्रभावशाली हैं। मुझे मेरी धृष्टता के लिए क्षमा करें। नारद जी ने सत्य ही कहा था, आप बड़े बलशाली हैं।' शनि देवता ने हँसकर इंद्र को गले से लगा लिया और बोले, 'महाराज इंद्र! घमंडी का सिर हमेशा नीचा होता है। इंसान हो या देवता, उसे कभी घमंड नहीं करना चाहिए।'


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